साहित्यिक जगत में से रा यात्री के नाम से प्रसिद्ध सेवा राम अग्रवाल 17 नवंबर, 2023 को कभी न लौटने वाली महायात्रा पर प्रस्थान कर गए। उत्तर प्रदेश के जनपद मुज़फ़्फ़रनगर के गाँव जड़ोदा में 1933 में जन्मे सेवा राम की साहित्यिक यात्रा कविताओं के माध्यम से शुरू हुई थी। उसके बाद यह यात्रा तेज गति चलती रही। उनकी पहली कहानी है ‘गर्द गुबार’ जो प्रसिद्ध कहानी पत्रिका ‘नई कहानी’ में प्रकाशित हुई और पहला कहानी संग्रह है ‘दूसरे चहरे’ (1971)। उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा मुजफ्फरनगर में हुई। तत्पश्चात आगरा विश्वविद्यालय से राजनीति विज्ञान (1955) और हिंदी साहित्य (1957) में एम.ए. की उपाधि अर्जित की। सागर विश्वविद्यालय से शोधकार्य संपन्न करके उन्होंने अपनी आजीविका अध्यापन से शुरू की।
से रा यात्री प्रसाद, महादेवी वर्मा, निराला, पंत, बच्चन और नरेंद्र शर्मा जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों से प्रभावित थे। वे बेहद संवेदनशील कथाकार थे। समसामयिक सामाजिक एवं राजनैतिक परिदृश्य को देखकर वे चिंता व्यक्त करते थे। उनका व्यक्तिव बहुत सरल था। उनकी सरलता एवं सादगी का एकमात्र कारण यह है कि वे जमीन से जुड़े साहित्यकार थे। कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य और संस्मरण विधाओं में उन्होंने अपनी लेखनी चलाई।
से रा यात्री सचमुच साहित्य के ‘सेरा’ (शेरा) थे। उनकी किताबों का संसार विशाल है। उनकी लेखनी से दराजों में बंद दस्तावेज, लौटते हुए, कई अँधेरों के पार, अपरिचित शेष, चाँदनी के आरपार, बीच की दरार, टूटते दायरे, चादर के बाहर, प्यासी नदी, भटका मेघ, आकाशचारी, आत्मदाह, बावजूद, अंतहीन, प्रथम परिचय, जली रस्सी, युद्ध अविराम, दिशाहारा, बेदखल अतीत, सुबह की तलाश, घर न घाट, आखिरी पड़ाव, एक जिंदगी और, अनदेखे पुल, कलंदर, सुरंग के बाहर जैसे उपन्यासों का सृजन हुआ। साथ ही केवल पिता, धरातल, अकर्मक क्रिया, टापू पर अकेले, दूसरे चेहरे, अलग-अलग अस्वीकार, काल विदूषक, सिलसिला, खंडित संवाद, नया संबंध, भूख तथा अन्य कहानियाँ, अभयदान, पुल टूटते हुए, विरोधी स्वर, खारिज और बेदखल, परजीवी जैसे कहानी संग्रहों में संकलित कहानियाँ पाठकों को सोचने पर बाध्य करती हैं। किस्सा एक खरगोश का, दुनिया मेरे आगे उनके प्रमुख व्यंग्य संग्रह हैं। लौटना एक वाकिफ उम्र का संस्मरण है। वे सफल संपादक भी थे। उन्होंने मासिक ‘वर्तमान साहित्य’ का सफल संपादन किया था। इतनी महत्वपूर्ण कृतियों से हिंदी साहित्य को समृद्ध करने के बावजूद यात्री जी कहते हैं कि ‘मैं मैं को नहीं लिख पाया। यहाँ आकर मेरी शक्ति खत्म हो गई। जहाँ मुझे स्वयं को लिखना था... ये जो मैंने सब लिखा है, ये तो दिशांतर है।’
से रा यात्री अनेक सम्मानों से सम्मानित हुए। जैसे राजस्थान पत्रिका, जयपुर द्वारा वर्ष 1998 में ‘विरोधी स्वर’ कहानी के लिए पुरस्कृत हुए। राष्ट्रभाषा हिंदी प्रचार समिति, डूंगरगढ़, राजस्थान द्वारा 1993 में ‘साहित्यश्री’ सम्मान से अलंकृत हुए। सावित्री देवी चैरिटेबल ट्रस्ट, गाजियाबाद द्वारा 1986 में पुरस्कृत हुए। उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ द्वारा कथा संग्रह ‘धरातल’ (1979), ‘सिलसिला’ (1980), ‘अकर्मक क्रिया’ (1980), ‘अभयदान’ (1979) तथा संस्मरण ‘लौटना एक वाकिफ उम्र का’ (1998) के लिए पुरस्कृत हुए। यात्री जी 2006 में साहित्य भूषण, 2007 में समन्वय द्वारा सारस्वत सम्मान, 2011 में महात्मा गांधी साहित्य सम्मान तथा 2017 में पीटरबर्ग्स अमेरिका के सेतु शिखर सम्मान से भी अलंकृत हुए।
यात्री जी ने भले ही अपनी साहित्यिक यात्रा कविता से शुरू की, लेकिन बहुत जल्दी ही उसकी सीमा को देखते हुए उन्होंने कहानियाँ लिखना शुरू कर दिया। उसके बाद उपन्यास, संस्मरण आदि एक के बाद एक लिखते रहे। उनके कवि रूप को उनकी कहानियों और उपन्यासों में भी जीवित देखा जा सकता है। उन्होंने स्वयं इस बात की पुष्टि की है। यात्री जी का जीवन बहुत ही सरल और पारदर्शी रहा। उनके बाह्य व्यक्तित्व का रेखाचित्र रवींद्र कालिया ने कुछ इस तरह खींचा है – ‘ऊँचा कद, गोरा रंग, काले बाल, चोगे की तरह लंबा घुटनों से नीचे तक सफेद कुर्ता, ढीला पायजामा, कंधे पर समाजवादी झोला, पीछे-पीछे कुत्तों की लंबी कतार, गाजियाबाद की किसी सड़क पर लंबे-लंबे डग भरता हुआ ऐसा कोई आदमी दिखाई दे जाय तो समझ लेना लीजिए, वह कहानीकार से रा यात्री है।’ (रवींद्र कालिया, कॉमरेड मोनालिज़ा तथा अन्य संस्मरण, पृ. 178)। यात्री जी अपने झोले में रोटी के टुकड़े रखते और उन टुकड़ों को रास्ते में कुत्तों को खिलाते। यह उनकी आदत थी। इसीलिए उनके पीछे कुत्तों की लंबी कतार लगी रहती। रवींद्र कालिया उन्हें ‘एक खुली किताब’ मानते हैं। यात्री जी उन ‘अनसंग हीरोज़’ के समान हैं जिनके बारे में लोग बहुत ही कम चर्चा करते हैं। उन्होंने कभी भी यह नहीं चाहा कि लोग उनकी तारीफ के पुल बाँधें। उन्होंने तो मस्त कलंदर की तरह ज़िंदगी बिताई थी।
यात्री जी की रचनाओं में समाज के हर तबके के दर्द को देखा जा सकता है। बच्चों की मानसिकता से लेकर वार्धक्य तक की स्थितियों को यात्री जी ने बखूबी उकेरा है। ‘दराजों में बंद दस्तावेज’ उनका पहला उपन्यास है। इसमें नायक-नायिका के मानसिक द्वंद्व का चित्रण है। ‘लौटे हुए’ में जीवन मूल्यों का निरूपण है। ‘दरारों के बीच’ में बेरोजगारी का चित्रण है। ‘कई अँधेरों के पार’ में मध्यवर्गीय मानसिकता है। ‘आत्मदाह’ में युवा पीढ़ी की पलायन करने की प्रवृत्ति को उजागर किया गया है। ‘उखड़े हुए’ शीर्षक कहानी में शिक्षण संस्था की आड़ में चल रहे शोषण-चक्र का खुलासा किया गया है। ‘किस्सा कोताह’ कहानी में अध्यापकों के गैर-जिम्मेदाराना व्यवहार के प्रति कटाक्ष है तो ‘उजरत’ कहानी विद्यार्थी जीवन का दस्तावेज है। ‘जोंक’ में संकीर्ण मानसिकता का चित्रण है। इस प्रकार हर रचना में एक नई समस्या को देखा जा सकता है। उनकी रचनाओं के पात्र हमारे इर्द-गिर्द घूमने लगते हैं। कभी-कभी तो हम स्वयं एक पात्र बनकर उपस्थित हो जाते हैं।
आज के रचनाकारों के संदर्भ में से रा यात्री का कहना है कि ‘...जोखिम नहीं है। लेखन के लिए एक प्रतिबद्धता होती है, कमिटमेंट होता है। विद आउट कमिटमेंट आप हैं कहाँ? ढोल है…। आज सबसे बड़ी कमी लेखन में कमिटमेंट की है। मैं जोखिम उठाता हूँ और अपने लेखन में रेखांकित करता हूँ। सारे आजादी के जमाने की जो जद्दोजहद स्टैंड करती है… व्हाई गांधी स्टुड… गांधी क्यों खड़े रहे गए? गांधी इसलिए खड़े रह गए कि उनका शायद मंत्र था। आज कोई मंत्र नहीं है।’
आज संवेदनशून्यता हर दिशा में फैली हुई है। अपने काम के प्रति कमिटमेंट तो है ही नहीं। एक साक्षात्कार में जब उनसे यह पूछा गया कि क्या कोई और आप के बारे में उस तरह लिख सकते हैं जिस तरह आप चाहते हों तो उन्होंने कहा कि ‘मुझ पर 35 लोगों ने पीएचडी की है, लेकिन सब खोखलापन है। ‘उजरत’ कहानी का किसी ने कोई जिक्र नहीं किया। 35 स्कॉलर्स में से... एक ने भी जिक्र नहीं किया ‘उजरत’ का।’ ‘उजरत’ कहानी विद्यार्थी जीवन का जीवंत दस्तावेज है। ‘कितने बचने की कोशिश है, कितना सामने आने का जज्बा है, दोनों चीजें हैं इस कहानी में।’ उनकी बातों में एक संदेश और उनकी चिंता स्पष्ट रूप से मुखरित है। वह यह है कि आज के शोधार्थी महज उपाधि पाने के लिए काम कर रहे हैं, न कि कमिटमेंट से। फिर ऐसी उपाधि किस काम की! एक अलंकरण मात्र!!
आज की पीढ़ी को संदेश देते हुए यात्री जी कहते हैं कि ‘खूब पढ़ना चाहिए। क्लासिक पढ़ना चाहिए। प्रेमचंद को पढ़ना चाहिए। रेणु को पढ़ना चाहिए। हिमांशु श्रीवास्तव को पढ़ना चाहिए। दिनकर की कविता पढ़नी चाहिए। 34 साल की उम्र में मेरी पहली कहानी छपी ‘धर्मयुग’ में। आज 34 साल की उम्र में 34 किताबें छप जाती हैं।’ हममें ऐसे कितने लोग हैं जो इन रचनाकारों को पूरा पढ़ पाए! पढ़ने का अर्थ यह नहीं कि किताबों के पन्नों को पढ़ लिया। यहाँ पढ़ने का अर्थ है उन किताबों में निहित संवेदनशील तत्वों को ग्रहण करना और अपने जीवन में उतारना। हम ऐसा नहीं करते। ऐसा करने के लिए समय किसके पास है! भागदौड़ की जिंदगी में हम अपने आपसे कटते जा रहे हैं।
सामाजिक विसंगतियों से विचलित यात्री जी हमेशा बेचैन रहे। अपने अंतिम दिनों में भी उनके अंदर यही बेचैनी थी, यही चिंता थी। 16 नवंबर, 2023 को से रा यात्री को अपनी सृजन यात्रा के लिए ‘दीपशिखा’ सम्मान से अलंकृत करने की घोषणा हुई। इस घोषणा के 24 घंटे में ही यात्री जी ‘कई अँधेरों के पार’ ‘गुमनामी के अँधेरे में’ ‘आखिरी पड़ाव’ पर पहुँचकर कभी वापस न लौटने की यात्रा पर निकल पड़े। जन सरोकारों के इस अप्रतिम यात्री को ‘स्रवंति’ की विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित है!