रविवार, 29 जनवरी 2023

भारत की एकता की भाषा है हिंदी



भाषा सिर्फ आदान-प्रदान का साधन नहीं है, बल्कि वह प्रयोक्ता समाज की अस्मिता है। भाषा के अभाव में तो हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। भाषा ही वह माध्यम है जिसके कारण हम समाज से जुड़ते हैं। हिंदी भाषा ने आज अपना स्वरूप ऐसा बनाया है कि उसे सबको स्वीकारना ही पड़ा। ‘वह एक कोने की खड़ीबोली नहीं है। वह पुरइन के खड़े पत्ते की तरह से पूरे सरोवर में छा जाने वाली भाषा बन गई है।’ (विद्यानिवास मिश्र, साहित्य के सरोकार पृ.154)। भाषा व्यवहार में एकरूपी या समरूपी नहीं होती। भाषा की यह विविधता उसकी सजीवता का लक्षण है। इसी सजीवता का प्रयोग करके रचनाकार अपनी रचना में रंग लाता है।

ध्यान देने की बात है कि हिंदी की शक्ति उसकी जनपदीय भाषाएँ हैं। इनसे हिंदी निरंतर समृद्ध होती रहती है। हिंदी को सींखचों में जकड़कर रखना संभव नहीं है। शुद्धतावादी सिद्धांत काम नहीं करेगा। ‘भाषा की प्रवाहमयता की कीमत चुकाकर शुद्धता की बात’ सोचना मूर्खता है (विद्यानिवास मिश्र)। ऐसी शुद्धता किस काम की जिसमें न कोई प्रवाह है और न ही संप्रेषण। हिंदी में वह शक्ति निहित है जिसके कारण वह अन्य भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करती चलती है। इससे हिंदी की अस्मिता विस्तृत होती जा रही है। इतना ही नहीं, हिंदी में वह शक्ति है जो एक भाषा को दूसरी भाषा से और एक प्रांत को दूसरी प्रांत से जोड़ती है। हिंदी की एक सीमा में राजस्थान और पंजाब है तो दूसरी सीमा में बिहार। राजस्थान से बिहार तक के लोग अपने घरों में राजस्थानी, ब्रज, बुन्देली, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मगही आदि क्षेत्रीय भाषाएँ बोलते हैं, लेकिन व्यापक रूप से इनकी मातृभाषा हिंदी है। इन सबकी सामाजिक भाषा हिंदी है। शिक्षा से लेकर कामकाज तक हिंदी में ही होता है। यही विलक्षण बात है।

हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसे आसानी से सब समझ सकते हैं। मिथिला का कोई आदमी पंजाब जाए तो उसे पंजाबी समझने में दिक्कत हो सकती है और इसी प्रकार गुजरात का कोई आदमी असम जाए, तो असमिया समझने में दिक्कत हो सकती है और असम के लोगों को गुजराती समझने में, लेकिन हिंदी से काम चला सकते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है, जहाँ उद्योग फैलता है, वहाँ अलग भाषा समुदाय के लोग आकर बस जाते हैं। इन सबके बीच व्यवहार की भाषा हिंदी बन सकती है। इसीलिए महात्मा गांधी ने भी हिंदी को अपनाने पर बल दिया था। यह एक ऐसी भाषा है जो दूसरी भाषाओं को भी साथ लेकर चलती है। इसीलिए आजादी से पहले हिंदी को अंतःप्रांतीय संपर्क के लिए प्रयोग करने की बात भी आई। अनेक नेताओं ने इसका समर्थन भी किया। उनमें वे नेता प्रमुख थे, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं बल्कि बांग्ला थी। ‘हिंदी भारत की एकता की भाषा’ (रामधारी सिंह 'दिनकर') है। यह इस बात से भी प्रमाणित हो जाता है कि भारत में एक भाषा का साहित्य दूसरी भाषा में अनुवाद के माध्यम से आसानी से पहुँच रहा है और यह काम सबसे ज्यादा हिंदी के माध्यम से हो रहा है।

हिंदी प्रचार-प्रसार आंदोलन का अपना एक महत्व है। यह स्वतंत्रता आंदोलन का ही एक प्रमुख अंग रहा। उस समय महात्मा गांधी ने यह महसूस किया कि जब तक देश के सभी नागरिक एक नहीं होंगे, आपस में संप्रेषण स्थापित नहीं करेंगे तथा समाज में व्याप्त विसंगतियों को दूर नहीं करेंगे तब तक आजादी की लड़ाई सफल नहीं हो सकती। समाज की विसंगतियों को दूर करने के लिए उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह का रास्ता अपनाया तो आम जनता के बीच संप्रेषण स्थापित करने के लिए एक ऐसी भाषा को सीखने पर बल दिया जिसे सब आसानी से समझ सकते हैं और बोल सकते हैं। यह भाषा संपूर्ण हिंदुस्तान की भाषा है – ‘हिंदी’। उन्होंने हिंदी का आंदोलन प्रारंभ किया। वस्तुतः वे हिंदी के माध्यम से देशवासियों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द कायम करना चाहते थे। गांधी जी से काफी लोग प्रभावित हुए। परिणामस्वरूप हिंदीतर क्षेत्रों में लाखों लोगों ने हिंदी सीखकर हिंदी का परचम फहराया। “हिंदी प्रचार का काम देशभक्ति का ही काम है। हिंदी को हम इसलिए ऊपर उठा रहे हैं कि उसके साथ सभी भाषाओं का उत्थान हो। हिंदी एक प्रतीक है। असल में हमारा उद्देश्य सभी भाषाओं को ऊपर उठाना है, जिससे यह पूरा देश अपनी भाषाओं में सोच सके और सारी मनुष्य-जाति के लिए भारत की परंपरा में जो संदेश निहित है, उसे अपनी भाषाओं में उछाल सके।” (रामधारी सिंह 'दिनकर', संस्कृति, भाषा और राष्ट्र, पृ. 200)।

पड़ने लगती है पीयूष की शिर पर धारा।
हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा।
बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती।
कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती।
आते ही मुख पर अति सुखद जिसका पावन नाम ही।
इक्कीस कोटि-जन-पूजिता हिन्दी भाषा है वही। (अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’)

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