शनिवार, 20 जून 2015

एक दिन पिता के लिए

यों तो भारत में पूर्वजों के स्मरण और तर्पण के लिए प्रति वर्ष एक पक्ष निर्धारित है – पितृपक्ष. जो हमसे पहले गुजर गए उनके प्रति हम अपनी कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं और कामना करते हैं कि वे सब दिवंगत आत्माएँ शांति को उपलब्ध हों. लेकिन पिता के प्रति प्रेम प्रकट करने के लिए एक और अच्छा अवसर ‘पिता के दिन’ (फादर्स डे) के रूप में हमारे सामने है. दरअसल इस दिन को मनाने की शुरूआत एक दुर्घटना से हुई. फादर्स डे सबसे पहले पश्चिम वर्जीनिया के फेयरमोंट में 5 जुलाई 1908 को मनाया गया था. कई महीने पहले 6 दिसंबर 1907 को मोनोंगाह, पश्चिम वर्जीनिया में एक खान दुर्घटना में मारे गए 210 पिताओं के सम्मान में इस विशेष दिवस का आयोजन श्रीमती ग्रेस गोल्डन क्लेटन ने किया था. यह कारण अब अतीत की वस्तु हो चुका है और सहज रूप में पिता-दिवस संतानों के लिए यह महसूस करने का दिन बन गया है कि पिता हमारे लिए अपनी सब सुख-सुविधाओं को वार कर हमारे जीवन को सँवारने में लगे रहते हैं. साथ ही यह दिन पिता के समक्ष यह प्रकट करने का भी दिन है कि हमें आपके स्नेह, त्याग और छत्रछाया का गहरा आभास है, हम जो कुछ हैं आप के रचे हुए हैं तथा भले ही हमने आज तक कभी इसे व्यक्त न किया हो परंतु हम अपने पूरे अस्तित्व से आपको प्यार करते हैं. 

पिता हमसे क्या चाहते हैं? वे हमें दुनिया में लाए क्यों? वे हमारा इतना ख्याल क्यों रखते हैं? वे अपने तमाम कष्टों और पीड़ाओं को बड़ी कठोरता से आखिर क्यों अपनी छाती में समेटकर रखते हैं? एक पिता को आखिर संतान से चाहिए क्या? जिसने अपने सारे सामर्थ्य से हमें गढा और इस योग्य बनाया कि तमाम तरह की विपरीत हवाओं के बीच हम खड़े रह सकें, हरे रह सकें, फलते-फूलते रह सकें; भला उसे हम दे भी क्या सकते हैं? दे सकते हैं. अवश्य दे सकते हैं. स्वार्थहीन, निष्कुंठ प्रेम! पिता की भूमिका ही कुछ ऐसी होती है कि उसे अपने आपको पत्थर जैसा दिखाना पड़ता है. संतानें अगर इस पत्थर में धड़कते दिल को छूती रहें तो फिर पिता को और चाहिए क्या? लेकिन कितने पिता ऐसे सौभाग्यशाली हैं जिनकी संतानें यह पहचानती हों कि पिता कठोरता के कवच में लिपटा हुआ नवनीत है – पल पल द्रवित. 

पिता-दिन हमें एक अवसर देता है कि हम उछलकर एक बार फिर नन्हे बालक बनकर पिता के गले से लिपट जाएँ और दो पीढ़ियों के बीच जमी हुई बर्फ के पूरी तरह पिघल जाने तक इसी तरह लिपटे रहें. सारे शब्द उस पुलक स्पर्श के सामने सामर्थ्यहीन हैं जो हमारे बालों में घूमती हुई पिता की अंगुलियाँ हमें दे जाती है. 

यहाँ मुझे एक घटना याद आ रही है. 7 सितंबर, 2013 को डॉ. ऋषभदेव शर्मा के कविता संग्रह ‘सूँ साँ माणस गंध’ का लोकार्पण करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने इस संग्रह की सर्वश्रेष्ठ कविता के रूप में जिस कविता की चर्चा की थी वह पिता और संतान के संबंध पर ही केंद्रित है. पिता-दिन के अवसर पर ‘स्रवंति’ के पाठकों के लिए वह कविता यहाँ साभार उद्धृत की जा रही है –

भाषाहीन 

मेरे पिता ने बहुत बार मुझसे बात करनी चाही
मैं भाषाएँ सीखने में व्यस्त थी
कभी सुन न सकी उनका दर्द
बाँट न सकी उनकी चिंता
समझ न सकी उनका मन

आज मेरे पास वक़्त है
पर पिता नहीं रहे
उनकी मेज़ से मिला है एक ख़त

मैं ख़त को पढ़ नहीं सकती
जाने किस भाषा में लिखा है
कोई पंडित भी नहीं पढ़ सका

भटक रही हूँ बदहवास आवाजों के जंगल में
मुझे भूलनी होंगी सारी भाषाएँ
पिता का ख़त पढ़ने की खातिर 

बुधवार, 17 जून 2015

खोज

बालकनी में बैठकर
आसमान को ताकना कितना भला लगता है!
अभी कल की ही बात है,
काले काले बादलों को देख
रोमांचित हो उठी थी मैं.

अचानक बिजली चमक उठी
कभी दाएँ - कभी बाएँ.
मेरा दिल धड़क सा गया.
तुम्हें ढूँढ़ने लगी.
ढूँढ़ने से तुम कभी नहीं मिलते,
कल भी नहीं मिले.

तुम ठहरे बादल
कभी यहाँ बरसे कभी वहाँ
कभी धरती की प्यास बुझाई
कभी पर्वत शृंखलाओं से खेले

वर्षा थम गई
आज वातावरण शांत है
धूप खिल आई है
मेरा मन भरा है कोलाहल से
तुम्हें ढूँढ़ रही हूँ हर दिशा में
ढूँढ़ने से तुम कभी नहीं मिलते,
आज भी नहीं मिले!

बगिया फूल उठी है
मैं तुम्हें ढूँढ़ रही हूँ
भँवरा कलियों पर मंडरा रहा है
फूलों का रस पी रहा है.
यह तुम्हीं तो नहीं?
तुम्हें ढूँढ़ रही हूँ
गली-गली कली-कली
ढूँढ़ने से तुम कभी नहीं मिले.
कभी तो मिलो -
खुद ढूँढ़कर!