सोमवार, 5 फ़रवरी 2018


2 फरवरी 2018 को मुझे बैंक स्ट्रीट, कोठी, हैदराबाद में स्थित भारतीय स्टेट बैंक के स्थानीय प्रधान कार्यालय में नगर राजभाषा कार्यान्वयन समिति (बैंक) और भारतीय निर्यात-आयात बैंक (EXIM BANK) के तत्वावधान में आयोजित हिंदी संगोष्ठी और हिंदी समाचार वाचन प्रतियोगिता में बतौर मुख्य वक्ता और निर्णायक भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ। एक दिन पहले भारतीय निर्यात-आयात बैंक के मुख्य प्रबंधक श्री अमरेंद्र कुमार ने मुझे फोन पर सूचना दी कि मुझे इस आयोजन ‘ग क्षेत्र में हिंदी शिक्षण और प्रशिक्षण’ के संबंध में बात करनी होगी। अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने के लिए भी मैं आमतौर पर बिना तैयारी के नहीं जाती हूँ। लेकिन इस संगोष्ठी में बिना तैयारी के ही जाना पड़ गया। मैं तो मन ही मन डर रही थी क्योंकि मुझे बैंक राजभाषा अधिकारियों को संबोधित करना था।


उद्घाटन सत्र 10.30 बजे शुरू हुआ। अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में भारतीय स्टेट बैंक के महाप्रबंधक श्री प्रबोध पारिख ने कहा कि भाषा में सरलता और लचीलापन होना जरूरी है। उन्होंने इस बात पर बल दिया किया कि तकनीकी शब्दावली का प्रयोग करना चाहिए लेकिन इतना भी नहीं कि भाषा की बोधगम्यता ही समाप्त हो जाए और भाषा जटिल बन जाए। उन्होंने आगे यह चिंता व्यक्त की कि आजकल हिंदी समाचार पत्रों में अंग्रेजी शब्द हिंदी शब्दों को अपदस्थ कर रहे हैं। उन्होंने चर्चा के लिए यह विषय छेड़ दिया कि इस तरह का भाषा मिश्रण क्या हिंदी समाज के लिए श्रेयस्कर है! 

इस अवसर पर भारतीय निर्यात-आयात बैंक के उप महाप्रबंधक श्री नवेंदु वाजपेयी, भारतीय स्टेट बैंक के महाप्रबंधक और नराकास के महासचिव डॉ. विष्णुभगवान शर्मा, भारतीय निर्यात-आयात बैंक के मुख्य प्रबंधक श्री अमरेंद्र कुमार मंचासीन थे। हैदराबाद के विभिन्न बैंकों से मुख्य प्रबंधक, सहायक महाप्रबंधक, महाप्रबंधक उपस्थित रहे। 

संगोष्ठी के प्रथम सत्र में ‘स्वतंत्र वार्ता’ के पत्रकार और एवी कॉलेज के हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. शशिकांत मिश्र ने ‘अखबारों में हिंदी का बदलता स्वरूप : कल, आज और कल’ पर अपने विचार व्यक्त किए तो भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र (ISRO) से संबद्ध वैज्ञानिक एवं ‘शिक्षा’ तथा ‘ज्ञानम’ संस्थाओं के संस्थापक डॉ. टी.पी. शशिकुमार ने ‘वर्क, लाइफ, बैलेंस’ के संबंध में अपने बहुमूल्य विचार व्यक्त करते हुए कहा कि हर नागरिक की ज़िंदगी में ‘क्षण’ महत्वपूर्ण है क्योंकि संतोष के पल क्षणिक होते हैं तो उन्हें पहचानना जरूरी है सुखी ज़िंदगी जीने के लिए।

भोजन अवकाश के उपरांत विष्णु भगवान शर्मा ने संसदीय राजभाषा समिति के निरीक्षण तथा प्रश्नावली भरने में आवश्यक सावधानियों के संबंध में विस्तार से अधिकारियों को समझाया। 

उसके पश्चात मेरी पारी थी। मुझे यह समझ में नहीं आ रहा था कि मैं बात कहाँ से शुरू करूँ। उस समय मुझे मेरे गुरुजी श्रद्धेय प्रो. ऋषभदेव शर्मा की बात याद आई। वे हमेशा यही कहा करते हैं कि कहीं से भी शुरू कीजिए वही शुरूआत हो जाती है। इसी तर्ज पर मैंने अपनी बात शुरू कर दी। उसीका सार संक्षेप मैं यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ। 

सबसे पहले मैंने अपनी बात ‘भाषा’ से शुरू की। भाषा को हम दो प्रकार से विभाजित कर सकते हैं – LGP (Language for General Purposes/ सामान्य प्रयोजनों की भाषा – अर्थात दैनंदिन जीवन की संप्रेषण संबंधी आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली सामान्य संप्रेषण की भाषा) और LSP (Language for Specific/ Special Purposes/ प्रयोजनमूलक भाषा)। विशेष प्रयोजनों के लिए हमें विशेष भाषा की जरूरत पड़ती है. प्रयोग क्षेत्र के अनुसार प्रयोजनमूलक भाषा रूप विकसित होते हैं। प्रयोजनमूलक भाषा रोजीरोटी से संबंधित भाषा है। आज के बदलते परिप्रेक्ष्य में परंपरागत पाठ्यक्रमों के अलावा प्रयोजनपरक पाठ्यक्रमों की आवश्यकता है। अर्थात बैंकों, कार्यालयों आदि में प्रयुक्त भाषा के साथ-साथ मंच संचालन, एंकरिंग के कार्यक्रम चलाने तक की भाषिक प्रयुक्ति को सिखाना जरूरी है। ‘पढ़ाई के साथ कमाई’ की योजना जोड़ी जाएँ तो विद्यार्थी हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाएँ जरूर सीखेंगे। विविध व्यवसायों में काम आने वाली भाषा से संबंधित पाठ्यक्रम भी चलाना आवश्यका है। जैसे - मेडिकल हिंदी, बैंकिंग हिंदी, इंजीनियरिंग हिंदी, प्रबंधकों के लिए हिंदी आदि। 

उत्तर भारत में हिंदी प्रथम भाषा है लेकिन दक्षिण भारत में हिंदी दूसरी या तीसरी भाषा है। ऐसी स्थिति में समस्याएँ होती ही हैं। बुनियादी शिक्षा कमजोर होती जा रही है। सरलीकरण के तर्ज पर बच्चों को मूलभूत अवधारणाएँ नहीं समझा रहे हैं। हमारी पीढ़ी को अध्यापकों ने तो इंद्रधनुष के सात रंगों को अंग्रेजी में याद रखने के लिए ‘विब्गयोर’ को याद रखना सिखाया है – वायोलेट, इंडिगो, ब्ल्यू, ग्रीन, येल्लो, ऑरेंगे और रेड। लेकिन सरलीकरण की प्रक्रिया इतनी सरल हो चुकी है कि वायोलेट और इंडिगो का स्थान पर्पल और पिंक ने ले लिया है। बच्चे भी अब यही रट रहे हैं। मेरी 8 वर्षीय बेटी जब यह गाना गा रही थी – ‘रेड, ऑरेंगे, येल्लो, ग्रीन, ब्ल्यू, पर्पल एंड पिंक मेक्स रेनबो कलर्स’ तो मैं अवाक रह गई। आखिर सरलीकरण को अपनाते अपनाते हम कहाँ से कहाँ पहुँच रहे हैं। 

भाषा सीखने के लिए सबसे पहले उस भाषिक समुदाय की संस्कृति और पृष्ठभूमि को जानना अनिवार्य है। भाषिक अभिव्यक्ति को जानना अनिवार्य है। भाषा की कम जानकारी होने के कारण छात्र प्रायः इस प्रकार की त्रुटियाँ करते हैं – 

उदाहरण के लिए He ‘Hardly’ works. इस वाक्य का अनुवाद कुछ छात्र इस प्रकार करते हैं – वह कठोर परिश्रम करता है। जबकि इस का आशय है कि अमुक व्यक्ति कामचोर है। वह कभीकभार ही काम करता है। 

‘Well’ equipped hospitals – कुओं से सुसज्जित अस्पताल (संसाधन युक्त अस्पताल)। I am feeling ‘chilly’ – मुझे मिर्ची लग रही है। (मेरे तो कुल्फी जमी जा रही है या मुझे ठंड लग रही है)। 

एक कविता को देखें – I saw a black crow/ sitting on a hemlock tree/ showering dew drops upon me.’ इस कविता में प्रयुक्त शब्द सभी परिचित शब्द हैं। इसका सामान्य रूप से अनुवाद इस तरह किया जा सकता है – मैंने देखा एक काला कौआ/ हेमलोक पेड़ पर बैठा हुआ/ मुझ पर छिड़क रहा है ओस की बूँदें।‘ 

लेकिन इस कविता में निहित प्रतीकार्थ को समझना होगा। इसके लिए स्रोत भाषा की संस्कृति को समझना आवश्यक है। अब ध्यान से रेखांकित शब्दों को देखिए hemlock tree – यह एक विषैला वृक्ष है। कविता में यह शब्द मृत्यु का प्रतीक है।  black – काला रंग शोक का संकेत देता है। crow priest का प्रतीक है और dew drops पवित्र जल का प्रतीक है। अब देखिए पहले जो चित्र आपकी आँखों के सामने उपस्थित हुआ वह तो गायब ही है, अब तो दूसरा ही चित्र है।  

भाषाओं में अनेक ऐसे शब्द पाए जातें हैं जो अपने मूल अर्थ से भिन्न अर्थ का बोध कराते हैं। उदहारण के लिए ‘मामू’ शब्द को ही लें। यह रिश्ते-नाते की शब्दावली है। माँ के भाई। जबकि मुम्बइया हिंदी में पुलिस वाले के लिए ‘मामू’ कहा जाता है। तेलुगु में भी इस तरह का प्रयोग पाया जाता है। तेलुगु भाषा समाज में ससुराल के लिए कभी-कभी ‘श्रीकृष्ण जन्मस्थान’ का प्रयोग भी किया जाता है।    
             
इसीलिए हम बार बार यही कहते हैं कि कार्यालयीन हिंदी, बैंकिंग हिंदी, मौसम विज्ञान की हिंदी हो या फिर साहित्यिक हिंदी जब तक विषय की जानकारी नहीं होगी, संकल्पनाओं की जानकारी नहीं होगी, भाषिक परिवेश की जानकारी नहीं होगी, संस्कृति की जानकारी नहीं होगी तब तक समस्याओं का निदान होना असंभाव है। इस तरह की समस्याएँ सिर्फ ‘ग’ क्षेत्र में ही नहीं ‘क’ और ‘ख’ क्षेत्र में भी उपस्थित हो सकती हैं।
धन्यवाद।

1 टिप्पणी:

बेनामी ने कहा…

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