“मैं
हज़ारों बार अपराध के शिकार
को भुगत चुकी हूँ.
कभी राह चलते
कभी खुले मैदान में
कभी गली में
कभी घर में भीतर घुसकर
बलात्कार का राहु
कच्ची और पकी उम्र के प्रति बेपरवाह
होकर
मेरे जीवन को ग्रहण लगा देता है.’ (इंदु जोशी)
16 दिसंबर 2012 का काला दिन हम भारतीयों के लिए शर्म के दिन के रूप में अंकित हो गया है. आएदिन बलात्कार का शब्द संपूर्ण वातावरण में गूँज रहा है. चाहे प्रत्यूषा हो या आएशा, अनन्या हो या अरुणा या फिर दामिनी हो या निर्भया. नाम, आयु कुछ भी हो पर जंगल बन चुके समाज में स्त्री की नियति एक समान है. बलात्कार के इस दैत्य के चंगुल में फँसकर स्त्री अपने आपको निस्सहाय और मजबूर पा रही है. भले ही एक ओर यह कहा जा रहा है कि यह सदी स्त्री शक्तीकरण की सदी है; आज स्त्री सशक्त है, आत्मनिर्भर है और पुरुषवर्चस्ववादी समाज से टक्कर ले रही है आदि.... आदि... आदि.... पर क्या यह सच है? सच में स्त्री मुक्त है? सशक्त है? तो फिर वातावरण में क्यों गूँजते हैं बलात्कार, कन्याभ्रूण हत्या और वधू दहन? जब जब इस तरह की घटनाएँ घटती हैं तब तब संसद में, मीडिया में और भाषणों में बहस चलती रहती है. पर कुछ नहीं किया जाता. अगले ही दिन समाचार पत्र में एक और नई सनसनीखेज खबर – ‘एक और महिला का सामूहिक बलात्कार’, ‘पाँच वर्षीय नाबालिग पर अत्याचार’, ‘पिता की हवस का शिकार ......’ कुछ निहित स्वार्थ वाले तत्व तो इन घटनाओं को राजनैतिक खेल बना लेते हैं. विपक्ष सत्ता पक्ष पर कीचड़ उछालने में कोई कसर नहीं छोड़ता और सत्ता जनता के सिर सारा अपराध मढ़ देती है.
दिल्ली में एक युवती के बर्बर बलात्कार की नृशंस घटना ने संपूर्ण देश को झकझोर दिया है. युवा पीढ़ी सड़कों पर उतर आई लेकिन क्या हुआ! आज भी नित्यप्रति इस तरह की खबरों से अखबार भरे हुए हैं. स्त्री के प्रति समाज के असम्मानपूर्ण और अमर्यादित आचरण पर चिंता व्यक्त करते हुए विष्णु प्रभाकर (जिनकी इस वर्ष शताब्दी है) ने 1992 में ही अपने उपन्यास ‘अर्द्धनारीश्वर’ में यह प्रश्न किया था कि ‘क्यों भरे रहते हैं हर रोज दैनिक पत्र बलात्कार की शर्मनाक घटनाओं से? क्यों बुद्धिजीवी हर क्षण बहस करते हैं इस शब्द को लेकर? देश की संसद में भी गूँजता रहता है यही एक शब्द बार-बार, पर कहीं कुछ होता क्यों नहीं? शब्द, शब्द और शब्द. क्रिया के बिना शब्द का अस्तित्व सार्थक हुआ है क्या? शायद ऐसा तो नहीं कि ये शर्मनाक घटनाएँ पढ़कर हमें दर्द के स्थान पर एक रोमांचक अनुभूति होती है, ‘काश हम न हुए’ की मुद्रा में. इसलिए और भी कि प्रमाण के अभाव में अधिकांश अभियुक्त साफ़ छूट जाते हैं....’
आज तक यही पाया गया है कि अपराधी हमेशा प्रत्यक्षदर्शी गवाह न होने के कारण गिरफ्तार होने पर भी छूट जाता है. इतना ही नहीं समाज से डर कर भी लोग इस जघन्य अपराध को छिपा लेते हैं ताकि उनकी इज्जत बची रहे. पुलिस भी यही सलाह देती है कि ‘वह दोषी है’ – यह प्रमाणित करने के लिए आपकी बेटी/ पत्नी को जिस यातना में से गुजरना होगा उसको सह पाएगी वह....?’ समाज की छद्म नैतिकता के कारण शिकार भी चुप रहा जाता है और शिकारी तो बेबाक घूमता रहता ही है और फिर किसी अबला का शिकार करता है. विष्णु प्रभाकर इस छद्म नैतिकता पर तीखा प्रहार करते हैं – ‘जैसा हमारा समाज है, हमारे संस्कार हैं, उसमें और हो ही क्या सकता था? ... कैसी है हमारी नैतिकता ! इनसानियत के प्रति इतना बड़ा जघन्य अपराध केवल इस छद्म नैतिकता के कारण दंडित हुए बिना रह गया. कौन तोड़ेगा नैतिकता के इस आत्मघाती चक्रव्यूह को...?’
क्या कभी किसी ने उस स्त्री के बारे में सोचा होगा जिसका शिकार किया गया है ! जिसका कोई अपराध नहीं है. पर यह समाज उसे अपराधी बनाता है. जिसका बलात्कार हुआ उसी को सजा मिलती है. अपमान के घूँट पीने के लिए उसे मजबूर किया जाता है. ‘अर्द्धनारीश्वर’ में विष्णु प्रभाकर ने पम्मी के माध्यम से उस स्त्री की व्यथा को उजागर किया है जो यौन हिंसा का शिकार है – ‘समाज की नीति-नैतिकता, शास्त्र में पाप-पुण्य की व्याख्या, नर-नारी के संबंध में यह भावना पैबस्त कर दी थी कि कुछ अघटित घट गया है और जो कुछ घटित हुआ है वह पाप है. ऐसा पाप जिसका प्रतिकार नहीं हो सकता. मुझे अपराधिनी उस दरिंदे ने नहीं बनाया बल्कि मेरे समाज ने बनाया. भीतर से मैं जिसे स्वीकार नहीं कर सकी थी, वही मुझ पर थोप दिया गया. जिसके प्रति अपराध किया गया, सजा भी उसी को मिली. आहत, अपमानित मैं किसी की करुणा की अधिकारिणी भी नहीं रह गई. .... कितना बड़ा संसार है मेरे भीतर दर्द से सना ! किसी को दिखा भी नहीं सकती, किसी की सहानुभूति भी नहीं चाह सकती. ..... उस आत्मग्लानि से मैं काँप–काँप उठती हूँ, इसलिए नहीं कि कोई मुझे दोषी समझता है बल्कि इसलिए कि मैं स्वयं अपने को इस दोष से मुक्त क्यों नहीं कर पा रही, समाज को झटक क्यों नहीं देती?’
देश भर में जो आंदोलन स्वतःस्फूर्त चल रहा है वह दर्शाता है कि आज की पीढ़ी इस दोष से मुक्त होना चाहती है. वह जीना चाहती है. तन और मन पर हुए घावों से वह उबरना चाहती है. वह उस आत्मग्लानि से बाहर निकलना चाहती है. अपराधी को सजा दिलाना चाहती है. दामिनी ने भी तो बार-बार यही माँग की थी कि वह जीना चाहती है. उन दरिंदों को सजा दिलाना चाहती है. पर वह बच नहीं सकी. अगर बच भी जाती तो उसने जो अमानुषिक आचरण झेला-भुगता है, वह आजीवन बार-बार उसके अंतस को कुरेदता रहता. वह अंदर अंदर ही दमघोंटू तनाव में जीने लगती. अब अंत होना चाहिए इस दमघोंटू तानाव का. यदि दामिनी जीवित बच जाती तो वह इस बड़े सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रस्थान बिंदु और प्रेरणा बन सकती थी.
‘अर्द्धनारीश्वर’ की सुमिता भी कहती है, ‘अपने को खोल देना चाहती हूँ. उतार फेंकना चाहती हूँ, संस्कारों के धुएँ की चादर को.’ पुरुष यही कहता है कि ‘बात अंततः तुम पर है, तुम्हारी अपनी शक्ति और तुम्हारी अपनी क्षमता पर है. तुम गिरोगी, समाज तुम्हें रौंदता चला जाएगा. तुम खड़ा होना चाहेगी, मैं तुम्हारे साथ रहूँगा. तुममें चलने का संकल्प होगा तो मेरी शक्ति तुम्हें अजेय कर देगी.’ यह सही है कि युवा पीढ़ी इस छद्म नैतिकता से, संकीर्ण मानसिकता से बाहर निकलना चाहती है. संकीर्ण रूढ़ियों से मुक्त होना चाहती है. पर क्या कभी यह मुक्ति मिल सकेगी? विशेष रूप से स्त्री को.
बलात्कार के कई कारण हो सकते हैं. काम वासना भी हो सकता है और बदले की भावना भी. बलात्कारी पुरुष की मानसिकता का विश्लेषण करते हुए विष्णु प्रभाकर यह टिप्पणी करते हैं कि ’जो कुछ उन्होंने किया वह केवल वासना का खेल नहीं था. वासना तो निमित्त मात्र थी बदला लेने की. हाँ, मूल में इस जघन्य कृत्य के पीछे इंतकाम लेने की कामना थी, संपन्न और सत्ता-भोगी वर्ग से इंतकाम लेने की कामना.’ इस तरह हर दिन किसी-न-किसी रूप में स्त्री को यौन उत्पीड़न का सामना करना ही पड़ता है और जाने किस-किस के बदले चुकाने पड़ते हैं.
समाजशास्त्रियों और मनोवैज्ञानिकों ने ध्यान दिलाया है कि दामिनी के साथ घटित राक्षसी घटना ने युवा पीढ़ी में अपराध के खिलाफ़ लड़ने का जज्बा भर दिया है. दिल्ली से लेकर गली गली तक आम जनता न्याय माँगते हुए सड़कों पर उतर आई. पुलिस के दमन के बावजूद पीछे हटने को भी तैयार नहीं हुई. युवा पीढ़ी ने इस बार सरकार को हिला दिया. घबराहट में सरकार ने क़ानून में बदलाव लाने की बातें आरंभ कर दीं. इतना ही नहीं सामूहिक बलात्कार की जाँच के लिए न्यायिक आयोग गठित किए गए और सार्वजनिक बसों की संख्या बढ़ाने आदि जैसे फैसले लिए गए. लोगों के गुस्से को थामने के लिए अपराधियों को कड़ी-से-कड़ी सजा दिलाने का वादा भी किया गया है. फिर भी लोगों का गुस्सा थमा नहीं. क्योंकि जब जब ऐसी घटनाएँ घटती हैं तब तब सरकार वादा करती है, अखबारों में मोटी-मोटी सुर्ख़ियों में खबर को प्रकाशित किया जाता है और कुछ दिन बाद भुला भी दिया जाता है.
इसीलिए विष्णु प्रभाकर का यह प्रश्न प्रासंगिक हो उठाता है कि ‘नारी कब तक ढोती रहेगी इस अभिशाप को? कोई भी क़ानून स्त्री को तब तक बंधन मुक्त नहीं कर सकता जब तक वह स्वयं ही बंधन मुक्त न हो जाए. इसी प्रकार पुरुष भी अधिकार जमाने की आदतों के होते हुए तब तक दासता से मुक्त नहीं हो सकता जब तक वह अपने अंदर की सारी दासता से मुक्त न हो जाए....’ शताब्दियों से स्त्री को सरस्वती, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा आदि कहकर उसे लुभाकर बेजुबान बना दिया गया और उसकी तमाम यातना को बलिदान कह कर गौरवान्वित किया गया. दूसरी ओर उसे वस्तु बनाकर बेचा, खरीदा, सजाया और रौंदा गया. देवीकरण और वस्तुकरण दोनों ही स्थितियाँ स्त्री को मनुष्य के रूप में न जीने देने वाली स्थितियाँ हैं. यह बात आज अगर स्त्री की समझ में आ रही है तो इसे नए समाज की आहट समझा जाना चाहिए और इन जगी हुई आवाजों का सम्मान किया जाना चाहिए क्योंकि पुराने विधि-विधान और पुरानी स्मृतियाँ आज के संदर्भ में अर्थहीन हैं. आज नई स्मृतियों और नई संहिताओं की जरूरत है. सब कुछ बदलना होगा, सारे समाज की मानसिकता को बदलना होगा.