शुक्रवार, 1 मई 2020

रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की कहानियों में सुधारवादी दृष्टिकोण

साहित्यकार समाज से जुड़ा हुआ उत्तरदायी प्राणी होता है। कोई भी उत्तरदायी साहित्यकार जागरूक होता है और वह अपने समय के यथार्थ से असंतुष्ट रहता है चूँकि समाज में चारों ओर विसंगतियाँ और विकृतियाँ होती हैं। ऐसी स्थिति में साहित्य अपने आप में सुधारवादी होता है। यदि यह कहा जाए कि आदर्श और मूल्य सुधारवादी दृष्टिकोण के आधार तत्व हैं या प्रतिरूप हैं तो गलत नहीं होगा। एक तरह से आदर्श समाज की इच्छा करना सुधारवादी दृष्टिकोण का ही परिचायक है। रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ एक ऐसे ही जागरूक तथा उत्तरदायी साहित्यकार हैं। उनके साहित्य में पग-पग पर सुधारवादी दृष्टिकोण को भलीभाँति देखा जा सकता है। इसीलिए वे कहते हैं 
“लक्ष्य उसका क्या निहित, गंतव्य उसका कहाँ है, 
आज ढूँढ़ो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ हैं।
सोच कोरी रह गई
हर श्वास दूषित हो गई,
आज तो बस हर कदम पर 
मनुजता भी रो रही।
आज तो सब छोड़ कर, इनसान ढूँढ़ो कहाँ है?
आज ढूँढ़ो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ है।
आदर्श का चोला लिए/ अब बात लंबी हो गई,
मतलब नहीं इस बात का, कि
क्या गलत है क्या सही।
खो गया क्यों सत्य ढूँढ़ो, सत्यवादी कहाँ है?
आज ढूँढ़ो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ है।
बंधु-बांधव को समझना 
अब दिखावा रह गया,
प्रेम था वह है कहाँ
स्वार्थ में सब बह गया।
कहाँ है आत्मीयता,बंधुत्व खोया कहाँ है?
आज ढूँढ़ो व्यक्ति को ये भटकता भी जहाँ है।” (इनसान ढूँढ़ो कहाँ हैं?)।



उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल जनपद के ग्राम पिलानी में 15 अगस्त, 1959 को जन्मे रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ ने पत्रकारिता में एम.ए. तथा पीएच.डी. की उपाधियाँ अर्जित की हैं। वे कवि के साथ-साथ उपन्यासकार, कहानीकार, बाल साहित्यकार, यात्रावृत्तकार, निबंधकार और संपादक हैं। वे अनेक सम्मानों से सम्मानित हो चुके हैं। समर्पण, नवांकुर, मुझे विधाता बनना है, तुम भी मेरे साथ चलो, मातृभूमि के लिए, जीवन पथ में, कोई मुश्किल नहीं, प्रतीक्षा, ए वतन तेरे लिए आदि उनके कविता संग्रह हैं तो रोशनी की एक किरण, बस एक ही इच्छा, क्या नहीं हो सकता, भीड़ साक्षी है, खड़े हुए प्रश्न, विपदा जीवित है, एक और कहानी, मेरे संकल्प, टूटते दायरे, मील का पत्थर, केदारनाथ आपदा की सच्ची कहानियाँ आदि कहानी संग्रह हैं। निशांत, मेजर निराला, बीरा, पहाड़ से ऊँचा, छूट गया पड़ाव, अपना पराया, पल्लवी, प्रतिज्ञा, भागोंवाली, शिखरों से संघर्ष और कृतघ्न उनके उपन्यास हैं। मेरी व्यथा-मेरी कथा पत्र संकलन है। सफलता के अचूक मंत्र, भाग्य पर नहीं परिश्रम पर विश्वास करें, संसार कायरों के लिए नहीं और सपने जो सोने न दें आदि व्यक्तित्व विकास से संबंधित कृतियाँ हैं। उनके साहित्य को देश-विदेश में विश्व की विभिन्न भाषाओं जैसे- जर्मन, अंग्रेजी, फ्रेंच, तेलुगु, मलयालम, मराठी, कन्नड आदि में अनूदित किया जा चुका है।

रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ की दृष्टि सुधारवादी है। वे मनुष्यता को कायम रखने की बात करते हैं। उनकी कहानियों में आदर्श की स्थिति को देखा जा सकता है। वे यथार्थ की परिस्थितियों की ओर पाठकों का ध्यान आकर्षित करते हैं, उन्हें सोचने के लिए बाध्य करते हैं और उन परिस्थितियों को सुधारने के लिए राह भी सुझाते हैं। वे मानवीय मूल्यों एवं आदर्श परिवार को प्रमुखता देते हैं। ‘दे सको तो’ शीर्षक कहानी में कामिनी नितिन को उसके परिवार से अलग करना चाहती है। लेकिन नितिन यह सहन नहीं कर सकता। वह किसी भी हालत में अपने भाई से अलग नहीं होना चाहता। माता-पिता, भाई और छोटी बहन को वह पहले ही खो चुका था और शेष बचा हुआ है उसका एक मात्र भाई जिससे भी कामिनी दूर करना चाहती है। लेकिन नितिन “उससे अलग रहना तो दूर अलग होने की कल्पना तक नहीं कर सकता।” (निशंक : 2007. पृ. 8)। ज्यादा खुशियाँ पाकर नितिन सहम जाता है कहीं “ये खुशियाँ गम के बादल न बन जाएँ।” (वही)। इसीलिए वह कामिनी से कहता है कि “दे सको तो मुझे वचन दो कि मुझे भाई से अलग होने की बात नहीं कहोगी।” (वही)। यहाँ निशंक एक आदर्श परिवार की कल्पना करते हैं और यह दर्शाते हैं कि एक बार रिश्तों से दूर हो जाएँगे तो वापस मिल नहीं सकते। ‘दरार कहाँ पड़ी’ शीर्षक कहानी में भी परिवार के महत्व को दर्शाया गया है। मंगल की पत्नी कंपनी में नौकरी करती है। अहं की टकराहट के कारण छोटी-छोटी बातों पर दोनों झगड़ते रहते हैं। रिश्तों में कड़ुवाहट आ जाती है। मंगल अपने दोस्त से आक्रोश में कह उठता है - “इसने तो वर्षों पहले मुझे जीते जी मार डाला, सबसे संबंध तोड़ डाला, मेरे माँ-बाप, भाई-बहन किसी से भी तो रिश्ता नहीं रहा मेरा।” (2007 : 36)। निशंक ऐसी स्थितियों से दूर रहने की सलाह देते हैं और बार-बार इस बात पर बल देते हैं कि मिलजुलकर रहने में ही सबकी भलाई है चूँकि इन सबका बुरा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। रिश्तों के बीच कड़ुवाहट अहं के कारण ही बढ़ती है। नौकरी करने वाली स्त्री के बारे में पुरुष यह सोचता है कि “सर्विस वाली लड़की का मतलब पूरा परिवार अस्त-व्यस्त।” (2007 : 12)। निशंक मानते हैं कि इस दकियानूसी सोच में बदलाव आना जरूरी है; तभी परिवार का वातावरण स्वस्थ रहेगा और बच्चों का सर्वांगीण विकास संभव होगा।

स्त्री को अपने से कमतर और कमजोर समझने वाले पुरुष उसकी सत्ता को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। ऐसी मानसिकता से ग्रस्तपति पत्नी पर अधिकार जमाता है और गुस्से में उस पर हाथ भी उठाता है। ‘दरार कहाँ पड़ी’ शीर्षक कहानी का मंगल गुस्से में पत्नी को ज़ोर से पेट पर लात मारता है। (2007 : 34)। मंगल की पत्नी स्वावलंबी है। वह मंगल के व्यवहार से आहत हो उठती है और कहती है कि “किसी की भीख पर नहीं जी रही हूँ। नौकरी करती हूँ नौकरी! ठाठ से रहूँगी और अलग रहूँगी तो कम से कम ये रोज-रोज का सिर दर्द तो मेरा दूर होगा।” (2007 : 35)। निशंक अपने स्त्री पात्रों को कमजोर नहीं पड़ने देते बल्कि अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने के लिए तथा अभद्र पुरुष व्यवहार के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए प्रेरित करते हैं।

समाज में चारों ओर भष्ट तंत्र पनप चुका है। लोकतंत्र इतना भ्रष्ट हो चुका है कि ईमानदार व्यक्ति चारों तरफ़ से पिस रहा है। “अब तो ठीक काम करने वाले दंडित होते हैं, उन्हें सजा मिलती है।” (2007: 23)। ईमानदार व्यक्ति को ही दर दर भटकना पड़ता है। अधिकारियों की चापलूसी न करें तो उसकी सजा भुगतनी पड़ती है स्थानांतरण के रूप में। ‘किसे दोष दूँ’ शीर्षक कहानी के धर्मेंद्र को नौकरी में कभी भी इच्छित स्थान नहीं मिल पाता। हर बार आवेदन पत्र देता है पर उसे आश्वासन के सिवाय कुछ नहीं मिलता। और तो और तीन-चार साल में इतना जरूर होता है कि यदि वह पश्चिम माँगता तो उसका पूरब दिशा में स्थानांतरण कर दिया जाता । अपनी इस हालत पर आक्रोश व्यक्त करते हुए वह कहता है कि “कुछ भ्रष्ट और क्रूर लोगों के कारण मुझे यह खामियाजा भुगतना पड़ा”। (2007 : 29)। निशंक अपने पाठक को सचेत करते हैं कि भले ही मुसीबतों का सामना करना पड़ जाए पर कभी भी ईमानदारी की राह से न हटें क्योंकि भगवान के घर में देर है अंधेर नहीं।

समाज में गरीबी और आर्थिक समस्या के कारण बेरोजगारी, रिश्वतख़ोरी, मौकापरस्ती और भ्रष्टाचार का साम्राज्य है। यदि मंत्री की सिफ़ारिश न हो तो पैसे खिलाने की हिम्मत होनी चाहिए। यदि वह भी न हो तो प्रतिभा होने के बावजूद नौकरी नहीं मिलेगी। आज तो ईमानदार लोगों को उँगलियों पर गिना जा सकता है। स्थिति यह है कि “पैसा दो और नौकरी लो, सब बिके हुए हैं।” (2007 : 14)। लेकिन इस भ्रष्ट तंत्र से ऊब कर आत्महत्या करने के लिए सोचने वाले युवाओं को निशंक यह संदेश देते हैं कि ईमानदार रहकर मेहनत करने से क्या नहीं हो सकता। नौकरी के चक्कर में पड़कर मालिक बनने की इच्छा रखते हैं तो लघुउद्योग शुरू करके भी तो अपने पैरों पर खड़े हो सकते हैं। इस प्रकार निशंक युवा पीढ़ी में सकारात्मक सोच को विकसित करते हैं।

नेता भी भ्रष्ट होते जा रहे हैं। अपने स्वार्थ के लिए शहर में हड़ताल करवाते हैं, दुकानें बंद करवाते हैं और तोड़-फोड़ करवाते हैं। इन सबसे जनता को नुकसान झेलना पड़ता है। गरीब मजदूरों की स्थिति तो और भी दयनीय होती है। दंगे-फसाद में बच्चे भूखों मरते हैं और जनता को जान से हाथ धोना पड़ जाता है। निशंक अपने पात्रों के माध्यम से इस भ्रष्ट तंत्र पर टिप्पणी करते हैं कि “एक तरफ राजनीतिक पार्टियाँ बंद और चक्का-जाम करती हैं, दूसरी ओर ट्रेड यूनियनों के नेता आए दिन हड़ताल करवाते हैं, बचे थे सरकारी कर्मचारी तो वे भी अब इससे अछूते नहीं रहे। रोज-रोज का चक्कर हो गया है ये। सबको अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियाँ सेंकने से मतलब है। जरा मेहनत करें तो पता चले इनको।” (2007 : 19)। मेहनत करने वाले ज़िंदगी के महत्व को समझते हैं अतः वे इस तरह के ओछे काम नहीं करते। यह तो कम दिमाग वालों का काम होता है। ऐसे व्यक्तियों से न तो दोस्ती अच्छी है और न ही दुश्मनी। इसलिए रहीम भी कह गए –‘रहिमन ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।/ काटे चाटे स्वान के, दोउभाँति विपरीत।’

महँगाई दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। उसके विरोध में हड़ताल की जाती है।लेकिन उस हड़ताल के कारण आम जनता को पिसना पड़ता है। इस पर निशंक का पात्र यह कहकर टिप्पणी करता है कि “महँगाई ने भी तो आसमान छू लिया है। रोज़मर्रा की चीजों के दाम तो इतने बढ़ गए हैं कि सामान्य वर्ग की तो कमर ही टूट जाएगी।” (2007 : 20)। पर हड़ताल और बंद से महँगाई घट तो नहीं जाएगी न! ऐसे बंद और हड़ताल से काम-काज ठप्प पड़ेगा। इससे देश को करोड़ों का नुकसान भुगतना पड़ेगा।निशंक व्यंग्य कसते हैं कि “आने वाला बच्चा पैदा होने से पहले ही विदेशी कर्जवान बना है।” (2007 : 20)।

लालच और लोभ के चक्कर में पड़कर आदमी अपनी बात से मुकर जाता है। पहले यह स्थिति थी कि दुष्ट और अपराधियों को सजा मिलती थी लेकिन आज यह स्थिति है कि अपराधी और हत्यारे चिल्ला-चिल्लाकर हत्याएँ कर रहे हैं और खुले आम सीना चौड़ा करके घूम रहे हैं। पुलिस कुछ नहीं कर पा रही है। भ्रष्ट अधिकारी-कर्मचारियों की अधिक से अधिक सजा निलंबन है।जेल में सरकार महीनों तक उन्हें मेहमान बनाकर खिलाती-पिलाती है। (2007 : 22)। निशंक भारतीय रेल व्यवस्था पर भी टिप्पणी करते हैं। टी.टी.बीस-तीस रुपए के आरक्षण पर खुलकर लोगों से सौ-सौ रुपए लेता है। लोगों की मजबूरी का फायदा उठाता है। यदि गरीब के पास पाँच रुपया कम मिले तो उसे डिब्बे से बेरहमी से उतार देता हैऔर ऊपर से ईमानदारी का पाठ पढ़ाता है!

निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि डॉ. निशंक अपनी कहानियों में समाज की वास्तविकताओं का चित्रण करते हुए भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाते हैं और श्रेष्ठ मानवीय गुणों से युक्त आदर्श की स्थापना की दिशा में अपने पाठक को प्रेरित करना चाहते है। इस प्रकार उनकी कहानियाँ स्वस्थ समाज के निर्माण के प्रति उनके सकारात्मक दृष्टिकोण की परिचायक हैं।

शनिवार, 22 फ़रवरी 2020

जिंदगी को चाहिए दोनों ही – ‘कुछ कोलाहल, कुछ सन्नाटा’



जिंदगी को चाहिए दोनों ही – ‘कुछ कोलाहल, कुछ सन्नाटा’ 

- प्रवीण प्रणव 

गद्य साहित्य और शोध प्रबंधों के संपादन में गुर्रमकोंडा नीरजा जाना-माना नाम है। यूँ तो नीरजा छिटपुट कविताएँ भी लिखती रही हैं, लेकिन परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद से प्रकाशित कविता संग्रह ‘कुछ कोलाहल, कुछ सन्नाटा’, उनकी कविताओं का पहला पुस्तकाकार प्रकाशन है। तीन खंडों में संकलित कविताओं में पहला खंड उनकी मौलिक कविताओं का है, दूसरे खंड में तेलुगु से हिंदी में अनूदित कविताएँ हैं और तीसरे खंड में हिंदी से तमिल में अनूदित कविताएँ हैं। नीरजा की मातृभाषा तेलुगु है लेकिन इस संग्रह के तीनों खंड दर्शाते हैं कि हिंदी, तमिल और तेलुगु तीनों पर उनका समान अधिकार है। मैं तमिल और तेलुगु से अनभिज्ञ हूँ तो मेरी समीक्षा उनके मौलिक हिंदी कविताओं तक ही सीमित है। 

पुस्तक की भूमिका में गंगा प्रसाद विमल लिखते हैं कि ‘अच्छी कविता की यही पहचान है कि वह अपने भाषिक जादू से थोड़ी देर विचलित कर फिर फुर्र हवा में न उड़ जाए।‘ देवी नागरानी ने भी भूमिका में डॉ. किशोर काबरा की पंक्तियाँ उद्धृत करते हुए लिखा है ‘सच्ची कविता की पहली शर्त है कि हमें उसका कोई भार नहीं लगता। जिस प्रकार पक्षी अपने परों से स्वच्छंद आकाश में विचरण करता है, उसी प्रकार कवि स्वांतःसुखाय और लोक हिताय के दो पंखों पर अपनी काव्य यात्रा का गणित बिठाता है।‘ नीरजा की कविताएँ इन सभी पैमानों पर खड़ी उतरती हैं। बिना लच्छेदार भाषा का प्रयोग किए, बिना बिंब और प्रतीक में अपनी बात उलझाए, उन्होंने सरल और सहज भाषा में अपनी भावनाओं को व्यक्त किया है और यही वजह है बिना किसी आवरण में लिपटी ये भावनाएँ सीधे हृदय में उतरती हैं। कहीं ये भावनाएँ कोलाहल बन उद्वेलित करती हैं, कुछ करने को तो कहीं ये गहरे सोच में छोड़ जाती हैं, नीरव सन्नाटे की तरह। 

मुझे बालस्वरूप राही की कविता ‘कोलाहल के बाद’ की कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं: 

जब कोलाहल में बात नहीं खोती
वह घड़ी हमेशा रात नहीं होती 

सन्नाटा नहीं, तोड़नी है जड़ता
वह चाहे भीतर हो या बाहर हो
रचना है ऐसा वातावरण हमें
काँटों का नहीं, फूल का आदर हो

हमको सूरज की तरह दहकना है
जब तक हर स्याही मात नहीं होती। 

नीरजा की कविताएँ सिर्फ प्रकृति या सौंदर्य वर्णन तक अपने को सीमित नहीं करतीं। ये कविताएँ उनकी आकुलता को, उनकी विवशता को, उनकी आकांक्षा को और उनके सपने को आवाज़ देती हैं। यह आवाज इतनी वास्तविक है, इतनी सरल भाषा में है और इतने गंभीर विषय पर है कि नीरजा की कविताएँ सिर्फ उनकी न रह कर पाठकों की आवाज़ बन जाती हैं और यही इनकी सफलता है। 

‘माँ’ शीर्षक कविता में जब वे लिखती हैं: 

आज वह मेरी राह देख रही है 
मेरा माथा चूमने के लिए तरस रही है 
आखिरी बार मुझसे बात करने के लिए 
आँखों में प्रतीक्षा सँजोए। 

मैं काले कोसों बैठी हूँ 
सात समंदर पार, 
लाचार। 

मन तो कभी का पहुँच चुका उसके पास, 
तन काट नहीं पा रहा 
परिस्थिति का पाश। 
उदास हूँ। 
दास हूँ न ? 
स्वामी की अनुमति नहीं! 

इन पंक्तियों में नीरजा सिर्फ अपने भावों की अभिव्यक्ति नहीं करतीं, वरन न जाने कितनी महिलाओं की आवाज़ बन जाती हैं जो चाह कर भी अपने माता-पिता के लिए तब उपलब्ध नहीं हो पाती जबकि उन्हें सबसे ज्यादा जरूरत होती है। 

नीरजा अपनी कविताओं में संबंधों और उनसे जुड़े भावनाओं का ताना-बना बुनती हैं। ‘बेटी वाली माँ’ कविता में तीन पीढ़ियों से एक सी ही समस्या को रेखांकित करते हुए वे लिखती हैं: 

आज तक काट रही हो तुम 
बेटी जनने की सज़ा 
बिना उफ़ किए। 
पर मैं कराहती हूँ कभी जब दर्द से 
मुझे अपने गोद में लेकर 
सींच देती हो आँसुओं से मेरा माथा। 
आँखों-आँखों में देती हो नसीहत – 
‘बेटी की माँ हो, कमजोर मत पड़ना!’ 

नीरजा अपने पिता से बहुत प्रभावित रही हैं। अपने पिता को समर्पित कविता में वे लिखती हैं: 

काल को पीछे धकेलते 
जिजीविषा से भरे 
तुम ही तो हो सच्चे योद्धा 
धरती के सुंदरतम पुरुष, 
मेरे पापा ! 

नीरजा ने एक बेटी, एक माँ, एक पत्नी सबका धर्म निभाया है इसलिए इनकी कविताएँ भी इस सभी संबंधों को अपने अंदर आत्मसात करती हैं। समाज में छोटी बच्चियों के साथ हो रहे अनाचार पर ‘माँ नीरजा’ व्यथित हो कर लिखती हैं: 

जब कभी किसी नन्ही गुड़िया को देखते हैं 
बेसाख्ता चीख उठते हैं – 
‘गुड़िया घर से बाहर न जा 
यह समाज तेरे लिए नहीं बना है 
बाहर न जा 
तुझे नोचकर खाने के लिए गिद्ध इंतज़ार कर रहा है 
तू बाहर न जा।‘ 

प्रेम के कई रंग होते हैं और नीरजा ने प्रेम के कई आयाम अपनी कविताओं के माध्यम से व्यक्त किए हैं। सबसे पहले तो प्रेम में होने की जो मधुर अनुभूति है उसे बड़ी खूबसूरती से बयाँ करते हुए अपनी कविता ‘रेशमी स्पर्श’ में लिखती हैं: 

मेरी देह पर तैरती तुम्हारी उँगलियाँ 
मन के तार को छेड़ गई 
एक रेशमी स्पर्श ने जगा दी 
रोमरोम में नई उमंग 
तुमने जब-जब मुझको छुआ 
तब-तब तन-मन में ऊर्जा का संचार हुआ 

और में पागल हो गई ! 
लोक-लाज खो गई !! 

जब प्यार होता है तो मन में प्यार धीरे-धीरे घुलता है और ये उन खामोशियों की जगह लेता जाता है जो वर्षों से मन में घर कर गई होती हैं और भावनाओं को खुल कर व्यक्त नहीं होने देतीं। अपनी कविता ‘निःशब्द’ में प्यार में होने के खुशनुमा एहसास को आवाज़ देती हुई लिखती हैं: 

उस अनुभूति को व्यक्त करने के लिए 
शब्द नहीं हैं 
मौन का साम्राज्य है चारों ओर 
भीतर तो तुमुलनाद है 
भीगी हूँ प्यार में 

जब प्यार होता है तो साथ ही होता है उस प्यार में नोक-झोंक। ये नोक-झोंक कई बार प्यार को पटरी से उतार देते हैं तो कई बार इनसे प्यार और मजबूत होता है। प्यार के नोक-झोंक में जरूरी है अहं का न होना। नीरजा अपनी कविता ‘संधिपत्र’ के माध्यम से दिखलाती हैं कि नोक-झोंक के बाद वापस प्यार को पटरी पर लाने के लिए क्या किया जाना चाहिए। 

चाहूँ तो तुम्हारी तरह मैं भी 
कोस सकती हूँ सारी दुनिया को 
पर ऐसा भी क्या गुस्सा 
कि जीवन बीत जाए, गुस्सा न बीते। 

इसलिए भेजा करती हूँ हर सुबह 
तुम्हारे लिए दोस्ती के गुलाब। 

तुम विजेता हो – चिर विजेता; 
मैं पराजित हूँ – प्रेम में पराजित। 

कभी तो मैं बनकर देखो........... 

प्यार कई बार वह मोड़ नहीं लेता जो हम चाहते हैं। प्यार में होना जितनी सुखद अनुभूति है उससे कहीं ज्यादा दुखद है दिल का टूटना। प्यार में होना आवाज़ देता है भावनाओं को लेकिन दिल का टूटना भावनाओं का उबाल लाता है दिल के अंदर लेकिन जुबाँ खामोश रहती है। ऐसे में बहुत मुमकिन है टूट जाना लेकिन नीरजा अपनी कविता में दुहराती हैं कि दिल का टूटना अंत नहीं। अपनी कविता ‘आशियाना’ में वे इस टूटन के बाद के संकल्प को दर्शाती हैं ये कहते हुए: 

उसके लिए मैंने सारी दुनिया से टक्कर ली 
लेकिन उसने मुझे बैसाखियों के सहारे छोड़ दिया। 

हवाओं से लड़ता रहा देर तक मेरा घोंसला 
बिखर गया मेरा सपना । 
पर मैं नहीं बिखरी। न बिखरूँगी। 
एक-एक तिनका जोड़कर 
फिर बनाऊँगी अपना आशियाना, 
सजाऊँगी-सँवारूँगी। 

नीरजा अपनी कविताओं को सिर्फ अपनी आवाज़ नहीं बनाना चाहतीं। उनकी कविताओं की ज़िम्मेदारी है कि वे उन सभी औरतों की आवाज़ बनें जो इन हालात से गुज़रती हैं और जब अपनी कविता ‘तपिश’ में वो लिखती हैं: 

मेरी चाभी मुझे दे दो 
रोक दो अब तो चाबुक 
चाहती हूँ मैं 
मैं बन कर जीऊँ 
सदियों तक 

सदियों तक जीने की कल्पना नीरजा की अपने लिए नहीं हो सकती, वे आज़ादी की तलबगार हैं सभी औरतों के लिए जो किसी बंधन में फँस कर अपनी आकांक्षाओं को दबा देती हैं, वे हर संभव प्रयास करती हैं कि ख़ुद पर हुए ज़ुल्म के बाद भी किसी तरह साथ बना रहे। लेकिन ज़ुल्म सहने की भी एक सीमा होती है और इस सीमा के बाद होती है आज़ादी की ख़्वाहिश। 

डॉ. पूर्णिमा शर्मा ने नीरजा के परिचय में लिखा है, उनके पिता साहित्यकार थे, उन्होंने कई पत्रिकाओं का संपादन किया। साथ ही वे आंध्र प्रदेश के लोकप्रिय नेता श्री एन० टी० रामाराव के पी० आर० ओ० के रूप में कार्यरत रहे। नीरजा ने साहित्य और राजनीति का ये सम्मिश्रण बचपन से देखा और ये उनकी कविता में भी परिलक्षित होता है। अपनी कविता ‘राजनीति’ में नीरजा लिखती हैं: 

लोग अकसर कहते हैं 
राजनीति एक खेल है 
पर मेरे पापा कहते हैं 
यह एक कमर्शियल फिल्म है 

और इसी कविता के अंत में लिखती हैं: 

इस फिल्म के बारे में खूब सुना है 
लेकिन देखने के लिए सेंसर का कहना है 

- ‘ओनली फॉर क्रिमिनल्स’। 
- ‘भले मानुषों का प्रवेश वर्जित’। 

साहित्य में आने से पहले नीरजा ने विज्ञान की पढ़ाई की, माइक्रोबायोलॉजी में उन्होंने बी० एससी० किया और एक वर्ष तक अपोलो अस्पताल में कार्यरत रहीं। उनका ये अनुभव उनकी कविता ‘दर्द’ में दिखता है: 

मैंने 
दर्द को दबाने की कोशिश की 
वह गिद्ध बन 
मेरा शिकार करता रहा 

मैंने 
उससे छुटकारा पाने के लिए 
स्लीपिंगपिल्स लीं 
ट्रैंक्विलाइज़र लिए 
और न जाने क्या क्या लिया 
पर वह इम्यून हो गया। 

आज 
मैं सोचती हूँ – 
यदि सीने में यह दर्द नहीं होता 
तो मेरा क्या होता। 

नीरजा ने इस संकलन में कुछ अच्छे हाइकु भी लिखे हैं। सीमित शब्दों में विभिन्न विषयों पर लिखे हुए हाइकु प्रभावित करते हैं। 

कन्या भ्रूण ने 
लगाई है गुहार 
मुझे न मार। 

टेसू फूले हैं 
बौराया यह मन 
आया फागुन। 

अलमारी में 
किताबों का ढेर है 
निद्रा में लीन। 

नुकीला काँटा 
धँसा पाँव में मेरे, 
रोये तुम थे। 

कच्ची मिट्टी हूँ 
आकार दो हाथों से 
ढल जाऊँगी। 

अपनी कविता ‘सीखना’ में उन्होंने अपने गुरुओं के प्रति धन्यवाद ज्ञापित करते हुए लिखा है: 

तुमसे सीख ही लिया मैंने 
तुमुल कोलाहल के बीच सन्नाटे को जीना; 
सन्नाटा जो कविता है – 
कविता जो जीवन है ! 

लेकिन मेरी ख़्वाहिश है कि नीरजा न सिर्फ सन्नाटे को जीना सीखें बल्कि कोलाहल को भी अपनाए रखें। न तो सन्नाटे की कोई सीमा है, न ही कोलाहल की, लेकिन जरूरी है कि हम इन दोनों में सामंजस्य बनाए रखें और इनसे सीखते रहें। मुझे राजेश रेड्डी की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं: 

दरवाज़े के अंदर इक दरवाज़ा और 
छुपा हुआ है मुझ में जाने क्या क्या और 
कोई अंत नहीं मन के सूने-पन का 
सन्नाटे के पार है इक सन्नाटा और। 

इस पहले कविता संग्रह के लिए गुर्रमकोंडा नीरजा को बहुत बहुत शुभकामनाएँ। 


समीक्षित कृति : कुछ कोलाहल, कुछ सन्नाटा (कविता)/ गुर्रमकोंडा नीरजा/ 2019/ नजीबाबाद : पारिलेख प्रकाशन/ वितरक : श्रीसाहती प्रकाशन, हैदराबाद : मोबाइल - +91 9849986346

- प्रवीण प्रणव 
सीनियर प्रोग्राम मैनेजर, माइक्रोसॉफ़्ट 
B-415, गायत्री क्लाससिक्स 
लिंगमपल्ली, हैदराबाद 

शुक्रवार, 21 फ़रवरी 2020

संभाषण : अर्थ एवं विविध रूप


इकाई 1 : संभाषण : अर्थ एवं विविध रूप  
रूपरेखा
1.1 उद्देश्य
1.2 प्रस्तावना
1.3 पाठ परिचय
1.4 मूल पाठ : संभाषण : अर्थ एवं विविध रूप
            1.4.1 संभाषण : अर्थ एवं स्वरूप
            1.4.2 संभाषण :  विविध रूप
                        1.4.2.1 वार्तालाप या संवाद   
                        1.4.2.2 व्याख्यान या भाषण
                        1.4.2.3 वाद-विवाद
                        1.4.2.4 एकालाप
                        1.4.2.5 परिचर्चा
                        1.4.2.6 जनसंचार
            1.4.3 जनसंचार के लिए उपयोगी संभाषण के विविध प्रकार
                        1.4.3.1 उद्घोषणा
                        1.4.3.2 आँखों देखा हाल
                        1.4.3.3 कार्यक्रम संचालन
                        1.4.3.4 वाचन
                                    1.4.3.4.1 समाचार वाचन
                                    1.4.3.4.2 मंचीय वाचन  
            1.4.4 संभाषण की आवश्यकता
1.5 सारांश
1.6 समीक्षा
1.7 पारिभाषिक शब्द
1.8 परीक्षार्थ प्रश्न
1.9 बोध प्रश्नों के उत्तर
1.10 पठनीय पुस्तकें
1.1 उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन से आप –
  • संभाषण के अर्थ और स्वरूप को जान सकेंगे।
  • संभाषण के स्वरूप को समझ सकेंगे।
  • संभाषण के विविध रूपों से परिचित हो सकेंगे।
  • जनसंचार हेतु संभाषण के विविध प्रकारों की जानकारी प्राप्त कर सकेंगे।
  • संभाषण की आवश्यकता को पहचान सकेंगे।
1.2 प्रस्तावना  
            अपने मनोभावों को प्रकट करने तथा विचारों के परस्पर आदान-प्रदान के लिए हमें भाषा का उपयोग करना पड़ता है। परस्पर वार्तालाप द्वारा ही हमारे जीवन के विभिन्न कार्य हो पाते हैं। वार्तालाप में कम-से-कम दो व्यक्ति सम्मिलित होते हैं (i) बोलेनेवाला अर्थात वक्ता तथा (ii) सुननेवाला अर्थात श्रोता। कुशल वक्ता के लिए संभाषण कला में निपुण होना आवश्यक है। कुछ व्यक्तियों में यह कला जन्मजात होता है तो कुछ लोग अभ्यास के माध्यम से इसे अर्जित करने का प्रयास करते हैं। विचारों के संप्रेषण और अभिव्यक्ति का माध्यम भाषा है परंतु सामाजिक संबंधों की जटिलता के कारण संप्रेषण क्षमता को अधिक महत्व दिया जाता है। आमने-सामने की बातचीत में संप्रेषण केवल भाषा से ही नहीं होता, कभी इशारों से तो कभी चेष्टाओं से बात को समझाना पड़ता है। हर स्तर पर एक ही तरह की भाषा का प्रयोग नहीं किया जाता। संभाषण के विविध रूपों में भाषा वैविध्य को देखा जा सकता है। इस इकाई में संभाषण के अर्थ तथा उसके विविध रूपों पर विचार किया जा रहा है।   
1.3 पाठ परिचय  
            मनुष्य अपनी इच्छाओं और भावनाओं को व्यक्त करना चाहता है। संभाषण के द्वारा उसके व्यक्तिगत और सामाजिक व्यवहार संचालित होते रहते हैं। कभी वह दूसरों को सलाह देने के लिए तो कभी अपने कार्य की सिद्धि के लिए अथवा कभी अपने मन की बातों को अभिव्यक्त करने के लिए संभाषण का प्रयोग करता है। यह भी कहा जा सकता है कि संभाषण के माध्यम से व्यक्ति का समाजीकरण होता है। अर्थात व्यक्ति से समष्टि की ओर मनुष्य संभाषण के द्वारा अग्रसर होता है।
1.4 मूल पाठ : संभाषण : अर्थ एवं विविध रूप
1.4.1 संभाषण : अर्थ एवं स्वरूप
            संस्कृत के भाष धातु में ल्युट प्रत्यय (अन) लगाने से भाषण शब्द की व्युत्पत्ति होती है। इससे पहले सम उपसर्ग जोड़ने से संभाषण शब्द बनता है। संभाषण का सामान्य अर्थ है - बातचीत अथवा वार्तालाप। सम उपसर्ग के साथ-साथ अव्यय भी है। इसका अर्थ है समान, तुल्य, बराबर और सारा। संभाष में ल्युट प्रत्यय (अन) जोड़ने से इसका अर्थ अभिवादन, कथन और वार्तालाप भी होता है। वार्तालाप के अंतर्गत अनुभाषण, आलाप, भाषण, उक्ति, कथोपकथन, गुफ्तगू, चर्चा, बतकही, वार्ता, संलाप, संवाद और संभाषण शामिल है।      
            संभाषण अकेले में संभव नहीं होता। इसके लिए दो या दो से अधिक व्यक्तियों की आवश्यकता होती है। दो मित्र आपस में बातचीत कर सकते हैं। सभा या समूह में जब लोग एक दूसरे से बातचीत करते रहते हैं, तो कभी-कभी उनका संभाषण सुनने में किसी को रुचि नहीं रहती। जब दो व्यक्ति आपस में प्रथम बार मिलते हैं तो अभिवादन के साथ बातचीत/ संभाषण शुरू करते हैं। व्यक्ति आपस में जब परस्पर संभाषण करता है तब एक व्यक्ति मन की बात बताता है तो दूसरा ध्यान से सुनता है। दूसरा व्यक्ति तभी बात करेगा जब पहले व्यक्ति का कथन पूरा हो जाता है। जब ऐसा प्रतीत हो कि कोई वार्ता इच्छा के अनुरूप नहीं है या समझ से बाहर है, तो संभाषण को बंद कर देना चाहिए क्योंकि बातचीत की प्रक्रिया 'सुनना-समझना-बोलना से होकर गुजरती है।   
            सरसता संभाषण का एक अनिवार्य तत्व है। वार्तालाप तभी आगे चल सकता है जब तक वह सरस और रोचक हो। सामान्य संभाषण का विषय दैनिक जीवन से संबद्ध होता है तब तक ही संभाषण का समझ में आना भी आवश्यक है। उदाहरण के लिए यदि वक्ता क्या कह रहे हैं, इसका ज्ञान श्रोता को न हो तो वह घंटों बैठकर नहीं सुनेगा। विद्यार्थी भी तब तक प्रश्न करता ही रहेगा जब तक वह शिक्षक की बातों को नहीं समझेगा। कहने का अर्थ है कि संभाषण में वक्ता और श्रोता के बीच रुचि का ध्यान भी रखना पड़ता है। यदि साहित्य के विद्यार्थियों को शल्यक्रिया संबंधी विषयों के बारे में बताएँगे तो वे कुछ ही क्षणों में ऊब जाएँगे। ऐसी स्थिति में संभाषण, संभाषण नहीं रह जाएगा बल्कि कुछ और बन जाएगा। संभाषण के लिए वक्ता और श्रोता के भाषण में समानता की अपेक्षा होती है। अर्थात समान भाषण ही संभाषण है। कहने का अर्थ है कि वक्ता और श्रोता के बीच संदेशों का आदान-प्रदान समान रूप से होना चाहिए। इसे निम्नलिखित आरेख के माध्यम से भी समझा जा सकता है

                                                            संदेश
                        वक्ता     ...........................................       श्रोता             

            छात्रो! संभाषण व्यक्तिगत भी होता है और समष्टिगत भी। समष्टिगत संभाषण में व्यक्ति की सहमति अथवा असहमति का कोई महत्व नहीं रहता। शिक्षक या किसी नेता का संभाषण यदि एक-दो की समझ में नहीं आता तो भाषण को रोका नहीं जाता। लेकिन व्यक्तिगत संभाषण में व्यक्ति की रुचि और स्वभाव का ध्यान रखना पड़ता है। व्यक्तिगत संभाषण में दूसरे की बात सुनने, समझने और बोलने की प्रक्रिया कार्य करती है। यदि केवल एक ही व्यक्ति बोलता चला जाए तो दूसरा व्यक्ति ऊब जाएगा और संभाषण समाप्त हो जाएगा। यह भी ध्यान देने की बात है कि इच्छा या अनुकूलता के विरुद्ध किया गया संभाषण शत्रुता पैदा कर सकता है।       
            संभाषण के लिए व्यक्ति का विवेकशील होना भी आवश्यक है। यदि कोई व्यक्ति अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए दूसरे व्यक्ति से संभाषण कायम करता है तो थोड़े ही दिनों में दूसरा व्यक्ति उससे किनारा करने लग जाएगा। संभाषण करते समय श्रोता के सामाजिक और बौद्धिक स्तर का ध्यान रखना वक्ता के लिए अनिवार्य है। प्रभावी और स्पष्ट कथन तथा वक्ता-श्रोता का प्रत्यक्ष संवाद संभाषण की प्रमुख कसौटियों हैं।     
बोध प्रश्न
1. संभाषण का सामान्य अर्थ क्या है?
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2. जब दो व्यक्ति आपस में प्रथम बार मिलते हैं तो संभाषण कैसे शुरू करते हैं?
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3. संभाषण के अनिवार्य तत्व क्या-क्या हैं?
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4. व्यक्तिगत संभाषण में कौन सी प्रक्रिया कार्य करती है?
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5. संभाषण की कसौटियाँ क्या हैं?
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1.4.2 संभाषण :  विविध रूप
            आप जान ही चुके हैं कि संभाषण में वक्ता और श्रोता के बीच संदेशों का आदान-प्रदान समान रूप से होना चाहिए। वार्तालाप या संवाद, व्याख्यान, वाद-विवाद, एकालाप, परिचर्चा और जनसंचार आदि संभाषण के विविध रूप हैं।  
1.4.2.1  वार्तालाप या संवाद  
            वार्तालाप का अर्थ है बातचीत। दो व्यक्ति जब भाषा के माध्यम से विचारों या सूचनाओं का आदान-प्रदान करते हैं, तो इसे वार्तालाप अथवा संवाद कहा जाता है। व्यक्ति सुबह से लेकर रात को सोने तक कई तरह के संवादों से गुजरता है। दैनिक जीवन में संवाद या वार्तालाप किसी न किसी रूप में सुबह होते ही शुरू हो जाता है और रात तक चलता ही रहता है। साहित्यिक कृतियों में संवाद को कथोपकथन कहा जाता है। लेकिन यहाँ मानवीय संभाषण में निहित संवाद की चर्चा की जा रही है। मोटे तौर पर संवाद या वार्तालाप दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत है। इस (वार्तालाप) के कई रूप प्रचलित हैं। जैसे :- दो देशों के बीच शिखर वार्ता (संवाद), साहित्यिक या कला संस्कृति विषयक वार्तालाप, साहित्यिक कृतियों या फिल्म-नाटक आदि के संवाद, ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में दो या दो से अधिक विद्वानों का संवाद, व्यक्तिगत स्तर पर संवाद आदि। रोचकता संवाद की पहली शर्त है। यदि रोचकता न हो तो बहुत ही कम समय में संवाद समाप्त हो सकते हैं। कई व्यक्ति अपने संवादों की निजी शैली के कारण भी प्रसिद्ध हो जाते हैं। वार्तालाप व संवाद औपचारिक भी हो सकता है या अनौपचारिक भी तथा व्यक्तिगत या सामूहिक भी। अनौपचारिक संवाद में बोलचाल की भाषा का प्रयोग होता है जबकि औपचारिक संवाद में परिनिष्ठित भाषा का व्यवहार होता है। संवाद वक्ता और श्रोता के आयु, लिंग, शिक्षा और सामाजिक स्तर आदि पर निर्भर रहता है। स्पष्टता, शुद्धता, शिष्टता, स्वाभाविकता, गतिशीलता, प्रभावोत्पादकता आदि को वार्तालाप या संवाद के प्रमुख गुण माना जा सकता है। वक्ता-श्रोता की संख्या के आधार पर संवाद व्यक्तिगत एवं समूहगत हो सकता है तथा सामाजिक परिवेश एवं सामाजिक भूमिका के आधार पर औपचारिक और अनौपचारिक हो सकता है।
बोध प्रश्न
6. संवाद की पहली शर्त क्या है?
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7. संवाद के प्रमुख गुण क्या हैं?
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1.4.2.2  व्याख्यान या भाषण
            व्याख्यान संभाषण का विशिष्ट रूप है। इसका प्रयोग आम तौर पर किसी विषय की व्याख्या करने के लिए किया जाता है। अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करने के साथ-साथ श्रोताओं को प्रेरित करने की क्षमता व्याख्याता में होनी चाहिए। व्याख्याता अपनी बात को तर्कों के आधार पर श्रोता के समक्ष प्रस्तुत करता है। व्याख्यान में व्याख्याता कम समय में अधिक जानकारी प्रस्तुत करने का प्रयास करता है। व्याख्यान में भी यदि रोचकता नहीं है तो श्रोता ऊब जाते हैं। अतः व्याख्यान को रोचक बनाए रखने के लिए व्याख्याता कभी-कभी तकनीकी प्रस्तुतीकरण या प्रश्नोत्तरी की सहायता ले सकता है। छात्रो! वास्तव में व्याख्यान या भाषण का उद्देश्य समूह संचार (ग्रुप कम्युनिकेशना) होता है जिसमें एक वक्ता किसी छोटे या बड़े आकार के श्रोता समूह को एक साथ संबोधित करता है।    
बोध प्रश्न
8. व्याख्यान को रोचक बनाए रखने के लिए क्या करना चाहिए?
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1.4.2.3  वाद-विवाद
            वाद वह बातचीत या तर्क है जिससे कोई सिद्धांत निश्चित हो। सिद्धांत स्थापित करने के लिए शास्त्रार्थ या वाद करते हैं, लेकिन सिद्धांत को न मानने वाले विवाद (उल्टा तर्क) करते हैं। इस तरह वाद-विवाद शास्त्रार्थ या तत्व चिंतन का दूसरा नाम है। कहने का अर्थ है कि किसी भी विषय के पक्ष और विपक्ष में विचार व्यक्त करने के माध्यम को वाद-विवाद या बहस कहा जा सकता है। वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का भी आयोजन किया जाता है। वाद-विवाद का उद्देश्य है किसी भी ज्वलंत विषय पर लोगों का ध्यान आकर्षित करना तथा तर्क के साथ विषय को श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत करना। तर्क के साथ किसी विषय पर चर्चा की औपचारिक विधि को वाद-विवाद कहा जा सकता है। यह दो व्यक्तियों के मध्य से लेकर सार्वजनिक बैठकों तक में हो सकता है, शिक्षण संस्थाओं में हो सकता है या संसद अथवा विधान सभाओं में हो सकता है। यह माना जाता है कि किसी विषय के विभिन्न पक्षों पर बहस-मुबाहसा करके उचित और सटीक निर्णय या सिद्धांत तक पहुँचा जा सकता है। कहा भी गया है वादे-वादे जायते तत्व बोधः। बहस से तत्व का बोध होता है।    
बोध प्रश्न
9. वाद-विवाद किसे कहते हैं?
............................................................................................................................................
............................................................................................................................................      
1.4.2.4  एकालाप
            एकालाप अर्थात एक ही व्यक्ति या पात्र का संभाषण। जहाँ किसी अन्य व्यक्ति से संवाद संभाव नहीं होता वहाँ एकालाप जन्म लेता है। इसमें संबोधक और संबोधित एक ही पात्र होता है। विचारों की स्थिरता और गतिशीलता के आधार पर एकालाप को दो प्रकारों में विभाजित किया जा सकता है स्थिर एकालाप और गत्यात्मक एकालप। स्वगत कथन एकालाप ही है। एकालाप में प्रारंभ से अंत तक एक ही व्यक्ति अपने मनोभावों और घटनाओं का विवरण प्रस्तुत करता है।   
बोध प्रश्न
10. एकालाप किसे कहते हैं?
............................................................................................................................................
............................................................................................................................................
1.4.2.5  परिचर्चा
            साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक या सांस्कृतिक किसी भी तथ्य, विषय या समस्या पर विस्तृत रूप से की जाने वाली चर्चा को परिचर्चा कहा जा सकता है। इस तरह के संभाषण में कई लोग भाग लेते हैं। विषय के सभी पक्षों पर खुलकर चर्चा की जाती है। सभी प्रतिभागी अपना-अपना पक्ष और विचार प्रस्तुत करते हैं। यह औपचारिक भी हो सकती है और अनौपचारिक भी। अनौपचारिक परिचर्चा के कभी-कभी दिशाहीन होने की संभावना रहती है। अनावश्यक बहस के कारण मारपीट भी हो सकती है। औपचारिक परिचर्चा में एक सभापति होता है और संभाषण व्यवस्थित रूप से चलाता है। परिचर्चा सहज और मैत्रीपूर्ण वातावरण में होनी चाहिए। परिचर्चा के प्रमुख तत्व हैं - विषय विशेष, विभिन्न मत, सम्यक विचार और आकर्षक प्रस्तुति।     
बोध प्रश्न
11. परिचर्चा किसे कहते हैं?
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............................................................................................................................................
12. परिचर्चा के प्रमुख तत्वों के बारे में बताइए।
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............................................................................................................................................
1.4.2.6  जनसंचार
            सूचना तथा विचारों को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक संप्रेषित करने की कला को संचार कहा जाता है। संचार का सामान्य अर्थ है लोगों का आपस में विचार, ज्ञान तथा भावनाओं का कुछ संकेतों द्वारा आदान-प्रदान। अंग्रेजी शब्द मास कम्यूनिकेशन के पर्याय के रूप में जनसंचार शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसका अर्थ है किसी यंत्र या जनमाध्यम द्वारा संदेश को बहुत बड़े मिश्रित जनसमूह तक पहुँचाना। रेडियो, टीवी, इंटरनेट, फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप्प, समाचार पत्र, पुस्तकें, पोस्टर आदि जनसंचार के माध्यम हैं जिनकी सहायता से समूह में बहुत ही कम समय में सूचनाओं को प्रेषित किया जा सकता है। जनसंचार के पाँच पहलू हैं व्यापक श्रोता समूह, विभिन्न प्रकार के श्रोता, किसी संदेश की पुनर्रचना, तीव्र वितरण और उपभोक्ता के लिए सस्ता होना। बिखरे हुए श्रोता समूह के लिए संदेश का सार्वजनिक रूप से सीधा प्रसारण किया जाता है। इसलिए इसमें गोपनीयता संभव नहीं है। मीडिया अपनी जरूरत के अनुरूप श्रोता का चयन करता है तो श्रोता भी अपनी जरूरत के अनुरूप मीडिया का चयन करता है। संचार की प्रक्रिया परस्पर आदान-प्रदान की है। फीडबैक तुरंत प्राप्त होता है और कभी-कभी देर से भी प्राप्त हो सकता है। संचारक तथा प्राप्तकर्ता (प्राप्त करने वाले) की भूमिकाएँ बदलती रहती हैं। इसे निम्नलिखित आरेख के माध्यम से समझा जा सकता है –
                        संचारक  ................ > संदेश ................>   माध्यम  ........>     प्रापक   

                                                                   फीडबैक             

बोध प्रश्न
13.  संचार किसे कहते हैं?
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............................................................................................................................................   
14. जनसंचार से आप क्या समझते हैं?
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...........................................................................................................................................
            जनसंचार के तत्व हैं - संचारक, संदेश, माध्यम, प्राप्तकर्ता और फीडबैक। संचारक ही किसी संदेश का स्रोत होता है। वही प्रेषक है। संचारक ही संचार प्रक्रिया को प्रारंभ करता है। वह संचार प्रक्रिया के लिए उचित माध्यम का चयन करता है ताकि संदेश को व्यापक जनसमूह तक पहुँचा जा सके। जनसंचार की भाषा में संदेश को अंतर्वस्तु या कंटेंट कहा जाता है। प्राप्तकर्ता प्राप्त संदेश पर प्रतिक्रिया व्यक्त करता है। प्राप्तकर्ता या रिसीवर के प्रतिउत्तर या प्रतिक्रिया को फीडबैक कहा जाता है। यह संचार के लिए आवश्यक है। अन्यथा संचार एकमुखी गतिविधि बनकर रह जाएगा।        
बोध प्रश्न
15. जनसंचार के तत्व क्या-क्या हैं?
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............................................................................................................................................
16. फीडबैक क्यों आवश्यक है?
...........................................................................................................................................
...........................................................................................................................................
1.4.3 जनसंचार के लिए उपयोगी संभाषण के विविध प्रकार  
            जनसंचार के माध्यम से व्यापक जनसमूह तक किसी भी संदेश को त्वरित गति से पहुँचाया जा सकता है। इसके लिए उपयोगी संभाषण के अनेक रूप हैं। उनमें प्रमुख हैं उद्घोषणा, आँखों देखा हाल और वाचन।
1.4.3.1 उद्घोषणा
            उद्घोषणा का सामन्य अर्थ है ऐलान करना, घोषणा करना। यह घोषणा सार्वजनिक रूप से भी हो सकती है। किसी विषय पर आधिकारिक रूप से भी यह घोषणा की जा सकती है अथवा प्रकाशित अध्यादेश के रूप में भी हो सकती है। सामान्य रूप से यह कहा जा सकता है कि सार्वजनिक जानकारी के लिए दी जाने वाली सूचना या सरकारी तौर पर की जाने वाली घोषणा उद्घोषणा कहलाती है। इसे जनता तक बात पहुँचाने के लिए तेज या ऊँची आवाज में प्रसारित किया जाता है। किसी सूचना की घोषणा करने वाले को उद्घोषक (अनाउंसर) कहा जाता है। उद्घोषक अपनी निजी भाषा शैली के माध्यम से श्रोता का ध्यान आकर्षित करता है। छात्रो! आपको पता है, पुराने जमाने में डुगडुगी या ढोल बजाकर गाँवों में घूम-घूम कर किसी बात की घोषणा की जाती थी। इसे मुनादी करना या ढिंढोरा पीटना कहा जाता है। धीरे-धीरे ढोल और डुगडुगी के स्थान पर माइक और लाउड स्पीकर का प्रयोग किया जाने लगा। पंचायत के निर्णय का प्रचार, चुनाव प्रचार, भारतीय रेल और हवाई अड्डे में आवागमन की सूचनाओं का प्रसारण, टीवी-रेडियो आदि में घोषणा मौखिक उद्घोषणा के उदाहरण हैं, तो प्रिंट मीडिया में प्रकाशित विज्ञापन आदि लिखित उद्घोषणा के उदाहरण हैं। यह ध्यान देने की बात है कि भारतीय रेल में जन उद्घोषणा प्रणाली की शुरूआत 1967 में हुई थी। इस सार्वजनिक उद्घोषणा प्रणाली के माध्यम से रेलों के आवागमन की जानकारी दी जाती है। 
बोध प्रश्न
17. उद्घोषणा किसे कहते हैं?
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............................................................................................................................................  
18. मुनादी करना किसे कहते हैं?
...........................................................................................................................................
............................................................................................................................................ 
1.4.3.2 आँखों देखा हाल
            जनसंचार हेतु संभाषण का एक बेहद रोचक और प्रभावशाली रूप है आँखों देखा हाल। प्रायः विशेष कार्यक्रम का आयोजन का आँखों देखा हाल प्रस्तुत करने के लिए विशेष संवाददाता को भेजा जाता है। यह प्रसारण तंत्र का अभिन्न अंग है। सूचना देने के साथ-साथ प्रस्तुतीकरण में रोचकता आँखों देखा हाल की मूलभूत विशेषता होती है; ताकि श्रोता उस घटना या कार्यक्रम का आँखों देखा वर्णन सुनकर आनंद प्राप्त कर सके। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में क्रिकेट मैच या अन्य खेल कार्यक्रमों का आँखों देखा हाल प्रसारित किया जाता है। इसी तरह स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस समारोहों का भी आँखों देखा हाल प्रसारित किया जाता है। 26 जनवरी या 15 अगस्त पर प्रसारित होने वाले आँखों देखा हाल से पूर्व टिप्पणीकार (कमेंटेटर) झाँकियों का क्रम पता लगाकर उन पर विशेष जानकारी जुटाकर अपनी कमेंट्री को रोचक तथा प्रभावशाली बना सकता है। कमेंटेटर को यह ध्यान अवश्य रखना होगा कि श्रोता उसकी बात को आसानी से समझ सके। आँखों देखा हाल सुनाते समय कभी-कभी किसी कारणवश गैप पैदा हो जाता है। आँखों देखा हाल प्रायः पूर्व निश्चित आयोजनों के लिए होता है। जैसे :- ब्रह्मोत्सव का आँखों देखा हाल, किसी खेल का आँखों देखा हाल, किसी उद्घाटन का आँखों देखा हाल आदि।          
बोध प्रश्न
19. आँखों देखा हाल की मूलभूत विशेषता क्या है?
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............................................................................................................................................ 
1.4.3.3  कार्यक्रम संचालन
            संचालक या एंकर किसी भी कार्यक्रम का महत्वपूर्ण अंग होता है। यदि टीवी के संदर्भ में बात करें तो एंकर ही चैनल का चेहरा होता है। छोटे पर्दे का एंकर हो या किसी कार्यक्रम का एंकर, उसे अपनी संतुलित भाषा और अंदाज पर विशेष ध्यान रखना होता है। आवाज में निरंतर अभ्यास के माध्यम से निखार लाया जा सकता है। संचालक को विषय की जानकारी की भी आवश्यकता होती है। संचालक के पास प्रेजेंस ऑफ माइंड (प्रत्युत्पन्न मति) का होना अनिवार्य है। कभी-कभी संचालक को अपने विवेक के आधार पर संचालन करना पड़ सकता है। कार्यक्रम संचालक चाहे कैमरे के सामने किसी टीवी स्टूडियो में उपस्थित हो या मंच पर, उसमें आत्मविश्वास का होना अत्यंत जरूरी है। कार्यक्रम शुरू करने से पहले वह पृष्ठभूमि की चर्चा कर सकता है। वह अपने हाव-भाव से तथा अपनी आवाज के उतार-चढ़ाव से श्रोताओं का ध्यान आकर्षित कर सकता है। यह भी स्मरणीय है कि संचालक को परिस्थिति के अनुरूप संचालन करना होता है। नीरस कार्यक्रम को भी संचालक अपनी ‘सेंस ऑफ ह्यूमर’ (हास-परिहास) से रोचक बना सकता है। किसी साहित्यिक कार्यक्रम का संचालन करते समय संचालक बीच-बीच में प्रासंगिक कविताओं के अंशों का प्रयोग करके कार्यक्रम को रोचक बना सकता है।   
बोध प्रश्न
20. संचालक के पास कौन-सा तत्व होना अनिवार्य है?
...........................................................................................................................................
............................................................................................................................................      
1.4.3.4  वाचन
            जनसंचार के लिए उपयोगी संभाषण का एक रूप वाचन भी है। विचारों की अभिव्यक्ति में वाचन का अपना महत्व है। यह एक कौशल है। वाचक अपनी आवाज और अंदाज के साथ श्रोता को अपनी ओर आकर्षित कर सकता है। समाचार का वाचन और मंचीय वाचन अलग-अलग शैली में होता है। 
1.4.3.4.1  समाचार वाचन
            इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में समाचार वाचन आकर्षण (ग्लैमर) का केंद्र रहा है। समाचार कार्यक्रमों के लिए समाचार वाचक या न्यूज़ रीडर की आवश्यकता होती है। समाचार वाचक को पूर्वग्रह से मुक्त रहना चाहिए। प्रभावशाली व्यक्तित्व एवं अच्छी आवाज वाला व्यक्ति समाचार वाचक के रूप में तुरंत चुन लिया जाता है। समाचार वाचन के समय यह ध्यान रखना अनिवार्य है कि बोलने का प्रवाह बना रहे। भाषण, वार्ता और कार्यक्रम के संयोजन में यदि रोचकता का ध्यान रखा जाए तो समाचार वाचक सफलता प्राप्त करेगा। समाचार वाचन करते समय वाचक को भाषा का शुद्ध उच्चारण करना होगा तथा आत्मविश्वास से भरपूर रहना होगा। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में समाचार वाचक के सामने श्रोता नहीं, बल्कि कैमरा रहता है।    
            कक्षा या विद्यालय स्तर पर भी समाचार वाचन की गतिविधि आयोजित की जा सकती है। ऐसे आयोजन में समाचार पत्रों, टीवी, रेडियो, इंटरनेट आदि से समाचार संकलित करके विद्यालय की प्रातःकालीन सभा में समाचार वाचन किए जाते हैं। समाचार वाचन के समय बलाघात, आरोह और अवरोह पर ध्यान देना आवश्यक है।          
बोध प्रश्न
21. समाचार वाचक किस तरह से सफल होता है?
...........................................................................................................................................
............................................................................................................................................
1.4.3.4.2 मंचीय वाचन  
            समाचार वाचन में वाचक को आत्मविश्वास के साथ शुद्ध उच्चारण करना पड़ता है। अपने हाव-भावों का प्रयोग करना पड़ता है। इसी तरह मंचीय वाचन के लिए भी वाचक को आत्मविश्वास के साथ धाराप्रवाह बोलना पड़ता है। मंचीय वाचन में वाचक को सावधान रहना चाहिए क्योंकि उनके सामने श्रोता उपस्थित है। मंच संचालक को भाषिक शुद्धता पर ध्यान रखना होगा।  
1.4.4  संभाषण की आवश्यकता
            मनुष्य की भावनाओं एवं संवेदनाओं के आदान-प्रदान के लिए संभाषण आवश्यक है। स्वागत-विदाई, शंका-समाधान आदि क्रिया व्यापारों के लिए भी संभाषण आवश्यक है। क्योंकि इसके माध्यम से बात बनती है और काम चलते हैं। वाक् चातुर्य के गुण से युक्त व्यक्ति आसानी से अपना काम करवा लेता है। यदि व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी हो तो वह न ही अपनी बात रख सकता है, न ही तर्क-वितर्क कर सकता है और न ही अपना पक्ष रख सकता है। वह असमंजस की स्थिति में पड़ सकता है। मनुष्य संभाषण के माध्यम से अपने गुण-दोषों के साथ-साथ दूसरों के गुण-दोषों का विवेचन कर सकता है। व्यक्ति के अपने व्यक्तित्व निर्माण में भी संभाषण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संभाषण व्यवहार कुशलता सिखाता है।            
1.5 सारांश
            छात्रो! इस इकाई में आपने संभाषण के अर्थ और स्वरूप का अध्ययन किया है। संभाषण की प्रक्रिया वस्तुतः बच्चे के जन्म के साथ ही शुरू हो जाती है। धीरे-धीरे परिवार और समाज की सहायता से उसकी संभाषण कला में निखार आता जाता है। संभाषण व्यक्ति को समाज से जोड़कर उसे सामाजिक प्राणी बनाता है। आपने इस इकाई में वार्तालाप या संवाद, व्याख्यान या भाषण, वाद-विवाद, एकालाप, परिचर्चा और जनसंचार जैसे संभाषण के विविध रूपों का भी अध्ययन किया है। जनसंचार के लिए उपयोगी संभाषण के विविध प्रकारों की जानकारी भी प्राप्त कर चुके हैं। यह भी जान चुके हैं कि प्रभावी संभाषण से व्यक्तित्व निर्माण संभव है। ऐसा इसलिए संभव है क्योंकि आप क्या बोलते हैं, कैसे बोलते हैं इसका असर आपके व्यक्तित्व के साथ-साथ जीवन पर भी पड़ता है। यदि यह कहा जाए कि संभाषण सभी ओर से सफलता की कुंजी है तो गलत नहीं होगा। अतः आप संभाषण करते समय सावधान रहिए क्योंकि इस पर आपका व्यक्तित्व निर्भर रहता है।      
1.6 समीक्षा
            मनुष्य एक सामाजिक प्राणी (सोशल एनिमल) है। लेकिन साथ ही वह एक बोलने वाला प्राणी (जूम्फ़ोनेटा) भी है। सामाजिक होने के लिए बोलने की क्षमता का बड़ा महत्व है। इस क्षमता के द्वारा ही मनुष्य जाति ने सभ्यता, साहित्य, कला, विज्ञान और संस्कृति का विकास किया है। इसीके द्वारा विविध सामाजिक संबंध और संस्थाएँ भी अस्तित्व में आई हैं। बोलने की क्षमता का प्रयोग मनुष्य अपने विचारों, भावनाओं तथा प्रतिक्रियाओं को भाषिक रूप में प्रकट करने और समझने के लिए करता है। दैनिक जीवन में विविध अनौपचारिक और औपचारिक अवसरों पर सूचनाओं के आदान-प्रदान, तर्क-वितर्क, वाद-विवाद, खंडन-मंडन, प्रश्न और उत्तर आदि के लिए दो या दो से अधिक व्यक्ति परस्पर संभाषण करते हैं। संभाषण के द्वारा हम अपने दैनिक जीवन के विविध प्रयोजनों को सिद्ध कर पाते हैं। संभाषण का सबसे अधिक व्यापक रूप जनसंचार को कहा जा सकता है। जनसंचार के प्रयोजन की सिद्धि के लिए उद्घोषणा, सजीव प्रसारण या आँखों देखा हाल, संचालन और वाचन जैसे संभाषण के विविध रूपों का व्यवहार किया जाता है। यह भी ध्यान देने की बात है कि संभाषण सामाजिक संबंधों के लिए आवश्यक है ही, हमारे निजी व्यक्तित्व के विकास में भी उसकी बड़ी भूमिका है।                       
1.7 पारिभाषिक शब्दावली
1. वक्ता                          =          बोलने वाला व्यक्ति/ speaker
2. संभाषण/ संचार            =          communication
3. श्रोता                          =          सुनने वाला व्यक्ति/ listener, receiver 
4. अर्जित                         =          ग्रहण करना/ acquire
5. समाजीकरण                 =          समाज से जुड़ने की प्रक्रिया/ socialization
6. संचारक                       =          संचार करने वाला/ sender
7. संदेश                          =          message
8. माध्यम                        =          channel
9. प्राप्तकर्ता                      =          receiver
10. प्रतिपुष्टि                     =        feedback                      
11. उद्घोषणा                    =          announcement
12. उद्घोषक                     =          announcer  
13. जनसंचार                  =          mass communication
14. संभाषण कला              =          communication skill  

1.8 परीक्षार्थ प्रश्न
खंड (अ)
(अ) दीर्घ श्रेणी के प्रश्न     
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 250 शब्दों में दीजिए।
  1. संभाषण के अर्थ एवं स्वरूप पर प्रकाश डालिए।
  2. संभाषण के विविध रूपों का संक्षिप्त परिचय दीजिए।
  3. वार्तालाप या संवाद किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  4. जनसंचार हेतु उपयोगी संभाषण के विविध प्रकारों की चर्चा कीजिए।
खंड (ब)
(आ) लघु श्रेणी के प्रश्न
निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर लगभग 100 शब्दों में दीजिए।
  1. संभाषण की आवश्यकता पर प्रकाश डालिए।
  2. परिचर्चा किसे कहते हैं?
  3. आँखों देखा हाल पर टिप्पणी लिखिए।
  4. उद्घोषणा पर टिप्पणी लिखिए।
  5. कार्यक्रम संचालन पर संक्षिप्त लेख लिखिए। 
  6. जनसंचार पर टिप्पणी लिखिए।
  7. समाचार वाचन का संक्षिप्त परिचय दीजिए।

खंड (स)
I. सही विकल्प चुनिए
1. व्याख्यान का विशिष्ट रूप क्या है?                                                                                      (           )
    (अ) तकनीक               (आ) संभाषण                 (इ) समाचार                  (ई) भाव
2. संभाषण के माध्यम से व्यक्ति का क्या होता है?                                                                      (           )
    (अ) आधुनिकीकरण     (आ) मानकीकरण           (इ) समाजीकरण             (ई) मानवीकरण 
3. अनौपचारिक संवाद में किस तरह की भाषा का प्रयोग किया जाता है?                                        (           )
    (अ) शिष्ट भाषा           (आ) क्लिष्ट भाषा            (इ) तकनीकी भाषा         (ई) बोलचाल की भाषा
4. एक ही व्यक्ति या पात्र का संभाषण क्या कहलाता है?                                                             (           )
    (अ) विलाप                (आ) एकालाप                (इ) आलाप                    (ई)  संवाद
5. चर्चा की औपचारिक विधि क्या है?                                                                                    (           )
    (अ) वाद-विवाद         (आ) लड़ाई-झगड़ा          (इ) एकालाप                  (ई) स्वगत भाषण
II. रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए
  1. दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच होने वाली बातचीत ................ है।
  2. व्याख्यान को रोचक बनाए रखने के लिए व्याख्यानकर्ता  ..................  की सहायता ले सकता है
  3. प्राप्तकर्ता या रिसीवर के प्रतिउत्तर या प्रतिक्रिया को ................  कहा जाता है।
  4. सार्वजनिक जानकारी के लिए दी जाने वाली सूचना या सरकारी तौर पर की जाने वाली घोषणा ............. कहलाती है।
  5. कार्यक्रम संचालक के पास ..................... का होना अनिवार्य है।

III. सुमेल कीजिए
i)             वार्तालाप                       (अ) एकालाप    
ii)            व्याख्यान                       (आ) सरसता     
iii)           वाद-विवाद                   (इ) फीडबैक
iv)           स्वगत भाषण                 (ई) श्रोता समूह
v)            प्राप्तकर्ता                        (उ) संसद
1.9 बोध प्रश्नों के उत्तर
1.   बातचीत अथवा वार्तालाप।
2.   अभिवादन से।
3.   सरसता और रोचकता।
4.   सुनने, समझने और बोलने की प्रक्रिया।
5.   प्रभावी और स्पष्ट कथन तथा वक्ता-श्रोता का प्रत्यक्ष संवाद।
6.   रोचकता।  
7.   रोचकता, स्पष्टता, शुद्धता, शिष्टता, स्वाभाविकता, गतिशीलता, प्रभावोत्पादकता।
8.  व्याख्यान को रोचक बनाए रखने के लिए कभी-कभी तकनीकी प्रस्तुतीकरण या प्रश्नोत्तरी का प्रयोग किया जा            सकता है।
9.   तर्क के साथ किसी विषय पर चर्चा की एक औपाचारिक विधि।
10. एक ही व्यक्ति या पात्र का संभाषण।
11. साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक या सांस्कृतिक किसी भी तथ्य, विषय या समस्या पर              विस्तृत रूप से की जाने वाली चर्चा।
12. विषय विशेष, विभिन्न मत, सम्यक विचार और आकर्षक प्रस्तुति।
13. सूचना तथा विचारों को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक संप्रेषित करने की कला।
14. किसी यंत्र या जनमाध्यम द्वारा संदेश को बहुत बड़े मिश्रित जनसमूह तक पहुँचाना।
15. संचारक, संदेश, माध्यम, प्राप्तकर्ता और फीडबैक।
16. प्राप्तकर्ता या रिसीवर के प्रतिउत्तर या प्रतिक्रिया फीडबैक है।  
17. सार्वजनिक जानकारी के लिए दी जाने वाली सूचना या सरकारी तौर पर की जाने वाली घोषणा।
18. पुराने जमाने में डुगडुगी या ढोल बजाकर गाँवों में घूम-घूमकर किसी बात की घोषणा की जाती थी। इसे ही             मुनादी करना या ढिंढोरा पीटना कहा जाता है।
19. सूचना के साथ-साथ प्रस्तुतीकरण में रोचकता आँखों देखा हाल की मूलभूत विशेषता है।
20. प्रेजेंस ऑफ माइंड (प्रत्युत्पन्न मति) और सेंस ऑफ ह्यूमर (हास परिहास)।
21. भाषण, वार्ता और कार्यक्रम के संयोजन में रोचकता का ध्यान तथा आत्मविश्वास के साथ धाराप्रवाह बोलने   से        समाचार वाचक सफलता प्राप्त कर सकता है।    
1.10 पठनीय पुस्तकें
1. ओम प्रकाश सिंह (2004). संचार और पत्रकारिता के विविध आयाम. नई दिल्ली : क्लासिकल पब्लिशिंग कंपनी
2. (सं.) धर्मपाल मैनी (2005). मानवमूल्य-परक शब्दावली का विश्वकोश. खंड – 5. नई दिल्ली : सरूप एंड संज़ 
3. पुष्पेंद्र कुमार आर्य. (2009). मीडिया में कैरियर
4. विष्णु राजगढ़िया (2008). जनसंचार : सिद्धांत और अनुप्रयोग. नई दिल्ली : राधाकृष्ण

  • संभाषण कला/ बी.ए./ द्वितीय वर्ष/ सत्र - iv / हिंदी सकिल एन्हांसमेंट एलेक्टिव कोर्स - 1