औद्योगीकरण के कारण देशों का विकास हो रहा है। दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँची! विकास के अंधाधुंध में मनुष्य ने प्रकृति से छेड़छाड़ की। परिणामस्वरूप आज स्वच्छ वातावरण का अभाव है। प्रदूषण का दैत्य मुँह बाये खड़ा है। हवाएँ जहरीली हो चुकी हैं। इन जहरीली हवाओं के कारण आकाश भी मैला हो चुका है। पृथ्वी और जल भी प्रदूषण की चपेट में आ चुके हैं। हम सब जल संकट से जूझ रहे हैं। इसीलिए प्रति वर्ष 22 मार्च को 'विश्व जल दिवस' मनाया जाता है। इसका प्रमुख उद्देश्य है जल के महत्व को उजागर करना।
विश्व के हर नागरिक को पानी के महत्व को समझाने के लिए ही संयुक्त राष्ट्र ने ‘विश्व जल दिवस’ मनाने की शुरूआत 1992 में की थी। 1993 को पहली बार 22 मार्च के दिन पूरे विश्व में 'जल दिवस' के अवसर पर जल के संरक्षण पर जागरूकता फैलाने का कार्य आरंभ किया गया। हर वर्ष इसकी एक थीम होती है। जैसे शहर के लिए जल (1993), हमारे जल संसाधनों की देखभाल करना हर किसी का कार्य है (1994), महिला और जल (1995), प्यासे शहरों के लिए पानी (1996), विश्व का जल : क्या पर्याप्त है (1997), भूमि जल - अदृश्य संसाधन (1998), हर कोई प्रवाह की ओर जी रहा है (1999), 21वीं सदी के लिए पानी (2000), जल और दीर्घकालिक विकास (2015), जल और नौकरियाँ (2016), अपशिष्ट जल (2017), जल के लिए प्रकृति के आधार पर समाधान (2018), किसी को पीछे नहीं छोड़ना (2019), जल और जलवायु परिवर्तन (2020), पानी का महत्व (2021), भूजल : अदृश्य को दृश्यमान बनाना (2022)। और विश्व जल दिवस 2023 की थीम है ‘अक्सेलरेटिंग चेंज’ अर्थात परिवर्तन में तेजी। विश्व जल दिवस सिर्फ एक औपचारिकता भर न रह जाए। इसके लिए हमें हर दिन पानी बचाने के लिए संकल्प लेना होगा और उस पर अटल रहना होगा।
पृथ्वी की 71% सतह जल से आच्छादित है। लेकिन पीने योग्य पानी की मात्रा बहुत ही कम है। आजकल पानी भी बंद बोतल में बिक रहा है। जल संरक्षण आज की जरूरत है। जल संकट की समस्या की ओर अनेक साहित्यकारों ने भी समय-समय पर ध्यान आकृष्ट किया है। एकांत श्रीवास्तव कहते हैं कि ‘जब वह जीवन और समाज के लिए संकट बनकर आती है - कभी भूकंप तो कभी बाढ़ के रूप में - तब आतंकित करती है।’ (पानी भीतर फूल, पृ.62)। ‘बाढ़ के कारण खाने के लाले पड़ गए हैं’ (रामदरश मिश्र, जल टूटता हुआ, पृ.40), ‘यहाँ आती है बाढ़, आती है महामारी, आती है भूख, ..... आती है, ... डॉक्टर क्यों आएगा?’ (रामदरश मिश्र, पानी के प्राचीर, पृ.166)। बाढ़ पूरे गाँव को लील जाता है – ‘बेतवा में जो उफान आया वह न जाने कितने गाँव के गाँव लील गया।’ (वीरेंद्र जैन, डूब, पृ. 204)। बाढ़ का मार्मिक चित्र देखें – ‘रात के पिछले पहर में आंधी की सी हरहराहट गाँव में गरज उठी। आखिर वही हुआ जो होना था। पड़ोसी गाँव के लोगों ने रात को बाँध काट दिया क्योंकि इधर का पानी उधर फैल रहा था। घुर-घुर-घुर-घुर पानी की धारा गहरी में गिर रही है। गड़ही और खेत देखते-देखते एक हो गए। गाँव के चारों ओर छाती भर पानी घहरा उठा। पानी ही पानी। आदिगंत सफेद-सफेद फेन फैल रहा था। राप्ती और गोरा एक हो गए। ह-ह-ह-हास – ह-ह-ह-ह-हास – भेड़िया उछल रही है। तेज पुरवा हुहुकार रही है। ऊपर से पानी बरस रहा है और बाढ़ की ऊँची-ऊँची तरंगें हहास-हहास गरज रही हैं। किसान नदी-नालों को पार कर दूर-दूर के खेतों तक जा रहे हैं और फसलों को उखाड़-उखाड़ कर पशुओं के लिए ला रहे हैं। साँप, पशु, पक्षी और मुर्दे आदमी बहे जा रहे हैं।’ (रामदरश मिश्र, पानी के प्राचीर, पृ.10)। इससे गंदगी फैल जाती है। सब कुछ नष्ट हो जाता है। “खेतों में बाढ़ का हाहाकार तड़पा था, इन्हीं खेतों से होकर कितनी लाशें बही थीं। बाढ़ इन खेतों की फसलें छीन कर इनमें बालू झोंक गई थी, इनके ऊपर तान गई थी रिक्तता का खाली आकाश।’ (रामदरश मिश्र, जल टूटता हुआ, पृ.76)। इतना होने के बावजूद किसान आशा नहीं छोड़ते। ‘खेत बोये जा रहे थे – यह समझते हुए भी कि बाढ़ आएगी, सब डूब जाएगा, फिर भी खेत बोये जा रहे थे। गरीब किसान अपने खेत के अन्न को बेच-बाच गए। बीज खरीद रहे थे – उन खेतों में डालने के लिए जहाँ बाढ़ आएगी, सब कुछ लूट ले जाएगी... फिर भी एक आशा थी, भविष्य के प्रति एक आस्था थी, जो उन्हें बीज बोने के लिए प्रेरित कर रही थी। सदियों से इनकी यह जिजीविषा इन्हें जीवन देती आई है, नहीं तो न जाने कब के खत्म हो गए होते।’ (रामदरश मिश्र, जल टूटता हुआ, पृ.159)। (हिमगिरि के उत्तुंग शिखर पर, बैठ शिला की शीतल छाँह/ एक पुरुष, भीगे नयनों से, देख रहा था प्रलय प्रवाह।/ नीचे जल था ऊपर हिम था, एक तरल था एक सघन,/ एक तत्व की ही प्रधानता, कहो उसे जड़ या चेतन – कामायनी, चिंता सर्ग)। पानी में घिरे हुए लोग किसी से कुछ प्रार्थना नहीं करते बल्कि ‘वे पूरे विश्वास के साथ देखते हैं पानी को/ और एक दिन/ बिना किसी सूचना के/ खच्चर बैल भैंस की पीठ पर/ घर-असबाब लादकर/ चल देते हैं कहीं और।’ (केदारनाथ सिंह, पानी में घिरे हुए लोग)
बाढ़ के कारण चारों ओर पानी ही पानी है लेकिन किसी काम का नहीं। जब अकाल पड़ता है तो भी मानव जीवन तहस-नहस हो जाता है। रांगेय राघव ने बंगाल के अकाल की भीषण त्रासदी को अपनी रिपोर्ताज ‘तूफ़ानों के बीच’ में चित्रित किया है तो रेणु (मैला आँचल), रामधारी सिंह दिवाकर (अकाल संध्या), शिवमूर्ति (आखिरी छलांग), पंकज सुबीर (अकाल के उत्सव), संजीव (फाँस), कमल कुमार (पासवर्ड) आदि अनेक साहित्यकारों ने मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। तेलुगु साहित्य में भी कंदविल्ली साम्बासिव राव (शिक्षा (दंड), पापीकोंडलु,), राजेश्वरी (वरदा – बाढ़), बंडी नारायण स्वामी (शप्तभूमि – श्राप ग्रस्त भूमि) जैसे साहित्यकारों ने इन समस्याओं का मार्मिक चित्र अंकित किया है। सिर्फ उपन्यास, कहानी या रिपोर्ताज ही नहीं बल्कि कविताओं में भी इस समस्या का चित्रण है। हिंदी में केदारनाथ सिंह ने ‘पानी की प्रार्थना’ के माध्यम से पाने के महत्व को रेखांकित किया है तो तेलुगु के प्रसिद्ध कवि एन. गोपि ने ‘जलगीतम’ (जलगीत) के माध्यम से इसका अंकन किया है। संपूर्ण भारतीय साहित्य में बाढ़ और अकाल की समस्याओं को देखा जा सकता है। बिन पानी सब सून।
पानी की समस्या अत्यंत गंभीर समस्या है। सदियों से समाज इससे पीड़ित है। नासिरा शर्मा लिखती हैं – ‘खालिस दूध नहीं मिलता – यह शिकायत तो पुरानी हो चुकी है। नई शिकायत है – खालिस पानी नहीं मिलता है, देखने को। पानी तो दूर, खालिस शब्द की तरह खालिस पानी को भी लोग बोतल में बंद रखेंगे, ताकि उसकी एक दो बूँद सूखे के समय चाटकर अमृत का स्वाद ले सकें। ऐसा दौर जल्दी ही आने वाला है, जब हीरे के मोल पानी मिलेगा और पूँजीपति उसको अपनी तिजोरी में बंद करके रखेंगे, तब डकैतियाँ पानी की बोतल के लिए पड़ेंगी। बैंक के लॉकर टूटे मिलेंगे, केवल खालिस पानी के लिए जिसकी कीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में करोड़ों में होगी। यह फैंटसी नहीं, बल्कि आने वाले समय में पानी की दुर्बलता की पूर्व घोषणा है। यह मजाक नहीं बल्कि पानी के बढ़ते महत्व का सच है। यह अतिशयोक्ति नहीं, बल्कि भविष्य का यथार्थ है’। (कुइयाँजान, पृ. 271)। यह हमारा कर्तव्य है कि इस अनमोल वस्तु को सुरक्षित रखें और धरा का संरक्षण करें।
प्रिय पाठको! पानी की गुहार सुन लीजिए-
मेरा मूल्य जानो! मेरी कीमत समझो
मुझे प्रदूषित करते
फिर शुद्ध करते
फिर शुद्ध करते, मुझे
दुकान का सौदा मत बनाओ
पहले अपने हृदयों को
शुद्ध करो।'' (एन. गोपि, जलगीतम, पृ. 103)