शनिवार, 28 अगस्त 2010

जैसी हमने पाई दुनिया, आओ उससे बेहतर छोड़ें : बच्चन की अनुवाद विषयक मान्‍यताएँ



"नाश के दुख से कभी
दबता नहीं निर्माण का सुख;
प्रलय की निःस्तब्धता से
सृष्‍टि का नवगान फिर फिर
नीड़ का निर्माण फिर फिर।" (हरिवंशराय बच्चन)

आधुनिक हिंदी साहित्य में हालावाद के प्रवर्तक और उन्नायक हरिवंशराय बच्चन का शीर्ष स्थान है। सत्याग्रह आंदोलन, असहयोग आंदोलन और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम ने बच्चन को एक नवीन दृष्‍टि प्रदान की। उनकी कृतियों में वस्तुतः जीवन के संघर्ष, राष्‍ट्रीय आंदोलन, सांस्कृतिक पृष्‍ठभूमि, क्रांति का स्वर और परंपरा का विरोध मुखरित होता है। एक सफल कवि और गद्‍यकार के रूप में हरिवंशराय बच्च्न से भली भांति परिचित हैं लेकिन कवि और गद्‍यकार के साथ साथ वह एक सफल अनुवादक भी हैं।

अनुवाद वस्तुतः एक सांस्कृतिक सेतु है जिसके माध्यम से क्षेत्रवाद के सीमित एवं संकुचित दायरे से निकलकर विश्‍वमानवता तक पहुँच सकते हैं। भारत जैसे बहुभाषिक देश में अनुवाद की नितांत आवश्‍यकता है। इस संदर्भ में बच्चन का मत द्रष्‍टव्य है - "विविधताओं से भरे इस देश में केवल भाषा ही ऐसा माध्यम है जो हमें एकसूत्र में बाँध सकता है; और अगर भाषा में भी हम एकमत हो सुसंगठित न हो सके तो हमारे बिखराव को कोई रोक नहीं सकता।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.46)

यह सर्वविदित है कि भाषा विचार-विनिमय का सशक्‍त साधन है और साथ ही संस्‍कृति का संवाहक भी है। वह संस्‍कृति के अनुरूप ही बनती-संवरती है। अतः बच्चन कहते हैं कि - "भाषा वह बैल है, जिस पर जितना अधिक बोझ लादा जाए वह उतना ही मजबूत होता जाता है। भाषा की शक्‍ति उसकी संभावना से आंकी जानी चाहिए न कि उसकी अविकसित स्थिति से।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.46)

भाषाओं की भिन्नता एवं विविधता के कारण ही अनुवाद का जन्म हुआ है। भारत में बहुभाषिक स्थिति के कारण परस्पर संप्रेषणीयता में व्यवधान पड़ना स्वाभविक है। ऐसी स्थिति में देश की एकता को कायम रखने के लिए एक संपर्क भाषा की नितांत आवश्‍कता है और वह है हिंदी। डॉ.हरिवंशराय बच्चन ने इस आवश्यकता को समझते हुए हिंदी को स्थानीयता से मुक्‍त करके अखिल भारतीय दृष्‍टिकोण के विकास पर ज़ोर दिया और कहा कि - "हिंदी को राष्‍ट्रभाषा की अधिकारिणी बनने के लिए उसे अपना मानसिक संवेदना क्षेत्र हिंदी भाषा प्रदेश से आगे बढ़कर राष्‍ट्र व्यापी बनना पड़ेगा।" (‘बंगाल का काल’, भूमिका, पृ.17)

प्रायः हिंदीतर भाषी प्रयोक्‍ताओं की हिंदी पर उनकी मातृभाषाओं के प्रभाव की बात कही जाती है। इस संदर्भ में बच्चन जी ने माना कि क्षेत्रीय भाषा की बोली-भाषा को राष्‍ट्रभाषा का गौरव पाने के लिए इस प्रकार के प्रभाव को ग्रहण करना ही चाहिए। बच्चन का मत है कि - " हिंदी को आगर सच्चे अर्थों में राष्‍ट्रभाषा बनना है तो उसे भारत के अन्य भाषा प्रदेशों की गंध ध्वनी देनी होगी।" (‘बंगाल का काल’, भूमिका, पृ.18)। इतना ही नहीं उन्होंने यह भी कहा है कि "हिंदी की ध्वनि-धारा के साथ साथ अन्य भाषाओं के शब्दों को खपाना साधारण कला नहीं है। यह कंठ और कानों की बड़ी बारीक परख-शक्‍ति माँगती है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.79)। उन्होंने अपने अनुवादों में इस स्थिति को साधने का प्रयास किया है।

अनुवाद की महत्ता और आवश्‍यकता निर्विवाद है। हमेशा कुछ नया कर दिखाने की तत्परता व मानव की जिज्ञासा ही इस आवश्‍यकता का मूल हेतु है। इस अर्थ में अनुवादक भी सृजक होता है और अनुवाद द्वारा सृजन सुख मिलता है। अतः बच्चन कहते हैं कि "सृजन का सुख, सृजन का सुकून, सृजन की शांति सृजक ही जान सकता है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.112)

देखा जाय तो अनुवाद की प्रक्रिया शिशु के मुख से उच्चरित ध्वनियों के साथ ही प्रारंभ हो जाती है। शिशु भिन्न भिन्न प्रकार की ध्वनियाँ निकालकार अपने मनोभावों को प्रकट करता है और माँ शिशु के भावों को समझकर दूसरों के लिए बोधगम्‍य बना देती है। इस दृष्‍टि से भषा भावों और विचारों का अनुवाद है। अनुवादक भी यही तो करता है। दूसरों के भावों और विचारों को अपनी भाषा का कलेवर प्रदान करना। सफल अनुवाद के संबंध में बच्चन की मान्यता है कि - "किसी बड़ी रचना का सफल अनुवाद करना किसी उच्च कोटि के मौलिक सृजन से न कम महत्व का काम है, न कम श्रम-साधना-साध्य।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.111)। उदाहरण के लिए बच्चन द्वारा अनूदित ‘ओथेलो’ के कुछ अंश देखें -

मूल: Iago - Must be be-leed and calmed
By debitor and creditor, this counter caster
He, is good time, must his lieutenanat be
अनुवाद: इयागो - इस पार काट-सियो के
दर्जी को तरजीह दी गई टुकड़ जोड़ यह,
टुकड़खोर यह, मौका पाकर सहसेनापति बन बैठा है।

उपर्युक्‍त अनुवाद में बच्चन ने केसियो (cassio) के लिए ‘काट-सियो’ का रोचक, सर्जनात्मक प्रयोग किया है क्‍योंकि केसियो लेनदार (ऋणदाता) है जो सिर्फ जोड़ना व घटाना जानता है। अनुवाद में ‘काट-सियो’, ‘दर्जी’, ‘टुकड़खोर’ का प्रयोग कर बच्चन ने अपनी रचनाधर्मिता का परिचय दिया है। स्पष्‍ट है कि बच्चन साहित्यिक पाठ के अनुवाद के संदर्भ में अनुवादक की सृजनात्मकता के समर्थक हैं।

एक भाषा भाषी समुदाय में निहित भाषा ज्ञान को दूसरे भाषा भाषी समुदाय में पहुँचाने में अनुवादक की भूमिका महत्‍वपूर्ण होती है। अतः बच्चन सफल अनुवादक के बारे में विचार व्यक्‍त करते हैं कि - "मेरी हमेशा यही धारणा रही है कि अच्छा अनुवादक वही हो सकता है जो अच्छा मौलिक लेखक भी हो।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.88)। वह यह भी मानते हैं कि - "ऐसा देखा गया है कि सफल अनुवादक वे ही हुए हैं जिनका मौलिक सृजन पर भी कुछ अधिकार है। दूसरे शब्दों में, अनुवाद भी मौलिक सृजन की ही एक प्रक्रिया है। नहीं तो आज संसार के बड़े बड़े सर्जक अनुवाद की ओर झुके न दिखाई देते।" (चौंसठ रूसी कविताएँ, भूमिका, पृ.14)। निम्‍नलिखित उदाहरण से भी यह स्पष्‍ट होता है कि बच्चन एक सर्जक अनुवादक हैं जहाँ उन्होंने औरस सारे दत्तक संतति के भेद को ‘तन से जन्मी’ और ‘मुँहबोली’ द्वारा व्यक्‍त किया है -

मूल: Brabantio - I had rather to adopt a child than got it. (Othello)

अनुवाद : ब्रेबैंशियो - काश कि मेरे तन से जन्मी
हुई न होकर तू मेरी मुँहबोली होती
जिससे ऐसी बात न कहती

इससे यह स्पष्‍ट होता है कि साहित्यिक पाठ के अनुवादक को अपने भावों के संप्रेषण पर अधिक ध्यान देना पड़ता है। बच्चन की दृष्‍टि में - "सफल अनुवादक भी वही होता है जो अपनी दृष्‍टि भावों पर रखता है। शाब्दिक अनुवाद न शुद्ध होता है न सुंदर। भाव जब एक भाषा माध्यम को छोड़कर दूसरे भाषा माध्यम से मूर्त होना चाहेगा तो उसे अपने अनुरूप उद्‍बोधक और अभिव्यंजित शब्द राशि संजोने की स्वतंत्रता देनी होगी। यहीं पर अनुवाद मौलिक सृजन हो जाता है। या मौलिक सृजन की कोटि में आ जाता है।" (चौंसठ रूसी कविताएँ, भूमिका, पृ.13-14)

वस्‍तुतः कोई काम आसान नहीं है। मूल पाठ के भावों की रक्षा करते हुए दूसरी भाषा में अंतरण करना ही अनुवाद है। अतः बच्चन का मत है कि - "सफल अनुवादक के लिए आवश्यक है कि वह जिस भाषा से अनुवाद करें, जिस भाषा में करें, दोनों पर उसका समान अधिकार हो ...अनुवादक का रागात्मक संबंध हो। ... सृजन में शब्द के स्थान को सूक्ष्‍मता से समझ लिया जाय। शब्द के स्थूल और उसके कोष पर्याय को अंतिम सत्य मान लेनेवाला सफल अनुवादक नहीं हो सकता। ...जब हम साहित्यिक ग्रंथों के अनुवाद की बात सोचते हैं तब भाव, विचार और भाषा को अलग नहीं देख सकते। यहाँ भाव-विचारों का संबंध शरीर और वस्त्रों का नहीं बल्कि, शरीर के मांस और त्वचा का है। शब्द साधन है, साध्य नहीं। साध्य तो वह भावना या विचार है, जो उसके पीछे है।" (अनुवाद की समस्या, बच्चन)

अनुवाद में जीवंतता बनाए रखने के लिए सफल अनुवादक को मूल लेखक की भाँति लक्ष्य भाषा में नूतन प्रयोग भी करने पड़ते हैं। एक सफल अनुवादक को स्रोत भाषा एवं लक्ष्य भाषा दोनों पर समान अधिकार होना चाहिए, लेकिन इतना ही काफी नहीं। उसका भाषा से रागात्मक संबंध भी अनिवार्य है। बच्चन ने इसे ‘रचनानुराग’ कहा है और माना है कि "अनुवादक का रचनानुराग अनुवाद की सफलता की सबसे पहली आवश्यकता है; अपनी भाषा पर अधिकार।" (बंगाल का काल, भूमिका, पृ.14)। यहाँ ‘मैकबेथ’ के उनके अनुवाद का एक अंश देखा जा सकता है -

मूल: My mind she has mated and amazed my sight
I think but dare not speak.

अनुवाद: कानों ने जो सुना, उन्हें है उस पर गैरत,
आँखों ने जो देखा, उनको उस पर हैरत,
जो दिमाग में, उसे नहीं कहने की जुर्रत।

यहाँ अनुवादक ने मूल का शाब्दिक अनुवाद करके हिंदी की प्रकृति के अनुरूप उसकी मौलिक ढालार्थ की हैं। इससे यह स्पष्‍ट होता है कि उन्हें स्रोत और लक्ष्‍य भाषाओं पार समान अधिकार है और साथ ही समाज-सांस्कृतिक पृष्‍ठभूमि की पहचान भी। अनुवाद मूल से भी रोचक है। ‘गैरत’, ‘हैरत’, ‘जुर्रत’ शब्दों का तुक जोड़कर अनुवाद में सौंदर्य पैदा किया गया है।

अनुवादों के बारे में बच्चन का दृष्‍टिकोण सुपारिभाषित है। वे मानते हैं कि साहित्यिक पाठों के अपनी भाषा में किए गए अनुवाद ही स्वीकार्य होता है। उनका मत है कि - "अनुवादों के बारे में मेरा एक सिद्धांत है। अनुवाद के लिए मैं अनुमति तभी देना चाहता हूँ जब किसी भाषा में अनुवादक पुस्तक का अनुवाद करना चाहता है वह उसकी अपनी भाषा हो और वह अपनी इच्छा से अनुवाद करना चाहे।" (बंगाल का काल, भूमिका, पृ.14)। इसका कारण शब्दार्थ की संस्कृति में निहित है। इसमें संदेह नहीं कि अनुवाद एक श्रम साध्य कार्य है तथा गद्‍यानुवाद की अपेक्षा काव्यानुवाद अधिक चुनौतिपूर्ण कार्य है। "कविता में शब्द और अर्थ इतने संपृक्‍त होते हैं - ‘गिरा अर्थ जल बीच सम’ - कि उसके अर्थ को अलग कर उसे दूसरे शब्दों, दूसरी भाषा के शब्दों, का बाना पहनाना बहुत कठिन है। कुछ लोग तो यहाँ तक कहते हैं कि कविता का अनुवाद हो ही नहीं सकता। पर असंभव मनुष्‍य के लिए बहुत बड़ी चुनौती और बहुत बड़ा आकर्षण है - जो असंभव है उसी पर आँख मेरी,/ चाहती होना अमर मृत राख मेरी। (मिलन यामिनी)।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ, भूमिका, पृ.12)

इस चुनौती का सामना बच्चन अपनी रचनाधर्मिता के सहारे करते हैं। यहाँ ‘किंग लियर’ के एक अंश का अनुवाद देखा जा सकता है -

मूल : Father's that wear rags
Do make their children blind,
But father that bear bags
Shall see their children kind
Fortune, that arrant whore,
Ne'er turns the keep to the poor.

अनुवाद: जिन बापों के तन के ऊपर चिथड़े होते
उनके बच्चे अपने प्रति अंधे हो जाते;
जिन बापों के हाथों मोटी थैली होती
उनके बच्चे उनके प्रति आदर दिखलाते।
सभी जानते किस्मत ऐसी रंडी गुंडी
वह गरीब के लिए खोलती कभी न कुंडी।

बच्चन ने मूल में निहित अर्थ को सुरक्षित रखने के लिए भावानुवाद का सहारा लिया है। घृणा एवं धिक्कार को सूचित करनेवाले शब्दों का प्रयोग लक्ष्य भाषा के अनुरूप किया गया है ताकि मूल में निहित हास्यपूर्ण अभिव्यक्‍तियाँ अनुवाद में भी संप्रेषित हो सकें।

वास्तव में डॉ.हरिवंशराय बच्चन एक सफल अनुवादक तथा गंभीर अनुवादशास्त्री थे। उन्होंने अनेक कृतियों का हिंदी में अनुवाद करके राष्‍ट्रीय और अंतरराष्‍ट्रीय साहित्य से हिंदी भाषा समाज को परिचित कराया। इन कृतियों में सम्मिलित हैं - ‘हेमलेट’(1969), ‘नागर गीता’ (1966), ‘मरकत द्वीप का स्वर’ (ईट्स की कविताएँ,1965), ‘चौंसठ रूसी कविताएँ’ (1964), ‘ओथेलो’ (1959), ‘मैकबेथ’ (1957), ‘जनगीता’ (1958), ‘उमर खयाम की रुबाइयाँ’ (1959), ‘नेहरू : सामजिक जीवन-चरित (1961), ‘लिरिका’ (1965), ‘द हाउस आफ वाइन’ (1950), ‘कालेर कबले बांग्ला’ (1948) तथा ‘भाषा अपनी भाव पराए’।

इनमें से ‘भाषा अपनी भाव पराए में दस विदेशी और देशी भाषाओं से काव्यानुवाद प्रस्तुत किए गए हैं। यहाँ कृति की भूमिका में कही गई बात का उल्लेख करना समीचीन होगा क्योंकि यह अनुवाद चिंतन को एक दिशा प्रदान करती है और बच्चन की अनुवाद विषयक मान्यताओं को समझने में सहायक है। इस संकलन में कुल पच्चीस अनूदित कविताएँ सम्मिलित हैं। इनके चयन और अनुवाद प्रक्रिया के बारे में चर्चा करते हुए बच्चन जी कहते हैं कि - "अच्छी कविता मैं हार भाषा की कुछ-न-कुछ समझता हूँ, क्योंकि अच्छी कविता, हर भाषा की, बहुत कुछ ध्वनि के माध्यम से कहती है, और यह विचित्र है कि ध्वनि संकेत प्रायः सभी भाषाओं का एक-सा होता है। ...जाहिर है कि ये कविताएँ अपनी अपनी भाषा-लिपि में मेरे सामने रख दी जाते तो मैं उन्हें अनूदित नहीं कर सकता था। ...मूल कविता नागरीलिपि में दी जाती थी जिसे पढ़कर, बहुत-से शब्दों और ध्वनियों से, मैं कविता की मुख्य दिश टटोल सकता था। मुझे कविता का अंग्रेज़ी अथवा हिंदी अनुवाद दिया जाता था जिससे मुझे कविता के भाव-विचार को समझने में आसानी होती थी। ...स्पेनी कविता का अनुवाद उसके अंग्रेज़ी रूपांतर के आधार पर किया गया था। कुछ लोग ऐसा सोच सकते हैं कि यह अनुवाद की सीधी प्रक्रिया नहीं है। पर शायद अधिक वैज्ञानिक प्रक्रिया यही है। यह मैंने बहुत बाद में जाना कि रूस में कविता के अनुवाद की कुछ ऐसी ही प्रक्रिया का अनुसरण होता है। मान लीजिए कि किसी कविता का रूसी में अनुवाद करना है तो कोई दुभाषिया मूल कविता का शाब्दिक अनुवाद कर देता है - शाब्दिक अनुवाद से कविता नहीं बन जाती। फिर यह शाब्दिक अनुवाद किसी कवि के पास भेजा जाता है। वह उन शब्दों के पीछे छिपे भावों को पकड़ता है और उद्‍बोधक शब्दों और रूपकों की सहायता से - आवश्‍यकता हुई तो रूपकों को बदलकर - ऐसे रूपकों में जो रूसी भाषा के लिए अभिव्यंजक हो सके - कविता बनाता है। इस तरह कविता का अनुवाद के रूप में एक कविता रची जाती है।"

निष्‍कर्षतः हरिवंशराय बच्चन के अनुवाद संबंधी चिंतन के कतिपय सूत्रवाक्‍य द्रष्‍टव्य हैं -
  • "कवि या लेखक जीवन की जो व्याखया देना चाहता है कि जो उसके अनुसार जीवन से चुनाव करता है। यानी वह जीवन के बहुत से सत्य को छोड़ता है उसकी उपेक्षा करता है या उसे दबाता है कि उसके धारणा को मूर्तिमान करनेवाले जीवन का रूप प्रमुख हो, उजागर हो।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.41)

  • "उच्च कोटि का कलाकार कला के माध्यम से जीवन की जो व्याख्या देता है वह एक प्रकार से उसका जीवन-दर्शन ही होता है।"(‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.41)

  • "जब अनुवादक शब्दों के आवारण को भेदकर सूक्ष्म भावनाओं के स्तर पर पहुँचता है और वहाँ से अपनी भाषा के अभिव्यक्‍त होने का प्रयत्‍न करता है तब अनुवाद मौलिक लगता है। यह गिरा-अर्थ, जलवीचि के अलग करना है, पर अनुवाद को सरल काम किसने समझ रखा है?" (अनुवाद की समस्या)

  • "हर अनुवाद अनुवादक की योग्यता, पैठ, सृजनशीलता और सीमाओं से प्रभावित होता है।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ’, भूमिका, पृ.12)

  • "एक यूरोपीय भाषा से दूसरी यूरोपीय भाषा में छंद को एक ही रखने की संभावना हो सकती है, पर हिंदी के लिए यह अकल्पनीय है। छंद भी कविता के अविभाज्य अंग हैं।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ’, भूमिका, पृ.12)

  • "छंदबद्ध कविता का अनुवाद एक भाषा से दूसरी भाषा में करना बहुत कठिन है। यदि मुक्‍त छंद का माध्यम समुचित रीति से विकसित एवं परिष्‍कृत हो जाए तो भाषाओं के बीच काव्य संबंधी आदान-प्रदान अधिक साध्य और सुगम हो जाएगा।" (‘बंगाल का काल’, पृ.18)

  • "छंद और तुक जहाँ भाषा के अलंकार हैं वहीं भाषा के स्वच्छंद गति में बाधाएँ भी हैं। जहाँ भाषा-भाव एकात्‍मक होकर चलते हैं, वहाँ शायद यह बात कम अनुभव की जाए, पर अनुवादों में छंद और तुक सबसे बड़ी बाधाएँ उपस्थित करते हैं।" (‘चौंसठ रूसी कविताएँ’, भूमिका, पृ.13)

  • "मेरी अनुवाद संबंधी नीति यह रही - भाषा सरल - सुबोध होगी/ वह बोलचाल के स्तर पर गिरकर नहीं / लिखित भाषा के स्तर पर उठकर, अगर अनुवाद को/ सही भी होना है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.79)

  • "क्रोध की अभिव्यक्‍ति करने में अंग्रेज़ी बड़ी समर्थ भाषा मालूम होती है।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, पृ.109)

  • "आजकल एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद बहुत कुछ राजनीतिक कारणों से किया-कराया जा रहा है। साहित्य की दृष्‍टि से यह अस्वस्थ है और उच्च कोटि का नहीं हो सकता।" (‘दशद्वार से सोपान’ तक, भूमिका, पृ.18)

‘संकल्य’/ जुलाई-सितंबर 2009/ बच्चन विशेषांक में प्रकाशित



3 टिप्‍पणियां:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

"बच्चन ने मूल में निहित अर्थ को सुरक्षित रखने के लिए भावानुवाद का सहारा लिया है"

शब्दशः मूल में निहित अर्थ का भावानुवाद ही अनुवाद को मूल भाषा का आभास देता है॥

abcd ने कहा…

brilliant post.

स्वाति ने कहा…

नीरजा जी, हिंदी साहित्य के विषय में हमारा ज्ञानवर्धन करने, और अपनी रचनाओं में इतनी अच्छी भाषा का प्रयोग करने के लिए धन्यवाद्. जब तक आप जैसे लोग लिखते रहेंगे, हिंदी भाषा के उज्जवल भविष्य की मेरी आशा बंधी रहेगी.