हिंदी साहित्य जगत में श्रीलाल शुक्ल और 'राग दरबारी' (1968) के एक-दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। इसका यह अर्थ नहीं कि उन्होंने कुछ और लिखा ही नहीं। उन्होंने 'सूनी घाटी का सूरज' (1957) को देखते-देखते कुछ दिनों तक 'अज्ञातवास' (1962) किया। उस समय उन्हें यह पता चला कि 'आदमी का जहर' (1972) क्या होता है तथा 'सीमाएँ टूटती हैं' (1973) तो घर केवल 'मकान' (1976) बन जाता है। 'पहला पड़ाव' (1987) के बारे में सोचते हुए जब 'बिस्रामपुर का संत' (1998) 'यहाँ से वहाँ' आगे बढ़ता है 'अगली शताब्दी का शहर' की खोज में तो उन्हें 'बब्बरसिंह और उसके साथी' (1999) मिल जाते हैं। तो वे सोचते हैं कि 'आओ बैठ लें कुछ देर'। जब 'राग-विराग' (2001) हो जाता है तो 'अंगद का पाँव' और 'कुंती देवी का झोला' लेकर 'उमराव नगर में कुछ दिन' 'मम्मीजी का गधा' 'कुछ जमीन पर कुछ हवा में' 'ख़बरों की जुगाली' करते हुए घूमता रहता है।
अब 'राग दरबारी' पर हम थोड़ी सी चर्चा करेंगे।
1. पहले ‘राग दरबारी’ क्या है, यह देखें।
राग दरबारी तानसेन द्वारा बनाया हुआ राग है। तानसेन अकबर के दरबारी संगीतकार थे। शायद इसीलिए उनके बनाए हुए राग के साथ ‘दरबारी’ शब्द जुड़ गया। दरबार अर्थात राजा-महाराजा का दरबार। यह एक बहुत ही गंभीर राग है और इसे धीमी गति से गाया जाता है। संगीत के क्षेत्र में इसे बहुत ही कठिन राग माना जाता है। हर कोई इस राग में गा नहीं पाते। इसके लिए परिश्रम की आवश्यकता होती है। तेलुगु और तमिल भाषा की अनेक धार्मिक फिल्मों के गाने इसी राग में हैं। ‘सत्यं शिवं सुंदरम्’ फिल्म के टाइटल सॉन्ग का राग भी ‘दरबारी’ है।
2. यह तो हुई राग की चर्चा। अब हम श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ को भी देख लें।
इस उपन्यास का नाम तो ‘राग दरबारी’ है, लेकिन संगीत से इसका दूर-दूर तक भी कोई रिश्ता नहीं। तो यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि संगीत से कोई रिश्ता ही नहीं, तो इस उपन्यास का नामकरण राग दरबारी क्यों किया गया है?
इसका उत्तर हमें तभी मिलेगा जब हम ‘दरबार’ के बारे में जानेंगे। इस उपन्यास में चित्रित दरबार किसी राजा-महाराजा का नहीं है, बल्कि वैद्य जी का दरबार है। और वैद्य जी उस दरबार के सर्वेसर्वा है। उनकी आज्ञा के बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता, क्योंकि वे गाँव की तमाम राजनीति के पीछे उपस्थित मास्टरमाइंड है। बहुत सोच समझकर तोल-तोल कर बात करने में माहिर हैं।
दरबारी राग धीमी गति से चलता है, लेकिन यह उपन्यास धीमी गति से नहीं चलता। श्रीलाल शुक्ल ने व्यंग्य का सहारा लेकर कथा को आगे बढ़ाया है। उपन्यास का शीर्षक भी दूसरा ही अर्थ देता है।
2010 में ‘उत्तर आधुनिकता और समकालीन विमर्श’ पर जब उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के हैदराबाद केंद्र में संगोष्ठी का आयोजन किया गया था, उस समय श्रद्धेय प्रो. गोपाल शर्मा जी ने देरिदा के अनेक सूत्र बताए थे। उसी प्रकार 2017 में ‘अँधेरे में : पुनर्पाठ’ शीर्षक पुस्तक का प्रकाशन किया जा रहा था, तो उन्होंने ‘अँधेरे में’ की जगत समीक्षा देरिदा की दृष्टि से की थी।
सहज शब्दों में कहना हो तो, देरिदाई सूत्रों में एक सूत्र है ‘सिर के बल खड़ा करना’। शीर्षासन करना। जब आप शीर्षासन करते हैं तो सिर जमीन पर टिका रहता है और पैर आसमान में लटकते रहते हैं। ज़रा कल्पना करके तो देखिए जब हम सब सिर के बल खड़े होंगे तो कैसा लगेगा। जी हाँ, विकृत लगेगा। श्रीलाल शुक्ल ने भारतीय संस्कृति को सिर के बल खड़ा कर दिया है अपने इस उपन्यास में।
भारतीय संस्कृति से मेरा अभिप्राय उन तमाम मूल्यों से है जो हमारे लिए आदर्श हैं। लेकिन आज ये मूल्य विकृत हो चुके हैं। इन विकृतियों से ही विडंबनाएँ पैदा होती हैं। इस उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल ने इन विकृतियों को उजागर किया है, लेकिन व्यंग्य रूपी मिश्री की कोटिंग लगाकर। व्यंग्यकार सत्य की खोज नहीं, बल्कि झूठ और पाखंड की खोज करता है। व्यंग्य के टेढ़े-मेढ़े रास्ते से गुज़र कर ही व्यंग्यकार उन मूल्यों तक पहुँचता है, जो उत्कृष्ट साहित्य का अंतिम लक्ष्य हैं। इस उपन्यास के केंद्र में शिवपालगंज गाँव है और वैद्य जी का दरबार, जो पूरी तरह से छल और छद्म का अखाड़ा बना हुआ है। शिवपालगंज कोई गाँव नहीं है, यह तो भारतीय लोकतंत्र का प्रतीक है। व्यवस्था में निहित विकृतियों को कहे बिना श्रीलाल शुक्ल नहीं रह पाए। इन विकृतियों के एकाध उदाहरण देखें -
- पहले के डाकू नदी-पहाड़ लाँघकर घर पर रुपया लेने आते थे, अब वे चाहते हैं कि कोई उन्हीं के घर जाकर रुपया दे आवे। (पृ. 16)
- एक तो अछूतों के लिए चंदा कमाने की इमारत बनेगी। दूसरे, अस्पताल के लिए हैज़े का वार्ड बनेगा। वहाँ ज़मीन की कमी है। कॉलिज ही के आसपास टिप्पस से ये इमारतें बनवा लें ... फिर धीरे से हथिया लेंगे। (पृ.27)
आखिर यह कथा किसी शिवपालगंज की ही क्यों, किसी दिल्ली या किसी हैदराबाद की भी तो सकती है। लेकिन यदि ऐसा होता तो IAS या IPS या किसी उच्च अधिकारी या नेता को आलंबन बनाना पड़ता। लेखक को मालूम है कि व्यवस्था से लड़ने से कोई फायदा नहीं होगा, और तो और उल्टा लेने के देने पड़ सकते हैं। शायद इससे बचने के लिए ही श्रीलाल शुक्ल ने शिवपालगंज नामक एक काल्पनिक गाँव को गढ़ा और अपने समय की तमाम विकृतियों को उस पर आरोपित कर दिया। एक तरह से यह लेखकीय चतुराई है।