कुला मतालु गीचिना गीतललो जिक्की,
पंजराना कट्टु बडनु नेनु।
निखिल लोका मेट्लु नुर्णयिंचिना, नाकु
तिरुगु लेदु - विश्वनरुडु नेनु॥" (जाषुवा)
(जाति भेद के इस पिंजरे में मैं नहीं फसूँगा। मैं विश्व की सीढ़ियों को पार कर चुका हूँ। मैं तो विश्वमानव हूँ।)
तेलुगु साहित्य जगत् मे ‘नवयुग कवि चक्रवर्ती’ और ‘विश्वनरुडु’ (विश्वमानव) के नाम से विख्यात गुर्रम जाषुवा का जन्म 28 सितंबर, 1895 को गुंटूर जिले के काट्रग्ड्डपाडु नामक गाँव में वीरैया और लिंगम्मा दंपति के घर में हुआ। वीरैया यादव थे जबकि लिंगम्मा दलित जाति की थीं। अंतरजातीय विवाह के कारण इस दंपति को जाति भेद का शिकार होना पड़ा। बचपन से ही जाषुवा को गरीबी झेलना पड़ा और अपमान के घूँट पीने पड़े। यहाँ तक कि अपमान और ज़िल्लत से बचने के लिए जाषुवा के माता-पिता ने ईसाई धर्म अपना लिया। समाज के तपेड़ों को झेलते हुए जाषुवा आगे बढ़ते रहें। उन्होंने कभी हालात के सामने घुटने नहीं टेके।
यह रोचक तथ्य है कि जाषुवा तेलुगु और संस्कृत के विद्वान होने के करण हिंदू दर्शन और मिथक काव्यों से इतने प्रभावित थे कि अपने खंड काव्यों में उनका प्रचुर प्रयोग किया। इसलिए ईसाई समुदाय ने उनका विरोध किया।
जाषुवा अत्यंत संवेदनशील रचनाकार थे। तत्कालीन समाज में व्याप्त असमानता, अराजकता, जाति भेद, वर्ण भेद, ऊँच-नीच, गरीबी और छुआछूत से अत्यंत विचलित होना उनके लिए स्वाभाविक था। उन्होंने मानवता का पहला पाठ अपने परिवार में ही पढ़ा। उनका लक्ष्य था समाज से ऊँच-नीच और अस्पृश्ता की दीवार को हटाकर समता स्थापित करना। अतः उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक विसंगतियों का खुलकर विरोध किया तथा मानवाधिकरों और सामाजिक न्याय पर बल दिया।
जाषुवा का रचना संसार बहुत व्यापक है। उन्होंने तेलुगु साहित्य को अनेक खंड काव्यों और लंभी कविताओं द्वारा समृद्ध किया जिन्में ‘रुक्मिणि कल्याणम्’(1919), ‘चिदानंद प्रभातम्’(1922), ‘कुशलवोपाख्यानम्’(1922), ‘कोकिला’(1942, कोयाल), ‘ध्रुव विजयम्’(1925, ध्रुव विजय), ‘कृष्णा नदी’(1925), ‘संसार सागरम्’ (1925, पारिवारिक सागर), ‘शिवाजी प्रबंधम्’(1926, शिवाजी प्रबंध), ‘वीरा बाई’(1926), ‘कृष्णदेव रायुलु’(1926, कृष्णदेव राय), ‘वेमना योगींद्रुडु’(1926, योगी वेमना), ‘भारतमाता’(1926), ‘भारतवीरुडु’(1927, भारत के वीर), ‘गिज्जिगाडु’(1927,घोंसला), ‘भीष्मुडु’(1931,भीष्म), ‘चीट्ला पेका’(1932,ताश), ‘अनाथा’(1932, अनाथ), ‘फिरदौसी’(1932), ‘श्मशाना वाटिका’(1933, श्मशान), ‘आंध्र भोजुडु’(1934, आंध्र भोज), ‘गब्बिलम्’(1941,चमगादड), ‘तेरा चाटु’(1946, परदे के पीछे), ‘बापूजी’(1948), ‘स्वयंवरम्’(1950, स्वयंवर), ‘कोत्ता लोकम्’(1957, नया लोक), ‘ना कथा’(1966, मेरी कहानी) आदि उल्लेखनीय हैं।
गुर्रम जाषुवा की सर्वाधिक चर्चित कृति है ‘गब्बिलम्’(चमगादड)। जाषुवा ‘गब्बिलम’ के लेखक के रूप में तेलुगु साहित्य जगत् में विख्यात हैं। 1941 में प्रकाशित यह खंड काव्य वस्तुतः कालिदास कृत ‘मेघदूतम्’ की पैरोडी है। ‘मेघदूतम्’ में यक्ष मेघ को दूत बनाकर अपनी प्रेयसी के पास संदेश भेजता है लेकिन जाषुवा के काव्य ‘गब्बिलम्’ में संदेश भेजनेवाला यक्ष नहीं है बल्कि हाशिए पर स्थित वह दलित है जो गरीबी और भूख से तड़प रहा है तथा अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत है। वह चमगादड से यचना करता है कि वह लोकाराध्य भगवान शिव के पास जाकर उसकी व्यथा को सुनाए। वह चमगादड को दूत इसलिए बनाता है क्योंकि वह हमेशा शिव मंदिर में उल्टा लटका हुआ रहता है और भगवान के सान्निध्य में रहता है। इस काव्य में जाषुवा ने व्यंग्य और प्रतीकों के माध्यम से दलितों की वेदना का हृदयस्पर्शी अंकन किया है।
भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था आदि से चली आ रही है। मध्यकाल में निम्न जाति के लोगों को सवर्णों के पैरों तले जीवन यापन करना पड़ता था। उनकी ज़िंदगी जानवरों से भी बदत्तर थी। जाषुवा इस स्थिति को बदलना चाहते थे। अतः उन्होंने भगवान से प्रश्न किया कि उसकी सुंदर सृष्टि में मनुष्य और मनुष्य के बीच खाई क्यों उत्पन्न हो रही है - "सृष्टिकर्तवी नीवु,/ नी सृष्टि लो/ निनु प्रश्निंचे हक्कु उन्नवाडिनी नेनु।" (सृष्टिकर्ता हो तुम,/ तुम्हारी इस सृष्टि में,/ तुमसे प्रश्न करने का हक रखता हूँ मैं।) जाषुवा की सहानुभूति उस आम आदमी के साथ है जो पूँजीवादी व्यवस्था के पैरों तले दब गया हो।
आलोचकों ने जाषुवा को दलितवादी घोषित कर रखा लेकिन वस्तुतः वे मानववादी कवि हैं। जनकवि हैं। वे कहते हैं कि "वडागाल्पुलु/ ना जीवितमैते,/ वेन्नला/ ना कवित्वम्।" (लू के झोंके हैं/ मेरा जीवन,/ तो शीतल चाँदनी है/ मेरी कविता।)
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की निर्मम हत्या से विचलित होकर जाषुवा ने ‘बापूजी’ शीर्षक काव्य की रचना की जिसका प्रकाशन 1948 में हुआ। इसमें कुल 15 लंभी कविताएँ हैं जिनमें महात्मा गांधी के संपूर्ण जीवन संघर्ष और दर्शन का समावेश है। यह काव्य कृति एक तरह से बापू को कवि की अश्रुपूरित श्रद्धांजलि है।
जाषुवा ने अपनी कृतियों के माध्यम से निम्न वर्ग के विरुद्ध होनेवाले षड्यंत्रों का पर्दाफाश किया और साथ ही सामाजिक विसंगतियों पर भी प्रहार किया। उनके काव्यों में विषय वैविध्य है। एक ओर प्रकृति चित्रण है तो दूसरी ओर संयोग और वियोग श्रुंगार का वर्णन भी है। राष्ट्रीय चेतना और समाजिक जागरूकता के साथ साथ निम्न वर्ग का आक्रोश तथा अस्मिता की लड़ाई भी अंकित है। वे यह कहते हैं कि "कललु मोहिंचुटोक कुलीनुलनेगादु,/ कुलमु लेदन्ना वाडिनी गूडा वलचू/ सत् कला देवी कटाक्षंभु वलना,/ समयुगावुता उच्च नीचतला बेडदा!" (कला की देवी के कृपा कटाक्ष से ऊँच-नीच का भेद मिट जाएगा क्योंकि वह केवल कुलीनों पर ही मोहित नहीं होती बल्कि कुलहीनों के पास भी रहती है।)
जाषुवा को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें ‘क्रीस्तु चरेत्रा’(ईसा चरित) के लिए 1964 को साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया तथा 1970 में आंध्र विश्वविद्यालाय द्वारा ‘कलाप्रपूर्ण’ और भारत सरकार के ‘पद्मभूषण’ से अलंकृत किया गया।
सामाजिक न्याय के इस महान कवि का निधन 24 जिलाई, 1971 को हुआ। 1994 में ‘जाषुवा फाउंडेशन’ ने उनका जन्मशताब्दी वर्ष मनाया। उसके बाद हर साल संस्था की ओर से विभिन्न भाषाओं के प्रमुख कवियों को ‘जाषुवा साहित्य पुरस्कार’ प्रदान किया जाता है। 1995 में ‘जाषुवा साहित्य पुरस्कार’ प्राप्त करनेवाले प्रथम कवि डॉ.ओ.एन.वी.कुरुप(मलयालम)। 1997 में हिंदी के प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह को भी इस पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। इस संस्था के व्यवस्थापक कार्यदर्शी जाषुवा की बेटी हेमलता लवनम् है। समाज में व्याप्त ऊँच-नीच की दीवर को तोड़कर मानवता और समता की भावना को फैलाना इस संस्था का मुख्य उद्देश्य है।
1 टिप्पणी:
" अंतरजातीय विवाह के कारण इस दंपति को जाति भेद का शिकार होना पड़ा। "
आज भी परिस्थिति नहीं बदली है ! अच्छी जानकारी के लिए आभार॥
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