भारतवर्ष प्रकृति का सबसे प्रिय लीलाक्षेत्र है। यहाँ वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत, बसंत और ग्रीष्म ऋतुओं का अपना-अपना महत्व है। आदिकालीन कवियों से लेकर समसामयिक साहित्यकारों तक ने इन ऋतुओं का मनोरम चित्रण किया है। वे प्रकृति के साथ मनुष्य के मनोभावों को जोड़कर वर्णन करते हैं तथा लोक संस्कृति को भी अभिव्यक्त करते हैं।
'संदेश रासक' में अद्दहमाण (अब्दुल रहमान) शरद ऋतु का वर्णन करते हुए कहते हैं कि वर्षा ऋतु के बाद शरद ऋतु आती है खुशियाँ लेकर। आकाश वर्षा के मेघों से मुक्त होकर निर्मल हो जाता है और वायु भी शांत। रात में तारे दिखने लगते हैं। दक्षिण दिशा में अगस्त्य नक्षत्र का चमक उठना वर्षा ऋतु के बीतने और शरद ऋतु के आने का सूचक है। शरद ऋतु में चाँदनी निर्मल लगती है। साँप भी पाताल में जाकर बैठ जाते हैं। ...
शरद ऋतु में तालाब निर्मल जल से भर जाते हैं और सौ पंखुड़ियों वाले फूलों से सुशोभित हो जाते हैं। नदियाँ प्रवाहित होने लगती हैं। ग्रीष्म ऋतु के कारण सरोवरों की जो शोभा गायब हो गई थी वह शरद के आगमन से वापस लौटती है। ...
हंस कमल का रस पीकर रसमय होने लगते हैं। प्रफुल्लित होकर आवाज करने लगते हैं। पृथ्वी कास, कमल, हरसिंगार आदि अनेक प्रकार के फूलों से भर जाती है। नदियों के तट पक्षियों के मधुर कलरव से गुंजायमान हो उठते हैं और कीचड़ के बैठ जाने के कारण अब नदी के जल में प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता है।
शरद ऋतु का राम कथा के साथ भी गहरा संबंध है। वाल्मीकि हों या तुलसी, सभी रामायणकारों ने यह उल्लेख किया है कि बाली वध के उपरांत राम ने वर्षा ऋतु एक ही जगह रहकर बिताई। इस दौरान सुग्रीव आमोद-प्रमोद में खोए रहे और शरद ऋतु आ गई। शरद के आगमन को सबसे पहले पवनपुत्र हनुमान और राम ने अनुभव किया। हनुमान ने देखा कि आकाश निर्मल हो गया है, अब न तो बादल ही दिखाई पड़ते हैं और न तो बिजली चमकती है। ऋतु परिवर्तन के इन चिह्नों को पहचानकर उन्होंने सुग्रीव को विलासिता की नींद छोड़कर सीता की खोज आरंभ करने के लिए चेताया। उनकी बात मानकर सुग्रीव ने नील को समस्त वानर सेना को तुरंत बुलाने की आज्ञा दी। दूसरी ओर राम सुग्रीव के प्रमाद के विषय में सोचकर निराश हो रहे थे। उन्हें सीता की चिंता खाए जा रही थी। शरद में परिलक्षित होने वाले परिवर्तनों की ओर ध्यान दिलाते हुए राम ने लक्ष्मण से कहा "हे लक्ष्मण! पृथ्वी को जलप्लावित कर देने वाले गरजते बादल अब शांत हो कर पलायन कर गए हैं। आकाश निर्मल हो गया है। चंद्रमा, नक्षत्र और सूर्य की प्रभा पर शरद ऋतु का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होने लगा है। हंस मानसरोवर की परित्याग कर पुनः लौट आए हैं और चक्रवातों के समान सरिता के रेतीले तटों पर क्रीड़ा कर रहे हैं। वर्षाकाल में मदोन्मत्त हो कर नृत्य करने वाले मोर अब उदास हो गए हैं। सरिता की कल-कल करती वेगमती गति अब मंद पड़ गई है मानो वे कह रही हैं कि चार दिन के यौवन पर मदोन्मत्त हो कर गर्व करना उचित नहीं है। सूर्य की किरणों ने मार्ग की कीचड़ को सुखा डाला है, इससे वे आवागमन और यातायात के लिए खुल गए हैं। राजाओं की यात्रा के दिन आ गए हैं, परंतु सुग्रीव ने न तो अब तक मेरी सुधि ली है और न जानकी की खोज कराने की कोई व्यवस्था ही कि है।"
शरद का यह प्रसंग तुलसी रामायण में भी अत्यंत मनोरम और मार्मिक रूप से वर्णित है। यहाँ हैम 'किष्किंधा कांड' के इस शरद ऋतु वर्णन को अर्थ सहित उद्धृत कर रहे हैं -
शरद ऋतु वर्णन
चौपाई :
*** बरषा बिगत सरद रितु आई। लछमन देखहु परम सुहाई॥ फूलें कास सकल महि छाई। जनु बरषाँ कृत प्रगट बुढ़ाई॥1॥
भावार्थ:- हे लक्ष्मण! देखो, वर्षा बीत गई और परम सुंदर शरद ऋतु आ गई। फूले हुए कास से सारी पृथ्वी छा गई। मानो वर्षा ऋतु ने (कास रूपी सफेद बालों के रूप में) अपना बुढ़ापा प्रकट किया है॥1॥
*** उदित अगस्ति पंथ जल सोषा। जिमि लोभहिं सोषइ संतोषा॥ सरिता सर निर्मल जल सोहा। संत हृदय जस गत मद मोहा॥2॥
भावार्थ:- अगस्त्य के तारे ने उदय होकर मार्ग के जल को सोख लिया, जैसे संतोष लोभ को सोख लेता है। नदियों और तालाबों का निर्मल जल ऐसी शोभा पा रहा है जैसे मद और मोह से रहित संतों का हृदय!॥2॥
*** रस रस सूख सरित सर पानी। ममता त्याग करहिं जिमि ग्यानी॥ जानि सरद रितु खंजन आए। पाइ समय जिमि सुकृत सुहाए॥3॥
भावार्थ:- नदी और तालाबों का जल धीरे-धीरे सूख रहा है। जैसे ज्ञानी (विवेकी) पुरुष ममता का त्याग करते हैं। शरद ऋतु जानकर खंजन पक्षी आ गए। जैसे समय पाकर सुंदर सुकृत आ सकते हैं। (पुण्य प्रकट हो जाते हैं)॥3॥
*** पंक न रेनु सोह असि धरनी। नीति निपुन नृप कै जसि करनी॥ जल संकोच बिकल भइँ मीना। अबुध कुटुंबी जिमि धनहीना॥4॥
भावार्थ:- न कीचड़ है न धूल? इससे धरती (निर्मल होकर) ऐसी शोभा दे रही है जैसे नीतिनिपुण राजा की करनी! जल के कम हो जाने से मछलियाँ व्याकुल हो रही हैं, जैसे मूर्ख (विवेक शून्य) कुटुम्बी (गृहस्थ) धन के बिना व्याकुल होता है॥4॥
*** बिनु घन निर्मल सोह अकासा। हरिजन इव परिहरि सब आसा॥ कहुँ कहुँ बृष्टि सारदी थोरी। कोउ एक भाव भगति जिमि मोरी॥5॥
भावार्थ:-बिना बादलों का निर्मल आकाश ऐसा शोभित हो रहा है जैसे भगवद्भक्त सब आशाओं को छोड़कर सुशोभित होते हैं। कहीं-कहीं (विरले ही स्थानों में) शरद् ऋतु की थोड़ी-थोड़ी वर्षा हो रही है। जैसे कोई विरले ही मेरी भक्ति पाते हैं॥5॥
दोहा :
*** चले हरषि तजि नगर नृप तापस बनिक भिखारि। जिमि हरिभगति पाइ श्रम तजहिं आश्रमी चारि॥16॥
भावार्थ:-(शरद् ऋतु पाकर) राजा, तपस्वी, व्यापारी और भिखारी (क्रमशः विजय, तप, व्यापार और भिक्षा के लिए) हर्षित होकर नगर छोड़कर चले। जैसे श्री हरि की भक्ति पाकर चारों आश्रम वाले (नाना प्रकार के साधन रूपी) श्रमों को त्याग देते हैं॥16॥
चौपाई :
*** सुखी मीन जे नीर अगाधा। जिमि हरि सरन न एकऊ बाधा॥ फूलें कमल सोह सर कैसा। निर्गुन ब्रह्म सगुन भएँ जैसा॥1॥
भावार्थ:-जो मछलियाँ अथाह जल में हैं, वे सुखी हैं, जैसे श्री हरि के शरण में चले जाने पर एक भी बाधा नहीं रहती। कमलों के फूलने से तालाब कैसी शोभा दे रहा है, जैसे निर्गुण ब्रह्म सगुण होने पर शोभित होता है॥1॥
*** गुंजत मधुकर मुखर अनूपा। सुंदर खग रव नाना रूपा॥ चक्रबाक मन दुख निसि पेखी। जिमि दुर्जन पर संपति देखी॥2॥
भावार्थ:-भौंरे अनुपम शब्द करते हुए गूँज रहे हैं तथा पक्षियों के नाना प्रकार के सुंदर शब्द हो रहे हैं। रात्रि देखकर चकवे के मन में वैसे ही दुःख हो रहा है, जैसे दूसरे की संपत्ति देखकर दुष्ट को होता है॥2॥
*** चातक रटत तृषा अति ओही। जिमि सुख लहइ न संकर द्रोही॥ सरदातप निसि ससि अपहरई। संत दरस जिमि पातक टरई॥3॥
भावार्थ:-पपीहा रट लगाए है, उसको बड़ी प्यास है, जैसे श्री शंकरजी का द्रोही सुख नहीं पाता (सुख के लिए झीखता रहता है) शरद् ऋतु के ताप को रात के समय चंद्रमा हर लेता है, जैसे संतों के दर्शन से पाप दूर हो जाते हैं॥3॥
*** देखि इंदु चकोर समुदाई। चितवहिं जिमि हरिजन हरि पाई॥ मसक दंस बीते हिम त्रासा। जिमि द्विज द्रोह किएँ कुल नासा॥4॥
भावार्थ:-चकोरों के समुदाय चंद्रमा को देखकर इस प्रकार टकटकी लगाए हैं जैसे भगवद्भक्त भगवान् को पाकर उनके (निर्निमेष नेत्रों से) दर्शन करते हैं। मच्छर और डाँस जाड़े के डर से इस प्रकार नष्ट हो गए जैसे ब्राह्मण के साथ वैर करने से कुल का नाश हो जाता है॥4॥
दोहा :
*** भूमि जीव संकुल रहे गए सरद रितु पाइ। सदगुर मिलें जाहिं जिमि संसय भ्रम समुदाइ॥17॥
भावार्थ:-(वर्षा ऋतु के कारण) पृथ्वी पर जो जीव भर गए थे, वे शरद् ऋतु को पाकर वैसे ही नष्ट हो गए जैसे सद्गुरु के मिल जाने पर संदेह और भ्रम के समूह नष्ट हो जाते हैं॥17॥