सोमवार, 31 मई 2021
स्त्री विमर्श
बुधवार, 26 मई 2021
व्यतिरेकी विश्लेषण : हिंदी - तेलुगु समानर्थी शब्द (ऑनलाइन अध्यापन के निमित्त)
- अन्य भाषा शिक्षण के लिए पाठ्य सामग्री निर्माण करना।
- स्रोत भाषा और लक्ष्य भाषा में निहित समानताओं और असमानताओं की तुलना करके पाठ्य बिंदुओं का चयन करना।
- शिक्षार्थी की शिक्षण समस्याओं को समझना।
- शिक्षण विधियों का आविष्कार करना।
- त्रुटियों का निदान करना।
- रूप और अर्थ में समानता
- रूपगत समानता और अर्थगत भिन्नता
- रूपगत भिन्नता और अर्थगत सामनता
- रूप और अर्थ में भिन्नता
- समान रूप और भिन्न रूपरचना एवं सहप्रयोग वाले शब्द
- समान कोशीय और भिन्न लक्ष्यार्थ वाले शब्द
रविवार, 2 मई 2021
संपादकीय : 'स्रवंति' अप्रैल 2021
संपादकीय...
“बढ़ते ही रहेंगे
हम न मरते हैं
न
मरने से डरेंगे” (अब शेष हूँ मरता नहीं)
कहकर उद्घोष करने वाले डॉ. प्रेमचंद्र जैन
का जन्म बदायूँ जनपद के ग्राम नगला बारहा में 3 जनवरी, 1938 को हुआ था। अपभ्रंश पर
उनका विशेष अधिकार था। वे कर्मठ व्यक्ति थे। अपने विचारों और कार्यों के कारण हमेशा
जाने जाते रहे। 16 मार्च, 2021 को वे पंचतत्व में लीन हो गए। उनका जाना व्यक्तिगत रूप
से मेरे लिए अपूरणीय क्षति है।
डॉ. प्रेमचंद्र जैन को बचपन से ही घर में शिक्षा का वातावरण प्राप्त था क्योंकि पिताजी मूलतः अध्यापक थे। उन्होंने स्यादवाद महाविद्यालय, काशी विश्वविद्यालय एवं पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान से उच्च शिक्षा अर्जित की। ‘अपभ्रंश कथा काव्य एवं हिंदी प्रेमाख्यानक’ विषय पर 1969 में काशी विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि अर्जित की। वे जैन धर्म के गहन अध्येता थे। इस का प्रमाण है उनका ‘जैन रहस्यवादी अपभ्रंश काव्य और उनका हिंदी पर प्रभाव’ (1964) नामक ग्रंथ। डॉ. शिवप्रसाद सिंह अभिनंदन ग्रंथ ‘बीहड़ पथ के यात्री’ के वे संपादक थे।
प्रेमचंद्र जैन स्वाभिमानी थे। साहसी और कर्मठ थे। वे दृढ़ निश्चयी थे। इस संबंध में उनके गुरु शिवप्रसाद सिंह का यह कथन उल्लेखनीय है- "तुम संकल्प को यथा समय सही ढंग से पूरा करने में सदैव तत्पर हो।" उनके व्यक्तित्व के संबंध में बताते हुए चंद्रमणि रघुवंशी ने कहा कि “कृशकाय डॉ. प्रेमचंद्र जैन प्रभावशाली व्यक्ति न होने के बावजूद अपने ज्ञान की बपौती के बूते पर मिलने वाले प्रत्येक अपरिचित पर भी अमिट प्रभाव छोड़ने में सदैव सफल रहते हैं। उनकी विनम्रता ‘सोने में सुहागा’ की कहावत को चरितार्थ करती है।“ (निरभै होइ निसंक कहि के प्रतीक, पृ. 31)।
डॉ. प्रेमचंद्र जैन सबके लिए 'गुरु जी' थे। इस संबंध में डॉ. कृष्णावतार 'करुण' का यह मत उल्लेखनीय है- "गुरु जी नजीबाबाद में बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के गुरु जी हैं। यहाँ तक कि मेरी माँ भी उन्हें गुरु जी ही कहती हैं।" (वही, पृ. 39)। वे बहुत ही आत्मीयता के साथ सबका स्वागत करते थे। गुरु जी का आशीर्वाद प्राप्त करने का सौभाग्य मुझे भी मिला। गुरु जी मुझे अपनी बेटी के रूप में मानते थे। केवल मानते ही नहीं, बल्कि कभी कभी पिता के समान रूठते भी थे और जल्दी ही मान भी जाते थे।
मुझे यह सोचकर हमेशा गर्व होता है कि गुरु परंपरा में मेरे संबंध सूत्र आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से जुड़ते हैं. आचार्य द्विवेदी, शिवप्रसाद सिंह, प्रेमचंद्र जैन, उनके शिष्य और अंत में मैं। मेरे बाद भी यह क्रम चलता रहेगा। इस अर्थ में गुरु जी डॉ. प्रेमचंद्र जैन जी से मेरा जुड़ाव स्वाभाविक ही है।
ज्ञान जगत के संबंधों के बारे में कहना ही पड़े तो मैं कहूँगी कि इसका श्रेय दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद की पत्रिका 'स्रवंति' को है। सह संपादक के रूप में मैं इससे जुड़ी हूँ और इसका हर अंक गुरु जी को भी जाता था। मुझे याद है कि 'स्रवंति' का अंक प्राप्त होते ही वे अपनी टिप्पणी तुरंत भेजते थे। उनकी प्रतिक्रियाओं में सामग्री का मूल्यांकन भी होता था और दिशा निर्देश भी। उनके इस कार्य ने पत्रिका-परिवार को सजग बनाए रखा। व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए यह भी एक उपलब्धि है। पिता की भाँति स्नेह और प्यार बाँटने वाले 'गुरु जी' आज भले ही भौतिक रूप से हमारे बीच नहीं हैं, फिर भी हमारी स्मृतियों में वे सदा ही जीवित रहेंगे।
'गुरु जी' अपने गुरु शिवप्रसाद सिंह द्वारा प्राप्त गुरुमंत्र को हमें विरासत में दे गए हैं- "चिंताएँ छोड़कर नियति से लड़ो… लड़ना ही धर्म है। सारा जीवन बन जाए युद्ध… । तभी मृत्यु का भय भाग जाता है।"
पाठकों के आस्वादन हेतु 'मध्यांतर' में डॉ.
प्रेमचंद्र जैन की कविताएँ दी जा रही हैं.