होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला अद्भुत पर्व है. यह पर्व फाल्गुन माह की पूर्णिमा को मनाया जाता है. इसलिए इसे फाल्गुनी भी कहते हैं. इस पर्व को फगुआ भी कहते हैं. इस पर्व के मुख्य अंग हैं – राग और रंग. इतना ही नहीं रागरंजित प्रकृति भी इस अवसर पर अपने उत्कर्ष पर रहती है. यह हर्ष और उल्लास का पर्व है. आनंद का पर्व है. इसमें प्रेम, उमंग, हर्षोल्लास, मस्ती के साथ साथ अपनत्व और भाईचारे के रंग घुल मिल जाते हैं. वास्तव में “रंग अपने आस-पास की चीजों से हमारी पहचान बनाते हैं. नीला आकाश, हरी-भरी वनस्पतियाँ, लाल, पीले फूल; क्या रंगों की पहचान के बिना हमारे मन में इनकी ‘पहचान’ बन पाती? रंग हमारे मन और हमारी मानसिकता की पहचान के आधार भी बन जाते हैं. ‘वह बड़ा रंगीन आदमी है’ या ‘उसके रंग निराले हैं’ कहते ही कुछ खास अर्थ उस आदमी के व्यक्तित्व के खुलने लगते हैं. जब ‘लाल’ अनुराग से, पीला ‘कृश’ से, सफ़ेद ‘शांति या उदासी’ से, हरा ‘जीवन या ताजगी’ से, केसरिया ‘त्याग और बलिदान’ से और काला ‘दुष्कृत्य’ से जोड़कर कुछ नए अर्थ-संदर्भ देने लगते हैं तो हमें रंगों की मनोवैज्ञानिक तथा समाजशास्त्रीय व्याख्या की ओर मुड़ने की जरूरत महसूस होती है.” (प्रो.दिलीप सिंह, संपादकीय, पूर्णकुंभ, मार्च 2000)
प्रकृति में रंगों की संख्या असीमित है अतः भाषाओं में भी बड़ी संख्या में रंगों की शब्दावली मिलती है, जिसका निरंतर विकास होता रहता है. ‘लाल’ रंग के ही बहुत शेड्स हैं जैसे – लाल, टमाटरी, महावरी, गाजरी, रक्तिम, सुर्ख तथा खूनी. इसी तरह हरे के लिए हरा, मूंगिया, धानी, हरित, मेंहदी, अंगूरी, तोतिया तथा पीले के लिए पीला, गेंदाई, बसंती, हल्दी, सुनहरी गेरुआ. इसी तरह नीला, भूरा, सफेद, बैंगनी, गुलाबी, नारंगी, सलेटी, काला आदि के अनेक शेड्स उपलब्ध हैं.
रंगों के शेड्स निर्मित करने में समाज का स्थान महत्वपूर्ण है. ये रंग हमारे जीवन के अभिन्न अंग हैं. इन रंगों के पीछे हमारी सांस्कृतिक अस्मिता भी जुड़ी हुई है. होली पर्व इन्हीं रंगों का पर्व है. भारतीय साहित्य भी इस पर्व से अछूता नहीं रहा. उल्लेखनीय है कि आदिकालीन साहित्य से लेकर समसामयिक साहित्य तक में किसी-न-किसी रूप में होली का वर्णन अवश्य मिलता है. चाहे वह राधा-कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम से भरी होली हो या प्राकृत नायक-नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली हो. फाल्गुन माह के फाग भरे रस से कोई अछूता नहीं रह सकता. जायसी भी कहते हैं -
“कँवल सहाय चलीं फुलवारी. फर फूलन्ह कै इंछा बारीं [1]
आपु आपु महँ करहिं जोहारू. यह बसंत सब कर तेवहारू [2]
चही मनोरा झूमक होई. फर औ फूल लेइ सब कोई [3]
फागु खेलि पुनि दाहब होली. सेतब खेह उड़ाउब झोली [4]
आजु साज पुनि देवस न दूजा. खेलि बसंत लेहु दें पूजा [5]
भा आएसु पदुमावति करा. बहुरि न आइ करब हम फेरा [6]
तस हम कहँ होइहि रखवारी. पुनि हम कहाँ कहाँ यह बारी [7]
पुनि रे चलब घर आपुन पूजि बिसेसर देऊ [8]
जेहिका होइ हो खेलना आजु खेलि हँसि लेउ [9]” (जायसी, पद्मावत, बसंत खंड)
(1. कमल रूप पद्मावती के साथ फुलवाड़ी रूपी सखियाँ चलीं. वे बालाएँ फल फूलों के लिए उत्सुक थीं. 2. आपस में एक दूसरे को प्रणाम करती और कहती थीं, ‘यह वसंत सबका त्यौहार है.’ 3. मनोरा झूमक फाग गाना चाहिए. सब कोई फल फूल ले लो. 4. फाग खेलकर फिर होली जलाएँगीं और धूल बटोरकर झोली भर-भर उदाएँगीं. 5. आज उत्सव करो, फिर दूसरा दिन न मिलेगा. देव को पूजा देकर वसंत खेलो. 6. पद्मावती की आज्ञा हुई है कि फिर यहाँ हम घूमने न आएँगीं. 7. हमारे ऊपर ऐसी कड़ी देखभाल रहेगी. फिर कहाँ हम और कहाँ यह बगीची होगी? 8. विश्वेश्वर देव को पूजकर सबको फिर अपने घर चलना होगा. 9. हे सखियो, जिस किसी को खेलना हो आज मन भरकर हँस खेल लो.)
होली के समय में प्रकृति भी बासंती पंचमी के गीत गाने लगती है. होली के रंग में रंग जाने की चाहत सब में होती है. इसीलिए घनानंद भी कहते हैं -
“होरी के मदमाते आए, लागौ हो मोहन मोहिं सुहाए.
चतुर खिलारिन बस करि पाए, खेलि-खेल सब रैन जगाए.
दृग अनुराग गुलाल भराए, अंग-अंग बहु रंग रचाए.
अबीर-कुमकुमा केसरि लैके, चोबा की बहु कींच मचाए.
जिहिं जाने तिहिं पकरि नँचाए, सबरस फगुवा दै मुकराए.
‘घनानंद’ रस बरसि सिराए, भली करी हम ही पै छाए.” (घनानंद, होरी के मदमाते आए)
सूरदास यूँ कहते हैं –
प्रकृति में रंगों की संख्या असीमित है अतः भाषाओं में भी बड़ी संख्या में रंगों की शब्दावली मिलती है, जिसका निरंतर विकास होता रहता है. ‘लाल’ रंग के ही बहुत शेड्स हैं जैसे – लाल, टमाटरी, महावरी, गाजरी, रक्तिम, सुर्ख तथा खूनी. इसी तरह हरे के लिए हरा, मूंगिया, धानी, हरित, मेंहदी, अंगूरी, तोतिया तथा पीले के लिए पीला, गेंदाई, बसंती, हल्दी, सुनहरी गेरुआ. इसी तरह नीला, भूरा, सफेद, बैंगनी, गुलाबी, नारंगी, सलेटी, काला आदि के अनेक शेड्स उपलब्ध हैं.
रंगों के शेड्स निर्मित करने में समाज का स्थान महत्वपूर्ण है. ये रंग हमारे जीवन के अभिन्न अंग हैं. इन रंगों के पीछे हमारी सांस्कृतिक अस्मिता भी जुड़ी हुई है. होली पर्व इन्हीं रंगों का पर्व है. भारतीय साहित्य भी इस पर्व से अछूता नहीं रहा. उल्लेखनीय है कि आदिकालीन साहित्य से लेकर समसामयिक साहित्य तक में किसी-न-किसी रूप में होली का वर्णन अवश्य मिलता है. चाहे वह राधा-कृष्ण के बीच खेली गई प्रेम से भरी होली हो या प्राकृत नायक-नायिका के बीच खेली गई अनुराग और प्रीति की होली हो. फाल्गुन माह के फाग भरे रस से कोई अछूता नहीं रह सकता. जायसी भी कहते हैं -
“कँवल सहाय चलीं फुलवारी. फर फूलन्ह कै इंछा बारीं [1]
आपु आपु महँ करहिं जोहारू. यह बसंत सब कर तेवहारू [2]
चही मनोरा झूमक होई. फर औ फूल लेइ सब कोई [3]
फागु खेलि पुनि दाहब होली. सेतब खेह उड़ाउब झोली [4]
आजु साज पुनि देवस न दूजा. खेलि बसंत लेहु दें पूजा [5]
भा आएसु पदुमावति करा. बहुरि न आइ करब हम फेरा [6]
तस हम कहँ होइहि रखवारी. पुनि हम कहाँ कहाँ यह बारी [7]
पुनि रे चलब घर आपुन पूजि बिसेसर देऊ [8]
जेहिका होइ हो खेलना आजु खेलि हँसि लेउ [9]” (जायसी, पद्मावत, बसंत खंड)
(1. कमल रूप पद्मावती के साथ फुलवाड़ी रूपी सखियाँ चलीं. वे बालाएँ फल फूलों के लिए उत्सुक थीं. 2. आपस में एक दूसरे को प्रणाम करती और कहती थीं, ‘यह वसंत सबका त्यौहार है.’ 3. मनोरा झूमक फाग गाना चाहिए. सब कोई फल फूल ले लो. 4. फाग खेलकर फिर होली जलाएँगीं और धूल बटोरकर झोली भर-भर उदाएँगीं. 5. आज उत्सव करो, फिर दूसरा दिन न मिलेगा. देव को पूजा देकर वसंत खेलो. 6. पद्मावती की आज्ञा हुई है कि फिर यहाँ हम घूमने न आएँगीं. 7. हमारे ऊपर ऐसी कड़ी देखभाल रहेगी. फिर कहाँ हम और कहाँ यह बगीची होगी? 8. विश्वेश्वर देव को पूजकर सबको फिर अपने घर चलना होगा. 9. हे सखियो, जिस किसी को खेलना हो आज मन भरकर हँस खेल लो.)
होली के समय में प्रकृति भी बासंती पंचमी के गीत गाने लगती है. होली के रंग में रंग जाने की चाहत सब में होती है. इसीलिए घनानंद भी कहते हैं -
“होरी के मदमाते आए, लागौ हो मोहन मोहिं सुहाए.
चतुर खिलारिन बस करि पाए, खेलि-खेल सब रैन जगाए.
दृग अनुराग गुलाल भराए, अंग-अंग बहु रंग रचाए.
अबीर-कुमकुमा केसरि लैके, चोबा की बहु कींच मचाए.
जिहिं जाने तिहिं पकरि नँचाए, सबरस फगुवा दै मुकराए.
‘घनानंद’ रस बरसि सिराए, भली करी हम ही पै छाए.” (घनानंद, होरी के मदमाते आए)
सूरदास यूँ कहते हैं –
“हरि संग खेलति हैं सब फाग।
इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।।
डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग।
अति आनन्द मनोहर बानि गावत उठति तरंग।।
एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छांडि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि।।
मिली दस पांच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाई।
भरि अरगजा अबीर कनक घट, देतिं सीस तैं नाईं।।
छिरकतिं सखि कुमकुम केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि।
सोभित हैं तनु सांझ समै घन, आये हैं मनु पूरि।।
दसहूं दिसा भयो परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद।
सुर बिमान कौतुहल भूले, निरखत स्याम बिनोद।“ (सूरदास)
तुलसीदास ने ‘गीतावली’ में फाग का वर्णन इस प्रकार किया है –
” खेलत बसंत राजाधिराज। देखत नभ कौतुक सुर समाज।।
सोहैं सखा अनुज रघुनाथ साथ। झोलन्हि अबीर पिचकारि हाथ।।
बाजहिं मृदंग डफ ताल बेनु। छिरकै सुगंध-भरे-मलय रेनु।।
उत जुवति जूथ जानकी संग। पहिरे तट भूषन सरस रंग।।
लिए छरी बेंत सोधे बिभाग। चाँचरि झूमक कहैं सरस राग।।
नूपुर किंकनि धुनि अति सोहाइ। ललनागन जब जेहि धरइँ धाइ।।
लोचन आँजन्हि फगुआ मनाई। छाँड़हिं नचाइ हाहा कराइ।।
चढ़े खरनि विदूषक स्वांग साजि। करैं कटि निपट गई लाज भाजि।
नर-नारि परसपर गारि देत। सुन हँसत राम भइन समेत।।
बरबस प्रसून बर बिबुध बृंद। जय जय दिनकर-कुल-कुमुद-चंद।।
ब्रह्मादि प्रसंसत अवध बास। गावत कल कीरति तुलसिदास।।“ (तुलसीदास, गीतावली)
मीरां के पदों में भी होली के रंग की छटा दीख पड़ती है –
“फागुन के दिन चार होली खेल मना रे ।।
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे ।
बिन सुर राग छतींसूं गावै रोम रोम रणकार रे ।।
सील संतोख की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे ।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे ।।
घटके सब पट खोल दिए हैं लोकलाज सब डार रे ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे ।।“ (मीरां, फागुन के दिन चार होली खेल मना रे)
वस्तुतः फागुन का यह त्यौहार हँसी और ठिठोली का त्यौहार है. रसखान के पदों में भी होली की उमंग द्रष्टव्य है–
“फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है।।
सांझ सकारे वहि रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है।
कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटु बिहिं मान बच्यौ है।। (रसखान)
प्राचीन कवियों ने फागुन माह और होली की मादकता का सजीव चित्रण अपने रस भरे शब्दों में किया है. आधुनिक साहित्यकार भी इस संदर्भ में पीछे नहीं हैं. भारतेंदु हरिश्चंद्र के शब्दों में –
“मेरे जिय की आस पुजाऊ पियरवा होरी खेलन आओ।
फिर दुर्लभ ह्वै हैं फागुन दिन आऊ गरे लगि जाओ।।
गाइ बजाइ रिझार रंग करि अबिर गुलाल उड़ाओ।
‘हरिचंद’ दुःख मेटि काम को घर तेहवार मनाओ।।“ (भारतेंदु हरिश्चंद्र, होली)
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ कहते हैं कि –
”खेलूँगी कभी न होली
उससे जो नहीं हमजोली ।
यह आँख नहीं कुछ बोली,
यह हुई श्याम की तोली,
ऐसी भी रही ठठोली,
गाढ़े रेशम की चोली-
अपने से अपनी धो लो,
अपना घूँघट तुम खोलो,
अपनी ही बातें बोलो,
मैं बसी पराई टोली ।
जिनसे होगा कुछ नाता,
उनसे रह लेगा माथा,
उनसे हैं जोडूँ-जाता,
मैं मोल दूसरे मोली.”
बौराई आम्रमंजरियों और फूलते पलाश की महक के साथ हर किसी का मन बौरा जाता है. होली मस्ती और उल्लास का त्यौहार है. फाग हो या फिल्मी गीत - होली के रंगों की अनेक छटाओं से भरे पड़े हैं. समाजभाषावैज्ञानिक प्रो.दिलीप सिंह की बातों में कहें तो ‘हमारा जीवन सुख-दुःख के सफ़ेद-काले रंगों के उतार-चढ़ाव का नाम है.’ वस्तुतः इन्हीं दो मूलभूत रंगों के कम या ज्यादा मिलाने से रंगों की अनेक छटाएँ उभरती हैं. होली इसी का द्योतक है. बस हमें इनमें से सही रंगों को पहचानना है और अपनी जिंदगी में अपनत्व और भाईचारे के रंग भरने हैं.
इहिं मिस करति प्रगट गोपी: उर अंतर को अनुराग।।
सारी पहिरी सुरंग, कसि कंचुकी, काजर दे दे नैन।
बनि बनि निकसी निकसी भई ठाढी, सुनि माधो के बैन।।
डफ, बांसुरी, रुंज अरु महुआरि, बाजत ताल मृदंग।
अति आनन्द मनोहर बानि गावत उठति तरंग।।
एक कोध गोविन्द ग्वाल सब, एक कोध ब्रज नारि।
छांडि सकुच सब देतिं परस्पर, अपनी भाई गारि।।
मिली दस पांच अली चली कृष्नहिं, गहि लावतिं अचकाई।
भरि अरगजा अबीर कनक घट, देतिं सीस तैं नाईं।।
छिरकतिं सखि कुमकुम केसरि, भुरकतिं बंदन धूरि।
सोभित हैं तनु सांझ समै घन, आये हैं मनु पूरि।।
दसहूं दिसा भयो परिपूरन, सूर सुरंग प्रमोद।
सुर बिमान कौतुहल भूले, निरखत स्याम बिनोद।“ (सूरदास)
तुलसीदास ने ‘गीतावली’ में फाग का वर्णन इस प्रकार किया है –
” खेलत बसंत राजाधिराज। देखत नभ कौतुक सुर समाज।।
सोहैं सखा अनुज रघुनाथ साथ। झोलन्हि अबीर पिचकारि हाथ।।
बाजहिं मृदंग डफ ताल बेनु। छिरकै सुगंध-भरे-मलय रेनु।।
उत जुवति जूथ जानकी संग। पहिरे तट भूषन सरस रंग।।
लिए छरी बेंत सोधे बिभाग। चाँचरि झूमक कहैं सरस राग।।
नूपुर किंकनि धुनि अति सोहाइ। ललनागन जब जेहि धरइँ धाइ।।
लोचन आँजन्हि फगुआ मनाई। छाँड़हिं नचाइ हाहा कराइ।।
चढ़े खरनि विदूषक स्वांग साजि। करैं कटि निपट गई लाज भाजि।
नर-नारि परसपर गारि देत। सुन हँसत राम भइन समेत।।
बरबस प्रसून बर बिबुध बृंद। जय जय दिनकर-कुल-कुमुद-चंद।।
ब्रह्मादि प्रसंसत अवध बास। गावत कल कीरति तुलसिदास।।“ (तुलसीदास, गीतावली)
मीरां के पदों में भी होली के रंग की छटा दीख पड़ती है –
“फागुन के दिन चार होली खेल मना रे ।।
बिन करताल पखावज बाजै अणहदकी झणकार रे ।
बिन सुर राग छतींसूं गावै रोम रोम रणकार रे ।।
सील संतोख की केसर घोली प्रेम प्रीत पिचकार रे ।
उड़त गुलाल लाल भयो अंबर, बरसत रंग अपार रे ।।
घटके सब पट खोल दिए हैं लोकलाज सब डार रे ।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर चरणकंवल बलिहार रे ।।“ (मीरां, फागुन के दिन चार होली खेल मना रे)
वस्तुतः फागुन का यह त्यौहार हँसी और ठिठोली का त्यौहार है. रसखान के पदों में भी होली की उमंग द्रष्टव्य है–
“फागुन लाग्यो जब तें तब तें ब्रजमण्डल में धूम मच्यौ है।
नारि नवेली बचैं नहिं एक बिसेख यहै सबै प्रेम अच्यौ है।।
सांझ सकारे वहि रसखानि सुरंग गुलाल ले खेल रच्यौ है।
कौ सजनी निलजी न भई अब कौन भटु बिहिं मान बच्यौ है।। (रसखान)
प्राचीन कवियों ने फागुन माह और होली की मादकता का सजीव चित्रण अपने रस भरे शब्दों में किया है. आधुनिक साहित्यकार भी इस संदर्भ में पीछे नहीं हैं. भारतेंदु हरिश्चंद्र के शब्दों में –
“मेरे जिय की आस पुजाऊ पियरवा होरी खेलन आओ।
फिर दुर्लभ ह्वै हैं फागुन दिन आऊ गरे लगि जाओ।।
गाइ बजाइ रिझार रंग करि अबिर गुलाल उड़ाओ।
‘हरिचंद’ दुःख मेटि काम को घर तेहवार मनाओ।।“ (भारतेंदु हरिश्चंद्र, होली)
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ कहते हैं कि –
”खेलूँगी कभी न होली
उससे जो नहीं हमजोली ।
यह आँख नहीं कुछ बोली,
यह हुई श्याम की तोली,
ऐसी भी रही ठठोली,
गाढ़े रेशम की चोली-
अपने से अपनी धो लो,
अपना घूँघट तुम खोलो,
अपनी ही बातें बोलो,
मैं बसी पराई टोली ।
जिनसे होगा कुछ नाता,
उनसे रह लेगा माथा,
उनसे हैं जोडूँ-जाता,
मैं मोल दूसरे मोली.”
बौराई आम्रमंजरियों और फूलते पलाश की महक के साथ हर किसी का मन बौरा जाता है. होली मस्ती और उल्लास का त्यौहार है. फाग हो या फिल्मी गीत - होली के रंगों की अनेक छटाओं से भरे पड़े हैं. समाजभाषावैज्ञानिक प्रो.दिलीप सिंह की बातों में कहें तो ‘हमारा जीवन सुख-दुःख के सफ़ेद-काले रंगों के उतार-चढ़ाव का नाम है.’ वस्तुतः इन्हीं दो मूलभूत रंगों के कम या ज्यादा मिलाने से रंगों की अनेक छटाएँ उभरती हैं. होली इसी का द्योतक है. बस हमें इनमें से सही रंगों को पहचानना है और अपनी जिंदगी में अपनत्व और भाईचारे के रंग भरने हैं.
दिगंबर खेलें मसाने में होरी
खेलें मसाने में होरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.
भूत पिशाच बटोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.
लखि सुंदर फागुनी छटा के
मन से रंग गुलाल हटा के
चिता भस्म भर झोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.
गोप न गोपी श्याम न राधा
ना कोई रोक ना कवनो बाधा
अरे ना साजन ना गोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.
नाचत गावत डमरूधारी
छोड़े सर्प गरल पिचकारी
पीटें प्रेत थपोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.
भूतनाथ की मंगल होरी
देखि सिहायें बिरज की छोरी
धन धन नाथ अघोरी, दिगंबर खेलें मसाने में होरी.
3 टिप्पणियां:
होली की शुभकामनाएँ मैडम जी।।
होली का साहित्य में वर्णन आपके पढाई का सूक्ष्म दर्शन कराता है। हिंदी साहित्य में होली का बडी बारिकी से चित्रण है आपने अपने ब्लॉग पाठकों के लिए उसका परिचय करवाया; अतः एक हिंदी प्रेमी के नाते आपका आभार।
drvtshinde.blogspot.com
होली का साहित्य में वर्णन आपके पढाई का सूक्ष्म दर्शन कराता है। हिंदी साहित्य में होली का बडी बारिकी से चित्रण है आपने अपने ब्लॉग पाठकों के लिए उसका परिचय करवाया; अतः एक हिंदी प्रेमी के नाते आपका आभार।
drvtshinde.blogspot.com
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