गुरुवार, 23 मई 2024

सच्चा मनुष्य वही है जो समर्पित करे आत्मा को : सुब्रह्मण्य भारती


 राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्य भारती का स्थान भारतीय साहित्य में अप्रतिम और अग्रणी है। भारती न सिर्फ तमिल साहित्य की आधुनिक काव्यधारा के अग्रदूत थे, बल्कि 20 वीं सदी में भारतीय जीवन और साहित्य में जो पुनर्जागरण की लहर उभरी, उसमें वे राष्ट्रीय चेतना के अमर गायक के रूप में उभरे। उनके संपूर्ण साहित्य का मूल स्वर जनजागृति और राष्ट्रीय चेतना है। भारतेंदु हरिश्चंद्र, वीरेशलिंगम पंतुलु, रवींद्रनाथ ठाकुर, पी. बी. शेली जैसे अनेक युगांतरकारी साहित्यकारों से भारती की तुलना की जा सकती है।     

सुब्रह्मण्य भारती का जन्म 11 दिसंबर, 1882 को तिरुनलवेली जिले के एट्टयपुरम में हुआ था। साहित्यकारों और कलाकारों को वहाँ के राजा आश्रय देते थे। भारती के पिता चिन्नस्वामी अय्यर इसी दरबार में साहित्यकार के रूप में सम्मान पाते थे। अतः सुब्रह्मण्य भी राजदरबार में जाते थे। अपनी माता लक्ष्मी अम्माल से उन्होंने स्त्रियों का सम्मान करना सीखा तथा पिता से राष्ट्रप्रेम। बचपन में सब उन्हें प्यार से सुब्बय्या कहकर पुकारते थे। 

सुब्बय्या की आरंभिक शिक्षा-दीक्षा तमिलनाडु में हुई। पिताजी के आदेश पर अंग्रेजी की उच्च शिक्षा पाने के लिए तिरुनलवेली गए, लेकिन उन्होंने अंग्रेजी का अध्ययन कभी भी मन लगाकर नहीं किया। हाँ, पिताजी की आज्ञा का पालन करके अंग्रेजी सीख ज़रूर ली थी। इसके संबंध में उनका कहना है कि ‘मेरे पिता ने आदेश दिया कि में नेल्लई में विदेशी ज्ञान प्राप्त करूँ। यह वैसा ही था जैसे किसी शेर के बच्चे को घास दी जा रहे हो।’ (नंदकुमार प्रेम, सुब्रह्मण्य भारती, पृ.6)। बाद में उच्च शिक्षा के लिए वे वाराणसी गए। स्कूल की नियमित शिक्षा में कभी भी उनका मन नहीं रमा। अधिकतर वे खेलकूद में ही समय व्यतीत करते थे। 1901 तक वाराणसी प्रवास के बाद वे पुनः तमिलनाडु वापस आए। 1908 में पांडिचेरी गए। उस समय वहाँ फ्रांसीसियों का राज्य था। उस प्रवास के दौरान भारती के जीवन में अनेक क्रांतिकारी घटनाएँ घटीं। उस समय भारती ने ‘जयम उनदु’ (विजय तुम्हारी) शीर्षक कविता की रचना की - ‘भयभीत मत हो, मन, विजय निश्चित है/ स्वतंत्रता हमारी है, इसी क्षण से, यहीं से,/ मेरे हृदय में शक्तिशाली माँ का निवास है/ भक्ति के वृक्ष में अमृतफल लगेंगे।/ हमारे कंधे, पहाड़ से ऊँचे हैं/ वे ढोते हैं माँ के सुनहले चरण/ आवेग, कर्म और विचार/ सब उसी के हैं/ यहाँ धर्म भी है और शक्ति भी।’  

बाल्यावस्था में ही अर्थात 5 वर्ष की उम्र में ही सुब्बय्या को माता से बिछड़ना पड़ा। यह क्षति अपूरणीय थी। अतः वे ज्यादातर एकांत में ही समय बिताते थे। परिणामस्वरूप वे प्रकृति के निकट हुए। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके बाल मन पर पड़ा। उनकी रचनाओं में प्रकृति अनेक रूपों में विद्यमान है। प्रकृति के बहाने वे मानव मन की प्रशंसा करते हुए कहते हैं - 'चाँदनी, तारे और हवा को/ अपने सामने रख कर, हम/ पीते हैं उनका मधु/ और जकड़ लेता है हमें/ एक काव्यात्मक उन्माद। / वह आणविक वस्तु जो मन है/ हम उसे छोड़ देंगे मुक्त विचरने के लिए।/ किसी स्वादिष्ट फल में बंदी मधुमक्खी/ गाती है तो/ किसी को अचरज क्यों?/ मन तू अभी चला जा/ तारों के मुक्ता-झुंड में शामिल होने के लिए।’     

एट्टयपुरम के महाराज ने भारती को अपने राज दरबार में स्थान दिया था। एक दिन एट्टयपुरम के राज दरबार में उपस्थित विद्वानों को चुनौती देने वाले शत्रु देश के दरबारी की चुनौती सुब्बय्या ने स्वीकार की। उन्होंने अपनी शैली में भाषण दिया जो विनोद से भरा हुआ था। सुब्बय्या की बुद्धिमत्ता को देखकर एट्टयपुरम के राजा ने उन्हें ‘भारती’ की उपाधि दी। ‘भारती’ अर्थात ज्ञान की देवी - माँ सरस्वती। इस घटना के बाद वे ‘भारती’ बने। आज इसी नाम से ही उनकी चर्चा होती है। 

सुब्बय्या का विवाह चेलम्माल के साथ बचपन में ही संपन्न हुआ। भले ही उस समय उन्होंने पिता के आदेश से बाल विवाह किया, पर वे इस तरह के विवाह को प्रोत्साहित नहीं करते। अपनी आत्मकथा में उन्होंने यह लिखा कि जब उनका ज्ञान विकसित हुआ तब उन्होंने यह महसूस किया कि उनके दो स्वामी थे। एक प्यार और दूसरा कर्तव्य। इन दोनों के बीच के संघर्ष के कारण भारती के रचनात्मक लेखन और पारिवारिक जिम्मेदारियों के बीच संघर्ष होना स्वाभाविक था। लेकिन उन्होंने इन स्थितियों पर भी विजय पा ली। 

किशोरावस्था मैं, 14वें वर्ष में पदार्पण करते ही भारती के सिर से पिता की छाया भी उठ गई। अभावों की जिंदगी जीने के लिए वे अभिशप्त हुए। इसका उल्लेख उन्होंने अपनी कविता ‘धन की महिमा’ में किया है। पिता की मृत्यु के बाद भारती अपने चाचा-चाची के पास बनारस चले गए। बनारस प्रवास के समय वे अंग्रेजी कविता के प्रति खूब आकर्षित हुए। इसके सहारे वे काव्य संबंधी परंपरागत दृष्टिकोण और उसकी सीमाओं को समझ सके। इसके साथ ही वे उन्होंने परंपरागत सीमाओं को तोड़कर नए क्षितिज की तलाश की। वे तमिल काव्य को भारी भरकम शब्दावली से मुक्त करना चाहते थे। अतः उन्होंने इस परंपरागत काव्य रूढ़ि को तोड़ा। भारती ने शेक्सपीयर, बायरन, शेली और कीट्स का गहरा अध्ययन किया था। शेली से अत्यंत प्रभावित भारती ‘शेल्लीदासन’ (शेली का दास) उपनाम से लिखने लगे।    

बचपन से ही भारती स्त्रियों का आदर व सम्मान करते थे। एक राजनैतिक समारोह में सिस्टर निवेदिता ने जब भारती से पूछा कि वे अपनी पत्नी को क्यों साथ में नहीं लाए तो उन्होंने जवाब दिया कि उनके परिवार में पत्नियों को सार्वजनिक स्थलों में ले जाने की परंपरा नहीं है। इस बात पर सिस्टर निवेदिता ने कहा, ‘समाज का आधा वर्ग यदि शेष आधे वर्ग को गुलाम बनाए रखता है, तो वह कैसे स्वतंत्रता प्राप्त कर सकता है!’ इन बातों से प्रभावित भारती उनकी स्मृति में लिखते हैं कि ‘माता निवेदिता!/ तू एक मंदिर है प्यार का/ सूर्य है, जो मेरी आत्मा के/ अंधकार को नष्ट करता है-/ तू वर्षा है/ हमारे जीवन की सूखी धरती के लिए/ तू भटके और निराश लोगों की/ मददगार है/ महानता के प्रति समर्पित/ तू दिव्य सत्य की चिनगारी है/ तुझे मेरा नमन।’ उन्होंने ‘स्वदेश गीतंगल’ (स्वदेश के गीत, 1907) तथा ‘जन्मभूमि’ (1909) काव्य संग्रहों को सिस्टर निवेदिता को समर्पित किया। ‘स्वदेश गीतंगल’ (स्वदेश के गीत) में कुल 14 गीत संग्रहीत हैं। प्राक्कथन में कवि ने यह स्पष्ट किया कि ये पुष्प उस भारतमाता के चरणों में समर्पित हैं जो शक्ति और एकता के प्रतीक हैं। ‘जन्मभूमि’ के प्राक्कथन में भी उन्होंने इसी बात कि पुष्टि की कि माता के चरणों में समर्पित करने के लिए कुछ और फूल लाए हैं।       

भारती के मन में बचपन से ही देश के प्रति अपार प्रेम विद्यमान था। इसी कारण उनकी अधिकांश कविताओं में देशभक्ति की भावना को देखा जा सकता है। गांधी जी से मिलने से पहले तक भारती उग्र और सशस्त्र क्रांति की भावनाओं से ओत-प्रोत थे। परंतु गांधी के सत्याग्रह और अहिंसा के संदेश से उग्र-पंथी भारती पराजित हो गए। महात्मा गांधी को संबोधित एक कविता में उन्होंने लिखा- 'स्वतंत्रता की उस धार्मिक राह के वास्तविक मूल्य/ का अनुभव करके/ (जिसे महान उपदेशकों और त्यागियों ने दिखाया था)/ तुमने युद्ध और हत्या के तरीके को खत्म किया/ सत्याग्रह के नए रास्ते के अनुकूल परिणामों का आभास/ तुम्हें हुआ था/ हम भूल जाएँ अब तक के सारे अत्याचार/ और धरती पर सूर्योदय हो न्याय के जीवन का।’

भारती के ‘वन्देमातरम्’ और ‘जयभारत’ उन मंत्रों के समान हैं जिन्हें जंजीरों में जकड़े वीर सैनिको ने अपनी पूरी शक्ति के साथ गाया था - 'नमन तुम्हें हम करते माता/ विजयी माता।/ नमन तुम्हें .../ मन से पीड़ित/ तन से जर्जर/ चिल्लाते हैं देशभक्त/ अब भी मन की गहराई से/ नमन तुम्हें करते माता।/ विजय हमारी हो, हम/ हारें या मर जाएँ/ खड़े एकजुट हम सस्वर/ आवाज उठाते, गाते/ नमन तुम्हें हम करते माता।’ (वन्देमातरम्)। बंकिमचंद्र चटर्जी ने ‘आनंदमठ’ उपन्यास में भारतमाता की प्रार्थना जोड़ दी थी जिसकी पहली पंक्ति थी ‘वन्देमातारम्’। यह बंगाल विभाजन के विरुद्ध होने वाले आंदोलन के दौरान बहुत लोकप्रिय हुई थी। भारती ने तमिलवासियों के मन में बलिदान के सहारे देशभक्ति को जगाकर मन-मंदिर में उस प्रतिमा को प्रतिष्ठित करने का दायित्व लिया और देशभक्ति के गीत रच डाले। 

भारत विविधताओं का देश है। फिर भी यहाँ के निवासी एक तत्व से जुड़े हुए हैं और वह है ‘भारतीयता’। ‘विभिन्नता में एकता’ को भारती ने इस प्रकार दर्शाया है - ‘उसका हृदय एक है/ लेकिन चेहरे तीस करोड़/ उसका मस्तिष्क एक है/ लेकिन बोलती है अठारह भाषाएँ।’ भारती बार-बार इस बात पर बल देते हैं कि मनुष्य बनने के लिए सिर्फ ज्ञान काफी नहीं है। सच्चा मनुष्य वही है जो अपनी आत्मा को देश के लिए समर्पित कर देता है।