वरिष्ठ हिंदी कवि केदारनाथ सिंह को सर्वोच्च साहित्य सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार (2013) से सम्मानित किया जा रहा है. हिंदी साहित्य में उनसे पहले सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, महादेवी वर्मा, श्रीनरेश मेहता, निर्मल वर्मा, कुंवर नारायण, श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को यह पुरस्कार मिल चुका है.
केदारनाथ सिंह का जन्म 7 जुलाई 1932 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के गाँव चकिया में हुआ. 1956 में बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से एम.ए. (हिंदी) और 1964 में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की. उन्होंने कई कॉलेजों में अध्यापन का कार्य किया और अंत में जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए.
‘तीसरा सप्तक’ के हवाले से यह कहा जा सकता है कि समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर केदारनाथ सिंह ने व्यवस्थित लेखन 1950 से आरंभ किया. उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ हैं – [कविता संग्रह] अभी बिल्कुल अभी, जमीन पक रही है, यहाँ से देखो, बाघ, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ, तालस्ताय और साइकिल, सृष्टि पर पहरा; [आलोचना] कल्पना और छायावाद, आधुनिक हिंदी कविता में बिंब विधान, मेरे समय के शब्द, मेरे साक्षात्कार; [संपादन] ताना बाना (आधुनिक कविता से एक चयन), समकालीन रूसी कविताएँ, कविता दशक, साखी (अनियतकालिक पत्रिका), शब्द (अनियतकालिक पत्रिका) आदि.
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का मानना है कि 'केदारनाथ सिंह की कहानियों में ‘मैं’ की चेतना कवि की कविताओं को आत्मपरक बनाती है. वह मनुष्य की नियति को, उसकी पीड़ा को, समय के दबाव को अपने भोग के स्तर पर निजी बनाकर व्यक्त करता है. आशा, आकांक्षा, प्यास, अतृप्ति, बेचैनी, अकेलेपन की उदासी इस कवि में कहीं बहुत गहरी है.’ (आग की ओर इशारा, समकालीन हिंदी कविता, पृ. 159). इसके अलावा जो चीज केदारनाथ सिंह की कविताओं को विशिष्ट बनाती है, वह है लोक की गंध. उन्होंने ‘तीसरा सप्तक’ के अपने वक्तव्य में कहा था – “मानव संस्कृति के विकास में कवि का योग दो प्रकार से होता है – नवीन परिस्थितियों के तल में अंतःसलिला की तरह बहती हुई अननुभूति लय के आविष्कार के रूप में तथा अछूते बिंबों की कलात्मक योजना के रूप में.” कहना न होगा कि उन्होंने अपने काव्य में अपने इस वक्तव्य को चरितार्थ किया है. उनकी कविताओं में प्रकृति अनेक भावों का आलंबन रही है. विशेष रूप से ग्राम्य प्रकृति. वे गाँव से शहर की ओर प्रस्थान करते हैं और फिर शहर से गाँव की ओर, पर कहीं भी उनमें अतीतजीवी ठहराव नहीं दिखाई देता. इनकी कविताओं में गाँव की प्राकृतिक आभा की अनेक छवियाँ दिखाई देती हैं. इस संबंध में उनका मत द्रष्टव्य है- “मैं गाँव का आदमी हूँ और दिल्ली में रहते हुए भी एक क्षण के लिए भी नहीं भूलता कि मैं गाँव का हूँ. यह गाँव का होना कोई मुहावरा नहीं है, बल्कि इसके विपरीत मेरे जीवन की एक गहरी लगाव भरी वास्तविकता है, जिसे मैं अनेक स्तरों पर जीता हूँ. साल के कम से कम डेढ़-दो महीने मैं गाँव में गुजारता हूँ और वहाँ के सुख-दुःख में हिस्सा लेता हूँ. दरअसल मुझे लगता है कि मेरे भीतर एक सहज किसान के लगाव काम करते हैं और यह अकारण नहीं है कि उससे जुड़े हुए अनेक संकेत शायद मेरी रचना में भी ढूँढ़े जा सकते हैं. इसके साथ ही एक और बात मैं महसूस करता हूँ और वह यह कि हिंदी कविता की अपनी परंपरा शुरू से ही गाँव से जुड़ी रही है. मैं आज की कविता को जब अत्यधिक नागरिक होते देखता हूँ तो मुझे कई बार अपने भीतर एक डर पैदा होता है कि कहीं वह अपना जातीय स्वरूप खो न दे. यह तय है कि आज हम उस तरह गाँव की तरफ लौट नहीं सकते, जैसे मध्ययुग के कवि कर सकते थे. पर यह मुझे बराबर लगता है कि गाँव की चेतना और आधुनिक जीवन की वास्तविकता के बीच एक संतुलनपूर्ण तनाव समकालीन हिंदी कवि के लिए जरूरी है. मेरी कोशिश उसी दिशा में है.” (मेरे समय के शब्द, पृ. 182).
विश्वनाथ प्रसाद तिवारी का कहना है कि केदारनाथ सिंह की कविताओं में नदी, नाले, फूल, जंगल, तट धूप, सरसों के खेत, धानों के बच्चे, बन, सांध्यतारा, बसंत, फागुनी हवा, पकड़ी के पात, कोयल की कूक, पुरवा-पछुवा हवा, शरद प्रात, हेमंती रात, चिड़िया, घास, फुनगी आदि – बहुरूपी प्रकृति संसार रूपायित मिलेगा. उदाहरण स्वरूप देखें – “आदमी के जनतंत्र में/ घास के सवाल पर/ होनी चाहिए लंबी एक अखंड बहस/ पर जब तक वह न हो/ शुरूआत के तौर पर मैं घोषित करता हूँ/ कि अगले चुनाव में/ मैं घास के पक्ष में/ मतदान करूँगा/ कोई चुने या न चुने/ एक छोटी सी पत्ती का बैनर उठाए हुए/ वह तो हमेशा मैदान में है./ कभी भी.../ कहीं से भी उग आने की/ एक जिद है वह.” (घास, सृष्टि पर पहरा).
कविता और काव्य भाषा के संबंध में केदारनाथ सिंह का मत है कि कविता में स्वतः ही बिंब का निर्माण होता है. इसके कारण पूरी कविता विलक्षण हो जाती है. वह पाठकों को एक क्षण के लिए रुककर सोचने के लिए बाध्य कर देती है. वह इतना विवश कर देती है कि उस पर कोई सतही टिप्पणी न कर सके और न ही कोई अंतिम निर्णय पर पहुँच सके. इस संबंध में वे कहते हैं कि “गद्य से कविता जिन अर्थों में भिन्न होती है, उनमें से एक यह है कि वह पाठ प्रक्रिया के दौरान एक खास तरह की रचनात्मक बाधा उपस्थित करती चलती है. यह रचनात्मक बाधा कविता में जिन तत्वों के जरिए उत्पन्न की जा सकती है, उनमें सबसे प्रमुख है बिंब. बिंब पाठक को रोकता-टोकता चलता है और एक हद तक उसे विवश करता है कि वह रुके और सोचे और समग्र कविता के बारे में तुरत-फुरत कोई फैसला न दे दे. यह रचनात्मक बाधा शायद एक ऐसी कसौटी है जिस पर हम कविता का श्रेणी विभाजन कर सकते हैं. मुक्तिबोध की कविताएँ शायद इस तरह की बाधा सबसे ज्यादा उपस्थित करती हैं और मुक्तिबोध जिन कारणों से बड़े कवि हैं, उनमें यह प्रमुख है. यह अवश्य है कि बिंब अपने आप में कविता का साध्य नहीं है. वह हर हालत में संप्रेषण की एक लंबे समय से आजमाई हुई विधि है, जो आज के कवि के लिए, जिसके निकट भाषा दिनोंदिन अवमूल्यित होती जा रही है, बहुत महत्वपूर्ण है.” (मेरे समय के शब्द, पृ. 182).
अक्सर साहित्य, आलोचना और कविता आदि की जरूरत को लेकर प्रश्न किया जाता है. इस पर टिप्पणी करते हुए कवि-आलोचक केदारनाथ सिंह कहते हैं कि “कविता की जरूरत है, क्योंकि वह मनुष्य के अस्तित्व की बुनियादी माँगों में से एक है.” (मेरे समय के शब्द, पृ. 185). कवि का मानना है कि कविता विषम परिस्थितियों में भी व्यवस्था की असाधारणता के भीतर से अपना रास्ता निकाल लेगी. वे ठोंक बजाकर कहते हैं कि कविता से अतिरिक्त माँग नहीं की जानी चाहिए. यह खुशफ़हमी भी नहीं पालनी चाहिए कि कविता क्रांति लाएगी; हाँ, क्रांति के लिए वातावरण अवश्य बना सकती है. वे कहते हैं कि “बेहतर होगा कि हम कविता से वही माँग करें, जो वह दे सकती है. मेरी मान्यता है, एक अच्छी कविता क्रांति के उपयुक्त वातावरण बनाने में सैकड़ों राजनैतिक प्रस्तावों से कहीं ज्यादा काम करती है.” (मेरे समय के शब्द, पृ. 186).
भाषा के बारे में केदारनाथ सिंह कहते हैं – “बिना कहे भी जानती है मेरी जिह्वा/ कि उसकी पीठ पर भूली हुई चोटों के/ कितने निशान हैं/ कि आती नहीं नींद उसकी कई क्रियाओं को/ रात-रात भर/ दुखते हैं अक्सर कई विशेषण./ कि राज नहीं – भाषा/ भाषा - भाषा सिर्फ भाषा रहने दो मेरी भाषा को/ अरबी-तुर्की बांग्ला तेलुगु/ यहाँ तक कि एक पत्ती के हिलने की आवाज भी/ मैं सब बोलता हूँ जरा-जरा/ जब बोलता हूँ हिंदी.” (हिंदी).
‘देवनागरी’ कविता को ही देखें- “यह मेरे लोगों का उल्लास है/ जो ढल गया है मात्राओं में/ अनुस्वार में उतर आया है कोई कंठावरोध.” (देवनागरी).
केदारनाथ सिंह बंदिशों के नहीं, स्वतंत्रता के पक्षधर हैं. वे मनुष्य की ही स्वतंत्रता की बात नहीं करते बल्कि प्रकृति की हर चीज की स्वतंत्रता की बात करते हैं – “माटी को हक दो- वह भीजे, सरसे, फूटे, अंखुआए,/ इन मेडों से लेकर उन मेडों तक छाए,/ और कभी न हारे,/ (यदि हारे)/ तब भी उसके माथे पर हिले,/ और हिले,/ और उठती ही जाए-/ यह दूब की पताका-/ नए मानव के लिए!” (हक दो).
डॉ. परमानंद श्रीवास्तव का मानना है कि “केदारनाथ सिंह का काव्यसंसार आज के भारतीय समाज के प्रति गहरी संवेदनात्मक उन्मुखता या लगाव प्रमाणित करने वाला संसार है. इस संसार में पहले की अपेक्षा अधिक सहज यथार्थ दर्शन का साक्ष्य मिलेगा – वह सहजता मिलेगी जो चीजों की तह तक पाठक को ले जाने में अर्थ ग्रहण करती हो और वह आधुनिक ऐतिहासिक विवेक भी मिलेगा जो सामाजिक संघर्ष जैसी वास्तविकता को अधिक स्पष्ट देखने में सक्षम प्रतीत हो. अनुभव और शिल्प की कुछ खास रूढ़ियों में फँसी आज की कविता को नया मोड़ देने की कोशिश में केदारनाथ सिंह जैसे कवि एक बार स्वयं अपनी अब तक की रचना प्रक्रिया का पुनः परीक्षण करते दिखाई देते हैं.” (परमानंद श्रीवास्तव, कविता में संवेदना और विचार की घुलावट, शब्द और मनुष्य, पृ. 145). इसी कोशिश के तहत उन्होंने हिंदी काव्य भाषा को एक नया आयाम प्रदान किया है जिसका एक पक्ष लोकतत्व से चेतना प्राप्त करता है तो दूसरा बिंब विधायिनी नवोन्मेषकारी प्रतिभा से अनुप्राणित दीखता है. शैली की दृष्टि से उनका काव्य अत्यंत अर्थगर्भित होते हुए भी सहज संप्रेष्य है. इस संबंध में उनकी प्रसिद्ध कविता ‘अनागत’ की विवेचना करते हुए प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव द्वारा दिए गए निष्कर्ष को यहाँ उद्धृत समीचीन होगा – “अर्थ संप्रेषण की इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप हम निर्जीव ‘अनागत’ को सजीव व्यक्तित्व धारण करते पाते हैं. हम देखते हैं कि व्यक्ति रूप में उसका निवास स्थल कवि व्यक्तित्व का ‘अवचेतन मन’ है जहाँ से ‘कौंधकर’ वह चेतन मन के दर्पण में अपना प्रतिबिंब डालता है और अपनी सत्ता का आभास कवि व्यक्तित्व को देता रहता है. वह न केवल चेतन मन के दर्पण में ‘कौंध’ कर अपने ठोस वस्तुरूप की प्रतिछवि डालता है अपितु ‘चीख’ कर अपने दर्द को अभिव्यक्त रूप देने वाले एक सजीव प्राणी के रूप में उभरता है. वह मानव रूप है अतः पीड़ा की संवेदनात्मक अनुभूति की उसमें क्षमता भी है. कवि व्यक्तित्व के साथ उसके मानवोचित संबंधों की स्थिति उसके जीवंत पक्ष की ओर संकेत देती है और कवि को विवश करती है कि उसकी चीखपूर्ण वाणी की सार्थकता का पता लगाए और उसके तथा अपने बीच के संबंधों की प्रकृति पर निर्णय दे.” (प्रो. रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, अनागत : शैली का काव्यस्तर, शैलीतत्व : सिद्धांत और व्यवहार, पृ. 169, 1988, (सं) प्रो. दिलीप सिंह).
वस्तुतः डॉ. केदारनाथ सिंह उन विरले कवियों में से हैं जिन्होंने अभिव्यक्ति के लिए ‘अतिकथन और मितकथन के बीच का रास्ता’ ‘बड़ी चिंता के साथ’ खोजा है. एक ओर वे प्रकृति और लोकसंपृक्ति के सहारे जमीन से जुड़ते हैं तो दूसरी ओर समकालीन जीवन के तनावों को भी बड़बोलेपन से बचकर साक्षी भाव के साथ चित्रित करते हैं. ऐसे कवि के समक्ष अभिधात्मक होने का खतरा सदा विद्यमान रहता है परंतु जैसा कि डॉ. रामस्वरूप चतुर्वेदी कहते हैं, बिंब का रास्ता अपनाकर उन्होंने सहज ही इस खतरे से अपनी कविता को बचा लिया है. “वे काव्य विकास के अपने हर दौर में वस्तु के स्तर पर जमीन से जुड़े रहे हैं और विधान के स्तर पर बिंब से. सामान्यतः जमीन की महिमा का बखान करने वाले अधिकतर कवि अभिधा और सपाटबयानी पर आश्रित रहते हैं जैसे नागार्जुन, सुमन या कि आगे चल कर धूमिल. केदारनाथ सिंह का रास्ता इनसे अलग है, जो कवि कर्म की दृष्टि से जितना कठिन है उपलब्धि की दृष्टि से उतना ही सर्जनात्मक.”(रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 242)
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