22 जून, 2014 को भारत के 29 वें राज्य के रूप में तेलंगाना राज्य का पुनर्गठन हुआ था। विविध लोकोत्सव इस राज्य को विशिष्ट निजी सांस्कृतिक पहचान प्रदान करते हैं। खास तौर से 'बोनालु' पर्व को तेलंगाना का सांस्कृतिक प्रतीक कहा जा सकता है जिसका संबंध देवी पूजा से है।
विदित ही है कि देश भर में देवी पूजा की परंपरा है। तेलंगाना भी इसका अपवाद नहीं है। विशेष बात यह है कि तेलंगाना में ग्राम देवियों को अनेक नामों से पुकारते हैं - एलम्मा, पोचम्मा, नल्लपोचम्मा, मैसम्मा, गंडिमैसम्मा, नानचारम्मा, नूकालम्मा, पोलेरम्मा, मारेम्मा, पेद्दम्मा, गंगालम्मा, मुत्यालम्मा, महांकालम्मा, अंकालम्मा आदि। लोकजीवन में इनकी पूजा-अर्चना की अनेकविध परिपाटी मिलती है। देवी पूजा की परिपाटी के उदाहरण के रूप में एडुपायला जातरा और समक्का-सारलम्मा जातरा का उल्लेख किया जा सकता है।
मेदक जिला के नागासनपल्लि ग्राम में स्थित एडुपायला सात नदियों का संगम स्थल है। एडुपायला वन दुर्गा भवानी का मंदिर तेलंगाना में सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली मंदिरों में से एक है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ प्रवाहित नदी की सात धाराएँ सात ऋषियों के नामों से बनी हैं - जमदग्नि, अत्रि, कश्यप, विश्वामित्र, वसिष्ठ, भरद्वाज और गौतम। हर शिवरात्रि को यहाँ जातरा (मेला) का आयोजन होता है। एडुपायला जातरा के अवसर पर भेड़-बकरी और मुर्गियों की बलि दी जाती है। यह त्योहार शिवरात्रि के दिन से शुरू होकर तीन दिनों तक चलता है। आसपास के 32 गाँवों से सैकड़ों सजी-धजी बैलगाडियों की शोभायात्रा निकलती है। इसे ‘बंडि उत्सवम’ (गाड़ियों का उत्सव) कहा जाता है। इसके बाद देवी माँ की रथयात्रा निकलती है। इसी प्रकार समक्का-सारलम्मा जातरा वरंगल जिला में स्थित कन्नापल्लि जंगल में शुरू होकर वरंगल से 90 किमी दूरी पर स्थित मुलुगु जिले के तड़वई मंडल के मेडारम में समाप्त होती है। इसलिए इसे मेडारम जातरा भी कहा जाता है। इस उत्सव में चार दिनों तक भक्त देवी माँ को सोना (गुड़) चढ़ाते हैं और सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। कोया आदिवासियों का यह विशेष त्योहार एशिया का सबसे बड़ा जनजातीय त्योहार माना जाता है। ये दोनों जातराएँ यह प्रतिपादित करने के लिए पर्याप्त हैं कि तेलंगाना का सामान्य लोक देवीपूजक लोक है।
इसी का परिणाम है कि विशेष रूप से हैदराबाद में मनाए जाने वाले देवीपूजा के पर्व बोनालु को लोकपर्व से राजपर्व की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। तेलंगाना के राजकीय लोकपर्व बोनालु के जुलूस में महाकाली के विभिन्न अवतारों की अर्चना की जाती है। इसलिए इसे ‘महांकाली जातरा’ भी कहते हैं। पहले यह त्योहार मुख्य रूप से हिंदू समाज की हाशियाकृत जातियों में अधिक लोकप्रिय था। कालांतर में सभी जाति-वर्णों ने इसे अपना लिया। तेलंगाना के राजकीय पर्व के रूप में ख्याति अर्जित करने के बाद तो अब यह सबका पर्व हो चुका है।
इस पर्व की मुख्य रीति है कि मन्नत माँगकर स्त्रियाँ देवी माँ को बोनम (भोजन) समर्पित करती हैं। बोनम अर्थात देवताओं को समर्पित किया जाने वाला भोजन या नैवेद्य। ‘बोनालु’ को हैदराबादी भाषा में ‘बोनाल’ कहा जाता है। ‘बोनालु’ शब्द ‘भोजनालु’ (भोजन) का बिगड़ा हुआ रूप है। आषाढ़ मास के पहले रविवार को शुरू होकर यह पर्व अंतिम रविवार को समाप्त होता है। अर्थात एक माह तक मनाया जाता है। त्योहार के पहले और अंतिम दिन गोलकोंडा एलम्मा के लिए विशेष पूजाएँ की जाती हैं। दो नए छोटे मटकों को हल्दी का लेप लगाकर कुमकुम से सजाया जाता है। नीम की टहनियाँ बाँधी जाती हैं। उन मटकों में बोनम रखा जाता है। दोनों मटकों को एक के ऊपर एक रखा जाता है। ऊपर के मटके पर तेल का दीपक जलाया जाता है। इसे ‘बोनाला ज्योति’ (बोनालु की ज्योति) कहा जाता है। श्रद्धा और भक्ति से स्त्रियाँ उन मटकों को सिर पर रखकर देवी माँ के मंदिर में बोनम चढ़ाने जाती हैं। पुरुष वाद्य यंत्र बजाते हुए, भक्ति गीत गाते हुए उनके साथ जाते हैं। बोनम के रूप में मुख्य रूप से मिष्टान्न चढ़ाया जाता है जो देवी माँ का अत्यंत प्रिय खाद्य पदार्थ है। नमक और काली मिर्च के साथ पका हुआ चावल और दही चावल भी चढ़ाया जाता है। मंदिर में देवी माँ के समक्ष जो चावल का ढेर लग जाता है उसे ‘बल्लम गल्ला’ कहा जाता है। बोनम के साथ माँ को ‘कल्लु’ (देशी शराब) और बलि भी चढ़ाने की परंपरा रही है। बहुत समय तक भैंस की बलि दी जाती थी। धीरे-धीरे भैंस के स्थान पर मुर्गी और बकरी की बलि चढ़ाने लगे। लेकिन अब अधिकतर प्रतीक बलि दी जाती है; अर्थात कद्दू, पेठा, नींबू आदि की बलि। वास्तव में बलि की प्रथा को रोकने के लिए ऐसा किया जाने लगा, क्योंकि गाँवों में कभी-कभी नर बलि भी दी जाती थी - दुश्मनी के कारण। इसमें शक नहीं कि तेलंगाना लोक में मांसाहार का अत्यधिक प्रचलन है। लेकिन बोनालु त्योहार के एक महीने तक वे लोग मांसाहार से दूर रहते हैं। शायद इसीलिए अंतिम दिन देवी माँ के समक्ष मुर्गी और बकरी की बलि चढ़ाकर उस दिन मांसाहार का सेवन करते हैं।
बोनालु उत्सव आषाढ़ माह के चार सप्ताह के लिए क्रमशः गोलकोंडा, सिंकदराबाद, लाल दरवाजा और पुराने शहर में मनाया जाता है। सबसे पहले हैदराबाद के गोलकोंडा किले के भीतर मंगलावरम नामक पहाड़ी पर स्थित जगदंबिका मंदिर में इस त्योहार की शुरूआत होती है। आषाढ़ मास के प्रथम रविवार से तीन दिन पहले गोलकोंडा के पास स्थित लंगर हाउस से देवी की रथयात्रा शुरू होती है। रंगबिरंगे कागजों से बने ऊँचे बेंत के झूले में माँ की तस्वीर सजाकर ज्योति के साथ गोलकोंडा तक शोभायात्रा निकलती है। इसे ‘तोट्टेल उत्सवम’ (झूले का उत्सव) कहा जाता है। सरकार की ओर से भेंट स्वरूप माँ को रेशमी कपड़े और सुहागिन के सिंगार की वस्तुएँ समर्पित की जाती हैं।
उसके बाद सिकंदराबाद उज्जैनी महाकाली मंदिर, बलकम्पेट एल्लम्मा मंदिर, चिलकलगुडा पोचम्मा मंदिर और कट्टा मैसम्मा मंदिर, लाल दरवाजा सिंहवाहिनी श्रीमहाकाली मंदिर, हरिबावली अकन्ना मादन्ना मंदिर, शाह अली बंडा में स्थित मुत्यालम्मा मंदिर में बोनालु पर्व क्रमशः मनाया जाता है। फिर अन्य स्थानों में स्थित देवी माँ के मंदिरों में बोनम समर्पित किया जाता है। वापसी में गोलकोंडा के जगदंबिका मंदिर में अंतिम बोनम अर्पित करने के बाद ही यह उत्सव समाप्त होता है।
बोनालु का पर्व रविवार को शुरू होता है। अगले दिन सोमवार को रंगबिरंगे कागजों से बने बेंत के ऊंचे झूले में प्रतिष्ठित देवी को प्रतिष्ठित कर जुलूस निकाला जाता जाता है। इस जुलूस का अर्थ है खुशी से माता को उनके मायके के लिए विदा करना। सुहागिन को ले जाने के लिए तो भाई ही आते हैं न! सो, देवी माँ की विदाई के लिए उनके भाई और अंगरक्षक ‘पोतुराजु’ आते हैं। नदी किनारे झूला और ‘बल्लम गल्ला’ रख दिए जाते हैं और नदी में दिया छोड़कर लोग वापस आ जाते हैं। लोक विश्वास है कि यह भोजन पाकर प्रेतात्माएँ तृप्त हो जाएँगी; अतः कोई अनिष्ट नहीं होगा और देवी माँ सबकी रक्षा करेगी।
उल्लेखनीय है कि पोतुराजु को महाराष्ट्र में पोतराज, मरीआई अथवा कड़क लक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता है। असल में पोतराज इस अंचल की एक जनजाति है जो लुप्त होती जा रही है। वे देवी माँ के उपासक होते हैं। पोतुराजु का वेश धारण करने वाला व्यक्ति लाल धोती को घुटनों के ऊपर तक कसकर बाँधता है। पैरों में घुँघरू, हाथ में चाबुक, पूरे शरीर में हल्दी का लेप, माथे पर कुमकुम का टीका और गले में नींबू की माला पहनकर वह ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचता रहता है और अपने हाथ में लिए हुए चाबुक से अपनी ही पीठ पर प्रहार करता रहता है। यह माना जाता है कि पोतुराजु स्वयं पर चाबुक के प्रहार से लोगों की विपत्तियों को दूर करता है जिससे देवी माँ भक्तों पर कृपा करती है। पोतुराजु का वेश धारण करके नाचना भी एक जीवन-वृत्ति है। बच्चों को बहुत कम उम्र में जबरन इस वृत्ति का प्रशिक्षण दिया जाता ताकि वे बड़े होकर अपनी पीठ पर कोड़े सहते हुए नाच सकें।
बोनालु के अगले दिन 'रंगम' का भी आयोजन किया जाता है। रंगम अर्थात भविष्यवाणी। एक स्त्री ‘गले’ (जोगिनी, मातंगी) कच्ची मिट्टी के घड़े पर खड़ी होकर भविष्यवाणी करती है। वह भविष्य के संकटों के प्रति लोगों को जागरूक करती है। भविष्यवाणी करने वाली इस स्त्री को साक्षात देवी का स्वरूप माना जाता है। हैदराबाद-सिकंदरबाद बोनालु में जोगिनी श्यामला और रंगम स्वर्णलता इस प्रक्रिया को संपन्न करती हैं। माँ की शोभायात्रा से पहले यह धार्मिक प्रक्रिया संपन्न होती है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है यह शोभायात्रा गोलकोंडा के जगदंबिका मंदिर से शुरू होकर सिकंदराबाद के उज्जैनी महांकाली मंदिर और उसके बाद लाल दरवाजा सिंहवाहिनी श्रीमहाकाली मंदिर में जाकर समाप्त होती है। इसे लोक आस्था का प्रताप ही कहा जा सकता है कि सामान्य जनता ही नहीं बल्कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के राजनीतिज्ञ और स्वयं मुख्यमंत्री भी प्रायः इस आयोजन में भविष्यवाणी जानने के लिए उपस्थित होते हैं।
वर्तमान युग में धीरे-धीरे इस लोक पर्व का राजसीकरण भी होने लगा है। हैदराबाद और सिकंदराबाद के अलावा रंगारेड्डी जिले के लगभग 3 हजार मंदिरों को सरकार की ओर से आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जा रही है। 2018 में तेलंगाना राष्ट्र समिति की सांसद के.कविता ने माँ को 3.8 किलो सोने से बने बर्तन में बोनम समर्पित किया था। अब मिट्टी के मटकों के स्थान पर लोग अपनी पद-प्रतिष्ठा के अनुरूप या कहें कभी-कभी दिखावे के लिए सोने और चाँदी के बर्तनों में बोनम अर्पित करने लगे हैं। यह प्रवृत्ति भविष्य में इस पर्व के मूलभूत लोक चरित्र को क्षति पहुँचाने वाली सिद्ध हो सकती है।
रंगम के बाद घटम का जुलूस निकलता है। इसके लिए घटम (तांबे का बर्तन) को देवी के रूप में सजाया जाता है। बोनालु उत्सव के पहले दिन से लेकर अंतिम दिन तक घटम को जुलूस में ले जाया जाता है। अंतिम दिन इसे पानी में विसर्जित किया जाता है। घटम के विसर्जन के साथ उत्सव का समापन माना जाता है। हरिबावली के अक्कन्ना मादन्ना मंदिर से घटम को हाथी पर रखकर माँ की शोभायात्रा निकलती है तथा नयापुल के पास घटम का विसर्जन किया जाता है।
यह सब तो हुआ बोनालु के कर्मकांड का विवरण। अब ज़रा इसके इतिहास में भी झांक लिया जाए। बोनालु पर्व की शुरूआत 19वीं शताब्दी में हुई। इसकी कहानी हैदराबाद-सिकंदराबाद जुड़वा शहर के रेजिमेंटल बाजार से जुड़ी है। हैदराबाद-सिकंदराबाद के इतिहास से यह पता चलता है कि वर्ष 1813 में आषाढ़ मास अर्थात वर्षा आरंभ होते ही यहाँ प्लेग की भयानक महामारी फैल गई थी। इससे हजारों लोगों की मृत्यु हुई। संयोगवश इससे ठीक पहले हैदराबाद से एक सैन्य बटालियन को उज्जैन में तैनात किया गया था। जब इस हैदराबादी मिलिट्री बटालियन को महामारी के बारे में पता चला, तो उन सिपाहियों ने उज्जैन के महाकाली मंदिर में देवी से प्रार्थना की कि वे हैदराबाद तथा सिकंदराबाद को इस महामारी से बचाएँ। उन्होंने यह मनौती भी मानी कि यदि देवी माँ ऐसा करेंगी, तो यहाँ लौटने पर वे शहर में देवी महाकाली की मूर्ति स्थापित करेंगे। ऐसा माना जाता है कि महाकाली ने महामारी को नष्ट कर दिया। सैन्य बटालियन शहर लौट आई और देवी की एक मूर्ति स्थापित की तथा भक्ति और श्रद्धा भाव से माँ को बोनालु समर्पित किया। तब से, यह एक परंपरा बन गई जिसका पालन आज तक किया जा रहा है। इस दौरान देवी माँ को प्रसन्न करने के लिए पूजा-पाठ, व्रत-त्योहार, मेले-ठेले का आयोजन किया जाता है।
लोक पर्वों के साथ लोक कथाएँ भी जुड़ जाती हैं। बोनालु के साथ भी ऐसा ही है। लोक विश्वास है कि आषाढ़ मास के दौरान महाकाली अपने माता-पिता के घर आती हैं। अतः ससुराल से मायके आई हुई माँ के स्वागत में बोनालु पर्व मनाया जाता है। माँ से घर और समाज की सुख-समृद्धि की प्रार्थना की जाती है। आषाढ़ में नई नवेली दुल्हन को एक महीने तक मायके भेज दिया जाता है। एक महीने के बाद श्रावण में माता-पिता बेटी को भेंट देकर ससुराल विदा करते हैं। उस समय भाई उसके अंगरक्षक बनकर उसको विदा कराने आते हैं। इसी लीला को हर वर्ष दोहराया जाता है।
लेकिन लोक की प्रथाएँ केवल अंधविश्वास नहीं होतीं। उनमें भी कुछ न कुछ वैज्ञानिकता निहित होती है। इस दृष्टि से भी बोनालु उत्सव की सार्थकता असंदिग्ध है। आषाढ़ में बीमारियाँ फैलती हैं। इसलिए इस महीने में बोनालु उत्सव मनाया जाता है जिसमें नीम और हल्दी की प्रचुरता रहती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि नीम की पट्टियों और हल्दी में कीटनाशक तत्व निहित हैं। इसके अलावा बीमारियों को दूर करने के साथ-साथ यह त्योहार सारे समाज के भाईचारे का भी प्रतीक है।
बोनालु के अवसर पर लोग अपनी खुशियों को लोक गीतों – विशेषकर भक्ति गीतों - के माध्यम से व्यक्त करते हैं। उदाहरण के तौर पर दो गीतों के मुखड़े द्रष्टव्य हैं-
- सूर्युने बोट्टुगा पेट्टुकोनि/ भल्लान्ने चेतिलो पट्टुकोनि/ महामारि तलने नरिकिनावु पेद्दम्मा/ कैलासम वद्दनि विडिचिनावु/ कलियुग्म लो माकै वच्चिनावु/ माँ पिल्ललिनी सल्लागा चूसिनावु मायम्मा/ पुलिपै सवारी चेसिनावु ओ यम्मा/ अंदुके नीकु बोनालु एत्तुतमु।
(सूरज को माथे की बिंदी बनाकर/ भाले हो हाथ में लेकर/ महामारी का सिर कुचल डाला/ हे माँ! दुष्टों को नरक भेज दिया/ कैलास छोड़कर/ कलियुग में हमारे लिए यहाँ आकर/ हमारे बच्चों रक्षा करती हो हे माँ!/ हे माँ, सिंहवाहिनी!/ तेरे लिए हम नैवेद्य लाएँगे।)
- पल्लेलु पट्नालन्नि पच्चगा चूसे तल्लि/ ऊरी पोलिमेरलो उंडि ऊरंता कासे तल्लि/ पोचम्मा, एलम्मा, मैसम्मा, मारेम्मा, महांकालम्मा, मुत्यालम्मा, पोलेरम्मा/ एडुगुरु अक्का-चेल्लेल्लु नीकु/ एडु अंतस्तुला बोनमे अम्मा!
(गाँवों और शहरों को हरा-भरा रखने वाली माँ!/ गाँव की सीमा पर रहकर गाँव की रक्षा करने वाली माँ!/ पोचम्मा, एलम्मा, मैसम्मा, मारेम्मा, महांकालम्मा, मुत्यालम्मा, पोलेरम्मा/ सात बहनें हैं तेरी,/ सात भवन के नैवेद्य हैं माँ।) माना जाता है कि महाकाली की सात बहनें हैं - पोचम्मा, एलम्मा, मैसम्मा, मारेम्मा, महंकालम्मा, मुत्यालम्मा और पोलेरम्मा।
इस महान लोक पर्व ने आधुनिक तेलुगु साहित्य में भी पर्याप्त जगह पाई है, जो इसकी व्यापक स्वीकृति का प्रतीक है। दाशरथी रंगाचार्य की कृति ‘माया जलतारु’ (मायाजरतार, 1973, विशालांध्रा पब्लिशिंग हाउस) में बोनालु का चित्रण प्राप्त होता है – “चेंबु मीदा मरोका चेंबु पेट्टारु। अदि बोनाम। आड़ुवारंता तललकु बोनालु एत्तुकोनि तयारुकागा मगवारु डप्पुलु तीसुकोनि बायिलुदेरारू।” (मटके के ऊपर एक और मटका रख दिया। वही है बोनम। स्त्रियाँ बोनालु को सिर पर रखकर तैयार हुईं और पुरुष ढोल लेकर उनके साथ चल पड़े।)
तेलुगु के क्रांतिकारी कवि गद्दर (गुम्मडी विट्ठल राव, 1949) ने अपनी रचना ‘प्रति पाटकु ओका कथा उंदा?’ (हर गीत के लिए एक कथा है क्या?, 1991) में यह स्पष्ट किया है कि बोनालु त्योहार विशेष रूप से तेलंगाना के लोगों द्वारा मनाया जाता है। इस त्योहार का बहुत महत्व है। चाहे कुछ भी हो जाए, कर्ज में डूबे रहने पर भी इस त्योहार को जरूर मनाएँगे क्योंकि तेलंगाना की जनता यह मानती है कि देवी माँ को संतुष्ट रखना जरूरी है अन्यथा उनके क्रोध का शिकार होना पड़ेगा।
अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिए भोजन (नैवेद्य) अर्पित करना एक प्राचीन परंपरा है। यही कारण है कि ताल्लपाक अन्नमाचार्य के कीर्तनों में भी बोनालु का उल्लेख मिलता है – “विंदगु वेंकटा विभुनि प्रेमचे बोंदुगा बेट्टेनु बोनालु।” (श्री वेंकटेश्वर स्वामी को प्रेम से बोनालु समर्पित करें। - अन्नमाचार्य, शृंगार संकीर्तन, तालपत्र 53)। इस कीर्तन से यह स्पष्ट होता है कि बोनालु की परंपरा सिर्फ तेलंगाना में ही नहीं बल्कि संपूर्ण आंध्र प्रदेश में रही है। नन्नैया कृत ‘आंध्र महाभारतम’ और कृष्णदेवराय की ‘आमुक्तमाल्यदा’ में भी इसका उल्लेख है। वस्तुतः ‘बोनालु’ का अर्थ है श्रद्धा और भक्ति से देवी-देवताओं को भोजन समर्पित करना ताकि उनकी कृपा बनी रहे। अतः आज भी लोक कल्याण की सामूहिक कामना ही इस पर्व का परम अभीष्ट है।