“आज जिस दुनिया में हम जी रहे हैं वह तरह-तरह के मूल्य-संकटों को झेल रही है. एक ऐसे परिवेश का व निर्माण हुआ है जिसमें मनुष्य का अस्तित्व ही खतरे में पड़ा हुआ दिखाई देता है. मनुष्य और मनुष्य तथा मनुष्य और प्रकृति के रिश्ते इतने गड़बड़ा गए हैं कि न मन में शांति है और विश्व में. शक्ति और बल तो बहुत है पर या तो बिखरा हुआ है या गलत जगह इस्तेमाल हो रहा है. ऐसे में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाली शक्तियों को भी समन्वय और सामंजस्य की आवश्यकता है. इसमें संदेह नहीं कि इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए जिस प्रकार के जीवन दर्शन और वैश्विक दृष्टि की दरकार है वह भारत के पास है; उसकी युगों से जाँची-परखी राम संस्कृति के रूप में.
“राम संस्कृति अपने मौलिक रूप में विश्व मानव की संस्कृति है जो शांति, सद्भाव, साहचर्य, सहयोग, स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, न्याय, आत्मसमर्पण, लोकरक्षण और सर्वजन हित जैसे मूल्यों पर टिकी है. यह संस्कृति धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे पुरुषार्थों की व्याख्या मनुष्य की मुक्ति को केंद्र में रखकर करती है. इस संस्कृति में अपने पुरुषार्थ द्वारा मनुष्य ही ईश्वरत्व को प्राप्त करता है, अवतार की कोटि में स्थान प्राप्त करता है. हजारों वर्ष से यह संस्कृति अपने केंद्र से बाहर फैलने के गुण के कारण दुनिया के जाने कौन कौन से दूरदराज देशों में पहुँची और वहाँ के लोगों के जीवन के हिसाब से तरह-तरह के रूपों में ढल गई. इस तरह राम संस्कृति कहीं चित्रकला के रूप में तो कहीं मूर्तिकला के रूप में, कहीं गीतों के रूप में तो कहीं कथाओं के रूप में, कहीं साहित्यिक कृतियों के रूप में तो कहीं लोगों की अपनी-अपनी रामलीलाओं के रूप में संपूर्ण विश्व में व्याप्त हुई.
साथ ही इक्कीसवीं शताब्दी की ग्लोबल परिस्थितियां जहाँ राम संस्कृति को अपनाकर एक बेहतर दुनिया के निर्माण की ओर अग्रसर हो सकती हैं, वहीं वर्तमान विश्व में व्यापक वैचारिक आदान-प्रदान के लिए (भूतकाल में इस भूमिका को बखूबी निभा चुकी संस्कृत भाषा की उत्तराधिकारी भाषा) हिंदी को विश्वभाषा के रूप में वह सम्मान दिए जाने की वेला आ गई है जिसके लिए वह सर्वाधिक उपयुक्त पात्र है.”