सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

‘भंगियों का गाँव’ के प्रणेता उन्नव लक्ष्मीनारायण




श्रीरामुलु और शेषम्मा दंपति के पुत्र उन्नव लक्ष्मीनारायण (1877-1950) का जन्म 4 दिसंबर, 1877 को गुंटूर जिले के वेमुलूरूपाडु नामक गाँव में हुआ था। तेलुगु साहित्य जगत में उन्नव लक्ष्मीनारायण ‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव; 1921) के लेखक के रूप में प्रसिद्ध हैं।

अमीनाबाद और गुंटूर में अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरा करने के बाद उन्नव लक्ष्मीनारायण 1913 में बैरिस्टर की शिक्षा प्राप्‍त करने के लिए इंग्लैंड गए। 1916 में भारत वापस लौटकर गुंटूर और चेन्नै में वकालत शुरू की। राष्‍ट्रपिता महात्मा गाँधी के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया।

समाज सुधारक कंदुकूरी वीरेशलिंगम पंतुलु से प्रभावित होकर उन्नव ने विधवा पुनर्विवाह को प्रोत्साहित किया। तत्कालीन समाज में बाल विवाह और अनमेल विवाह की प्रथा प्रचलित थी जिसके कारण कच्ची उम्र में ही अनेक लड़कियों को वैधव्य का बोझ ढोना पड़ता था। विधवाओं के उद्धार हेतु उन्होंने 1905 में गुंटूर में ‘वितंतु शरणालयमु’ (विधवा शरणालय) की स्थापना की।

उन्न्व लक्ष्मीनारायण यह मानते थे कि स्त्री सशक्‍तीकरण के अभाव में समाज की समृद्धि नहीं हो सकती। स्त्री जब तक अपने अधिकारों से अनभिज्ञ रहेगी तब तक उसका शोषण होता ही रहेगा। अपने अधिकारों को पहचानने एवं समाज में अपनी अस्मिता को कायम रखने के लिए सबसे पहले स्त्री का शिक्षित होना आवश्‍क है। स्त्री को सशक्‍त बनाने के उद्धेश्‍य से उन्नव ने 1921 में ‘शारदा निकेतन’ की स्थापना की। उनकी पत्‍नी लक्ष्मीबाईयम्मा ने भी अपने पति के आथ मिलकर समाज सेवा की। स्वतंत्रता संग्राम में ‘शारदा निकेतन’ ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

1921 में उन्नव लक्ष्मीनारायण ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ जाकर पलनाडु के किसानों की सहायता की जिसके कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। जेल में रहकर ही उन्होंने ‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव; 1921) उपन्यास का सृजन किया। प्रकाशन के साथ ही तेलुगु साहित्य जगत में इस उपन्यास ने अपना एक सुनुश्चित स्थान बना लिया।

‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव) तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों का दस्तावेज है। इसमें लेखक ने ब्रिटिश शासन काल में आंध्र प्रदेश की दशा और दिशा का अंकन किया है। ब्रिटिश शासन की वास्तविकता के साथ साथ ब्रिटिश शासन के द्वारा किए जाने वाले आर्थिक शोषण, शिक्षा के प्रसार, स्त्रियों की स्थिति, जमींदारों द्वारा किसानों के शोषण और दमन, सरकारी मामलों में फैले अत्याचार, रिश्‍वतखोरी, भ्रष्‍टाचार आदि का चित्रण भी इस उपन्यास में अंकित है। वस्तुतः इस उपन्यास में उन्नव ने राष्‍ट्रीय चेतना को अभिव्यक्‍त करने की कोशिश की थी जिसके लिए उन्हें सरकार का कोपभाजन बनना पड़ा।

‘मालपल्ली’ में लेखक की समाजवादी विचारधारा परिलक्षित है जो प्रगतिशीलता पर आधारित है। इस उपन्यास के माध्यम से लेखक ने यह संदेश देने का प्रयास किया है कि ‘जिस समाज में गरीबों, शोषितों और दलितों के लिए स्थान नहीं है, वह समाज उस घर के समान है जिसकी बुनियाद कमजोर है। मानवता को हमेशा कुचलना संभव नहीं है। समता जीवन का आधार है। यही एक ऐसी दशा है, जो समाज को स्थिर रख सकती है।’ जागृति अन्याय को सहन नहीं कर सकती। लेखक ने जिस राजनैतिक क्रांति को उपन्यास में चित्रित किया है, वह तत्कालीन समय की सामाजिक विसंगतियों, वर्ग वैषम्य, वर्ण व्यवस्था एवं शोषण से प्रभावित था। लेखक एक ऐसी व्यवस्था चाहते थे जिससे पूर्ण समाजवाद की स्थापना हो सके और परस्पर समानता एवं सहयोग की भावना जन्म ले सके।

यह सर्वविदित है कि भारतीय संस्कृति में वर्णाश्रम की व्यवस्था है। हिंदू धर्म के चार प्रधान वर्ण हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्‍य और शूद्र। यह वर्गीकरण कर्म पर आधारित है। उनमें शूद्र का कर्म है सेवा करना। शूद्र जाति में निम्न कोटि के लोगों को शामिल किया गया है। उनमें भी अलग अलग शाखाएँ हैं जिनमें हरिजन भी शामिल हैं। आंध्र समाज के हरिजनों में माला, मादिगा, तोगटा, दासरी और पाकी आदि अनेक शाखाएँ हैं। दुर्भाग्य की बात है कि वर्ण व्यवस्था के विकृत हो जाने के कारण उन्हें अग्र वर्णों की गुलामी करनी पड़ती है तथा इन्हें अछूत कहकर मुख्य गाँव से दूर रखा जाता है। इनकी बस्तियाँ गाँव से कुछ दूरी पर होती हैं। आज भी गाँवों में इन्हें अग्र वर्णों के शोषण का शिकार होना पड़ रहा है। स्वतंत्रता पूर्व भी इनकी स्थिति बदहाल थी और आज भी वैसी ही है।

नियोगी ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने पर भी उन्नव लक्ष्मीनारायण दलितों और शोषितों के पक्षधर थे। अतः उन्होंने ‘मालपल्ली’ (भंगियों का गाँव) में भंगी जीवन की नारकीय वास्तविकताओं का बहुत सटीक और संवेदनापूर्वक अंकन किया है। लेखक ने ‘मालपल्ली’ में कर्मयोग के सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इस उपन्यास का मूल स्वर सेवा और त्याग के साथ साथ अस्पृश्‍यता निवारण है।

‘मालपल्ली’ सामाजिक एवं राजनैतिक उपन्यास है। इसका कथानक आँध्र के मंगलापुरम गाँव से संबंधित है। गाँधी जी के सत्याग्रह आंदोलन के प्रभाव से इस गाँव में क्रांति शुरू हुई। वस्तुतः मंगलापुरम 1850 से लेकर 1922 तक के आंध्र प्रदेश की सामाजिक और राजनैतिक स्थितियों को प्रतिबिंबित करने में समर्थ है।

मंगलापुरम गाँव में सिर्फ अग्रवर्ण और निम्न वर्ण हिंदू ही नहीं, बल्कि मुसलमान भी थे। गाँववाले अपनी अपनी वृत्तियों में लगे रहते थे। गाँव के अग्रवर्ण - रेड्डी, नायुडु, करणम आदि मुखिया बने रहते थे। रेड्डी, कम्मा, कापू, बलिजा आदि जातियाँ भूमिहार थीं। रेड्डी को मुनसुब भी कहते थे। इन लोगों का मुख्य काम होता था - गाँव का देखभाल करना, लड़ाई झगड़ों में न्याय करना, पुलिस मामलों में साक्षीस बनना, आदि। मंगलापुरम के चौधरय्या, मुनसुब, शास्त्री, करणम आदि धनिक और ग्राम देवताओं के प्रतिनिधि थे। सारे गाँव में इनका ही राज्य चलता था। इनके खिलाफ कोई आवाज नहीं उठा सकता था। यदि कोई इनके खिलाफ जाता था तो उसे अपनी जिंदगी से हाथ धोना पड़ता था। ये लोग हरिजनों को अपने गुलाम समझते थे और उनका शोषण करते थे। हरिजन स्त्रियों की स्थिति और भी दयनीय थी। जिस तरह प्रेमचंद ने अपने पात्र रूरदास (रंगभूमि; 1925) के माध्यम से समाज को चेताया है उसी तरह उन्नव लक्ष्मीनारायण ने अपने पात्र रामदासु (मालपल्ली; 1921) के माध्यम से दलित, शोषित और पीड़ित जनता को चेताया है। हरिजन पात्र संगमदासु के माध्यम से उन्होंने गाँधी विचारधारा को रेखांकित किया है। इसलिए ‘मालपल्ली’ उपन्यास को ‘संग विजयम’ नाम से भी जाना जाता है। लेखक ने इस उपन्यास में आंचलिक भाषा का प्रयोग किया है। कथानक, भाषा, परिवेश और उद्धेश्‍य की दृष्‍टि से भी यह उपन्यास अत्यंत उल्लेखनीय माना जाता है। इस उपन्यास में चित्रित मंगलापुरम गाँव सिर्फ आंध्र प्रदेश तक सीमित नहीं है, अपितु वह संपूर्ण भारत वर्ष में व्याप्‍त है। 1921 की सामाजिक परिस्थितियों अर्थात भंगी जीवन की नारकीय विसंगतियाँ आज भी विद्‍यमान हैं। अतः यह उपन्यास आज भी प्रासंगिक है।

उन्न्व लक्ष्मीनारायण की अन्य कृतियों में ‘पलनाटी वीरा चरित्रा’ (पलनाडु का इतिहास), ‘नायकुरालु’ (नायिका), ‘भावतरंगालु’ (भावतरंग) आदि उल्लेखनीय हैं।

80 वर्ष की आयु में अर्थात 25 सितंबर, 1950 को उन्नव लक्ष्मीनारायण का निधन हुआ। तेलुगु साहित्य जगत में उन्नव लक्ष्मीनारायण कृत ‘मालपल्ली’ मील का पथर है।

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

एक समाजोद्धारक की जीवनी से परिचित कराने के लिए आभार। कहीं कहीं राजा राममोहन राय की झलक भी दिखाई देती है लक्ष्मीनारायण जी में। शायद देश के सभी स्थानों पर सामाजिक परिस्थिति एक जैसी थी।