भारतेंदु मंडल के साहित्यकारों में पं. प्रताप नारायण मिश्र (24 सितंबर 1856 - 6 जुलाई 1894) का स्थान उल्लेखनीय है. वे उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बेल्थर गाँव के रहने वाले थे. बाद में कानपुर आए. उनके वहाँ कई मकान थे और वहीं ‘सतघरा’ मुहल्ले में रहते थे. वे बचपन से ही भावुक और सीधेसादे व्यक्ति थे. खद्दर का बहुत लंबा कुरता और धोती पहने, कंधों पर तेल चुचआते लंबे बाल लहराते, झूमते हुए वे किसी देवता के समान दिखाई देते थे और देखने वाल एक बार को उनकी चाल, उनकी लंबी-ऊँची नाक, उनका उज्ज्वल रूप देखकर धक् से रह जाता था. (स्व. पंडित प्रताप नारायण मिश्र : बाबू गोपाल राम गहमरी).
प्रताप नारायण मिश्र में कई अनोखे गुण विद्यमान थे. वे मनमौजी थे - इतने मनमौजी कि आधुनिक सभ्यता और शिष्टता की कम परवा करते थे. कभी लावनीबाजों में जाकर शामिल हो जाते तो कभी मेलों और तमाशों में बंद इक्के पर बैठ कर जाते दिखाई पड़ते. (रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 318-319). इसके साथ ही वे बड़े निर्भीक तथा विनोदप्रिय भी थे. हिंदी का ‘एडीसन’ कहे जाने वाले प्रताप नारायण मिश्र के व्यक्तिव के बारे में जानने के लिए बाबू गोपाल राम गहमरी लिखित संस्मरण पढ़ा जा सकता है. ज़रा देखें उनका शब्द-चित्र – “कविता उनकी बहुत ऊँचे दर्जे की होती थी. भारतेंदु ने भी उनके काव्य की बड़ाई की थी. नाटक और रूपक भी बड़ी ओजस्विनी भाषा में लिखते थे. अपने लेख में जहाँ जिसका वर्णन करते थे, वहाँ उसको मानो मूर्तिमान वहाँ खड़ा कर देते थे. बंकिम बाबू के उपन्यासों के अनुवाद उन्होंने हिंदी में किए थे./ वे सत्य भाषी थे. उनके मुँह से भूलकर भी असत्य कभी सुनने को नहीं मिला. हँसी-दिल्लगी में भी कभी झूठ नहीं बोलते थे. वे निर्भीक और बड़े हाजिर जवाब थे./ पंडित जी अपने कान हिलाया करते थे. जब दो-चार मित्र इकट्ठे होते तब कहने पर पशुओं की तरह कान हिलाने लगते थे. वे बड़े हंसोड़ थे. कविता तो चलते-चलते करते थे./ मिश्र जी नास बहुत सूंघते थे. सुघनी भरा बेल सदा अपने अंदर खद्दर के कुर्ते वाले पाकेट में रखते थे और जब चाहा बेल निकालकर हथेली पर नास उड़लते और सीधे नाक में सुटक जाते थे./ पंडित जी कभी स्नान नहीं करते थे. मित्रों के आग्रह करने पर टाल जाते थे. जब कभी कोई त्यौहार या बड़ा पर्व आता, बहुत उद्योग करने पर कभी-कभी स्नान कर लेते थे./ पंडित जी कविता में अपना उपनाम ‘बरहमन’ रखते थे, इसी से उन्होंने अपने मासिक पत्र का नाम ‘ब्राह्मण’ रखा था. उर्दू शायरी भी उनकी बड़ी चुटीली होती थी.” (स्व. पंडित प्रताप नारायण मिश्र : बाबू गोपाल राम गहमरी).
प्रताप नारायण मिश्र का लेखन क्रम लावनी से शुरू हुआ. साहित्यिक क्षेत्र में उनकी सृजनात्मक प्रतिभा काव्य, नाटक, उपन्यास आदि अनेक रूपों में विकसित हुई. विभिन्न क्षेत्रों में उनकी प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं – कविता : प्रेम पुष्पावली, मन की लाहर, दंगल खंड, लोकोक्ति शतक, ब्रैडला स्वागत, मानस विनोद, प्रताप संग्रह आदि. कलिकौतुक (रूपक), कलिप्रभाव, हठी हमीर, गौ संकट, भारत दुर्दशा (नाटक), जुआरी-खुआरी (प्रहसन) तथा संगीत शाकुंतल लावनियों में लिखा गया उनका पद्य नाटक है. रसखान शतक, तृष्यन्ताम्, शैव सर्वस्व, वर्णमाला, शिशु विज्ञान, स्वास्थ्य रक्षा जैसे विविध विषयों पर भी उन्होंने लेखनी चलाई. निबंध के क्षेत्र में उन्हें आत्मव्यंजक निबंधों के जन्मदाता माना जाता है. वे दांत, भौं, आप, बात, धोखा, रिश्वत, बेगार, होली जैसे विषयों पर मनोरंजक निबंध लिखते हैं तो शिवमूर्ति, कांग्रेस की जय, मित्र कपटी भी बुरा नहीं होता आदि गंभीर निबंधों से पाठकों को सोचने के लिए बाध्य करते हैं. उनके निबंधों में सहज, उन्मुक्त, मनमौजी, भोला व्यक्तित्व बोल उठता है. उन्होंने बहुत-सी रचनाओं का बंगला से अनुवाद भी किया – राजसिंह, इंदिरा, युगालांगुलीय, सेनवंश व सूबे बंगाल का इतिहास, नीतिरत्नावली, शाकुंतल, वर्ण परिचय, कथावल संगीत, चरिताष्टाक, पंचामृत.
शैलीविज्ञान यह मानता है कि यदि कोई भी कृति कलात्मक बनती है या फिर कोई भी साहित्यकार अपनी कृति को अधिकाधिक कलात्मक बनाना चाहता है तो यह शैली संघटना की विशेष तकनीक से ही संभव हो सकता है. “श्क्लोवस्की ने ‘ऑन द थियोरी ऑफ प्रोज’ में कहा था कि ‘लेखक आलंकारिक भाषा (फिगरेटिव लैंग्वेज) का प्रयोग करता है जिसमें वह रूपक या लक्षणा (मेटाफर), प्रतीक (सिंबल) और चित्रात्मकता (विजुअल पिक्चर्स) के सहारे अपनी रचना या विशिष्ट भाषा को तोड़कर उसे सर्जनात्मकता प्रदान कर पाता है, और अपने पाठक के भीतर एक नई दृष्टि पैदा कर पाता है; दुनिया को देखने की दृष्टि उस तरह और वैसी, जिस तरह और जैसी उसने पहले कभी नहीं देखी थी.” (दिलीप सिंह, ‘रामवृक्ष बेनीपुरी : यथार्थ की रंगीनियों को पहचानने वाले निबंधकार’, पाठ विश्लेषण, पृ. 211). शैली संघटना की यह विशेष तकनीक प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों में जगह-जगह देखी जा सकती है. इसी आधार पर पाठक उनका आज के परिप्रेक्ष्य में ‘पुनर्पाठ’ रच सकता है. उनके निबंधों में विस्मयकारी वैविध्य मिलता है जो उनकी अप्रतिहत गद्य क्षमता का प्रतीक है.
आज जब हम पं. प्रताप नारयण मिश्र के गंभीर सांस्कृतिक निबंध ‘शिवमूर्ति’ को एक बार फिर पढ़ने चलते हैं तो बाबू गुलाब राय का यह मत महत्वपूर्ण प्रतीत होता है कि “प्रताप नारायण मिश्र की शैली में संस्कृत शब्दों का प्राचुर्य-सा प्रतीत होता है, परंतु हरिश्चंद्र की भाँति इन्होंने भी उर्दू के उन्हीं शब्दों को लिया है जिनका चलन हिंदी में बहुत काल से था. इनकी भाषा में विशेष सजीवता और बोलचाल का चलतापन है. इनमें विनोद-प्रियता अधिक है. इसी विनोद-प्रियता के कारण ये पूर्वीपन की परवाह न करके बैसवारे की ग्रामीण कहावतों और शब्दों का भी प्रयोग निस्संकोच करते थे.” (गुलाब राय, हिंदी साहित्य का सुबोध इतिहास, पृ. 137). कहा जाता है कि सहज, सामान्य और सरल विषय पर सहज भाषा में लिखना कठिन है. ऐसे ही अवसर पर प्रायः साहित्यकार को अपनी भाषिक तथा अभिव्यंजना क्षमताओं का विस्तार करना होता है. प्रताप नारायण मिश्र ने इसे बहुत ही सहज और सरल शैली द्वारा संभव करके दिखलाया है. उनके निबंधों में व्यक्तिगत विशेषताओं के साथ-साथ शैलीय भेद भी लक्षित होते हैं. यह भी कहा जा सकता है कि सरलता, हास्य-व्यंग्यात्मकता, गंभीरता और सूक्ष्मता से विषय वस्तु की विवेचना करना, जनता को जाग्रत करना, सुधार एवं नवनिर्माण की प्रेरणा देना आदि उनके निबंधों की प्रमुख विशेषताएँ हैं. “पं. प्रताप नारायण मिश्र की प्रकृति विनोदशील थी अतः उनकी भाषा बहुत ही स्वच्छंद गति से बोलचाल की चपलता और भावभंगी लिए चलती है. हास्य विनोद की उमंग में वह कभी-कभी मर्यादा का अतिक्रमण करती, पूरबी कहावतों और मुहावरों की बौछार भी छोड़ती चलती है.” (रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृ. 309).
यही कहना है कि उनकी साहित्य-भाषा में सोंधापन, चपलता, भावभंगिमा, हास्य-विनोद, व्यंग्यात्मकता को सहज ही लक्षित किया जा सकते हैं. यह उनके गंवईपन/ देसीपन का प्रतिफलन है. इसी देसीपन के फलस्वरूप उनके निबंधों में शैलीगत विशेषताएँ, प्रोक्ति विन्यास की विलक्षणता, प्रतीकीकरण की प्रक्रिया, सांस्कृतिक उप-पाठ की विद्यमानता परिलक्षित हैं.
रामस्वरूप चतुर्वेदी की मान्यता है कि प्रताप नारायण मिश्र की भाषा शैली में अनौपचारिक भाषा विधान, विषय चयन और गद्य प्रवाह का रूप द्रष्टव्य है. ‘भाषा में स्खलन, शैली में घरूपन और ग्रामीणता, चंचलता और उछल-कूद’ उनकी विशेषता है. स्मरणीय है कि प्रताप नारयण मिश्र ‘हिंदोस्थान’ पत्र के काव्य भाग के संपादक थे. गोपाल राम गहमरी कहते हैं कि “वे फसली लेखक थे. जब कोई फसल जैसे जन्माष्टमी, पितृपक्ष, दशहरा, दीपावली, होली आते तब इन अवसरों पर वे संभवतः कविता रचा करते थे.” उनका यह कवि मन उनके निबंधों में भी दिखाई देता है.
इसी पीठिका के बाद आइए अब पं. प्रताप नारायण मिश्र के निबंध ‘शिवमूर्ति’ को एक बार और पढ़ा जाए. स्मरणीय है कि निबंध भारतेंदु युग का प्रतिनिधि गद्य रूप है. इस विधा में भारतेंदु मंडल की जिंदादिली और पुनर्जागरण चेतना की बुद्धिजीविता का सही समागम मिलता है. गद्य प्रसंगों को स्वच्छंद भाव से प्रस्तुत करने का भी निबंध (विधा) में पूरा अवसर है. (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी गद्य : विन्यास और विकास, पृ. 86). उल्लेखनीय है कि प्रताप नारयण मिश्र की भाषा-शैली में खास तरह का लोच दिखाई पड़ता हैं. उनके निबंधों को पढ़ते समय मानो ऐसा प्रतीत होता है कि वह सामने बैठकर बात कर रहे हों. पाठक को साथ लिए चलने की सहज वार्तालाप की सी शैली उल्लेखनीय को विशिष्ट और निजी बनाती है. इसके लिए वे प्रश्नवाचक वाक्य संरचना के साथ आधारभूत संस्कृत शब्दावली, ग्रामीण बोली की शब्दावली, उर्दू शब्दावली, मुहावरे, काव्यात्मकता, विस्मय बोधक चिह्न, अल्प विराम, अर्ध विराम आदि का सटीक प्रयोग करते हैं.
विवेच्य निबंध ‘शिवमूर्ति’ पुनर्पाठ के लिए अत्यंत सटीक और प्रासंगिक है. 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में लिखे गए इस निबंध में इसमें संस्कृति का उप-पाठ निहित है साथ ही यह कला का पाठ भी. इसमें भारतीय मनीषा का जागरण निहित है तथा प्रतीकों के माध्यम से बड़े सरल और सहज ढंग से इस बात को रेखांकित किया गया है कि भारत का शिक्षित वर्ग भारतीयता, भारतीय संस्कृति और भारतीय प्रतीकों के प्रति कितना उदासीन है. नवजागरण और स्वतंत्रता का आंदोलन भारत की खोज का आंदोलन था. इस निबंध में गुँथा ‘भारत की खोज’ का पाठ इसे उस काल और इस काल दोनों में प्रासंगिक बनाता है. इस निबंध में लक्षणा और व्यंजना के माध्यम से मिश्र जी ने उन सबकी खबर ली है जो अपनी संस्कृति के प्रति उदासीन हैं और उनकी भी खबर ली है जिन्होंने यह दुष्प्रचार किया कि भारत बर्बर और असभ्य राष्ट्र है तथा भारत के लोग मूर्ख तथा बंदर और साँप नचाने वाले हैं.
शिवमूर्ति कलाकृति अर्थात प्रतीक है. शिवमूर्ति के माध्यम से लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि मनुष्यों के बीच वैर नहीं होना चाहिए. इतना ही नहीं इस निबंध में आस्तिकता का पाठ है भी द्रष्टव्य है. वे कहते हैं कि “हमारा मुख्य विषय शिवमूर्ति है और वह विशेषतः शैवों के धर्म का आधार है.” इससे जुड़े अप्रत्तर्क्य विषयों का दिग्दर्शनमात्र कथन करके लेखक ने अपने शैव भाइयों से पूछा है कि आप भगवान गंगाधर के पूजक होके वैष्णवों से किस बिरते पर द्वेष रख सकते है? यह प्रश्न आज भी प्रासंगिक है क्योंकि धर्म और ईश्वर के नाम पर आज भी उन्माद और अराजकता का बोलबाला है – तब बात शैव/ शाक्त/ वैष्णव की थी तो अब बात हिंदू/ मुस्लिम/ ईसाई/ सीख की है. इसी द्वेष भाव से उत्पन्न आतंकवाद और सांप्रदायिकता की लपटों में आदमीयत स्वाहा होती जा रही है. प्रताप नारायण मिश्र समन्वय के पक्षधर हैं. वे अंधी आस्था के स्थान पर तर्क का पाठ प्रस्तुत करते हैं – “यदि धर्म से अधिक मतवालेपन पर श्रद्धा हो तो अपने प्रेमाधार भगवान भोलानाथ को परमवैष्णव एवं गंगाधर कहना छोड़ दीजिए. नहीं तो सच्चा शैव वही हो सकता है जो वैष्णव मात्र को अपना देवता समझे. ... इससे शैवों का शाक्तों के साथ विरोध अयोग्य है. हमारी समझ में तो आस्तिक मात्र को किसी से द्वेष बुद्धि रखना पाप है, क्योंकि सब हमारे जगदीश जी की ही प्रजा हैं, सब हमारे खुदा ही के बंदे हैं. इस नाते सभी हमारे आत्मीय बंधु हैं.” विश्वबंधुत्व का यह दर्शन लोकतांत्रिक और सह अस्तित्व का दर्शन है – जिसकी आज की दुनिया को सबसे जरूरत है. अपनी बात को सहज सुग्राह्य बनाने के लिए कहानी के भीतर कहानी को गूँथना प्राचीन भारतीय कथाशैली है. इस निबंध में अंतर्कथा की तकनीक का भी सुंदर प्रयोग मिलता है. देखिए – “पुराणों में गंगा की विष्णु के चरण से उत्पत्ति मानी गई है और शिवजी को परमवैष्णव कहा गया है. उस पर वैष्णवता की पुष्टि इससे उत्तम और क्या हो सकती है कि उनके चरण निर्गत जल को सिर पर धारण करें. ऐसे विष्णु भगवान को परमशैव लिखा है कि विष्णु भगवान नित्य सहस्र कमल पुष्पों से सदाशिव की पूजा करते थे. एक दिन एक कमल घट गया तो उन्होंने यह विचार करके कि हमारा नाम कमलनयन है अपना नेत्र-कमल शिव जी के चरण कमल को अर्पण कर दिया.” (इस अंश को पढ़ते समय स्वतः ही निराला की प्रसिद्ध लंबी कविता ‘राम की शक्ति पूजा’ की याद हो आना स्वाभाविक है. राम शक्ति की मौलिक संकल्पना करते हैं.) वस्तुतः शिव और विष्णु की परस्पर आराधना के उल्लेख द्वारा लेखक ने भारतीयों को परस्पर सम्मान की सीख दी है जो हमें आज भी चाहिए!
इस निबंध में मिश्र जी ने पहले मूर्तियों की चर्चा की, बाद में धातुओं की चर्चा जिनसे मूर्तियों का निर्माण किया जाता है. फिर मूर्तियों के रंगों की चर्चा और फिर मूर्तियों के आकार की चर्चा. पूरा निबंध अपने आप में एक सुगठित प्रोक्ति का नमूना है. प्रोक्ति गठन की दृष्टि से इसमें अनेक डिस्कोर्स स्ट्रेटजीज भी रेखांकित की जा सकती हैं. जैसे -
प्रश्न चिह्न (नोट ऑफ इंटेरोगेशन) –
- फिर अनुरागदेव का रंग और क्या होगा?
- ऐसे ही प्रेमदेव सब से पक्के हैं, उन पर और का रंग क्या चढ़ेगा?
- फिर हम क्यों कहे कि यदि ईश्वर का अस्तित्व है तो इसी रंग ढंग का है?
- आनंद की कैसी मूर्ति? दुःख की कैसी मूर्ति?
- ऐसा कौन कह सकता है, कि संसार भर का ऐश्वर्य किसी और का है?
- हमारे हृदय-मंदिर को भी कभी कैलास बनाओगे?
- पाषाण, धातु, मृत्तिका का कहना ही क्या है?
- वह दिन दिखाओगे कि भारतवासी मात्र केवल तुम्हारे हो जाँय और इस भूमि पर फिर कैलास हो जाय?
अल्पविराम (कॉमा) –
- उसकी सभी बातें अनंत हैं, तो मूर्तियाँ भी अनंत प्रकार से बन सकती हैं.
- सब मूर्तिपूजक कह देंगे कि हम तो साक्षात ईश्वर नहीं मानते, न उसकी यथातथ्य प्रतिकृति मानें.
- प्रेम के बिना वेद झगड़े की जड़, धर्म बेसिर पैर के काम, स्वर्ग शेखचिल्ली का महल, मुक्ति प्रेम ही बहन है.
विस्मय बोधक चिह्न (नोट ऑफ एक्सक्लेमेनेशन) –
- विश्वास के आगे मनःशांतिकारक सत्य है!!!
- आप लाभकारक बातों को समझ के दूसरों को समझाते हैं !
- केवल चित्तवृत्ति ! केवल उसके गुणों का कुछ द्योतन!!
अर्थ पर बल –
- हो चाहे जैसा, पर हम यदि ईश्वर को अपना आत्मीय मानेंगे तो अवश्य ऐसा ही मान सकते हैं, जैसों से हमारा प्रत्यक्ष संबंध है.
- बस ! ठीक शिवमूर्ति यही है.
- बस इसी मत पर सावयव सब मूर्ति मनुष्य के ऐसी मूर्ति बनायी जाती है.
काव्यात्मक प्रयोग -
- वास्तविक प्रेममूर्ति मनोमंदिर में विराजमान है. (शिवमूर्ति)
- ईश्वर आत्मिक रोगों का नाशक है, हृदयमंदिर की कुवासनारूपी दुर्गंध को हरता है. (वही)
संबोध्यता –
- प्रिय पाठक ! उसकी सभी बातें अनंत हैं, तो मूर्तियाँ भी अनंत प्रकार से बन सकती हैं.
- फिर कहिये जिससे भीतर-बाहर दोनों प्रकाशित होते हैं, जो प्रेमियों को आँख की ज्योति से भी प्रियतर है, जो अनंत विद्यमान है उसका फिर और क्या रंग हम मानें?
- और लीजिए, कविता के आचार्यों ने अनुराग का रंग लाल कहा है.
- फिर कहिये तो.....
- अब आकारों पर ध्यान दीजिये.
पुनरावृत्ति –
- न कही जा सकें, न नहीं कही जा सके, और हाँ कहना भी ठीक है. एवं न कहना भी ठीक है.
- उसकी सब बातें अनत हैं, तो मूर्तियाँ भी अनंत प्रकार से बन सकती हैं और एक-एक स्वरूप में अनंत उपदेश प्राप्त हो सकते हैं, पर हमारी बुद्धि अनंत नहीं है, इससे कुछ प्रकार की मूर्तियों का कुछ-कुछ अर्थ लिखते हैं. (इस वाक्य को ‘तार्किक अन्विति’ है का अच्छा उदाहरण मन जा सकता है.)
- जिससे भीतर-बाहर दोनों प्रकाशित होते हैं, जो प्रेमियों को आँख की ज्योति से भी प्रियतर है, जो अनंत विद्यमान है उसका फिर और क्या रंग हम मानें? (इसमें समानांतरता तो है, साथ ही प्रश्नवाची वाक्य रचना का प्रयोग हुआ है.)
भाषा का प्रयोग कैसे करना चाहिए इसका सशक्त उदाहरण हैं प्रताप नारायण मिश्र के निबंध. रामस्वरूप चतुर्वेदी ने कहा है कि भाषा केवल संप्रेषण का साधन नहीं हैं, वह हमारा व्यक्तित्व है. मिश्र जी की भाषा में उनका व्यक्तित्व झलकता है. वे परिहास करते समय भी चूकते नहीं. देखिए – “जितनी देर पूजा-पाठ करते हैं, जितनी देर माला सरकाते हैं उतनी देर कमाने, खाने, पढ़ने, गुनने में ध्यान दें तो भला है ! और जो केवल शास्त्रार्थ आस्तिक हैं वे भी व्यर्थ ईश्वर को अपना पिता बना के निज माता को कलंक लगाते हैं. माता कहके बेचारे जनक को दोषी ठहराते हैं, साकार संकल्पना करके व्यापकता का और निराकार कहके अस्तित्व का लोप करते हैं.”
नवजागरण काल के अन्य सजग समशील लेखकों की भाँति प्रताप नारायण मिश्र सोई हुई भारतीय जनता को चेताते हैं. भारतीयता उनका मुख्य स्वर है. भारतीयों को चेतावनी देने की शैली देखिए – “यह संसार का जातीय धर्म है कि जो वस्तु हमारे आसपास है उन्हीं पर हमारी बुद्धि दौड़ती है. फारस, अरब और इंग्लिश देश के कवी जब संसार की अनित्यता वर्णन करेंगे तो कबरिस्तान का नक्शा खींचेंगे, क्योंकि उनके यहाँ श्मशान होते ही नहीं हैं. वे यह न कहें तो क्या, कहें कि बड़े-बड़े बादशाह खाक में दबे हुए सोते हैं.” वे आगे लोकजनित अंदाज में चुटकी लेते हैं – “यदि कबर का तख्ता उठाकर देखा जाय तो शायद दो चार हड्डियाँ निकलेंगी, जिन पर यह नहीं लिखा कि यह सिकंदर की हड्डी है, या दारा की.” यह पुनर्जागरण चेतना नहीं तो और क्या है?
जीवंतता भाषा का प्रमुख लक्षण है. और यह जीवंतता लौकिकीकरण के माध्यम से विशेषतया उभरती है. खड़ीबोली का लौकिकीकरण भारतेंदु मंडल के गद्यकारों की विशेषता है. यहाँ प्रताप नारायण मिश्र के निबंध ‘शिवमूर्ति’ में प्रयुक्त लोकशब्दावली, उर्दू शब्दावली, मुहावरों को सूचीबद्ध किया जा रहा है ताकि यह सपष्ट हो सके कि मिश्र जी की भाषा शैली जीवंत है –
लोक प्रयोग –
- शास्त्रार्थ के आगे निरी बकबक
- अंधों के आगे हाथी आवे
- उनकी ओर से बिलकुल फेर लें
- माला सरकाते हैं,
- बनवा के रख ली,
- बड़ा सुभीता,
- हम सब ठोर कर सकते हैं,
- सब ठौर की गई है.
- पुस्तकें काली मसी में लिखी जाती हैं
- वरंच यह खुला लिखा हुआ है
- जगत वा सर्वोपरि पदार्थ
- किस बिरते पर द्वेष रख सकते हैं?
- मूर्ति बनाने वा बनवाने की सामर्थ्य
- मतवालेपन,
- भैयाचारे,
- हमारी दशा के अनुसार बर्तेंगे,
- आवें,
- धधकी,
- बका करेंगे.
उर्दू शब्द-
- बेअदबी, हुनरमंद, ख़ाक
सूक्तियों/ मुहावरों/ लोकोक्तियों से भाषिक अभिव्यंजना –
- बेसिर पैर के काम
- आँखें मूँद कर अंधे की नक़ल कर देखो
- घर की चक्की से भी गये बीते
- पानी पानी के भी कम के नहीं
- ईश्वर यावत् संसार का उत्पादक है
- मन और वचन को उनकी ओर से बिलकुल फेर लें
- हुनरमंदों से पूछे जाते हैं बाबे हुनर पहिले
- सहज में और का और हो जाये
- मोटी बुद्धिवाला
- यह संसार भर का ऐश्वर्य किसी और का है
- हम चाहें मारें या जियें
- एक गृहस्थी भर का धन लगाए नहीं आती
- वह निर्धन के धन हैं
- उलट फेर की बातें
- लिंग शब्द का अर्थ ही चिह्न है
- श्री गनेशायानमः हुआ है
- हृदय-मंदिर में प्रेम का प्रकाश है तो संसार शिवमय है
- प्रेम ही वास्तविक शिवमूर्ति अर्थात कल्याण का रूप है.
प्रताप नारायण मिश्र के इस निबंध में सांस्कृतिक संदर्भ की अभिव्यक्ति कई स्थलों पर संस्कृतिनिष्ठ शब्दावली के प्रयोग से सहजता से होती है –
- प्रेमदेव हमारे पुष्टिकारक सुगंध पुष्टिवर्द्धनं (महामृत्युंजय मंत्र का द्योतक)
- भूतनाथ अकथ्य अप्रतर्क्य एवं अचिन्त्य हैं.
- अशरीरी आकारहीन
- शिवमूर्ति लिंगाकार होती हैं
- सृष्टिकर्तृत्व, अचिंत्यत्व, अप्रतिमत्व कई बातें लिंगाकार मूर्ति से ज्ञात होती हैं.
- हस्तपादादि से निकले हुए हैं
- शिरस्थानी कहा जा सकता है
- सतोगुण का सूचक
- न तस्य प्रतिमास्ति
‘शिवमूर्ति’ शीर्षक निबंध में संदर्भ और भाव के अनुसार वाक्य रचना का प्रयोग किया गया है. वाक्य इस तरह गुंथे हुए हैं कि भाव सहज ही संप्रेषित हो जाता है. किसी बात पर बल देना हो या किसी बात को स्पष्ट करना हो या फिर तर्क प्रस्तुत करना हो या किसी को संबोधित करते हुए व्यंग्य करना हो, जागृत करना हो तो मिश्र जी छोटे-छोटे वाक्यों का बेजोड़ प्रयोग करते हैं. अर्थ की अमिट छाप बिखेरते हैं, संबोधन और क्रियाओं का चयन करते हैं –
- पर वास्तव में यह विषय ऐसा है कि मन, बुद्धि और वाणी से जितना सोचा, समझा और कहा जाय उतना ही बढ़ता जाएगा और हम जन्म भर बका करेंगे पर आपको यही जान पड़ेगा कि अभी श्री गणेशायनमः हुआ है. (इस वाक्य में सोचना, समझना, कहना, बढ़ना, बकना, जानना आदि क्रियाओं का समागम है.)
- यदि कोई बड़ा मैदान हो लाखों कोस का और रात को उसका अंत लिया चाहो तो सौ दो सौ दीपक जलाओगे. पर क्या उनसे उसका छोर देख लोगे? (‘नापना चाहो’ के लिए यहाँ पर बोलीगत प्रयोग करके ‘अंत लिया चाहो’ का प्रयोग किया गया है.)
- अब आकारों पर ध्यान दीजिए. अधिकतर शिवमूर्ति लिंगाकार होती हैं जिसमें हाथ, पाँव, मुख कुछ नहीं होते. (इसमें पाठक को धयान में रखकर बात को स्पष्ट करते हैं.)
- यहाँ तक कि जिनके असली तिल नहीं होता उन्हें सुंदरता बढ़ाने को कृत्रिम तिल बनाना पड़ता है. फिर कहिये तो, सर्वशोभामय परमसुंदर का कौन रंग कल्पना करोगे? (सर्वशोभामय परमसुंदर का कौन रंग कल्पना करोगे - यहाँ तर्क वाली वाक्य रचना है.)
साहित्यकार किसी बात पर बल देने के लिए ध्वनियों, शब्दों आदि की आवृत्ति करता है तो कभी भावों के सम्यक संप्रेषण, पाठक के हृदय तक पहुँचने और रचना को पठनीय बनाने के लिए पर्यायों का प्रयोग करता है. इस निबंध में ईश्वर के लिए प्रयुक्त कुछ पर्याय देखें –
भगवान, भूतनाथ, अशरीरी आकारहीन, ईश्वर, निराकार, प्रेममूर्ति, प्रेममय परमात्मा, प्रभु, अनुरागदेव, प्रेमदेव, सर्वशोभामय परमसुंदर, देवाधिदेव, शिवमूर्ति, लिंगाकार, खुदा, विष्णुदेव, विश्वव्यापी, परमशैव, भोलानाथ, प्रेममयी, कैलाशवास, विश्वनाथ, हृदयेश्वर, मंगलेश्वर, भारतेश्वर
रंग समाजभाषा का अनन्य अंश है. रंगों के माध्यम से बहुत कुछ अभिव्यक्त किया जा सकता है. ‘शिवमूर्ति’ में प्रयुक्त रंग शब्दावली है –
- श्वेत जिसका अर्थ है कि परमात्मा शुद्ध है, स्वच्छ है
- श्वेत रंग सतोगुण का सूचक
- उसके उजले रंग
- लाल रंग जो रजोगुण का सूचक है
- अनुराग का रंग का लाल है. फिर अनुराग्देव का रंग और क्या होगा?
- काला – सबे से पक्का यही रंग है, इस पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता.
- पुतली काली होती है, भीतर का प्रकाश ज्ञान है
- पुस्तकें काली मसि से लिखी जातीं हैं
- यूरोप में ख़ूबसूरती के बयान में अलकावली का रंग काला कभी न कहेंगे.
- यहाँ ताम्रवर्ण सौंदर्य का रंग न समझा जाएगा.
यह कहा जा सकता है कि प्रताप नारायण मिश्र के निबंधों में नवनिर्माण, भारतीयता, जागरण, संस्कृति, आस्तिकता, प्रतीकीकरण, सौमनस्य और बंधुता आदि परिलक्षित हैं. उन्होंने सहृदयता और प्रेम की जो व्याख्या की है उसी के साथ अपनी बात का समाहार करती हूँ – “हृदय-मंदिर में प्रेम का प्रकाश है तो संसार शिवमय है क्योंकि प्रेम ही वास्तविक शिवमूर्ति अर्थात कल्याण का रूप है.” यही संदेश आज के पाठकों के लिए भी सहज है.
[उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के स्वर्ण जयंती वर्ष के अवसर पर प्रो. दिलीप सिंह (प्रधान संपादक) के संपादन में भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य पर नई सोच की छमाही पत्रिका 'बहुब्रीहि' का प्रकाशन आरम्भ किया गया है. इसके प्रवेशांक (जुलाई-दिसंबर 2013) में प्रकाशित.]