'इंदु संचेतना'
(चीन से निकलने वाली साहित्य की पहली अंतरराष्ट्रीय पत्रिका)
'विशिष्ट प्रतिभा विशेषांक' (अक्तूबर-दिसंबर 2016)
वर्ष 2, अंक 5
प्रेमचंद का भाषा विमर्श
प्रेमचंद (31 जुलाई 1880 – 8 अक्टूबर 1936) अपने समय के लिए जितने प्रासंगिक थे आज भी वे उतने ही प्रासंगिक हैं। "यह तथ्य इस बात से ही प्रमाणित हो जाता है कि आज दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, बाजारीकरण, भ्रष्ट व्यवस्था, संवेदनात्मक छीजन आदि पर जब भी कहीं चर्चा होती है तो वह अंततः प्रेमचंद के ही इर्द-गिर्द आकर अपनी सार्थकता पाती है। प्रेमचंद की भाषा भी आज तक नए गद्यकारों का आदर्श बनी हुई है। यह अलग बात है कि प्रेमचंद के निकट कोई नहीं पहुँच सका।" (संपादकीय, प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ. 5)।
मानव जीवन में भाषा की भूमिका निर्विवाद है चूँकि भाषा के अभाव में मनुष्य केवल जैविक जंतु है। भाषा ही वह चीज है जो उसे समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करती है। शायद इसीलिए प्रेमचंद ने अपने एक व्याख्यान में कहा था, "जीवित भाषा तो जीवित देह की तरह बनती है। भाषा सुंदरी को कोठरी में बंद करके आप उसका सतीत्व तो बचा सकते हैं, लेकिन उसके स्वास्थ्य का मूल्य देकर। उसकी आत्मा इतनी बलवान बनाइए कि वह अपने सतीत्व और स्वास्थ्य दोनों की ही रक्षा कर सके। *** हमारा आदर्श तो यह होना चाहिए कि हमारी भाषा अधिक से अधिक आदमी समझ सकें।" (नमिता सिंह, 'प्रेमचंदोत्तर कथा साहित्य और भाषा के मंतव्य'; साहित्य और संवेदना, (सं) पी.वी.विजयन, पृ. 268 से उद्धृत)। भाषा एक तरफ व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व को प्रतिबिंबित करती है तो दूसरी तरफ वह सामाजिक संबंधों को व्यक्त करती है। प्रेमचंद की भाषा इन दोनों कर्तव्यों को बखूबी निभाना जानती है, इसीलिए वह आज भी सर्वाधिक अनुकरणीय और प्रासंगिक कथाभाषा के रूप में स्वीकृत है।
समाज में हिंदी की तीन शैलियाँ प्रचलित हैं – उच्च हिंदी, उच्च उर्दू और हिंदुस्तानी। प्रेमचंद पहले तो उर्दू में लिखते थे, लेकिन बाद में वे हिंदी – बोलचाल की हिंदुस्तानी में लिखने लगे। वे हिंदुस्तानी के प्रबल पक्षधर बने।उन्होंने यह महसूस किया था कि हिंदी का यह शैलीभेद प्रायः राजनीतिक था। उनकी भाषा-चेतना बहुत गहरी थी। इसलिए उन्होंने बार बार यह लिखा कि "बंगाल का मुसलमान बंगला बोलता है और लिखता है, गुजरात का गुजराती, मैसूर का कन्नड़ी, मद्रास का तमिल और पंजाब का पंजाबी आदि। यहाँ तक कि उसने अपने अपने सूबे की लिपि भी ग्रहण कर ली है। उर्दू लिपि और भाषा से यद्यपि उसका धार्मिक-सांस्कृतिक अनुराग हो सकता है, लेकिन नित्य प्रति के जीवन में उसे उर्दू की बिलकुल आवश्यकता नहीं पड़ती।" (प्रो.दिलीप सिंह, 'प्रेमचंद की भाषाई चेतना', प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ. 23 से उद्धृत)। इतना ही नहीं उनके मतानुसार हिंदुओं और मुसलमानों की भाषा में कोई अंतर नहीं है तथा हिंदुस्तानी बोलचाल की हिंदी का सहज और सरल रूप है। ध्यान से देखा जाए तो प्रेमचंद के लिए हिंदुस्तानी केवल एक भाषा-शैली ही नहीं थी, बल्कि उनके लिए तो वह जातीय अस्मिता का एक प्रतीक थी। इसलिए उन्होंने कहा था कि "बोलचाल की हिंदी और उर्दू प्रायः एक-सी हैं. उर्दू-हिंदी के सर्वनाम एक हैं – वह, तुम, मैं, हम इत्यादि। हिंदी-उर्दू की क्रियाएँ एक ही हैं – जाना, सोना, खाना, पीना, करना, मरना, जीना, लिखना, पढ़ना इत्यादि. उर्दू के संबंधवाचक शब्द – पर, का, में, से आदि वही हैं जो हिंदी के। दोनों का मूल शब्दभंडार भी एक है, लेकिन यहाँ बहुत दिनों तक फारसी के राजभाषा रहने से हिंदी शब्दों के फारसी या अरबी पर्यायवाची शब्द भी प्रचलित हो गए हैं। जैसे : देश – मुल्क, आकाश – आसमान, नदी – दरिया, रोगी – बीमार आदि। इन शब्दों का व्यवहार बोलचाल की हिंदी-उर्दू में बिना किसी भेदभाव के होता है।" (वही, पृ. 25 से उद्धृत)। उनकी मान्यता थी कि "बोलचाल की हिंदी समझने में न तो साधारण मुसलमानों को कोई कठिनाई होती है और न बोलचाल की उर्दू समझने में हिंदुओं को ही।" (वही, पृ. 24 से उद्धृत)। अभिप्राय यह कि इस दुष्प्रचार के खंडन का प्रेमचंद ने अपनी ओर से पूरा प्रयास किया कि हिंदी और उर्दू दो अलग भाषाएँ हैं तथा इनका किसी धर्म-मजहब से कुछ लेना देना है।
प्रेमचंद ने अपनी बातों को सिर्फ सैद्धांतिक स्तर तक सीमित नहीं रखा बल्कि व्यावहारिक स्तर पर भी उन्हें लागू किया। उनकी रचनाओं में घटना और अनुभव की बहुलता है। वे अपनी रचनाप्रक्रिया में भाषा का संपूर्णतः दोहन कर लेते हैं। (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास)। इसीलिए वे कहा करते थे कि "साधारण वकीलों की तरह साहित्यकार अपने मुवक्किल की ओर से उचित-अनुचित सब तरह के दावे नहीं पेश करता, अतिरंजना से काम नहीं लेता, अपनी ओर से बातें गढ़ता नहीं। वह जानता है कि इन युक्तियों से वह समाज की अदालत पर असर नहीं डाल सकता। उस अदालत का हृदय परिवर्तन तभी संभव है, जब आप सत्य से तनिक भी विमुख न हों, नहीं तो अदालत की धारणा आपकी ओर से खराब हो जाएगी और वह आपके खिलाफ फैसला सुना देगी।" (नंदकिशोर नवल, 'प्रेमचंद का सौंदर्यशास्त्र', प्रेमचंद का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 13)।
विद्वानों ने यह लक्षित किया है कि मृदु और ललित शब्दयोजना, गूढ़शब्दार्थहीनता और जनपद सुखबोध्यता वास्तव में काव्यभाषा के लक्षण हैं लेकिन प्रेमचंद ने अपने साहित्य को व्यापक जनता से जोड़ने के लिए जनपद की भाषा को अपनाया। जब वे यह कहते हैं कि "साहित्य न चित्रण का नाम है, न अच्छे शब्दों को चुनकर सजा देने का, न अलंकारों से वाणी को शोभायमान बना देने का" तो वे निस्संदेह बोलचाल की हिंदुस्तानी – देशजता की बात कर रहे होते हैं। प्रेमचंद अपनी जमीन से जुड़े साहित्यकार हैं। इसलिए उनकी रचनाओं में ठेठ देहाती शब्द पाए जाते हैं। उन्होंने "ग्रामीण जन की बोली-बानी में निहित ऊर्जा का दोहन करके ही अपनी कथाभाषा का गठन किया है।" (प्रो.ऋषभ देव शर्मा, 'प्रेमचंद दे देसिल बयना : संदर्भ 'गुल्ली डंडा' का", प्रेमचंद की भाषाई चेतना, (सं) प्रो.दिलीप सिंह, प्रो.ऋषभ देव शर्मा, पृ.36)।
प्रेमचंद की भाषा - विशेष रूप से ग्रामीण पात्रों की भाषा - को देखने से यह स्पष्ट होता है कि "देहाती बोली और हिंदी के एकीकरण में उन्हें इतनी सफलता मिली है कि गाँव का रहने वाला पाठक भी प्रेमचंद के किसानों की बात सुनकर उसे अस्वाभाविक नहीं कह सकता। *** परंतु प्रेमचंद किसानों की बातचीत के लिए ही देहात से शब्द नहीं लेते; उनकी भाषा का गठन ही उस देहाती बोली की भूमि पर हुआ है। जो सुंदर मुहावरे, कहावतें, उपमाएँ और हास्य के पुट उनके गद्य में हमें मिलते हैं उन्हें प्रेमचंद ने अपने गाँव की बोली से सीखा था। अपनी उपमाएँ उन्होंने बहुधा ग्रामीण जीवन से ली हैं। *** प्रेमचंद की भाषा के अलंकार उसके प्रवाह में सहज ही सज जाते हैं। सारी बात अनुभव और सचाई की है। प्रेमचंद जनता को जानते थे, उसकी भाषा को जानते थे; वहीं से उन्हें शक्ति मिली है।" (डॉ.रामविलास शर्मा, प्रेमचंद, पृ.138)।
'गोदान' का ही एक उदाहरण देखें – प्रेमचंद का होरी अपने विद्रोही पुत्र गोबर को समझाता है–
- "फिर मरजाद भी तो पालना ही पड़ता है। खेती में जो मरजाद है, वह नौकरी में तो नहीं है. मजूरी मजूरी है, किसानी किसानी है। मजूर लाख हो, तो मजूर ही कहलाएगा। सर पर घास रखे जा रहे हो, कोई इधर से पुकारता है, ओ घासवाले, कोई उधर से। किसी की मेड पर घास धर लो तो गालियाँ मिलें। किसानी में मरजाद है।"
'कर्मभूमि' का अमरकांत कहता है –
- “काम की कौन कमी है घास भी काट लो, तो एक रुपए रोज की मजूरी हो जाए। नहीं जूते का काम है। बल्लियाँ बनाओ, चरसे बनाओ। मेहनत करने वाला आदमी भूखों नहीं मरता। धेली की मजूरी कहीं नहीं गई।"
ऐसे कथन स्वतः सिद्ध करते हैं कि प्रेमचंद की भाषा में देसी मुहावरे सहज रूप से उभरते हैं जो उसे जनभाषा बनाते हैं।
'गुल्ली-डंडा' कहानी बहुत ही छोटी है पर प्रेमचंद की भाषा के इस देशज पक्ष को उजागर करने में सक्षम है। इस कहानी में देशजता के साथ आभिजात्यता भी निहित है। इस कहानी में पग पग पर प्रेमचंद का ठेठ देसीपन झलकता है। यहाँ प्रेमचंद भारतीय खेल गुल्ली-डंडा के हवाले से यह कहते हैं – "हमारे अँग्रेजीदां दोस्त मानें या न मानें मैं तो यही कहूँगा कि गुल्ली-डंडा सब खेलों का राजा है। *** न लान की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली बना ली, और दो आदमी भी आ जाए, तो खेल शुरू हो गया। विलायती खेलों में सबसे बड़ा ऐब है कि उनके सामान महँगे होते हैं। जब तक कम-से-कम एक सैंकड़ा न खर्च कीजिए, खिलाड़ियों में शुमार ही नहीं हो पाता। यहाँ गुल्ली-डंडा है कि बना हर्र-फिटकरी के चोखा रंग देता है; पर हम अँगरेजी चीजों के पीछे ऐसे दीवाने हो रहे हैं कि अपनी सभी चीजों से अरुचि हो गई। स्कूलों में हरेक लड़के से तीन-चार रुपये सालाना केवल खेलने की फीस ली जाती है। किसी को यह नहीं सूझता कि भारतीय खेल खिलाएँ, जो बिना दाम-कौड़ी के खेले जाते हैं। अँगरेजी खेल उनके लिए हैं, जिनके पास धन है। गरीब लड़कों के सिर क्यों यह व्यसन मढ़ते हो?" खेल से लेकर शिक्षा तक का जो महँगा अंग्रेजीपन आज भी हम अपने सिर पर ढो रहे हैं प्रेमचंद ने उसके खतरे को अपने समय में भली प्रकार भाँप लिया था। यदि गुल्ली-डंडा को प्रतीक मान लें तो कहना होगा कि उन्होंने इस महँगे अंग्रेजीपन का विकल्प भी यहाँ सुझाया है – गुल्ली-डंडा अर्थात देहातीपन या देसीपन के वरण के रूप में।
अंततः डॉ.रामविलास शर्मा के शब्दों में कहे तो "प्रेमचंद की कला का रहस्य एक शब्द में उनका देहातीपन ही है; ग्रामीण होने के कारण वह समाज के हृदय में पैठकर उसके सभी तारों से संबंध स्थापित कर सके हैं।"