महाशिवरात्रि और होली की रंगारंग शुभकामनाएँ देते हुए इस बार त्योहारों के इस महीने में हम आपके लिए लाए हैं लोक कवि ईसुरी के फाग काव्य के कुछ अंश. लोक कवि ईसुरी का जन्म बुंदेलखंड के मेंढ़की गाँव (जिला झांसी) में सन 1838 ई. (संवत् 1895 वि.) में चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को हुआ था. वे बचपन से ही लोक संस्कृति के विभिन्न रंगों में इस तरह पग गए थे कि उन्होंने अपना सारा जीवन लोक रंजन और लोक शिक्षण के लिए समर्पित कर दिया. यहाँ तक कि इसके लिए उन्होंने दरबारी कवि बनने के सम्मानित प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया. उन्होंने राम कथा, कृष्ण कथा, पुराणों और इतिहास के प्रसंगों को आधार बनाकर भारतीय जीवन मूल्यों की शिक्षा देने वाले अनेक फाग छंदों की रचना की. प्रकृति और प्रेम के वे अद्भुत चितेरे थे. अपने जीवन काल में ही उन्हें फाग गायन के कारण इतनी लोकप्रियता मिल गई कि उनकी काव्य नायिका रजऊ को लेकर तरह-तरह के प्रवाद तक प्रचलित हो गए. सब प्रकार की निंदा-स्तुति से ऊपर उठकर ईसुरी प्रेम की कुंठाहीन अभिव्यक्ति करते रहे. उन्होंने अपनी काव्य नायिका को प्रेमिका के स्तर से उठाकर राधिका बना दिया. राधिका और कृष्ण की होली का उन्होंने अनेक फागों में अत्यंत तन्मय होकर अंकन किया है.
ईसुरी के पाँच होली संबंधी फाग छंद ......
[1]
ऎसी पिचकारी की घालन, कहाँ सीख लई लालन
कपड़ा भींज गये बड़-बड़ के, जड़े हते जर तारन
अपुन फिरत भींजे सो भींजे, भिंजै जात ब्रज-बालन
तिन्नी तरें छुअत छाती हो, लगत पीक गइ गालन
ईसुर अज मदन मोहन नें, कर डारी बेहालन ।
[2]
सारी चोर-बोर कर डारी, कर डारी गिरधारी।
गिरधारी पकरन के काजैं।जुर आईं ब्रजनारी।
नारी भेस करौ मोहन कौ। पैराई तन सारी।
सारी पैर नार भए मोहन, नाचें दै-दै तारी
तारी लगा ग्वाल सब हँस रय, ईसुर कयँ बलहारी।
[3]
रंग डारो ना लला को अलकन में। पर जैं है मुकुट की झलकन में।
उड़त गुलाल लाल भये बादर, परत आँख की पलकन में।
पकर पकर राधे मोहन खाँ, मलत अबीर कपोलन में।
खेलत फाग परस पर ईसुर, राधे मोहन ललकन में।
[4]
ब्रज में खेले फाग कनाई, राधे संग सुहाई.
चलत अबीर रंग-केसर कौ, नभ अरुनाई छाई.
लाल-लाल ब्रज लाल-लाल बन, बीथन कीच मचाई.
‘ईसुर’ नर-नारिन के मन में, अति आनंद सरसाई.
[5]
राधे सजी सखिन की पलटन, आप बनी लफटंटन.
ललिता सूबेदार सलामी, देन लगी फर जंटन.
पथरकला सन सैन सँवारी, वर्दी पैरी बन ठन.
राइट-लेपट, मिचन नैनन की, खोलन खोल फिरंटन.
‘ईसुर’ कृष्णचंद मन-व्याकुल, बनौ रहौ है घंटन.
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