मानवेतर और मानव भाषा के बीच निहित भेद स्पष्ट करने की प्रक्रिया के कारण भाषा के लक्षण सामने आए। यहाँ भाषा के कुछ प्रमुख लक्षणों पर विचार किया जाएगा। यह पहले भी संकेत किया गया है कि मनुष्य ध्वनियों और प्रतीकों के माध्यम से भावों और विचारों को प्रकट करते हैं। भावाभिव्यक्ति के समस्त साधन भाषा के व्यापक अर्थ में सम्मिलित हो जाते हैं। भाषा के व्यापक अर्थ की सीमाएँ अत्यंत विस्तृत हैं। वस्तुतः व्यापक अर्थ उसकी सीमाओं को संकेतों से लेकर मूक भावाभिव्यक्तियों तक पहुँचा देता है तथा जिसके अंतर्गत केवल मानवीय भाषा ही नहीं अपितु पशु-पक्षियों के निरर्थक समझे जाने वाले स्वर भी सम्मिलित हो जाते हैं। लेकिन भाषाविज्ञान के अनुसार भाषा का आशय सिर्फ और सिर्फ मानव भाषा है. मानव भाषा के लक्षणों को ही भाषाविज्ञान मान्यता देती है. भाषाविज्ञान ने यह स्पष्ट कर दिया कि भाषा की संरचना हमेशा नियमबद्ध होती है. सस्यूर, जॉन लयोंस और चार्ल्स हॉकेट आदि ने भाषा के कुछ लक्षण निर्धारित किए. कुछ प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं –
अभिव्यक्ति की क्षमता : अभिव्यक्ति वक्ता और श्रोता तथा लेखक और पाठक के बीच संबंध स्थापित करता है. इसे संप्रेषण क्रिया (कम्यूनिकेशन एक्ट) कहा जा सकता है. इससे सामाजिक संबंधों को स्थापित किया जा सकता है.
अर्जित व्यवहार : व्यवहार दो प्रकार का होते हैं – प्राकृतिक व्यवहार और अर्जित व्यवहार. प्राकृतिक व्यवहार वह है जो अनायास ही सीखा जा सकता है. अर्थात खाना, पीना, हँसना, रोना, चिल्लाना, चीखना, बैठना आदि. यह व्यवहार सभी प्राणियों में समान होते हैं. इसके विपरीत कुछ व्यवहार परिश्रमपूर्वक अर्जित किए जाते हैं. भाषा अर्जित व्यवहार है. इसे व्यवस्थित ढंग से सीखना पड़ता है. मातृभाषा अर्जन अनुकरण के माध्यम से अनायास ही हो जाता. द्वितीय भाषा और विदेशी भाषा को सायास रूप से सीखना पड़ता है.
अनुकरणशीलता : यह पहले भी संकेत किया जा चुका है कि भाषा अर्जित व्यवहार है. मनुष्य भाषा को पैतृक संपत्ति के रूप में प्राप्त नहीं कर सकता. जिस परिवार में वह जन्म लेता है वहीं से भाषा को अर्जित करता है. मनुष्य अनुकरण के माध्यम से ही भाषा सीखता है.
सामाजिक व्यवहार : भाषा अर्जित व्यवहार होने का अर्थ है कि उसका संबंध समाज से है. समाज में रहकर ही इसे सीखा जा सकता है और समाज में ही इसका प्रयोग किया जाता है. वस्तुतः भाषा सामाजीकरण का सबसे महत्वपूर्ण घटक है. भाषा को सामाजिक संस्था भी कहा जाता है. वह इसलिए कि भाषा का निर्माण नहीं होता बल्कि विकास होता है.
परिवर्तनशीलता : भाषा की संरचना ऐसी होती है कि उसमें परिवर्तन आवश्यक होता है. परिवर्तन जीवंतता का परिचायक होता है. हिंदी भाषा को ही देखें तो उसके विकास क्रम में संस्कृत, पालि, प्राकृत, अपभ्रंश और हिंदी का क्रम दिखाई देता है. हिंदी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से माना जाता है. क्रमशः परिवर्तित होते हुए हिंदी का वह रूप आज समाने है जिसे हिंदी का आधुनिक रूप कहते हैं. हिंदी के संबंध में इस परिवर्तन को गृह > घर; चंद्र > चाँद आदि में देखा जा सकता है. ऐसे परिवर्तन को प्रायः ध्वनि परिवर्तन कहा जाता है. इसी प्रकार विदेशी भाषाओं के कारण हिंदी ध्वनियों का विकास हुआ. जैसे – ऑ, ग़, ज़, फ़ आदि ध्वनियाँ अंग्रेजी और उर्दू के शब्दों को ग्रहण करके हिंदी में लाया गया है. संस्कृत में तीन वचन और लिंग हैं तो हिंदी में दो. इसी प्रकार शब्द के स्तर पर भी भाषा परिवर्तित होती है. जैसे हिंदी में अनके विदेशी शब्द ग्रहण कर लिए गए. समय के साथ-साथ भाषा में नए-नए शब्द आते रहते हैं. जैसे – छटाक, पाव, सेर आदि के स्थान पर ग्राम तथा किलोग्राम आ गए. अर्थात समय के साथ-साथ परिवर्तन करना पड़ता है. जिस भाषा में परिवर्तन के जितने स्तर होते हैं वह भाषा उतना ही विकास करती है. अतः आधुनिक भाषाविज्ञान में परिवर्तन को भाषा का मुख्य लक्षण माना गया है.
मानकता : प्रत्येक भाषा का एक मानक रूप होता है. इसका प्रयोग औपचारिक वार्तालाप और लिखित अभिव्यक्ति के लिए किया जाता है. इन दोनों स्थितियों में भाषा प्रयोक्ता भाषा के मानक रूप का यथासंभव प्रयोग करने का प्रयास करता है. मानक भाषा रूप को शिक्षा में, कामकाज में अपनाया जाता है. हिंदी के संबंध में कहें तो इसके अनके रूप समाज में प्रचलित हैं लेकिन उसके मानक रूप खड़ीबोली को ही शिक्षा के स्तर पर स्वीकार किया जाता है. भाषा के मानक रूप को विकसित करने की प्रक्रिया को मानकीकरण कहा जाता है. यह एक सामाजिक प्रक्रिया है क्योंकि समाज ही यह निश्चित करता है कि मानक भाषा की आवश्यकता है या नहीं. यह पूरी तरह से समाज केंद्रित संकल्पना है.
पॉल गार्विन (1959) ने अपने आलेख ‘A Conceptual Framework for the study of the language standardization’ में यह प्रतिपादित किया है कि ‘किसी भी भाषा समुदाय के सदस्यों के लिए भाषा राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक है.’ मानक भाषा के बारे में स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा कि ‘Standard Language is a codified variety of language that serves the multiple and complex communicative needs of a speech community that has either achieved modernization or has the desire of achieving it.’ उन्होंने इस बात पर बल दिया कि मानक भाषा के लिए सतत लचीलापन (constant flexibility) और बौद्धीकरण (intellectualization) के गुण होने चाहिए.
फर्ग्यूसन (1962) ने मानकीकरण तथा लेखन के दो आयामों के आधार पर मानक भाषाओं के विकास को स्पष्ट करने का प्रयास किया है. उन्होंने लेखन के तीन बिंदु बनाए (0, 1, 2) और मानकीकरण के चार बिंदु (0, 1, 2, 3).
मानकीकरण की प्रक्रिया को दो स्तरों पर समझा जा सकता है –
यादृच्छिकता : इसका अर्थ है ‘इच्छानुसार’. भाषा में यादृच्छिकता हर स्तर पर पाई जाती है. यह समाज द्वारा स्वीकार्य लक्षण है. यदि ऐसा नहीं होता तो प्रायः संसार की सभी भाषाओं में एक वस्तु के लिए एक ही शब्द होता है. कहने का आशय है, ‘पानी’ के लिए सभी भाषाएँ ‘पानी’ का ही प्रयोग करतीं. जबकि ऐसा नहीं है. ‘पानी’ के लिए अंग्रजी में ‘वाटर’, तेलुगु में ‘नीरु’, तमिल में ‘तन्नीर’, मलयालम में ‘वेल्लम’, रूसी में ‘वदा’ आदि का प्रयोग किया जाता है. विभिन्न भाषाओं में सभी शब्दों में यादृच्छिकता द्रष्टव्य है. आधुनिक भाषाविज्ञान के जनक सस्यूर ने यादृच्छिकता सिद्धांत का प्रतिपादन किया और कहा कि, “The link between signal and signification is arbitrary. The term arbitrary implies that the signal is unmotivated; that is to say arbitrary in relation to its signification, with which it has no natural connection in reality (de Saussure, 1983).” रवींद्रनाथ श्रावास्त्व (1997 : 58) कहते हैं कि यादृच्छिकता के कारण एक शब्द के लिए भिन्न भिन्न भाषाओं में अलग अलग शब्द पाए जाते हैं. एक भाषा में भी एक शब्द के लिए अनेक पारिभाषिक शब्द पाए जाते हैं.
संरचना द्वैतता : अपनी पुस्तक ‘द स्टडी ऑफ लैंग्वेज’ में जॉर्ज यूल ने कहा कि “Duality is a property of language whereby linguistic forms have two simultaneous levels of sound production and meaning; also called ‘double articulation’.” (George Yule, 2010). भाषा की प्रत्येक इकाई द्विपक्षीय होती है. एक ओर जहाँ इनका निर्माण कुछ निश्चित ध्वनियों के माध्यम से होता है वहीं दूसरी ओर ये इकाइयाँ कुछ विशिष्ट अर्थ प्रकट करती हैं.
सृजनात्मकता : मानव भाषा और मानवेतर भाषा को अलगाने की दृष्टि से चॉमस्की ने सृजनात्मकता को आधार बनाया. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि वक्ता आवश्यकतानुसार भाषा में नए शब्द और वाक्यों का सृजन करता है.
लचीलापन : लचीलेपन को भाषा की जीवंतता का कारण तथा उसकी शक्ति माना जा सकता है.