गुरुवार, 30 अप्रैल 2009

सांप्रदायिकता की आग में प्रेम : ‘मैं बोरिशाइल्ला’




सांप्रदायिकता की आग में प्रेम : ‘मैं बोरिशाइल्ला’
    

  ''क्या यह लड़ाई वाकई धर्म की लड़ाई है? क्या यह उन्माद सिर्फ धर्म के लिए है? यदि ऐसा होता तो धर्म के नाम पर भारत से अलग होने के बाद पाकिस्तान के दोनों हिस्सों में अवश्य ही गहरा रिश्ता होता. प्यार का रिश्ता होता. दोनों हिस्सों के सामान धर्मी भाइयों के बीच इतिहास का यह क्रूर अध्याय न लिखा गया होता! तो क्या धर्म से अधिक महत्वपूर्ण कुछ और तत्व हैं जो धर्म के साथ शामिल हैं या धर्म उनमें शामिल है?क्या है वह तत्व? ''

- ये सवाल महुआ माजी (1964) ने अपने उपन्यास ‘मैं बोरिशाइल्ला’ में बड़ी तीव्रता से उठाए हैं. लेखिका ने बांगला देश के बहाने उत्तर की और भी संकेत किया है कि ''यह तो हम सबने देखा कि पूर्वी पाकिस्तानियों के लिए धर्म से अधिक महत्वपूर्ण संस्कृति रही.----और पश्चिमी पाकिस्तानियों के लिए? उनके लिए निश्चय ही धर्म से अधिक महत्वपूर्ण सत्ता रही.''

- वस्तुतः बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान पाकिस्तानी सैनिकों तथा उर्दू भाषी नागरिकों द्वारा बांग्लाभाषियों पर किए गए जुल्मों का प्रामाणिक दस्तावेज है यह उपन्यास |
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       ‘मैं बोरिशाइल्ला’ शीर्षक सबका ध्यान आकृष्ट करता है। उपन्यास के नामकरण एवं उसके औचित्य को रेखांकित करते हुए स्वयं लेखिका कहती हैं कि ‘‘जिस तरह बिहार के लोगों को बिहारी तथा भारत के लोगों को भारतीय कहा जाता है, उसी प्रकार बोरिशाल के लोगों को वहाँ की आंचलिक भाषा में बोरिशाइल्ला कहा
जाता है। उपन्यास का मुख्य पात्र केष्टो बोरिशाल का है। इसलिए वह कह ही सकता है - ‘मैं बोरिशाइल्ला’।’’ (भूमिका)

 बांग्लादेश की सांस्कृतिक जगह बोरिशाल में रहनेवाले केष्टो के इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। केष्टो के माध्यम से लेखिका ने आग की विभीषिका का ज्वलंत एवं हृदय विदारक चित्र उकेरा है। इस उपन्यास में पूर्वी पाकिस्तान के मुक्ति संग्राम और बांग्लादेश के अभ्युदय की कहानी के साथ-साथ उन तमाम परिस्थितियों का जीता-जागता अंकन है जो सांप्रदायिकता के आधार पर भारत विभाजन के सहायक घटक बने। इतना ही नहीं, भाषाई तथा भौगोलिक आधार पर जिस तरह पाकिस्तान टूटकर बांग्लादेश बना उसका भी विचलित करने वाला चित्र अंकित है।

 भारत की आजादी बड़ी विपत्ति अर्थात् पाकिस्तान (पश्चिमी और पूर्वी) के रूप में देश के विभाजन के साथ आई। विभाजन आज भी मौन पीड़ा बना हुआ है जिसके परिणाम हमारे सामूहिक अवचेतन में मौजूद हैं। भारत में राजनीतिक विषमता जरूर है लेकिन हमारी संस्कृति मिश्रित परंपराओं से ओत-प्रोत है। सांप्रदायिक राजनीति को तो विभाजन के तले दब जाना चाहिए था, लेकिन उसने भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में और भी अधिक खतरनाक रूप धारण कर लिया है।

भारत-पाक युद्ध के बाद पूर्वी बंगाल अर्थात् मुस्लिम बहुल बांग्लादेश पश्चिमी पाकिस्तान से अलग होकर अस्तित्व में आया। विभाजन के बाद भी त्रासदी का अंत नहीं हुआ बल्कि आज भी अपने सभी भयंकर रूपों में सांप्रदायिक हिंसा बराबर बढ़ रही है। इस उपन्यास का एक हिस्सा बांग्ला मुक्ति संग्राम के दौरान हुई लूट-खसोट, नृशंस हत्या, बलात्कार आदि की दास्तान बयान करता है - ‘‘अपनी बातों पर सरल मन से विश्वास करके उस इलाके के सभी दो-ढाई हज़ार हिंदुओं ने उन गोदामों में शरण ली। परंतु रक्षक के भेष में वे भक्षक निकले। किसी महफ़ूज़ स्थान पर पहुँचा आने के बहाने अलग-अलग समूहों को गोदामों से निकालकर ये ले जाते और काट-काटकर पानी में फेंक देते। नदी में पानी के बदले खून बहने लगा था युवतियों का यौन शोषण करने के बाद कत्ल किया जाता था।’’ (पृ. 85)

 ‘परोपकारा  इदम् शरीरम्’ यही है भारतीय संस्कृति। मानवता के आधार पर भारतीय सेना द्वारा पहुँचाई गई मदद, भारतीय सीमा क्षेत्र में बनाए गए प्रशिक्षण शिविरों तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार द्वारा निभाई गई भूमिका का ज़िक्र भी लेखिका ने किया है। समय तथा समाज की विसंगतियों को अपने में समेटे यह एक ऐसी बहुआयामी कृति है जिसमें एक ओर सांप्रदायिक विभीषिका का विकराल रूप तांडव कर रहा है तो दूसरी ओर पे्रम की अंतःसलिला भी प्रवाहित है.
       
केष्टो का घर आग में झुलस जाता है जिस के कारण उसे अपने परिवार के साथ बोरिशाल छोड़कर देशेड़-बाड़ी शोनारामपुर जाना पड़ता है। एक साल बाद फिर वह अपने गाँव बोरिशाल वापस आ जाता है। बंगाल विभाजन के समय वह घर से भागकर कलकत्ता पहुँचता है फिर आजीविका की तलाश में दिल्ली और अंततः मंुबई पहुँचता है। वहाँ पर एक बेकारी में नौकरी प्राप्त करता है और अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए जी-तोड़ मेहनत करता है। इसी दौरान उसकी मुलाकात कारखाने के चीफ मिस्त्री की बेटी सोनी से होती है और वह जी-जान से उसे चाहने लगता है। मगर सोनी का रिश्ता किसी और से तय होने के कारण उसे मायूस होना पड़ता है। हताश केष्टो वापस अपने परिवार के पास पहुँचता है। बहन खुकी की शादी में उसकी मुलाकत शोपना से होती है और फिर एक बार उसके दिल में उमंग जागती है। शोपना के घर-परिवार वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं होते। अतः वह अपने आपको साबित करने के लिए व्यायाम की प्रतियोगिताओं में भाग लेता है और ‘मिस्टर पाकिस्तान’ का टाइटिल जीतकर शोपना के पास रिश्ता लेकर जाता है। लेकिन इस बार भी उसे हताश होना पड़ा। एक ओर सांप्रदायिक दंगों की आग विकराल रूप धारण कर रही थी तो दूसरी ओर निराशा और हताशा। बचपन से लेकर आजीवन उसे इसी आग की विभीषिका में झुलसना पड़ा। बचपन में आग के कारण केष्टो का घर जला और बाद में लोगों की इंसानियत जल कर राख हो गई। इतना कुछ सहने के बाद भी उसे जीवन में कुछ भी नहीं मिला।

भाषा की दृष्टि से भी यह उपन्यास सराहनीय है। बांग्लादेश की महक को बनाए रखने के लिए लेखिका ने बांग्ला शब्दों तथा नामों को बंगाली उच्चारण के अनुरूप ही लिखा है। जैसे : -गॉरोम - गॉरोम रॉशोगोल्ला बनाइसी! कॉयडा खाइबेन कॉन छोटो कॉत्ता (गरमगरम रसगुल्ले बनाया हूँ। कितना खाइएगा बोलिए छोटे मालिक! पृ. 11)/  -चाचा! आपोन प्राण बाँचा। (चाचा अपना प्राण बचाओ ; पृ. 89) / -आ रे  आजोगोर आशछे तेड़े/ आमटि आमि खाबो पेडे  / इन्दूर छाना भॉये मॉरेल पाखी पाछे धॉरे ....’’ (अ रे अजगर धावा बोलने आ रहा है/ इस आम को तोड़कर खाऊँगा मैं/ चूहे का बच्चा उर से मरता है कि/ ईगल पक्षी कहीं उसे पकड़ न ले ... ; पृ. 16)/  -कॉमरेड शोन् बिगुल ओइ हांकछे रे/ कारार ओइ लौहो कॉपाट भंगे फैल/ कोरबे लोपाट/ मोदेर  गॉरोब/ मोदेर आशा/आ मोरी बांग्ला भाषा .... (कॉमरेड सुनो - बिगुल बज रहा है/ कारागार के उस लौह कपाट को तोड़ डालो/ नहीं तो वे हमारी बांग्ला भाषा को/जो हमारी गर्व है, हमारी आशा है, मिटाकर रख देंगे। पृ. 120)/ -लॉलापाता, घेरा जानाला माझारे एकटि मोधुर मुख/प्रोतिदिन जाई सेई पॉय दिया/देखि सेई मुख खानि कुसुम माझारे रोयेछे फुटिया/कुसुमगुलिर रानी ... (लता पत्तों से घिरी खिड़की के बीच एक मधुर चेहरा/प्रतिदिन उस पथ से गुज़रता हूँ/और देखता हूँ उस चेहरे को जो फूलों के बीच मानो/ फूलों की रानी बनकर खिली रहती है। (पृ.123)

इस प्रकार इस उपन्यास में ज़मीन से जुड़ी हुई भाषा, स्थानीय परिवेश, घटनाओं के जीवंत और मार्मिक चित्रण के  साथ-साथ बांग्ला देश की संस्कृति का बिंब भी अंकित है। सांप्रदायिकता जैसे एक गंभीर मुद्दे का यथार्थ चित्रण करनेवाला यह उपन्यास रोचक और पठनीय है।



मैं बोरिशाइल्ला / महुआ माजी / राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली / २००६ / 150
रु. / 400 पृष्ठ (पेपरबैक)

- डॉ. जी. नीरजा
सह-संपादक, स्रवंति
द.भा.हिंदी प्रचार सभा-आंध्र
खैरताबाद, हैदराबाद-500 004
मो . : 09849986346

रविवार, 26 अप्रैल 2009

HOPE WILL BLUSH 2 RIPE

The garden is so beautiful with
blushing blooms that scent the air;
Yet, since my mate is not with me
it seems a desert burning bare.

Both joy and sorrow are like birds
that go about in every weather.
Both light and shadow, love n seperation
always go together.

You told me in Love's garden, you
would sing and gambol with me only,
But now your vow to me, somehow,
Is broken, you have left me lonely.

I wept n wept and had not slept,
Each night I waited for the morrow-
Were you so deaf that all this while
You could not hear my voice of sorrow?

Can we forget our childhood's debt
To blossoming boughs that swayed above
When you and I beneath one sky
were nourished on rare songs of Love.

Your golden form, so cool so warm
Casts magic shadows as you pass.
I watch you come, I watch you go
As though inside a mirrored glass.

Each happy day is like a flower,
Each mournful day is like a thorn;
To share each other's joys and woes
surely,Beloved! We're born.

Who faces storms with courage
He who enters bravely in the strife;
Yea! He alone can call his own
the final victory of Life.

Our Human Life is colourful
Resembling colourful butterflies
We wold have seen several hues
Within our hearts if we had eyes.

The fruit is ripe on boughs
My hope is yet unripe n sighs in sorrow.
But then I hope my hope will blush to ripe-
if not today, tomorrow!

Memorable 9 Days !

Bright Sunny Skies Smiled,
We all were happy and gay.
Our time is so short,
Only one fleeting day.
But how we enjoyed the "BIG BOSS" Show
All these '9' memorable days.
The freedom,the friendship,
the laughter,the thrills.
The moments are golden
Though Swift is their Flight.

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

SONG OF FREEDOM

Little rosy clouds
hung high in the clear sky,
Seeming to melt in the azure depths
as they floated slowly.
The moon doth soar o'er vales of weeping willows,
Thru' clouds she gleams
And from on high she rules the briny billows
With her beautiful magic beams.
Thou art,the moon stirs my soul's tide
Its boundless sea-
Which ebbs and flows with grief and joy
Where shoals bide,in tune with thee...
The countless waves of the sea,
The exuberance of ailess winds,
Echos the song of freedom...
That makes my heart to fleet...

बांग्लादेश के अभ्युदय की महागाथा : ‘मैं बोरिशाइल्ला’ : (परिवर्धित)





बांग्लादेश के अभ्युदय की महागाथा  : 'मैं बोरिशाइल्ला'
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       महुआ माजी उन उँगलियों पर गिने जा सकने वाले साहित्यकारों में शामिल हैं
जिन्हें अत्यंत अल्प समय में व्यापक जन स्वीकृति, लोकप्रियता और ख्याति
प्राप्त हो जाती है। बांग्लादेश के अभ्युदय की महागाथा के रूप में
प्रस्तुत अपने उपन्यास द्वारा उन्होंने हिंदी पाठकों का दिल जीत लिया है।
ऐसा होता भी क्यों न, आखिर उन्होंने यह उपन्यास अपने कई वर्ष के शोध के
उपरांत लेखबद्ध किया है। उन्होंने कई वर्ष तक इस तरह तथ्यों का संकलन और
घटनाओं का संबंध निर्धारण किया कि पूरी तरह बांग्लामय हो उठीं। बचपन से
दादी, नारी और माँ की आँखों में तैरते बंग भूमि के दृश्य बिम्बों का
शब्दों में पिरोकर उन्होंने जिस त्रासदी को उपन्यास का रूप प्रदान किया
है, उसकी संज्ञा है 'मैं बोरिशाइल्ला'। स्मरणीय है कि महुआ माजी (1964)
का यह उपन्यास कथा यू.के. [लन्दन] सम्मान से नवाज़ा  जा चुका है।


       'मैं बोरिशाइल्ला' शीर्षक सबका ध्यान आकृष्ट करता है। उपन्यास के नामकरण
एवं उसके औचित्य को रेखांकित करते हुए स्वयं लेखिका कहती हैं कि ''जिस
तरह बिहार के लोगों को बिहारी तथा भारत के लोगों को भारतीय कहा जाता है,
उसी प्रकार बोरिशाल के लोगों को वहाँ की आंचलिक भाषा में बोरिशाइल्ला कहा
जाता है। उपन्यास का मुख्य पात्र केष्टो बोरिशाल का है। इसलिए वह कह ही
सकता है - 'मैं बोरिशाइल्ला'।'' (भूमिका)


       बांग्लादेश की सांस्कृतिक जगह बोरिशाल में रहनेवाले केष्टो के
इर्द-गिर्द कहानी घूमती है। केष्टो के माध्यम से लेखिका ने आग की
विभीषिका का ज्वलंत एवं हृदय विदारक चित्र उकेरा है। इस उपन्यास में
पूर्वी पाकिस्तान के मुक्ति संग्राम और बांग्लादेश के अभ्युदय की कहानी
के साथ-साथ उन तमाम परिस्थितियों का जीता-जागता अंकन है जो सांप्रदायिकता
के आधार पर भारत विभाजन के सहायक घटक बने। इतना ही नहीं, भाषाई तथा
भौगोलिक आधार पर जिस तरह पाकिस्तान टूटकर बांग्लादेश बना उसका भी विचलित
करने वाला चित्र अंकित है।


       भाषा की आजादी बड़ी विपत्ति अर्थात् पाकिस्तान (पश्चिमी और पूर्वी) के
रूप में देश के विभाजन के साथ आई। विभाजन आज भी मौन पीड़ा बना हुआ है
जिसके परिणाम हमारे सामूहिक अवचेतन में मौजूद हैं। भारत में राजनीतिक
विषमता जरूर है लेकिन हमारी संस्कृति मिश्रित परंपराओं से ओत-प्रोत है।
सांप्रदायिक राजनीति को तो विभाजन के तले दब जाना चाहिए था, लेकिन उसने
भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में और भी अधिक खतरनाक रूप धारण कर लिया
है।


       भारत-पाक युद्ध के बाद पूर्वी बंगाल अर्थात् मुस्लिम बहुल बांग्लादेश
पश्चिमी पाकिस्तान से अलग होकर अस्तित्व में आया। विभाजन के बाद भी
त्रासदी का अंत नहीं हुआ बल्कि आज भी अपने सभी भयंकर रूपों में
सांप्रदायिक हिंसा बराबर बढ़ रही है। इस उपन्यास का एक हिस्सा बांग्ला
मुक्ति संग्राम के दौरान हुई लूट-खसोट, नृशंस हत्या, बलात्कार आदि की
दास्तान बयान करता है - ''अपनी बातों पर सरल मन से विश्वास करके उस इलाके
के सभी दो-ढाई हज़ार हिंदुओं ने उन गोदामों में शरण ली। परंतु रक्षक के
भेष में वे भक्षक निकले। किसी महफ़ूज़ स्थान पर पहुँचा आने के बहाने
अलग-अलग समूहों को गोदामों से निकालकर ये ले जाते और काट-काटकर पानी में
फेंक देते। नदी में पानी के बदले खून बहने लगा था युवतियों का यौन शोषण
करने के बाद कत्ल किया जाता था।'' (पृ. 85)


       'परोपकाराय इदम् शरीरम्' यही है भारतीय संस्कृति। मानवता के आधार पर
भारतीय सेना द्वारा पहुँचाई गई मदद, भारतीय सीमा क्षेत्र में बनाए गए
प्रशिक्षण शिविरों तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत सरकार द्वारा निभाई गई
भूमिका का ज़िक्र भी लेखिका ने किया है। समय तथा समाज की विसंगतियों को
अपने में समेटे यह एक ऐसी बहुआयामी कृति है जिसमें एक ओर सांप्रदायिक
विभीषिका का विकराल रूप तांडव कर रहा है तो दूसरी ओर पे्रम की अंतःसलिला
भी प्रवाहित है।


       केष्टो का घर आग में झुलस जाता है जिस के कारण उसे अपने परिवार के साथ
बोरिशाल छोड़कर देशेड़-बाड़ी शोनारामपुर जाना पड़ता है। एक साल बाद फिर
वह अपने गाँव बोरिशाल वापस आ जाता है। बंगाल विभाजन के समय वह घर से
भागकर कलकत्ता पहुँचता है फिर आजीविका की तलाश में दिल्ली और अंततः मंुबई
पहुँचता है। वहाँ पर एक बेकारी में नौकरी प्राप्त करता है और अपने पैरों
पर खड़ा होने के लिए जी-तोड़ मेहनत करता है। इसी दौरान उसकी मुलाकात
कारखाने के चीफ मिस्त्री की बेटी सोनी से होती है और वह जी-जान से उसे
चाहने लगता है। मगर सोनी का रिश्ता किसी और से तय होने के कारण उसे मायूस
होना पड़ता है। हताश केष्टो वापस अपने परिवार के पास पहुँचता है। बहन
खुकी की शादी में उसकी मुलाकत शोपना से होती है और फिर एक बार उसके दिल
में उमंग जागती है। शोपना के घर-परिवार वाले इस रिश्ते के लिए तैयार नहीं
होते। अतः वह अपने आपको साबित करने के लिए व्यायाम की प्रतियोगिताओं में
भाग लेता है और 'मिस्टर पाकिस्तान' का टाइटिल जीतकर शोपना के पास रिश्ता
लेकर जाता है। लेकिन इस बार भी उसे हताश होना पड़ा। एक ओर सांप्रदायिक
दंगों की आग विकराल रूप धारण कर रही थी तो दूसरी ओर निराशा और हताशा।
बचपन से लेकर आजीवन उसे इसी आग की विभीषिका में झुलसना पड़ा। बचपन में आग
के कारण केष्टो का घर जला और बाद में लोगों की इंसानियत जल कर राख हो गई।
इतना कुछ सहने के बाद भी उसे जीवन में कुछ भी नहीं मिला।


       भाषा की दृष्टि से भी यह उपन्यास सराहनीय है। बांग्लादेश की महक को बनाए
रखने के लिए लेखिका ने बांग्ला शब्दों तथा नामों को बंगाली उच्चारण के
अनुरूप ही लिखा है। यहाँ पर कुछ उदाहरण प्रस्तुत किए जा रहे हैं -

-गॉरोम - गॉरोम रॉशोगोल्ला बनाइसी! कॉयडा खाइबेन कॉन छोटो कॉत्ता (गरमगरम
रसगुल्ले बनाया हूँ। कितना खाइएगा बोलिए छोटे मालिक! पृ. 11)

-चाचा! आपोन प्राण बाँचा। (चाचा अपना प्राण बचाओ ; पृ. 89)

-आ रे  आजोगोर आशछे तेड़े/ आमटि आमि खाबो पेडे  / इन्दूर छाना भॉये मॉरेल
पाखी पाछे धॉरे ....'' (अ रे अजगर धावा बोलने आ रहा है/ इस आम को तोड़कर
खाऊँगा मैं/ चूहे का बच्चा उर से मरता है कि/ ईगल पक्षी कहीं उसे पकड़ न
ले ... ; पृ. 16)

-कॉमरेड शोन् बिगुल ओइ हांकछे रे/ कारार ओइ लौहो कॉपाट भंगे फैल/ कोरबे
लोपाट/ मोदेर  गॉरोब/ मोदेर आशा/आ मोरी बांग्ला भाषा .... (कॉमरेड सुनो -
बिगुल बज रहा है/ कारागार के उस लौह कपाट को तोड़ डालो/ नहीं तो वे हमारी
बांग्ला भाषा को/जो हमारी गर्व है, हमारी आशा है, मिटाकर रख देंगे। पृ.
120)

-लॉलापाता, घेरा जानाला माझारे एकटि मोधुर मुख/प्रोतिदिन जाई सेई पॉय
दिया/देखि सेई मुख खानि कुसुम माझारे रोयेछे फुटिया/कुसुमगुलिर रानी ...
(लता पत्तों से घिरी खिड़की के बीच एक मधुर चेहरा/प्रतिदिन उस पथ से
गुज़रता हूँ/और देखता हूँ उस चेहरे को जो फूलों के बीच मानो/ फूलों की
रानी बनकर खिली रहती है। (पृ.123)



कुल मिलाकर 'मैं बोरिशाइल्ला' सांस्कृतिक विस्थापन की त्रासदी पर
केंद्रित ऐसी पे्रम गाथा है जिसमें बीसवीं शताब्दी के अंतिम चरण में
दक्षिण एशिया के सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र में घटित स्वतंत्रता
आंदोलन की गाथा को औपन्यासिक रूप में प्रामाणिक अभिव्यक्ति प्रदान की गई
है। पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान को मजहब के नाम पर एक देश
समझना कितनी भारी भूल थी, इसका खुलासा इस उपन्यास के एक-एक पृष्ठ पर
अंकित है। पाकिस्तानी सैनिकों ने ही नहीं, उर्दू भाषी नागरिकों तक ने
बांग्ला भाषी स्त्री-पुरुषों पर जो अत्याचार ढाए वे इतिहास का तारुण सच
है। वस्तुतः यह उपन्यास सांप्रदायिक राष्ट्र की संकल्पना की व्यर्थता का
पुरजोर ढंग से खुलासा करता है और राष्ट्रीयता तथा भाषा के प्रश्न पर भी
नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर करता है। तमाम तरह के विवरणों के बीच मानव
मन की मूलभूत रागात्मकता तथा प्रकृति की तोहकता इस ऐतिहासिक उपन्यास को
कथा रस के साथ-साथ काव्य रस से भी परिपूरित करती है, जो लेखिका की
अतिरिक्त उपलब्धि है।

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मैं बोरिशाइल्ला / महुआ माजी / राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली / २००६ / 150
रु. / 400 पृष्ठ (पेपरबैक)
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- डॉ. जी. नीरजा
सह-संपादक, स्रवंति