गुरुवार, 6 नवंबर 2014

समकालीन हिंदी कविता की चुनौतियाँ

वस्तुतः हिंदी कविता का फलक बहुत ही विस्तृत है. अपनी यात्रा में उसे समय समय पर अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. आज के कवि और कविता को और भी नई नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. इन चुनौतियों में से मुख्य चुनौती संप्रेषणीयता की चुनौती है. अर्थात काव्यभाषा की समस्या. जनभाषा का स्तर एक है तथा कविता की भाषा का स्तर एक. प्रायः यह माना जाता है कि साहित्यकार बनना हर किसी के बस की बात नहीं है. यह बात कवि और कविता पर भी लागू होती है. कविता लिखना हर किसी के लिए साध्य नहीं है. जिस तरह साहित्यकार को शब्द और भाषिक युक्तियों का चयन सतर्क होकर करना चाहिए उसी प्रकार कविता में भी शब्दों का सार्थक और सतर्क प्रयोग वांछित है. कवि को इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि उसे किस शब्दावली और भाषा का चयन करना होगा. सहज संप्रेषणीयता की दृष्टि से घरेलू परिसर और लोक परिवेश से चुने गए शब्दों और प्रतीकों की प्रयोग को केदारनाथ सिंह की कविता ‘एक पारिवारिक प्रश्न’ में देखा जा सकता है – 

“छोटे से आंगन में/ माँ ने लगाए हैं/ तुलसी के बिरवे दो/ पिता ने उगाया है/ बरगद छतनार/ मैं अपना नन्हा गुलाब/ कहाँ रोप दूँ!/ मुट्ठी में प्रश्न लिए/ दौड़ रहा हूँ वन-वन,/ पर्वत-पर्वत,/ रेती-रेती.../ बेकार” (केदारनाथ सिंह, एक पारिवारिक प्रश्न) 

इसमें संदेह नहीं कि आज बहुत भारी संख्या में कविता के नाम पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है. किसे कविता – अच्छी कविता – कहें और किसे नहीं. यह भी एक समस्या है. एक ओर नगरीय बोध वाले कवि हमारे सामने हैं. यदि उनकी कविताओं को ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि उनकी संवेदना शहर से जुड़ी हुई है. अतः उनकी कविताओं में सहज रूप से शहरी परिवेश को देखा जा सकता है. ऐसे कवि जब किसी और भाषा या भाषिक परिवेश के शब्दों, मिथकों और प्रतीकों को हिंदी कविता में आयात करते हैं तो संप्रेषणीयता की समस्या उत्पन्न हो जाती है. उदाहरण के लिए कुमार लव की एक कविता देखें – 

“प्रोमेथ्यूज़ का कलेजा/ हर रोज़ नोचती चील/ सोचती होगी/ कैसा मूर्ख है यह,/ देवताओं से लड़ता है भला कोई!!” (कुमार लव, उल्लंघन)

जब तक पाठक प्रोमेथ्यूज़ को नहीं जानते तब तक कविता को समझना भी कठिन है. दूसरी ओर ग्रामीण बोध वाले कवि हैं. इनके शब्द चयन में आंचलिकता का अतिशय आग्रह संप्रेषणीयता को बाधित करता है. परंतु जहाँ कवि दैनिक जीवन के बिंबों को प्रचलित लोक शब्दावली में बांधता है वहाँ पाठक को उससे जुड़ने में कोई व्यवधान महसूस नहीं होता. उदाहरण के लिए – 

“चिकनी पीली मिटटी को/ कुएँ के मीठे पानी में गूँथकर/ बनाया था माँ ने वह चूल्हा/ और पूरे पंद्रह दिन तक/ तपाया था जेठ की धूप में/ दिन दिन भर/ उस दिन/ आषाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा,/ हमारे घर का बगड़/ बूंदों में नहा कर महक उठा,/ रसोई भी महक उठी थी –/ नए चूल्हे पर खाना जो बन रहा था./ गाय के गोबर में/ गेहूँ का भुस गूँथ कर/ उपले थापती थी माँ बड़े मनोयोग से/ और आषाढ़ के पहले/ बिटौड़े में सजाती थी उन्हें/ बड़ी सावधानी से” (ऋषभदेव शर्मा, बनाया था माँ ने वह चूल्हा)

यह कविता ग्रामीण जीवन और मानव संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती है. लेकिन आज की शहरी युवा पीढ़ी न ही चिकनी मिटटी से चूल्हा बनाने की प्रक्रिया से अवगत है और न ही गाय के गोबर में गेहूँ का भुस गूँथकर उपले थापने से. आज तो खाना गैस स्टोव पर या इलेक्ट्रिक ओवेन में बनता है तो रसोई की महक क्या होती है और उससे जुड़ी माँ की संवेदना क्या होती है. यह भला कैसे जान सकते हैं? ऐसे में इस कविता की संप्रेषणीयता में व्यवधान उत्पन्न होना स्वाभाविक है. ग्रामबोध वाली कविताओं में बहुत सारे ग्रामीण अंचल के शब्द मुखरित हैं. उदाहरण के लिए ऋषभदेव शर्मा की एक कविता का शीर्षक ही है ‘गलगोड्डा’. अब इस शब्द को समझने के लिए अंचल का दरवाजा खटखटाना जरूरी है. तेलुगु में इसे ‘गुदिबंडा’ कहा जाता है. अर्थात चंचल पशुओं के गले में बाँधा जाने वाला गति-अवरोधक पत्थर, पाया अथवा खूंटा. 

यह तो हुई संप्रेषणीयता की बात. समकालीन कविता के समक्ष उपस्थित होने वाली दूसरी चुनौती है वक्तव्य प्रधानता. ‘चौथा सप्तक’ (1979) की भूमिका में अज्ञेय ने इस बात को रेखांकित किया था कि “आज की कविता में वक्तव्य का प्राधान्य हो गया है. उसके भीतर जो आंदोलन हुए हैं और हो रहे हैं वे सभी इस बात को न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि बहुधा इसी को अपने दावे का आधार बनाते हैं.” वे आगे कहते हैं कि “कविता में वक्तव्य तो हो सकता है और वक्तव्य होने से ही वह अग्राह्य हो जाए ऐसा भी नहीं है. लेकिन वक्तव्य के भी नियम होते हैं और उनकी उपेक्षा काव्य के लिए खतरनाक होती है. यह बात उतनी ही सच है जितनी यह कि काव्य में कवि वक्ता के रूप में भी आ सकता है, लेकिन उत्तम पुरुष के प्रयोग की जो मर्यादाएँ हैं उनकी उपेक्षा करने से कविता का ‘मैं’ कवि न होकर एक अनधिकारी आक्रांता ही हो जाता है. आज कविता पर एक दावे करने वाला ‘मैं’ बुरी तरह छा गया है. कविता में ‘मैं’ भी निषिद्ध नहीं है, दावे भी निषिद्ध नहीं हैं, कविता प्रतिश्रुत और प्रतिबद्ध भी हो सकती है, लेकिन कहाँ अथवा कहाँ तक इन सबका काव्य में निर्वाह हो सकता है और कहाँ ये काव्य के शत्रु बन जाते हैं यह समझना आवश्यक है.” (अज्ञेय, ‘काव्य का सत्य और कवि का वक्तव्य’, भूमिका, चौथा सप्तक). 

समकालीन कविता में प्रायः यह देखा जा सकता है कि कवि अपने बारे में और कविता के बारे में ज्यादा बोलते हैं. वस्तुतः कविता को लाक्षणिक और सांकेतिक होना चाहिए न कि विवरणात्मक. लेकिन आज की कविता बड़ी सीमा तक विवरणात्मक है और वक्तव्य के रूप में, अर्थात गद्य के रूप में, सामने आती है. इसका निराकरण करने के लिए कवि संवादात्मकता की तकनीक अपनाते दिखाई देते हैं. उदाहरण के लिए धूमिल की कविता ‘मोची राम’ वक्तव्य प्रधान होते हुए भी पूरी तरह से संवादात्मक कविता है. देखें – 

“राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे/ क्षण-भर टटोला/ और फिर/ जैसे पतियाये हुये स्वर में/ वह हँसते हुए बोला-/ बाबूजी सच कहूँ - मेरी निगाह में/ न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है/ मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है/ जो मेरे सामने/ मरम्मत के लिए खड़ा है।“ (धूमिलमोची राम) 

आज के उत्तरआधुनिक परिप्रेक्ष्य में विमर्शों की कविता को देखा जा सकता है - स्त्री विमर्श की कविताएँ, दलित विमर्श की कविताएँ, अल्पसंख्यक विमर्श की कविताएँ आदि. एक तरह से ये कविताएँ आत्मवक्तव्य सी बनती जा रही हैं. ऐसे रचनाकारों को यह समझना आवश्यक है कि आपबीती को जगबीती कैसे बनाया जाय. 

समकालीन कविता के सामने जो तीसरी चुनौती उपस्थित है वह है अभिव्यक्ति का खतरा. मुक्तिबोध ने कहा था कि ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे.’ आज के समय में भी अभिव्यक्ति के खतरे हैं क्योंकि पग पग पर विमर्शों का दबाव है. कवि की वैचारिकता विमर्शों के कारण दबाव महसूस करती है. यह भी देखा जा सकता है कि विमर्शों के नाम पर नकली संवेदना अर्थात कल्पित यथार्थ को भी कविता में जगह दी जा रही है. एक ओर सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था का दबाव है तो दूसरी ओर बाजार का सर्वव्यापी दबाव है. बाजार ने मनुष्य को इतना प्रभावित कर दिया है कि उसका जीवन भी बाजार में खरीदी बेची जाने वाली वस्तु बनता जा रहा है. उसकी कल्पनाएँ एवं संवेदनाएँ सूख रही हैं. भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने कविता को भी नहीं छोड़ा है. आज की कविता का बड़ा हिस्सा भूमंडलीकरण और बाजारवाद के बीच पिसते हुए मनुष्य की अभिव्यक्ति है. सपनों तक पर बाजार के छा जाने की त्रासदी को कविता में कैसे अभिव्यक्त किया जाय - यह प्रश्न हमारे कवियों के समक्ष उपस्थित है. इस समय उत्तरआधुनिकता से आगे बढ़कर एकदम अस्थिर प्रकृति वाली तरल आधुनिकता भी कवि की चिंता का विषय है. अंततः ‘एक परोपकारी राजा था,/ एक करुणामयी रानी थी,/ एक दुष्ट राक्षस था .... / ऐसी कहानियों के अंत बदल देने चाहिए/ बच्चे बड़े हो रहे हैं.’ (पंकज राग, कहानियों का अंत)

1 टिप्पणी:

Devi Nangrani ने कहा…

Maan ne banaya tha choolha...ek manobhavon se gunthi hui soch shabdon ki sashakt abhivyakti jise padhne maatr se ek grameen jeevan ki tasveer jeevant roop se saamne aa jati hai...
Bahut sunder...

जड़ पुरानी सभ्यता की है अभी तक गाँव में
सुबह माँ चक्की चलाती है अभी तक गाँव में