“मेरे उस ओर आग है,
मेरे इस ओर आग है,
मेरे भीतर आग है,
मेरे बाहर आग है,
इस आग का अर्थ जानते हो ?
क्या तपन, क्या दहन,
क्या ज्योति, क्या जलन,
क्या जठराग्नि-कामाग्नि,
नहीं! नहीं!!!
ये अर्थ हैं कोष के, कोषकारों के
जीवन की पाठशाला के नहीं,
जैसे जीवन,
वैसे ही आग का अर्थ है,
संघर्ष,
संघर्ष - अंधकार की शक्तियों से
संघर्ष - अपने स्वयं के अहं से
संघर्ष - जहाँ हम नहीं हैं वहीं बार-बार दिखाने से
कर सकोगे क्या संघर्ष ?
पा सकोगे मुक्ति, माया के मोहजाल से ? (विष्णु प्रभाकर, आग का अर्थ)
अपनी इस कविता में विष्णु प्रभाकर (21 जून, 1912 – 11 अप्रैल, 2009) ने इंसानियत और जीवन संघर्ष का चित्र प्रस्तुत किया है. उन्होंने समकालीन समाज पर व्यंग्य कसते हुए कहा है कि आज का मनुष्य प्रतिपल ‘रघुपति राघव राजा राम’ का भजन तो करता है लेकिन आज के परिप्रेक्ष्य में उसका अर्थ हो गया है ‘चोरी हिंसा तेरे नाम’ –
“हम नेताओं के वंशज
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम प्रतिपल भजते
रघुपति राघव राजा राम
होते हैं जिसके अर्थ
चोरी हिंसा तेरे नाम.” (वही)
आज निर्विकार निरपेक्ष भाव से जातिवाद का पोषण किया जा रहा है. इसी दोगले आचरण का एक उदाहरण यह भी है कि एक ओर बलात्कार बढते जाते हैं तो दूसरी ओर ब्रह्मचर्य की गुहार लगाई जाती हैं. इसी बात पर विष्णु प्रभाकर कहते हैं कि –
“हम
हम प्रतिभा के वरद पुत्र
हम सिद्धहस्त आत्मगोपन में
हम दिन भर करते बलात्कार
देते उपदेश ब्रह्मचर्य का
हर संध्या को” (वही)
विष्णु प्रभाकर आक्रोश व्यक्त करते हुए कहते हैं कि यदि मनुष्य माया के मोहजाल से मुक्ति नहीं पा सकेगा तो ज्वालामुखियों की लपलपाती लपटें आदमी और आदमीयत के वजूद को लील जाएँगी –
“पा सकोगे तो आलोक बिखेरेंगी ज्वालाएँ
नहीं कर सके तो
लपलपाती लपटें-ज्वालामुखियों की
रुद्ररूपा हुंकारती लहरें सातों सागरों की,
लील जाएँगी आदमी
और
आदमीयत के वजूद को.
शेष रह जाएगा, बस वह
जो स्वयं नहीं जानता
कि
वह है, या नहीं है ।“ (वही)
‘आवारा मसीहा’ के लेखक के रूप में प्रसिद्ध विष्णु प्रभाकर को भारतीय वाग्मिता और अस्मिता को व्यंजित करने वाला साहित्यकार माना जाता है. उनके लेखन में और रहन-सहन में भारतीय समाज और संस्कृति मुखरित है. उन्हें भारतीय साहित्य के महान स्रष्टा कह सकते हैं. इसमें दो राय नहीं. वे प्रखर आस्थावादी थे. अतः मानव के प्रति आस्था उनके साहित्य का विशिष्ट स्वर है. उनके सामने शताब्दियों से पराधीन तथा पिछड़े भारतीय जन की टूटती अस्मिता थी. उनकी दृष्टि में व्यक्ति की स्वाधीनता की सुरक्षा ही महत्वपूर्ण है. इसीलिए वे कहते हैं, “प्रत्येक राष्ट्र को अपनी स्वतंत्रता के लिए युद्ध करने का अधिकार है. उस जन्मजात अधिकार को संसार का कोई नियम, कोई कानून, कोई विधान नहीं छोड़ सकता.” (विष्णु प्रभाकर, स्वाधीनता का संग्राम (नाटक), पृ.112).
विष्णु प्रभाकर ने निरंतर भारतीयता को ही ध्यान में रखकर साहित्य सृजन किया. इसीलिए भारत का वर्तमान और भविष्य, उसकी सुरक्षा और सम्मान, भारतीय जनता के हित-अहित के प्रति सतर्क दृष्टि विष्णु प्रभाकर के साहित्य में परिलक्षित है. उन्होंने देशविभाजन की त्रासदी को निकट से देखा और भोगा था अतः उनके साहित्य में इस भीषण त्रासदी की पृष्ठभूमि में इंसानियत की तलाश दिखाई देती है. अपनी कहानी ‘धरती का स्पर्श’ में उन्होंने यह प्रश्न किया है कि देशविभाजन के बाद भारत से पाकिस्तान जाने वाले मुसलमानों को क्या मिला? यह कहानी बताती है कि ऐसे लोगों को बरसों तक रिफ्यूजी बन कर रहना पड़ा फिर भी वे दिल का सुकून नहीं पा सके. उन्होंने अपने एक पाकिस्तान गए पात्र के माध्यम से इस यथार्थ को बखूबी उजागर किया है. देखें –
“बताया गया था कि पाकिस्तान जन्नत है. .... कैसी है यह जन्नत ! उस जन्नत में हम वर्षों रिफ्यूजी रहे. उसके बाद कुछ साँस आई तो हमारे सियासी-रहनुमा आपस में लड़ने लगे. लड़ना जैसे कोई इंसानी फर्ज हो. हर सरकार ने उम्मीद दिलाई कि अब हालात अच्छे होंगे. और हर बार वे बद से बदतर होते चले गए. हमारे रहनुमा हमें लड़ने को, भारत को कुचलने को उकसाते रहे. हम अलग हुए थे, क्योंकि मिलकर रह नहीं सकते थे. लेकिन क्या अलग होकर भी अमन चैन से रह सके? दिल का सुकून पा सके?” (विष्णु प्रभाकर, धरती का स्पर्श, मेरा वतन, पृ.10-11).
विष्णु प्रभाकर यह प्रश्न करते हैं कि ‘इंसान जब इंसानियत को समझ लेता है तो जानने के लिए रहता ही क्या है?’ (ईश्वर का चेहरा, मेरा वतन, पृ.26) लेकिन खेद का विषय है कि भारत की इस मनुष्य को सर्वोपरि मानने वाली दृष्टि को कोई भी देश अपनाने को तैयार नहीं; और इसीलिए नित्य मनुष्य मनुष्य की हत्या में रत है – युद्धोन्माद से भरकर एक जाती दूसरी जाति के निर्मूल करने पर आमादा है. कहने की ज़रूरत नहीं कि विष्णु प्रभाकर इंसानियत के पक्षधर थे. उन्होंने अपनी साहित्य साधना की प्रेरक शक्तियों के बारे में बताते हुए स्वयं कहा है, “मेरे साहित्य की प्रेरक शक्ति मनुष्य है. अपनी समस्त महानता और हीनता के साथ, अनेक कारणों से मेरा जीवन मनुष्य के विविध रूपों से एकाकार होता रहा और उसका प्रभाव मेरे चिंतन पर पड़ता रहा. कालांतर में वही भावना मेरे साहित्य की प्रेरक शक्ति बनी. त्रासदी में से ही मेरे साहित्य का जन्म हुआ.”(संकल्य, अक्टूबर-दिसंबर – 2006).
भारतीय जीवन-दर्शन के अनुरूप विष्णु प्रभाकर सह-अस्तित्व को मानवता का आधार मानते थे. वे ‘स्व’ को उतना महत्व नहीं देते थे जितना ‘पर’ को देते थे. उनकी मान्यता थी कि वर्गविहीन समाज के अभाव में मानवता का कल्याण संभव नहीं है. उन्होंने स्वयं इस बात को कहा कि “ सह-अस्तित्व में मेरा पूर्ण विश्वास है. यही सह-अस्तित्व मानवता का आधार है. इसलिए गांधी जी की अहिंसा में मेरी पूरी आस्था है. मैं मूलतः मानवतावादी हूँ अर्थात उत्कृष्ट मानवता की खोज ही मेरा लक्ष्य है. वर्गहीन अहिंसक समाज किसी दिन स्थापित हो सकेगा या नहीं, लेकिन मैं मानता हूँ कि उसकी स्थापना के बिना मानवता का कल्याण नहीं है.” (वही). वे भयंकर दंगों, रक्तपातों और हत्याओं के साक्षी भी रहे. इसलिए वे कहते हैं, “भयंकर दंगों, रक्तपातों और हत्याओं का मैं साक्षी हूँ. मैं मानवता में विश्वास करता था, मैंने मानव को मानव का रक्त उलीचते देखा है.” (विष्णु प्रभाकर : अपनी निगाह में, कुछ शब्द : कुछ रेखाएँ, पृ.167). वे बार बार मानव मूल्यों की स्थापना और भारतीयता की बात करते हैं. वे यह भी कहते हैं कि “सभ्यता ने इंसान को समझदार नहीं बनाया है, केवल नासमझी के कारण को कुछ संशोधन कर दिया है.” (दो शब्द, श्वेत कमल).
यहाँ यह बात याद रखने लायक है कि विष्णु प्रभाकार ऐसे शिविर-निरपेक्ष कालजयी रचनाकार हैं जिन्हें किसी वाद के दायरे में नहीं बाँधा जा सकता. उन्होंने अपने आपको तमाम तरह की गुटबंदियों से अलग रखा. बस इतना उनके लिए काफी है कि वे मिट्टी से जुड़े साहित्यकार हैं. उनके साहित्य में भारतीय परिवेश, दर्शन, संस्कृति, जीवन शैली, जीवन मूल्य आदि मुखरित हैं. इसलिए वे अपने पात्रों का चयन भी उसी तरह करते हैं. लोक चेतना की दृष्टि से वे प्रेमचंद की परंपरा के कथाकार हैं. उन्होंने प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास ‘गोदान’ का नाट्यरूपांतर ‘होरी’ नाम से किया. इसमें ज़रा धनिया की भाषा पर ध्यान दें जिसमें पग-पग पर लोक द्रष्टव्य है – ’’घर में परानी रात-दिन मरें और दाने-दाने को तरसें, लत्ता भी पहनने को मयस्सर न हो और अंजुली भर रुपए लेकर चला है इज्जत बचाने ! ऐसी बड़ी है तेरी इज्जत ! जिसके घर में चूहे लोटें, वह भी इज्ज़तवाला है ! दरोगा तलासी ही तो लेगा. ले लें जहां चाहे तलासी. एक तो सौ रुपए की गाय गई, उस पर यह पलेथन. वाह री तेरी इज्जत !” (होरी, पृ.46).
विष्णु प्रभाकर भारतीय लोक और जनमानस के रस में पगे साहित्यकार थे. लोक के प्रति उनकी आसक्ति ने उनकी भाषा को लोक का खास रंग दिया. उन्होंने जो सूक्तियाँ रची हैं तथा जिन उपमानों और प्रतीकों का प्रयोग किया है उनकी ताजगी का रहस्य लोक भाषा अथवा मातृबोली से प्राप्त दीक्षा में निहित है. बिना टिप्पणी के यहाँ उनके कुछ ऐसे भाषिक प्रयोग देखे जा सकते हैं –
तोपों से गनगनाती धरती भी अब शांत हो गई थी. (‘धरती का स्पर्श’, मेरा वतन, पृ.7)
स्मृति की परतों के साथ साथ ईंटों का भुरभुरापन (पृ.9)
एक एक ईंट इसी तरह झुर जाएगी (वही)
और फिर साँझ पड़े, यहीं से आकार पकड़ ले जाते थे. (वही)
फिर चिहुँक उठता है (वही)
श्यामा बार बार कुनमुना उठती थी (‘शिव और शैतान, मेरा वतन, पृ. 49)
वह अचकचा कर उठ बैठी (वही)
शेख साहब सकपका गए (वही, पृ. 50)
आज का सूरज नहीं देख पाऊँगा. (वही, पृ.52)
राहत की साँस खींची (अगम-अथाह, मेरा वतन, पृ.54)
जैसे उन्होंने ततैयों के छत्ते में हाथ डाल दिया (वही)
आँखें ऐसे बंद होती हैं कि हरहराकर फिर खुल जाती हैं (वही)
ऐसे लगता है जैसे कोई उसे आरी से चीरने लगा है (वही)
ऐसे देखा जैसे स्वयं पानी पानी हो चले (वही)
हल्की चिपचिपाहट थी (वही)
लोक जीवन के प्रामाणिक चित्र तो विष्णु प्रभाकर जी की रचनाओं में भरे पड़े हैं. साथ ही लोक विश्वास और लोक शिष्टाचार के भी अनेक संदर्भ उनकी कहानियों और नाटकों में देखे जा सकते हैं.
लोक जीवन –
नई चौपाल है और उसके चारों तरफ ये ऊँचे ऊँचे दरख़्त. इन दरख्तों के पास ही तो रहट है और उसके दूसरी तरफ नाला है. (धरती का स्पर्श, मेरा वतन, पृ.9)
यह कैसी खुशबू है? क्या यह ईख के खेतों से तो नहीं आ रही? हाँ, यह वहीं से आ रही. यह भीनी भीनी गंध और वह, उधर मकई के खेतों से आने वाली मीटी मीटी महक. (वही, पृ.10)
*** ज्यों ज्यों आगे बढ़ता हूँ एक अजीब सी महक मेरे दिमाग की परतों को खोलती चली जा रही है. अनाज की महक, पानी की महक, भीगी भीगी मिट्टी की महक. अरे लो, यह तो पौ फट चली. चिड़िया चहचहाने लगी हैं. *** आहा ! उधर खेतों में कोई गीत गा रहा है. (वही)
लोक विश्वास –
प्रयाग हमारा बहुत बड़ा तीर्थ है. गंगा-यमुना का संगम होता है यहाँ. पहले सुप्रसिद्ध सरस्वती भी यहीं बहती थी. **** संगम में स्नान करने से बहुत पुण्य मिलता है. और काशी तो है ही भगवान शिव का स्थान. कहते हैं कि वह भगवान शिव के त्रिशूल पर ठहरी हुई है. (शिव और शैतान, मेरा वतन, पृ.47)
लोक शिष्टाचार –
अपरिचित व्यक्ति को भी सम्मान से पुकारना – शेख साहब ! शेख साहब ! **** क्या बात है बहन? **** कैसी तबियत है भाई जान? ( शिव और शैतान, मेरा वतन, पृ.50)
अंतरंग होने पर अनौपचारिक संबोधन – ओय लाला जी.**** ओय लाला साहब. (वही, पृ.51)
आयु के अनुसार संबंधसूचक संबोधन का प्रयोग – क्या बताऊँ भइया *** हाँ बेटा (अगम-अथाह, मेरा वतन, पृ.55)
दुवा और शुभकामना – “या अल्लाह, खुदाबंद ताला, भाईजान की जान बचाइए (शिव और शैतान, मेरा वतन, पृ.51)
भगवान तुम्हें सुखी रखे भइया (अगम-अथाह, मेरा वतन, पृ.54)
विष्णु प्रभाकर ने अपने साहित्य में पग-पग पर भारतीयता और मानवीय मूल्यों की स्थापना की.संपूर्ण वसुधा को अपना कुटुंब मानना और मनुष्यमात्र को आत्मवत देखना भारतीयता का निजी मूल्य है.इसे उन्होंने स्वयं कहा है, ‘मेरा राजनीति से कोई सीधा संबंध नहीं है और न ही धर्म से. मैं तो एक इंसान और एक संसार का उपासक हूँ.’ वे यह मानते थे कि भारतीयता के अंतर्गत सारा भारत और भारतीय जनता की दिनचर्या, उनसे जुड़ी छोटी-छोटी घटनाएँ, तौर-तरीके, उनके व्यवहार समाहित हैं. स्त्री-पुरुष के आपसी वैमनस्य, सवर्ण-अवर्ण का अंतर, छुआछूत, ऊँच-नीच, सांप्रदायिकता, आतंकवाद, धर्म और जाती के नाम पर समाज का बँटवारा आदि भारतीयता के बाधक तत्व हैं. अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा, ‘हमारे सामने आदर्श, त्याग और बलिदान जैसे मूल्य थे, लेकिन आजादी के बाद स्थिति तेजी से बदली. हमारे नेताओं ने आजादी का सुख भोगना शुरू कर दिया. उन्होंने सत्ता का एक प्रकार से दुरुपयोग किया. इस कारण नैतिक मूल्यों में गिरावट आई और इससे नई पीढ़ी का बुरी तरह से मोहभंग हुआ. आदर्श, त्याग और बलिदान जैसे मूल्यों के आगे प्रश्नचिह्न लग गए. मूल्यों का संकट, नेताओं का संकट पूरे विश्व में है. प्रेमचंद ने भी कहा है, ‘अपनी लड़ाई स्वयं लड़ो.’ यही हम सभी को करना चाहिए. लेकिन इसका अर्थ यह हरगिज नहीं है कि व्यक्ति अपने में सिमट जाए. व्यक्ति कभी अपनी निजता में धन्य नहीं होता, परिवेश से जुड़कर सार्थक होता है. हर व्यक्ति हर दूसरे व्यक्ति के प्रति उत्तरदायी होता है.’ (http://www.rachanakar.org/2009/03/blog-post_21.html).
भारतीय संस्कृति कुटुंब-संस्कृति है. विष्णु प्रभाकर भी कौटुम्बिकता को मान्यता देते हैं. यह उनके साहित्य में भलीभाँति मुखरित है. ‘सर्वोदय’ शीर्षक नाटक में वे कहते हैं, ‘’“हर एक व्यक्ति दूसरे की चिंता रखे और अपनी चिंता भी ऐसी रखे कि जिससे दूसरे को कष्ट न हो. यही कुटुंब में होता है. कुटुंब का यह न्याय समाज पर लागू करना कठिन नहीं होना चाहिए, बल्कि आसान होना चाहिए. इसी को सर्वोदय कहते हैं.”’’ (सर्वोदय, विष्णु प्रभाकर के नाटक, भाग – 6, पृ.467). इतना ही नहीं, उन्होंने अपने कालजयी उपन्यास ‘अर्द्धनारीश्वर’[1992] के माध्यम से भारतीय संस्कृति के सबसे मनोरम मिथक ‘अर्द्धनारीश्वर’ का अत्यंत सटीक और सामयिक प्रयोग किया है. उन्होंने यह कहा है, “नारी की स्वतंत्र सत्ता का, नारी की सैक्स-इमेज से कोई संबंध नहीं है. उसका अर्थ है समान अधिकार, समान दायित्व. एक स्वस्थ समाज के निर्माण के दोनों समान रूप से भागीदार हैं. अर्द्धनारीश्वर का प्रतीक इस कल्पना का साकार रूप है, एक-दूसरे से विसर्जित नहीं, एक-दूसरे से स्वतंत्र, फिर भी जुड़े हुए.” (अर्द्धनारीश्वर, पृ.321). आगे वे यह भी कहते हैं कि ‘’नारी को बस नारी बनना है, सुंदरी और कामिनी नहीं.”(वही).
चाहे ‘निशिकांत’ हो या ‘स्वप्नमयी’, ‘अर्द्धनारीश्वर’ हो या ‘मैं नारी हूँ’, ‘एक और कुंती’, ‘श्वेत कमल’, ‘गांधार की भिक्षुणी’, ‘ज्योतिपुंज हिमालय’, ‘होरी’. ‘सूरदास’, ‘धरती अब भी घूम रही है’, ‘तट के बंधन’, ‘जन, समाज और संस्कृति’, ‘हिमशिखरों की छाँव में’, ‘संकल्प’, ‘पानी की जाति’, ‘सत्ता के आर-पार’ – अपने सारे लेखन के माध्यम से विष्णु प्रभाकर ने भारतीय लोक और भारतीयता को समग्र रूप से उजागर किया है.
अपनी बात का समाहार विष्णु प्रभाकर के इन शब्दों से करती हूँ – “’’सांस्कृतिक दृष्टि से भारत एक है. प्रत्येक मनुष्य एक-दूसरे के प्रति उत्तरदायी है. यही सबसे बड़ा बंधन है और यह प्रेम का बंधन है.
पर जब तक जिऊँ वाणी स्वर में बोलती रहे,
वह मेरी ही नहीं सबका दर्द खोलती रहे।“