रविवार, 22 फ़रवरी 2015
वसंत में आदमखोर पलाश
फरवरी का महीना. भारत में प्रकृति की सुषमा के पूरे आवेग के साथ फूट पड़ने का महीना. वसंत ऋतु. लोक से लेकर साहित्य तक इसकी महिमा भरपूर है. काव्यशास्त्रियों ने जब ऋतु वर्णन को महान काव्य के अंग के रूप में
स्वीकार किया होगा तो शायद वसंत ऋतु और वसंतोत्सव के चित्रण की अनिवार्यता उनके ध्यान में रही होगी. वह कवि ही क्या जिसकी वाणी वसंत की मादकता से अछूती रह जाए. इसलिए किसी-न-किसी रूप में हर कवि वसंत ऋतु का वर्णन अवश्य करता है. वसंत में कुछ ऐसा नयापन है, ताजगी है कि हर बार इसका वर्णन नई स्फूर्ति और मौलिक अनुभूति देता है.
भारतीय संदेश काव्यों की परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान के अधिकारी ‘संदेश रासक’ के रचयिता अद्दहमाण ने भी वसंत का विरहणी नायिका के भावों के साथ जोड़कर बिंब-प्रतिबिंब रूप में चित्रण किया है जो अत्यंत हृदयग्राही और मर्मस्पर्शी है. इसमें संदेह नहीं कि वसंत में प्रकृति की शोभा अपने चरम पर होती है. इसीलिए विरही जन की विरहाग्नि भी अधिकतम तापकारी हो उठती है. ‘संदेश रासक’ की नायिका का विरह वसंत ऋतु में अपने चरम पर है. वह प्रकृति के प्रत्येक दृश्य को अपने विरह से जोड़कर देखती है. पलाश के वे फूल जिनका रंग होली में जन जन के मन को रंग डालता है उनका घना काला-लाल रंग देखकर वह पलाश के आदमखोर हो जाने की अनुभूति करती है.
दरअसल वसंत ऋतु में सारी प्रकृति, सारी दिशाएँ हँसती खिलखिलाती हैं. नए पत्ते और नए फूल धरती के अंग अंग को सजाते हैं. लोक के अधरों पर मधुर गीत इठलाने लगते हैं. ऐसे में ‘संदेश रासक’ की नायिका बरस भर से पति से दूर है. उसका पथिक से यह कहना स्वाभाविक है कि मैंने पति का स्मरण करते-करते अति दुस्सह ग्रीष्म बिता दिया, वर्षा बिता दी; शरद, हेमंत और शिशिर भी किसी किसी प्रकार काट दिए, किंतु मेरा पति वसंत में भी आता नहीं दिखाई देता. एक ओर वसंत का यह प्रभाव है कि भ्रमर काँटों की चिंता न करके मधुपान में मत्त हैं. उनके शरीर में काँटे गड़ जाते हैं किंतु वे पीड़ा नहीं गिनते. रसलोभी रस के लिए शरीर तक दे देते हैं और पाप-पुण्य की परवाह नहीं करते, इधर मैं तीव्र विरह-ज्वाला से जलकर आकुल हो रही हूँ. कामदेव गर्जन कर रहा है. मैं दुस्तर और दुस्सह विरह समुद्र में सभय पड़ी हूँ. किंतु मेरे पति को मेरी कोई चिंता नहीं है और वह खंभात में अपने व्यापार में संलग्न है.
प्रोषितपतिका नायिका जब देखती है कि अन्य स्त्रियाँ वसंतागम पर दान कर रही हैं क्योंकि उनके पति उनके पास हैं तो वह व्यापार के लिए खंभात गए हुए अपने पति को बुलाने के लिए मन को दूत बनाकर भेजती है. पर देखिए इस निगोड़े मन को, ऐसा गया कि आया नहीं. नायिका तो बेमन की होकर रह गई. अद्दहमाण उसकी अनुभूतियों को अपने शब्द इस प्रकार देते हैं – निरंतर पुष्पराग झड़ते रहने से धरा लाल और अधिकतर तप्त हो गई है. पृथ्वी को शीतल करती हुई वायु चलती है किंतु वह शीत नहीं उत्पन्न करती, वह मानो ताप फैलाती है. अशोक आधे क्षण के लिए भी शोक नहीं हरता. कंदर्प दर्पपूर्वक अंगों को संतप्त करता है, सहकार अंगों को सहारा नहीं देता. अवसर पाकर घोर विरह जम्हाई लेता है, मोरों का तांडव करके शब्द करना सुन पड़ता है. सुरक्तक वृक्षों पर कृष्णकाया कोकिलाएँ विविध भाव से मानो भरतमुनि द्वारा बताए गए नियमों के अनुसार गान कर रही हैं. अत्यंत मनोहर ऋतु आ गई. मधुकर सरस ध्वनि करते हैं. कीर प्रेम पूर्वक नृत्य करते हैं या नीड़ बनाते हैं. ऐसे में मदनपरवशा विरहिणी अत्यंत कष्टपूर्वक किसी तरह प्राण धारण करती है. ऊपर से जल रहित मेघ उसकी काया को संतप्त करते हैं. कोयल का कलरव कैसे सहा जाए!
नव यौवना तरुणियों की चहकती ध्वनियाँ ऐसे में उसे प्रिय मिलन हेतु और भी उत्कंठित बना रही है. ऐसे समय में जब लोक में दिन इतने उत्तेजक हो जाते हैं, विरहिणी नायिका के कष्ट का असह्य हो उठना स्वाभाविक है.
कवि अद्दहमाण भला इतने क्रूर कैसे हो सकते हैं कि सुखांत काव्यों की महिमा वाले इस देश में वे अपनी नायिका को वसंत में इसी तरह पलाश के आदमखोर जबड़ों में जकड़ी छोड़ देते. नहीं; ऐसा नहीं हो सकता. वे बताते हैं कि जैसे ही नायिका ने संदेश भेजा, उसी क्षण उसे दक्षिण दिशा के मोड़ पर से सामने आता हुआ अपना पति दिखाई दिया. अंततः अद्दहमाण कहते हैं कि “जिस प्रकार आधे क्षण में उसके कार्य की अचिंतित महती सिद्धि हुई उसी प्रकार पढ़ने-सुनने वालों के भी कार्य सिद्ध हों. अनादि अनंत की जय हो.”
‘स्रवंति’ के पाठकों के लिए भी हमारी यही कामना है :-
जेम अचिंतिउ कज्जु तस सिद्ध खणद्धि महंतु.
तेम पठंत सुणंतयह जयउ अणाइ अणंतु.
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