"श्रुतुलै शास्त्रमुलै, पुराण कथलै सुज्ञानसारम्बुलै
यति लोकागम वीथुलै विविध मंत्रार्थम्बुलै नीतुलै.
कृतुलै वेंकटशैल वल्लभ रति क्रीड़ा रहस्यम्बुलै
नुतुलै तालुलपाक अन्नय वचो नूत्मक्रियलु चेन्नगुन्."
(संकीर्तन लक्षणमु 12)
यति लोकागम वीथुलै विविध मंत्रार्थम्बुलै नीतुलै.
कृतुलै वेंकटशैल वल्लभ रति क्रीड़ा रहस्यम्बुलै
नुतुलै तालुलपाक अन्नय वचो नूत्मक्रियलु चेन्नगुन्."
(संकीर्तन लक्षणमु 12)
(ताल्लपाक अन्नमाचार्य के पद स्वयं ही श्रुतियाँ हैं, शास्त्र और पुराण कथाएँ हैं. इनमें सुज्ञानसार के साथ-साथ लोकागम की विधियाँ भी निहित हैं तथा सभी मंत्रों का अर्थ भी संग्रहीत है. ये पद नुति (भगवान की स्तुति), नीति और सत्कार्य के रूप में हैं. ये पद श्री वेंकटेश्व्र की रहस्यमय शृंगार लीलाओं से युक्त हैं. - चिनतिरुमलाचार्य)
तेलुगु पदकविता पितामह, संकीर्तनाचार्य और हरिकीर्तनाचार्य आदी नामों से अभिहित अन्नमाचार्य (1424 - 1502) का जन्म ‘कडपा’ जिले के ‘ताल्लपाक’ नामक गाँव में हुआ था. इनके जन्म और मृत्यु की तिथियों के संबंध में विद्वानों में मतभेद है लेकिन यदि अन्नमाचार्य के अध्यात्म संकीर्तनों के ताम्रपत्र 1 में अंकित पद को ही प्रामाणिक माना जाए तो इसके अनुसार अन्नमाचार्य का जन्म शक वर्ष 1346 (9.5.1424 ई.) क्रोधी संवत्सर वैशाख शुद्ध पूर्णिमा विशाखा नक्षत्र में और वैकुंठवास शक वर्ष 1424 (1502 ई.) दुंदुभी संवत्सर फाल्गुण कृष्ण द्वादशी (23.2.1502) को हुआ था.
अन्नमाचार्य नारायण सूरी और लक्कमांबा के ज्येष्ठत पुत्र थे. कहा जाता है कि श्री वेंकटेश्व र की कृपा से लक्कमांबा के गर्भ से वेंकटेश्वंर के खड्ग ‘नंदक’ ने ही अन्नमाचार्य के रूप में जन्म लिया. अतः अन्नमाचार्य बाल्यावस्था से ही बालाजी के अनन्य भक्त थे.
‘अन्नमाचार्य चरित्र’ में चिन्नन्ना ने लिखा है कि अन्नमैया ने योग, वैराग्य और श्रृंगार के बत्तीस हजार संकीर्तन (पद) रचे थे. पर आज इन पदों में से केवल चौदह हजार संकीर्तन ही उपलब्ध हैं. तिरुमल तिरुपति देवस्थानम् ने इन पदों को सुरक्षित किया है और इनका प्रकाशन भी किया है. श्रीरंगम तथा अहोबिलम् जैसे अन्य क्षेत्रों में भी अन्नमाचार्य के पदोंवाले ताम्रपत्र पाए जाते हैं.
अन्नमाचार्य की रचना का प्रधान स्रोत तमिल भाषा में आलवार भक्तोंर द्वारा रचित ‘नालायिर दिव्य प्रबंधम्’ (चार हजार पदों का संग्रह) है. हरिकीर्तनाचार्य (अन्नमाचार्य) के संकीर्तनों को दो रूपों में विभाजित किया गया है - अध्यात्म संकीर्तन और शृंगार संकीर्तन. इन संकीर्तनों में उन्होंने बालाजी (तिरुपति) की स्तुति की हैं.
अन्नमाचार्य संकीर्तनों में अध्यात्म, वात्सल्य, संयोग एवं वियोग शृंगार के साथ - साथ लोरियाँ भी हैं और तीज -त्यौहार, ऋतु, शादी, वेश-भूषा, खान-पान आदि से संबंधित लोकगीत भी हैं. अन्नमैया के पदों में लोक प्रचलित शब्दावली तथा व्यावहारिक शैली का प्रयोग अधिक पाया जाता है. बोलचाल की भाषा को अपनाने से अन्नमाचार्य की रचनाएँ मुहावरों व लोकोक्तिोयों के भंडार लगती हैं.
अन्नमाचार्य की कविता एवं गायन कला से प्रभावित होकर राजा नरसिंहराय ने अन्नमाचार्य को अपने यश का वर्णन करने का आदेश दिया. बचपन से लेकर अन्नमैया ने सिर्फ भगवान की स्तुति की थी अतः उन्होंने यह कहकर साफ इनकार कर दिया कि ‘मुकुंद स्मर्ण को अर्पित मेरी जिह्वा तुम्हारा यश नहीं गा सकती.’ क्रोधित राजा ने उनको कैद करने की आज्ञा दी लेकिन श्री वेंकटेश्वार की कृपा से वे इस विपत्ति से विमुक्तो हुए.
विशिष्टा.द्वैत सिद्धांत के अनुसार परमात्मा नित्य परिपूर्ण है और सगुण भी है. उसके सूक्ष्म और स्थूल दोनों रूप होते हैं. परमात्मा का सूक्ष्म रूप चित् और अचित् से युक्ती है तो स्थूल रूप जगत् और जीव से. वही अंतर्यामी है. इस सृष्टि का कर्ता, धर्ता और भोक्ता है. वह सब जगह उपस्थित है. अतः अन्नमाचार्य कहते हैं- "परमात्मुडु सर्व परिपूर्णुडु / सुरुलकु नरुलकु चोटयि युन्नाडु II / तनुवुलु मोचियु तलपुलु देलिसियु / एनसियु एनयक इट्लुन्नाडु I/ चेनकि मायकु मायै जीवुनिकि जीवमै / मोनसि पूसल दारमु वले नुन्नाडु II / वेवेलु विधमुलै विश्वक मेल्ला नोकटै / पूवुलु वासन वले पोंचि युन्नाडु I / भाविंच निराकारमै पट्टिाते साकारमै / श्री वेंकटाद्रि मीद श्रीपतै युन्नाडु II "(अ.सं. 6 - 232) (परमात्मा परिपूर्ण है. वही सुरों और नरों का आश्रय है. वह इन सबका वहन करता है और सबका मन जानता है लेकिन सब कुछ जानकर भी अनजान बनता है. वह माया की माया है और जीव का जीव. वह फूल में सुगंध की तरह सर्वत्र व्याप्तण है. निराकार और साकार ब्रह्म वेंकटाचल पर श्रीपति के रूप में अवतरित है.)
अन्नमाचार्य के संकीर्तनों में नायिका के रूप में श्री वेंकटेश्व र की देवी अलमेलमंगा (पद्माूवती, लक्ष्मी) को चुना गया है. नायिका के रूप एवं स्वभाव को व्यक्ते करते हुए वे कहते हैं "कलिकि नी कनुचूपु कलुव रेकुल पूज / ललन नी नगवु मोल्लल पूज" (अ.सं. 12 - 15) (सखी, तुम देखते हो तो कमल दलों से पूजा होती है और तुम मुस्कुराते हो तो कुसुमों से.)
अन्नमैया जाति - पाँति के विरोधी थे. उनके मतानुसार तो यह सब व्यर्थ है ("विजातु लन्नियु वृथा - वृथा / अजामिलादुल कदयि जाति" ; अ.सं.गा.15) क्योंकि हम सब एक ही धरती पर जीते हैं और सबका मालिक एक है. अतः वे कहते हैं कि "कडलेनि नी भक्तिम कलिगिते चालु / कडजन्म मयिना निक्कपु विप्रकुलमें II" (मन में भगवान के प्रति भक्तिड भावना हो तो निम्न वर्ण के होने पर भी उच्च होते हैं.) मनुष्य़ अपने स्वार्थ साधने के लिए जाति की दीवार खड़ा कर दिया है. अन्नमैया तो कहते हैं कि "मेंडैन ब्राह्मणुडु मेट्टुं भूमि ओकटे / चंडालुडु उन्डेटि सरि भूमि ओकटे" (ब्राह्मण भी इसी धरती पर अपना कदम रखता है और चांडाल भी उसीके समान ही इसी धरती पर अपना कदम रखता है. अर्थात् ब्राह्मण और चांडाल दोनों का निवास (आधार) एक ही है) तो फिर इस जाति भेद का क्या मतलब है?
23 फरवरी अन्नमाचार्य की पुण्यतिथि है. इस अवसर पर उनका स्मरण करते हुए हम भारत से जातिप्रथा के उन्मूलन की कामना करते हैं.