रविवार, 25 मई 2014

नहीं रहे जादुई यथार्थवाद के जादूगर !

गेब्रियल गार्सिया मार्केज़
6 मार्च 1927 - 17 अप्रैल 2014
गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ उर्फ गाबो ! यह नाम हिंदी साहित्य जगत के लिए अपिरिचित नाम नहीं है; अंग्रेजी साहित्य जगत के लिए तो सुपरिचित है ही. ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिटयूड’ (1967) के रचनाकार के रूप में विश्वविख्यात साहित्यकार मार्केज़ भले ही भौतिक रूप से साहित्य जगत से विदा ले चुके हैं पर अपनी कालजयी कृतियों के माध्यम से पाठकों के हृदय में अमिट छाप छोड़ गए हैं. 

मार्केज़ का जन्म 6 मार्च 1927 को कोलंबिया के अरैकाटैका (Aracataca) में हुआ था. उनका बचपन ननिहाल में गुजरा. उनके नाना कर्नल निकोलास रिकर्डो मार्केज़ ने गेब्रियल को परियों की कहानियों के स्थान पर युद्धों की भीषण त्रासदी के विवरण सुनाकर उन्हें यथार्थ दुनिया के साथ जोड़ा. दूरसे ओर, उनकी नानी जादुई कहानियों को इस तरह सुनाती थीं कि सुनने वाले उन्हें सच मान बैठते थे. इस तरह ग्रेब्रियल के मन पर बचपन से ही एक छाप जादूई किस्म की कहानियों की पड़ी और दूसरी छाप यथार्थपरक किस्सों की. इनका इतना गहरा प्रभाव उनके अचेतन पर पड़ा कि बाद में वह जादुई यथार्थवाद की शैली के रूप में उनकी रचनाओं में प्रस्फुटित हुआ. उनकी राजनैतिक एवं साहित्यिक विचारधारा के गठन में भी काफी हद तक इन कहानियों का योगदान रहा. अतः कहा जा सकता है कि गेब्रियल के व्यक्तित्व और वैचारिकता के निर्माण में उनके नाना-नानी का योगदान उल्लेखनीय है. 

कोलंबिया राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में क़ानून की पढ़ाई के साथ साथ गेब्रियल मार्केज़ ने अपनी आजीविका पत्रकारिता से शुरू की. 1948 और 1949 में उन्होंने ‘एल यूनिवर्सल’ (El Universal) में काम किया तथा 1950-1952 तक रोम और पैरिस में ‘स्पेक्टेटर’ के संवाददाता के रूप में कार्यरत रहे. उसके बाद उन्होंने 1959 से 1961 तक हवाना और न्यूयार्क में क्यूबा की संवाद एजेंसी के लिए काम किया. उनके लिए पत्रकारिता आजीविका थी और साहित्य शौक. 

गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ के उपन्यासों में ‘इन ईविल अवर’ (In Evil Hour, 1962), ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिटयूड’ (One Hundred Years of Solitude,1967), ‘द ऑटम ऑफ द पैट्रिआर्क’ (The Autumn of the Patriarch, 1975), ‘लव इन द टाईम ऑफ कॉलेरा’ (Love in the Time of Cholera, 1985), ‘द जेनरल इन हिस लेबरिंथ’ (The General in His Labyrinth, 1989) तथा ‘ऑफ लव एंड अदर डेमंस’ (Of Love and Other Demons,1994) काफी चर्चित हैं. लघुउपन्यासों में ‘लीफ स्टॉर्म’ (Leaf Storm, 1955), ‘नो वन राइट्स टु द कर्नल’ (No One Writes to the Colonel, 1961), ‘क्रॉनिकल ऑफ ए डेथ फोरटोल्ड’ (Chronicle of a Death Foretold, 1981) तथा ‘मेमोरीज ऑफ माइ मेलंकॉली व्होर्स’ (Memories of My Melancholy Whores, 2004) उल्लेखनीय हैं. उनकी अन्य प्रमुख रचनाएँ हैं – कहानी संग्रह : ‘आइज़ ऑफ ए ब्लूडॉग’ (Eyes of a Blue Dog, 1947), ‘बिग मामास फ्युनरेल’(Big Mama's Funeral, 1962), ‘द इनक्रेडिबल एंड सैड टेल ऑफ इन्नोसेंट एरंडीरा एंड हर हार्टलेस ग्रैंडमदर’ (The Incredible and Sad Tale of Innocent Erendira and Her Heartless Grandmother (1978), ‘स्ट्रेंज पिल्ग्रिम्स’ (Strange Pilgrims, 1993) आदि. 

उनका प्रथम लघुउपन्यास ‘लीफ स्टार्म’ 1955 में प्रकाशित हुआ था. इसमें लेखक ने एक ऐसे बच्चे के अनुभवों, अनुभूतियों तथा मानसिक स्थिति को मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है जिसने जिंदगी में पहली बार मृत्यु से साक्षात्कार किया है. यह वस्तुतः एक मनोवैज्ञानिक उपन्यास है जो बालक के मनोविज्ञान को परत-दर-परत खोलता है. साथ ही इसमें लेखक ने कर्नल की बेटी इसाबेल के दृष्टिकोण को उजागर किया है जिसमें उत्तरआधुनिक विमर्श, मुख्य रूप से स्त्री विमर्श, के अनेक पहलू उभर कर सामने आए हैं. उसके बाद वे लगातार सृजनात्मक साहित्य लिखते रहे. शिल्प और शैली की दृष्टि से उनकी रचनाएँ श्रेष्ठ मानी जाती हैं. 

1972 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित उनके कालजयी उपन्यास ‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिटयूड’ (One Hundred Years of Solitude,1967) आज भी बहुचर्चित है. कहा जाता है कि 18 वर्ष की आयु से ही गेब्रियल के मन में बचपन की स्मृतियों को अक्षरबद्ध करने की प्रबल इच्छा थी. यह इच्छा समय के साथ बलबती होती गई. अपने विचारों एवं बचपन की स्मृतियों को कथासूत्र के एक निश्चित साँचे में ढालने के लिए वे जूझते रहे. पूरे उपन्यास को लिखने के लिए उन्हें डेढ़ साल लग गया. उस समय उनके परिवार की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई. परिवार को चलाने के लिए उधार लेना पड़ा. लेकिन जब 1967 में यह उपन्यास पुस्तक के रूप में पाठक जगत के सामने आया तो उनकी आर्थिक समस्याएँ दूर हो गईं. इसकी 2 करोड़ से अधिक प्रतियाँ बिक चुकी हैं. विश्व की लगभग 37 भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है. 

‘वन हंड्रेड इयर्स ऑफ सॉलिटयूड’ (एकांत के सौ वर्ष). 363 पृष्ठों के इस उपन्यास में लेखक ने एक काल्पनिक परिवार बुएंदिआ (Buendia) की सात पीढ़ियों की कथा को एकसूत्र में पिरोया है. इस कहानी का घटना स्थल कोलंबिया देश के ओरिनोको नदी के तट पर स्थित माकोंदो नामक शहर है. इस शहर को बुएंदिआ परिवार का पितामह जोस आर्कादियो बुएंदिआ (Jose Arcadio Buendia) स्थापित करता है. इस उपन्यास में लेखक ने सच (यथार्थ) और जादू का सम्मिश्रण बखूबी किया है. संपन्न जीवन जीने के लिए एक दिन जोस आर्कादियो बुएंदिआ अपनी पत्नी के साथ कोलंबिया से किसी दूसरे शहर में बसने के लिए जाता है. रात को वे दोनों ओरिनोको नदी के किनारे रुक जाते हैं. जोस अजीब सपना देखता है. उस सपने में पूरी तरह से शीशों से भरा हुआ एक शहर देखता है जो दुनिया की सब चीजों के बारे में जानकारी देता है. वह मन ही मन निश्चय कर लेता है कि वह नदी के तट पर स्थित उस माकोंदो शहर को ढूँढ़ निकालेगा. वह इधर उधर भटकता है. जंगल जंगल घूमता है और पाता है कि वह एक स्वप्नलोक है. आदर्शलोक है. वह यह पाता है कि माकोंदो शहर एक द्वीप है. वहाँ से जोस अपनी धारणाओं के अनुसार दुनिया का आविष्कार करने लगता है. बुएंदिआ परिवार बदकिस्मती का शिकार हो जाता है. समुद्री तूफ़ान शीशों के शहर माकोंदो को तहस नहस कर देता है. कथा के अंत में एक पात्र उस अनबूझे रहस्य को विखंडित करता है जिसके कारण बुएंदिआ परिवार सात पीढ़ियों से शापग्रस्त है. उस रहस्यमय संदेश में हर वह सूचना निहित होती है जिसके कारण सौभाग्य और दुर्भाग्य बुएंदिआ परिवार के साथ होते हैं. 

इस उपन्यास में प्रयुक्त जादुई यथार्थवादी शैली ने सबका ध्यान आकृष्ट किया है. एक ओर लेखक ने सच्ची घटनाओं को आधार बनाकर उपन्यास का सृजन किया तो दूसरी ओर बीच बीच में जादुई घटनाओं का मिश्रण भी बखूबी किया है. लेखक ने प्रतीकों और रूपकों के माध्यम से कथासूत्र को बुना है. एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इस उपन्यास में लेखक ने उत्तर कोलंबिया के माकोंदो शहर से संबंधित ऐतिहासिक तथ्यों को उजागर किया है. साथ ही मुख्य पात्रों के चित्रण में अतीत और समय की जटिलताओं को पिरोया गया है. उपन्यास के आदि से लेकर अंत तक सभी पात्र भूतों से साक्षात्कार करते हैं. भूत यहाँ प्रतीक हैं अपने अतीत के जो व्यक्ति को हर वक्त हांट करता है. मार्केज़ ने रंगों को भी प्रतीकों के रूप में प्रयोग किया है. इस उपन्यास में पीतवर्ण और सुवर्ण का ज्यादा प्रयोग दिखाई पड़ता है. ये दोनों ही वस्तुतः साम्राज्यवाद के प्रतीक हैं. सुवर्ण आर्थिक स्थिति का द्योतक है तथा पीतवर्ण परिवर्तन, विनाश और मृत्यु का द्योतक है. माकोंदो शहर बदकिस्मती का द्योतक है. कथा के अंत तक आते आते शीशों का शहर मृगतृष्णा का द्योतक बन जाता है. माकोंदो शहर वह सुनहरा शहर है जिसे निर्मित करने के लिए अमेरिका ने लोगों को दिवास्वप्न दिखाया और अंततः वह केवल एक मृगतृष्णा साबित हुई. इसी यथार्थ को इस उपन्यास में बड़े रोचक ढंग से दर्शाया गया है. इस उपन्यास में मार्केज़ ने लेटिन-अमेरिकी सांस्कृतिक घटकों को भी उभारा है. साथ ही, आशा, आकांक्षा, सुख, दुःख, भय, अकेलापन, संत्रास, विसंगति और मृत्युबोध आदि का चित्रण भी प्रभावी बन पड़ा है. 

8 दिसंबर 1982 को गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ को साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया था. यह पुरस्कार प्राप्त करने वाले प्रथम कोलंबिया निवासी गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ ही हैं. 17 अप्रैल 2014 को मेक्सिको में उनका देहावसान हो गया. कोलंबिया के राष्ट्रपति ने अपनी श्रद्धांजलि में उन्हें ‘सार्वकालिक महानतम कोलंबियन’ के रूप में याद किया. 

हम उनकी स्मृति के नमन करते हैं.

सोमवार, 19 मई 2014

'तेलुगु साहित्य का हिंदी पाठ' पढ़ते हुए


सृजन - जनवरी मार्च 2014. पृष्ठ 24 -25.

संप्रेषणीय आलोचना के कर्णधार परमानंद श्रीवास्तव

आलोचना आखिर क्यों? आलोचना क्या सृजन के बाद का या गैर-सर्जनात्मक लेखन है, या फिर आपद्धर्म? इन प्रश्नों का सामना प्रत्येक आलोचक को करना पड़ता है. सबके अपने-अपने उत्तर हो सकते हैं. लेकिन आलोचक डॉ. परमानंद श्रीवास्तव का उत्तर एकदम स्पष्ट और दो-टूक है. उनके लिए आलोचना ‘आपद्धर्म’ नहीं वरन् सर्जनात्मक कार्य है. उन्हीं के शब्दों में सुनिए – “आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं है. वह मेरे लिए रचनात्मक कार्य है और मेरा स्वधर्म है, ‘आपद्धर्म’ नहीं.” (परमानंद श्रीवास्तव, ‘आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं है’, ओम निश्चल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.151). 

आलोचना क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए ‘व्यास सम्मान’ और ‘भारत भारती’ पुरस्कारों से सम्मानित डॉ. परमानंद श्रीवास्तव (9 फरवरी 1935 – 5 नवंबर 2013) की आलोचनात्मक कृतियों में ‘नई कविता का परिप्रेक्ष्य’ (1965), ‘हिंदी कहानी की रचना प्रक्रिया’ (1965), ‘कवि कर्म और काव्य भाषा’ (1975), ‘उपन्यास का यथार्थ और रचनात्मक भाषा’ (1976), ‘जैनेंद्र के उपन्यास’ (1976), ‘समकालीनता का व्याकरण’ (1980), ‘समकालीन कविता का यथार्थ’ (1988), ‘शब्द और मनुष्य’ (1988), ‘उपन्यास का पुनर्जन्म’ (1995), ‘कविता का अर्थात’ (1999), ‘कविता का उत्तर जीवन’ (2005), ‘दूसरा सौंदर्यशास्त्र क्यों’ (2005) आदि उल्लेखनीय हैं. हाल ही (2014) में वाणी प्रकाशन से ‘अतल का अंतरीप’, ‘समकालीन कविता : संप्रेषण का संकट’ और ‘समकालीन कविता : नए प्रस्थान’ शीर्षक उनकी तीन आलोचनात्मक कृतियों का प्रकाशन हुआ.

स्मरणीय है कि परमानंद श्रीवास्तव आलोचना को गौण कार्य न मानकर रचना जैसा ही प्राथमिक कार्य मानते थे. उनके अनुसार आलोचना मनमाना चुनाव न होकर विशेष प्रकार का चुनाव है. उनका मत है कि ‘आलोचना एक बड़ी रचना की तरह है क्योंकि वह जोखिम उठाती है तथा अच्छे और महान साहित्य में फर्क करती है. सबसे पहले वह एक सघन आस्वाद है, फिर विश्लेषण और फिर मूल्यांकन.’ (परमानंद श्रीवास्तव, एक चुनौती भरे रचनात्मक समय में – अनिल त्रिपाठी से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.13). उनकी मान्यता है कि आलोचना एप्रिसिएशन है, पर क्रिटिकल ढंग से. वह मूल्यांकन भी है, पर उससे पहले वह डिस्क्रिमिनेशन भी है. (परमानंद श्रीवास्तव, ‘आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं है – ओम निश्चल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.160). 

डॉ. परमानंद श्रीवास्तव इस बात पर बल देते थे कि आलोचना को आत्मालोचन की प्रक्रिया से गुजरना चाहिए. ध्यान देने की बात है कि सहमति से नहीं, असहमति से बनती है बड़ी आलोचना. उनके द्वारा लिखी गई आलोचना वस्तुतः संप्रेषणीय आलोचना है. वह पाठक से संवाद करती है. उनकी आलोचना एक तरह से पठनीय निबंध प्रतीत होता है. उन्होंने अपनी खुद की कसौटियों पर ज्यादा भरोसा किया है. ‘अपनी दृष्टि’ के कारण ही वे सफल और महत्वपूर्ण आलोचक बने. 

नई कविता का परिप्रेक्ष्य, कवि कर्म और काव्य भाषा, समकालीनता का व्याकरण, उपन्यास का पुनर्जन्म, शब्द और मनुष्य, कविता का अर्थात और कविता का उत्तर जीवन आदि में संकलित निबंधों से लेकर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित निबंधों तक परमानंद श्रीवास्तव ने आलोचना के नाम पर जो कुछ लिखा वह मूल्यवान एवं विचारणीय है. अज्ञेय के बारे में कहते हुए एक जगह उन्होंने लिखा है कि ‘(अज्ञेय) उनकी धारणाओं से असहमति हो सकती है पर उनका सामना स्फूर्तिप्रद है क्योंकि वे हमें एक रचनात्मक लेखक के अनुशासन, स्वशिक्षण या ‘वर्कशाप’ से भी परिचित कराती हैं.’ यही बातें आलोचक परमानंद श्रीवास्तव पर भी लागू होती हैं. उनके अनुसार आलोचना को रचनाकेंद्रित होना चाहिए. ‘इसीलिए हर आलोचक अपने लिए एक विशेष कृति चुनता है और उसी के इर्द-गिर्द अपना एक सौंदर्यशास्त्र बनाता है, जो कि निरे आस्वाद के आधार पर संभव नहीं है.’ (वही, पृ.सं.152)

जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि कविता के मर्मज्ञ आलोचक डॉ. परमानंद श्रीवास्तव की आलोचना संप्रेषणीय आलोचना है. उनकी प्रसिद्ध आलोचना कृति ‘शब्द और मनुष्य’ को ही लें. इस पुस्तक की भूमिका में उन्होंने लिखा है कि ‘शब्द और मनुष्य’ में समकालीन कविता और काव्यमूल्यों की पड़ताल के बहाने एक लंबे काव्यात्मक संघर्ष को समझने और स्पष्ट करने की कोशिश की गई है.’ निराला, नागार्जुन, अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, त्रिलोचन, रघुवीर सहाय, कुंवरनारायण, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, केदारनाथ सिंह, धूमिल तथा धूमिल के बाद के कवियों अर्थात उदय प्रकाश, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, स्वप्निल आदि का मूल्यांकन इस संग्रह में सम्मिलित है. इस संग्रह की विशिष्टता यह है कि इसमें एक साथ कई पीढ़ियों के काव्यप्रयत्न अपना वांछित अर्थ और रूप प्राप्त करते हैं. इस पुस्तक के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘आज की कविता यदि समय की जटिलताओं के साक्षात के प्रति सजग या प्रतिबद्ध है तो उसे अनुभव और रूप की विविधता में जीवनयथार्थ की अभिव्यक्ति की संभावनाएँ खोजनी होंगी. ‘निजी’ और ‘सामाजिक’ के बीच का द्वंद्व समृद्ध विवेक, समझ और संवेदना का विस्तार और जीवनदृष्टि (व्यापक अर्थ में कहें, एक प्रकार की विश्वदृष्टि) – आज की कविता कहाँ तक इन्हें अपने अनुभव लोक और रूपतंत्र के भीतर साध पा रही है और कहाँ वह कुछ ख़ास अभिप्रायों, काव्यरूढ़ियों, रेटारिक – जैसी आलंकारिक युक्तियों में सिमटकर रह गई है – यह देखने की कोशिश इस पुस्तक का ख़ास प्रयोजन है.’ 

परमानंद श्रीवास्तव के लिए कविता और आलोचना दोनों दो आँखों के समान हैं. इसीलिए शायद उन्होंने कहा था कि ‘कविता, आलोचना – मेरे लिए दोनों एक-सी विधाएँ हैं. मुझे लगता है कि कवि, आलोचक दोनों को गलतियों से सीखना चाहिए. पूर्णता के भ्रम से मुक्त होना चाहिए.’ (परमानंद श्रीवास्तव, आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं है – ओम निश्चल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.156). वे इस पूर्णता के भ्रम से मुक्त थे. उनकी हर रचना में - चाहे कविता हो, या कहानी या फिर आलोचना हो – वे सर्वत्र नई जमीन तोड़ते दिखाई पड़ते हैं. निराला में समकालीन कविता के बीज तत्वों को देखते हुए परमानंद श्रीवास्तव ने यह प्रतिपादित किया कि ‘रोमान और यथार्थ, दुरूहता और सहजता, बौद्धिकता और भावुकता निजी और सार्वभौम अब कविता की मूल्यवत्ता के निर्धारण में इतने दो-टूक निर्णायक विभाजन बहुत अर्थ नहीं रखते.’ (परमानंद श्रीवास्तव, ‘निराला और समकालीन कविता’, शब्द और मनुष्य, पृ.सं.33-34) 

वस्तुतः परमानंद श्रीवास्तव का हृदय कवि हृदय है. उन्होंने स्वयं इस बात को उजागर किया कि उनका संघर्ष कवि-आलोचक का संघर्ष है. ऐसे व्यक्ति के लिए ‘आलोचना’ भी ‘रचना’ ही होता है. उन्होंने कहा भी है कि ‘कविता, आलोचना दोनों मेरे लिए हृदय-संवेदना की चीजें हैं – बौद्धिक संवेदना उसी की स्फूर्ति पाती है.’ (परमानंद श्रीवास्तव, आलोचना कोई साझा कार्यक्रम नहीं है – ओम निश्चल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.157). 

आलोचना तो खैर सब करते रहते हैं लेकिन अच्छी आलोचना क्या है इसके बारे में डॉ. परमानंद श्रीवास्तव की स्पष्ट राय है कि - ‘अच्छी आलोचना तो वह है जो यथार्थ को लेकर प्रश्न पूछती है, सवाल उठाती है, हस्तक्षेप करती है. अगर आलोचना भी हमारी संवेदना, हमारे विवेक का विस्तार या विकास नहीं करती तो उसकी सामाजिक सार्थकता में भी मुझे संदेह है. आलोचना को आलोचना होते ही एक ‘जवाबदेही’ भी होना है.’ (परमानंद श्रीवास्तव, आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना – अरविंद त्रिपाठी और गणेश पांडेय से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.48). इससे यह स्पष्ट होता है कि अच्छी आलोचना को प्रशंसा या निंदा के अटल रास्ते छोड़कर रचना से समझ के साथ टकराना चाहिए. इतना ही नहीं उन्होंने आलोचक के लिए कुछ धर्म या कहिए कसौटियों का भी निर्धारण किया जिनका पालन वे स्वयं करते रहे. देखें – ‘न न्यायाधीश, न वकील, न अभ्यास या लीक पर निर्भर अध्येता. आलोचक को एक महत्वपूर्ण कृति के प्रति बुनियादी तौर पर विनम्र होना चाहिए, सक्रिय आस्वाद के लिए पर्युत्सुक और सब बातें बाद में. यह उसके अपने पाठ, अपनी अभिरुचि और आस्वाद क्षमता पर भी निर्भर करेगा कि वह क्या ‘क्रिटीक’ बनाता है.’ (वही, पृ.सं.66). इसीलिए वे युवा रचनाकारों को परामर्श देते हैं कि आलोचकों से गहरा संवेदनात्मक रिश्ता बनाना चाहिए. केवल प्रशंसा की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए’ चूँकि युवा रचनाकारों के समक्ष चुनौतियाँ ही चुनौतियाँ हैं. (परमानंद श्रीवास्तव, सामाजिक दृष्टि का निर्धारण रचना से ही होता है – श्रीप्रकाश शुक्ल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.46). 

उल्लेखनीय है कि जीवनराग, जीवनदृष्टि, जीवनासक्ति, जीवनधर्मिता, मनुष्य आदि आलोचक परमानंद श्रीवास्तव के बहुत प्रिय शब्द हैं – उनकी आलोचना के बीज शब्द. इसलिए बार बार वे इन शब्दों को दुहराते हैं और कहते हैं कि ‘लेखक की दृष्टि में समकालीन कविता को अर्थ-विशिष्ट बनाने वाला सर्वप्रथम तत्व है जीवनराग, गहरे अर्थों में जीवनासक्ति या जीवनधर्मिता.’ (शब्द और मनुष्य, भूमिका, पृ.सं.8).

ध्यान से देखा जाय तो यह स्पष्ट होता है कि कविता अपने आप को पाठ में बंद नहीं रखती बल्कि वह एक पाठक से दूसरे पाठक, दूसरे से तीसरे तथा तीसरे से चौथे पाठक तक यात्रा करते हुए वह बार बार अपने आप को पाठ के रूप में अभिव्यक्त करती जाती है, वस्तुतः पाठक भी आलोचक है. वह कृति को अपने पाठ में एक नया स्पेस देता चलता है. परमानंद श्रीवास्तव को ‘कविता में वक्तव्य-की सी स्पष्टता से परहेज नहीं है, पर वे चाहते हैं कि ‘स्पष्टता’ के साथ ‘असामन्य विदग्धता’, ‘विशिष्ट अर्थध्वनि’ और ‘व्यंजकता’ भी हो.’ (शंभुनाथ, ‘संकीर्णता बनाम समग्रता’, प्रतिमानों के पार, पृ.सं.43). डॉ. परमानंद श्रीवास्तव के अनुसार कविता (साहित्य) एक प्रकार का संप्रेषण है. संप्रेषण समूचे मानवीय अनुभव और जीवनासक्ति का. यही कारण है कि उन्होंने आज की कविता को गहरे अर्थ में राजनीतिक कविता माना ‘जो अनुभव के समूचे मानवीय प्रसार में, सबसे अधिक इसी जीवनासक्ति से अनुप्राणित है.’ (शब्द और मनुष्य, भूमिका, पृ.सं.8).

डॉ. परमानंद श्रीवास्तव ने समकालीन कविता की आलोचना करते हुए कुछ महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले जो इस प्रकार हैं – 
  • ‘मुख्यतः आज की कविता प्रगतिशील विचारधारा और जीवनदृष्टि के पक्ष में अपने उपकरणों का अधिक विवेकपूर्ण संयोजन करने के बारे में पहले से कहीं अधिक जागरूक है.’ 
  • ‘कविता के सामने आज कविता से भी बड़ी चुनौतियाँ हैं, यह जानकर भी इधर के कवियों ने जरूरी समझा है कि कविता की बनावट या संगठन को यथेष्ट महत्व दिया जाय. प्रतिबद्ध कविता का भी अपना सौंदर्यशास्त्र हो सकता है – इस मान्यता के साथ वे आधुनिकतावाद या आधुनिक कलावाद पर यह ज़िम्मेदारी छोड़कर मुक्त नहीं होना चाहते कि नए यथार्थदर्शन के अनुरूप कलाविवेक की युक्तियाँ वे निर्धारित करें.’ 
  • ‘आज के युवा कवि समकालीन काव्य परिदृश्य की इस विशिष्टता को अपने लिए भी एक महत्वपूर्ण अवसर मानते हैं कि अकेले वे कविकर्म में नहीं लगे हैं बल्कि तीन या चार पीढ़ियों के महत्वपूर्ण कवि अपने कठिन समय की चुनौती-भरी कविताएँ लिख रहे हैं.’ 
  • ‘साठ के बाद युवा कविता का जो दौर शुरू हुआ था उसमें कवियों की एक प्रमुख माँग यह थी कि उनका मूल्यांकन सर्वथा नए मानदंडों के आधार पर किया जाय, क्योंकि जिस समय-विशेष में वे लिख रहे हैं उसकी केंद्रीय संवेदना के निर्माण में उनकी ही हिस्सेदारी है. समय-विशेष में उनके होने का विशेष अर्थ है, इसलिए उनका मुहावरा भी इतिहास के नैरंतर्य में विस्फोट जैसा ही है.’ (परमानंद श्रीवास्तव, ‘अपनी केवल धार’, शब्द और मनुष्य, पृ.सं.187) 
कविता की आलोचना कभी भी सरलरेखीय नहीं हो सकती. अतः कविता के आलोचक की पहली जरूरत है कविता की समझ. और यह समझ परंपरा और समकालीनता दोनों से टकराने से ही विकसित होगी. हिंदी आलोचना के क्षेत्र में हमेशा ही परंपरा के मूल्यांकन की आकांक्षा रही और आगे भी रहेगी. स्मरणीय है कि परंपरा के मूल्यांकन की प्रक्रिया में डॉ. रामविलास शर्मा का काम सबसे विस्तृत है जो निराला पर है. निराला में बहुत सी परंपराएँ आकर अंतर्मिश्रित हुई हैं. उन्हीं निराला में समकालीन कविता की परंपरा खोजकर डॉ. परमानंद श्रीवास्तव ने उसमें नागार्जुन को ही नहीं, बल्कि मुक्तिबोध और राघुवीर सहाय को भी रखा. निराला की परंपरा को यह व्यापक फलक देने में वे सफल हुए क्योंकि वे निराला के व्यक्तित्व में ‘रोमांटिक और यथार्थ, रोमांटिक और क्लासिक, क्लासिक और आधुनिक का अधिक समृद्ध अंतर्गठन’ देख सके.

डॉ. परमानंद श्रीवास्तव ने कल की कविता के आज के कालखंड में प्रासंगिक हो उठने को कविता की उत्तरजीविता (Survival of Poetry) माना है. आज जबकि कविता को या तो हाशिये पर रखा जा रहा है या उसे नटों-विटों-विदूषकों की कला बन जाने को विवश किया जा रहा है; ऐसे में डॉ. परमानंद श्रीवास्तव की आलोचना कृति ‘कविता का उत्तर जीवन’ बहुत प्रासंगिक कृति प्रतीत होती है. इसकी भूमिका में उन्होंने लिखा है कि ‘कविता संगीत की हद को भी छूना चाहती है, उससे पहले वह समय की तात्कालिक जटिलताओं से भी बच नहीं सकती. देखते देखते कविता को सस्तेपन की ओर, भद्दी तुकबंदियों की ओर और अश्लील मनोरंजन तक सीमित करने का जो दुष्चक्र सांप्रदायिक ताकतों के एजेंडा पर है, उसे देखते हुए भी कहा जा सकता है कि कविता की जीवनी शक्ति असंदिग्ध है. यही समय है कि ग़ालिब, मीर, दादू, कबीर भी हमारे समकालीन हो सकते हैं.’ (कविता का उत्तर जीवन, पूर्वकथन). वे मानते हैं कि कविता वस्तुतः शब्दों में और शब्दों से तो लिखी जाती है पर साथ ही अपने आसपास वह स्पेस भी छोड़ती चलती है जिसे पाठक अपनी कल्पना और समय के अनुरूप भर सकता है. इस संदर्भ में उनका कथन द्रष्टव्य है – ‘कविता के बाहर और कविता के भीतर का जो द्वंद्व है उसको ठीक ठीक पहचानकर ही कविता के साथ न्याय किया जा सकता है.’ (परमानंद श्रीवास्तव, मुख्यधारा की कविता – महावीर सिंह चौहान से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.28). 

यहाँ यह भी कहना जरूरी है कि जिसे हम परमानंद श्रीवास्तव की आलोचना कृतियों में जीवनासक्ति या जीवनराग के आग्रह के रूप में देखते हैं, उस प्रतिमान का आधार लोक है. हर विधा में लोक एक अनिवार्य तत्व है. लोक को छोड़कर आगे नहीं बढ़ा जा सकता. कहना न होगा कि डॉ. परमानंद श्रीवास्तव भी लोक के पक्षधर हैं. लेकिन इसे फार्मूले की तरह ठूँसना उन्हें चिंताजनक प्रतीत होता है. इसीलिए कविता में लोक रंग के संदर्भ में श्रीप्रकाश शुक्ल से चर्चा करते हुए उन्होंने कहा है कि ‘लोक रंग कविता में आए तो अच्छा है. इससे कविता को नई जीवन शक्ति प्राप्त होती है. जिस रूप में यह दिखाई दे रहा है उससे डर है कि यह नई काव्य रूढ़ि न बन जाए. सौंदर्य भरने के लिए शब्द प्रयोग सम्मोहन ही हो सकता है.’ (परमानंद श्रीवास्तव, सामजिक दृष्टि का निर्धारण रचना से ही होता है – श्रीप्रकाश शुक्ल से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.44). 

ध्यान देने की बात है कि डॉ. परमानंद श्रीवास्तव ने सहज रचनात्मक भाषा में कविता के बारे में लिखा तथा उसकी निरंतरता को अन्वेषित किया. कविता के मूल्यांकन के संदर्भ में उन्होंने कहा कि ‘सच्ची महत्वपूर्ण कविता वास्तव में मुठभेड़ भर नहीं चाहती. वह जीवन में छिपे गोपन, अज्ञात, रहस्यमय का भी पूरा स्वाद चाहती है. वह क्रमशः हर पाठ में कुछ और बताने लगती है जिस पर पहले ध्यान न गया हो. निजी और सामाजिक के बीच का अनुभवलोक उस संरचना में सार्थक होता है जिससे कई झंकृतियाँ, कई गूँजें संभव हैं.’ (परमानंद श्रीवास्तव, ‘कविता में कविता कहाँ है!’, कविता का उत्तर जीवन, पृ.सं.29).

परमानंद श्रीवास्तव के लेखों/ टिप्पणियों से गुजरने पर यह अहसास होता है कि उन्होंने अपने समय की समग्रता को समझने का प्रयास किया है. उन्होंने सवयं अपनी आलोचना प्रक्रिया के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘मैं आलोचना लिखते हुए सार्थक संवाद की ही मनःस्थिति में रहता हूँ, इसलिए नए शब्द या पद आते भी हैं तो पारिभाषिक बनने से इंकार करते हुए. कभी कभी अधिक संभावनापूर्ण शब्दों पर जरूर ध्यान जाता है, क्योंकि उनसे एक नई राह खुलती है. हम आलोचना में अपने अनुभव आस्वाद से गुजरते हुए अपना एक समय भी रचते हैं.’ (परमानंद श्रीवास्तव, आप जाना उधर और आप ही हैराँ होना – अरविंद त्रिपाठी और गणेश पांडेय से बातचीत, मेरे साक्षात्कार, पृ.सं.49-50).

अंत में, यह रेखांकित करना आवश्यक है कि ‘पाठ’ की संभावनाओं को खंगालने के लिए ‘पाठ’ का अतिक्रमण करना भी परमानंद श्रीवास्तव की आलोचना की संप्रेषणीयता और सृजनात्मकता का आवश्यक तत्व है. वे मानते हैं कि कविता और आलोचना दोनों पाठ के बाहर जाती हैं. पाठ के बाहर जाकर ही आलोचना होती है. अपनी रचना ‘कविता का अर्थात’ की भूमिका में उन्होंने इस बात की ओर संकेत किया है कि कविता में समय और समय में कविता को देखने की कोशिश उनके लिए उत्तेजक अनुभव है. उन्होंने कहा कि ‘कविता का अर्थात’ शीर्षक संकेत है कि ‘इस नए पाठ या विमर्श में जो चुनौतियाँ दिखाई दे रही हैं, वे कविता से एक वृहत्तर अर्थ की माँग करती है. कविता में उपन्यास जैसे स्पेस की खोज गद्य और कविता के बीच एक विलक्षण रिश्ते का संकेत है. आज कविता की आलोचना के सामने संरचना का एकाग्र पाठ ही जरूरी कार्यभार नहीं है, सभ्यता समीक्षा के रूप में संरचना में निहित समय और यथार्थ की पहचान एक नैतिक जिम्मेदारी है.’ वे आगे यह कहते हैं कि ‘आलोचना के रूप में यह कोशिश ही आलोचना का अपना संघर्ष भी है. दूसरे शब्दों में एक खोज. एक अनथक जिज्ञासा.’ (परमानंद श्रीवास्तव, कविता का अर्थात, भूमिका). 

अतः यह कहा जा सकता है कि यदि परमानंद श्रीवास्तव को एक आलोचक के रूप में पहचानना चाहें, पड़ताल करना चाहें तो सबसे पहले हमारा सामना एक रचनाकार से होता है - एक ऐसे संवेदनशील सृजनात्मक रचनाकार से जो अपने आपको प्रतिमानों के पार रखते हैं.

[बेलगाम संगोष्ठी, 'पुण्य स्मरण', 29, 30 मार्च 2014 में प्रस्तुत शोधपत्र]