मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012

नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य


"महासिद्ध मैं, मैं नागार्जुन

अष्ट धातुओं के चूरे की छाई में मैं फूँक भरूँगा

देखोगे, सौ बार मरूँगा

देखोगे, सौ बार जीऊँगा.

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हिंसा मुझसे थर्राएगी

मैं तो उसका खून पीऊँगा

प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का

जन जन में जो ऊर्जा भर दे, उद्गाता हूँ मैं उस रवि का." (नागार्जुन)


जनाक्रोश और लोक करुणा से निष्पन्न प्रतिहिंसा ही नागार्जुन की शक्ति है. नागार्जुन ने अपना एक समाज निर्मित किया है जो जन साधारण से बना है. वे घुमक्कड़ कवि और रचनाकार हैं. उनकी रचनाओं में उनके अनुभव का संसार दिखाई पड़ता है.

पिछले वर्ष अर्थात 2011 में हम नागार्जुन की जन्म शताब्दी मना चुके हैं. डा त्रिवेणी झा की शोधपूर्ण समीक्षा कृति के प्रकाशन को नागार्जुन शताब्दी समारोहों की ही एक कड़ी माना जा सकता है. 

मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद द्वारा प्रकाशित डा.त्रिवेणी झा की 322 पृष्ठ का महाकाय ग्रंथ 'नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य' नागार्जुन को रस्मी रवायती नजरिये से अलग नए अवलोकन बिंदु से देखने वाला ग्रंथ है. इसमें संदेह नहीं कि नागार्जुन की मूल्यदृष्टि ही उनकी कविता को सही अर्थ में भारतीय कविता बनाती है. प्रो.सुवास कुमार जी ने बहुत संक्षेप में इस ग्रंथ के बारे में यह बहुत सटीक टिप्पणी की हैं कि "नागार्जुन काव्य के महत्वपूर्ण अध्येता डा.त्रिवेणी झा मिथिलांचल से आने के कारण बहुत निकटता से उस काव्य की जड़ों को और तमाम विशेषताओं को पहचान सके हैं. 'नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य' नामक उनका यह शोधकार्य अन्य हिंदी शोध प्रबधों की लीक से हटकर है. दर्शन, समाजशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र, मनोविज्ञान आदि अंतर अनुशासनों की विपुल सहायता लेकर वे नागार्जुन काव्य के जीवन मूल्यों की पहचान और पड़ताल करते हैं. डा. झा अपने व्यापक अध्ययन के मार्फत हमें बताते हैं कि नागार्जुन जीवन के गहरे प्रेम के कवि हैं.सामाजिक सरोकारों के बड़े कवि हैं. उनकी जड़ें संस्कृत, पाली, प्राकृत, बंगला, मैथिली तक फैली हैं. कालिदास और विद्यापति की विरासत को वे अपने युग से जोड़कर बहुत आगे बढाते हैं. वे श्रेष्ठ कवि भी हैं और जनकवि भी. डा.झा की कृति नागार्जुन के जन्म शताब्दी वर्ष में प्रकाशित हो रही है अतः इसका महत्व और भी बढ़ जाता है." 

डा.त्रिवेणी झा ने इस ग्रंथ के विषय प्रवेश के अंतर्गत मूल्यों की संकल्पना और परंपरा का विवेचन किया है और यह दर्शाया है कि आधुनिक युग मूल्य विघटन का युग है अतः मूल्य मीमांसा आज की पहली जरूरत है. इसके उपरांत काव्य और जीवन मूल्य के अंतः संबंध की पड़ताल की गई है.

नागार्जुन और उनके काव्य पर विचार करते हुए लेखक ने उनके जीवन में मूल्यों की भूमिका को भी रेखांकित किया है और सिद्ध किया है कि प्रगतिशील जीवन मूल्य नागार्जुन के लिए बहस या सिद्धांत चर्चा का मुद्दा नहीं बल्कि जीवन जीने का ढंग है. उनके काव्य की मूल्य उन्मुखता के संबंध में डा.झा का यह निष्कर्ष द्रष्टव्य है कि "नागार्जुन के काव्य में व्याप्त मूल्यों का मूल चरित्र यह है कि वे स्वानुभूति से उपजे हैं. चाहे रिक्शाचालक के बिवाइयाँ फटे पैर हों या छोटे बच्चे की दंतुरित मुस्कान या फिर रवि ठाकुर – नागार्जुन के लिए सभी काव्यसत्य हैं. व्यंग्य को अपनी कविता का आधार बनाना नागार्जुन के मूल्यधर्मिता का ही उदाहरण है. सच्चा व्यंग्य करुणा से उपजता है और करुणा से बढ़कर तीव्र अनुभूति और क्या होगी?" 

आगे नागार्जुन के काव्य के मूल्य संसार की विवेचना परिवार, समाज, सामान्य जन, आत्म, विश्व, दर्शन और राजनीति के सन्दर्भ में की गई है और यह दिखाया गया है कि नागार्जुन मूल्य की दृष्टि से कबीर और निराला की परंपरा के जन कवि हैं तथा जन का मूल्य संसार ही उनके काव्य में पुनर्रचित मूल्य संसार का आधार है.

विवेच्य ग्रंथ में लेखक ने विस्तारपूर्वक राजनैतिक, सामाजिक, दार्शनिक, धार्मिक, सौंदर्य सम्बन्धी, नैतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के समावेश की दृष्टि से नागार्जुन के काव्य का गहन विवेचन किया है. इससे नागार्जुन की मूल्य चेतना तो उभरकर सामने आई ही है, यह भी स्पष्ट हुआ है कि उनके जैसा सिद्धहस्त साहित्यकार अपनी रचनाओं में उपदेशात्मकता से बचते हुए किस प्रकार जीवन मूल्यों को समाविष्ट करता है और सहज ही कला की ऊंचाइयों को छू लेता है. इसमें संदेह नहीं कि यह कृति इस तथ्य को स्थापित करने में सफल रही है कि नागार्जुन के समस्त रचना संसार के पीछे एक अनन्य लोक हृदय धडक रहा है जो सर्वहारा के जीवन सत्य को जीवन मूल्य का स्रोत बनाता है. 

'नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य' शीर्षक शोध ग्रंथ के लोकार्पण के अवसर पर मैं इसके लेखक डा. त्रिवेणी झा को बधाई देती हूँ. मुझे विश्वास है कि उनकी इस कृति का हिंदी जगत में व्यापक स्वागत होगा. 

  • नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य/ डा.त्रिवेणी झा/ 2012 (प्रथम संस्करण)/ मिलिंद प्रकाशन, 4-3-178/2,कन्दास्वामी बाग, हनुमान व्यायामशाला की गली, सुलतान बाजार, हैदराबाद – 500 095/ पृष्ठ – 322/ मूल्य – रु.400 

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

वृहद ग्रंथ पर अच्छी समीक्षा के लिए आभार।