शनिवार, 7 अगस्त 2010

मनुष्‍य होने की रचना यात्रा : ‘मोहि कहाँ विश्राम’





आधुनिक हिंदी साहित्य में समाज, संस्कृति, राजनीति और मनोविज्ञान को आधार बनाकर उच्च कोटि के निबंधों का सृजन हुआ है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपरांत विद्‍यानिवास मिश्र, कुबेरनाथ राय, शिव प्रसाद सिंह, प्रभाकर माचवे, विवेकी राय, रामदरश मिश्र, कृष्‍ण बिहारी मिश्र और ठाकुर प्रसाद सिंह आदि ने ललित निबंधों को नई दिशा प्रदान की हैं। रामअवध शास्त्री (16 अगस्त, 1947) इन्हीं की परंपरा की कड़ी हैं।

रामअवध शास्त्री के ललित निबंधों में जहाँ एक ओर परंपराग्त मान्यताओं की नई व्याख्या है वहीं दूसरी ओर आधुनिकता जनित पीड़ा का दिग्दर्शन भी है। उनमें प्रकृति चित्रण के साथ साथ समाज की विड़बंनाओं पर आक्रोश है। साथ ही राष्‍ट्रीयता और मनुष्‍यता की प्रतिष्‍ठा के अतिरिक्‍त स्त्री विषयक चिंतन भी निहित है। उनके निबंधों में ‘लोक’ समाहित है। निबंधों की विशेषता के बारे में रामअवध शास्त्री की मान्यता है कि "यह कहना सही नहीं कि आज निबंध विधा अलोकप्रिय हो गई है और फिर कोई भी रचनाकार जब अपने पाठकों से सीधा संवाद स्थापित करने की इच्छा रखता है तो उसके लिए निबंध से बेहतर कोई दूसरी विधा नहीं हो सकती। निबंध की यही विशेषता मुझे भी निबंध से जुडे़ रहने के लिए विवश किए हुए है और मैं वर्षों से उससे जुड़ा हुआ हूँ।" (मोकि कहाँ विश्राम, पुरोवाक्‌)।

निबंध विचारों के माध्यम से रचानाकार के व्यक्‍तित्व को उद्‍घाटित करने वाली विधा है। ये विचार शृंकलाबद्ध हो सकते हैं अथवा शृंकलामुक्‍त भी, सूक्ष्म हो सकते हैं अथवा स्थूल भी। रामअवध शास्त्री के सद्‍यः प्रकाशित ललित निबंध संग्रह ‘मोहि कहाँ विश्राम’ (2010, नमन प्रकाशन, नई दिल्ली) में कुल 19 निबंध संकलित हैं। इनमें से कुछ निबंध व्यक्‍तिनिष्‍ठ हैं और कुछ वस्तुनिष्‍ठ। स्वयं लेखक ने यह कहा है कि ‘इसमें आपको व्यक्‍तिनिष्‍ठ और वस्तुनिष्‍ठ दोनों प्रकार के निबंध मिल सकते हैं। ये निबंध समय समय पर मागँ के अनुसार लिखे गए हैं।’ (मोहि कहाँ विश्राम, पुरोवाक्‌)

रामअवध शास्त्री वस्‍तुतः मनुष्‍यता के पक्षधर लेखक हैं। उनके अनुसार राष्‍ट्रीयता को वहीं तक महत्व दिया जा सकता है जहाँ तक वह मनुष्‍य जाति की सेवा में साधक होती है - ‘मेरे लिए राष्‍ट्रीयता से अधिक महत्वपूर्ण मनुष्‍य है।’ उनकी इस मान्यता से मतभेद संभव है क्योंकि यहाँ उन्होंने ‘राष्ट्र’ और ‘मनुष्‍य’ को द्वंद्व के रूप में प्रयुक्‍त किया है - जो बहुत वांछनीय प्रतीत नहीं होता।

साहित्य सृजन के पीछे कोई न कोई उद्‍देश्‍य अथवा प्रयोजन होता है। इस विषय में शास्त्री जी को अध्यापक पूर्णसिंह से प्रेरणा मिली जिन्होंने कहा है कि - ‘उठो, जाओ असंख्य लोग तुम्हारी बाट जोह रहे हैं। उनमें से कुछ अपनी राह भूलकर अमानुष बन गए हैं तो कुछ अमानुष, मनुष्य बनने के लिए अंगुलीमाल की तरह तैयार बैठे हैं। उन्हें मनुष्य बनाना है। उनको मनुष्य के रंग में रंगना है। यदि तुम ऐसा करते हो तो यह कोई नई बात नहीं होगी। सदियों से ऐसा होता चला आ रहा है। यह एक सनातन प्रक्रिया है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रेहेगी और चलती रहनी चाहिए।’ (मोहि कहाँ विश्राम, पृ.20)।

रामअवध शास्त्री ऐसे समाज की कामना करते हैं जिसमें हर व्यक्‍ति को जीने का समान अधिकार प्राप्‍त हो। डॉ.हजारी प्रसाद द्विवेदी की भाँति वे भी मनुष्‍य की जिजीविषा पर मुग्ध है। संगीत के माध्यम से मानव जीवन में आशा का संचार होता है जिससे प्रेरणा पाकार मनुष्‍य संघर्षरत होता है और संकल्प शक्‍ति को अर्जित करता है। लेखक की मान्यता है कि ‘वसंत की सनातन गंध युग युगांतर से चली आ रही जीवानधारा में समाकार मानव की दर्दमनीय जिजीविषा का प्रमाण प्रस्तुत करती है।’ (मधुवन महक उठा, पृ.77)।

परिवर्तन संसार का नियम है। जहाँ जड़ता होगी वहाँ विकास अवरुद्ध होगा। अतः गतिशीलता अथवा जीवंतता के लिए परिवर्तन अनिवार्य है। शास्त्री जी इसलिए कहते हैं कि मधुवन पुराने जमाने में भी महकता था और आज भी महकता है लेकिन अंतर इतना ही है कि पहले वह दुष्‍यंत जैसे व्यक्‍तियों की इच्छानुसार महकता था और आज उस पर आम आदमी का अधिकार है।

रामअवध शास्त्री भारतीय संस्कृति के प्रति जागरूक हैं। अतः निबंधों में भारतीय सभ्यता और संस्कृति का दर्शन होता है। भारतीय पवित्र ग्रंथों से उद्धरण देते हुए उन्होंने भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को उजागर किया है। शिव भारतीयों के आराध्य देवता हैं। माहादेव, आशुतोष, रुद्र, जटा जूटधारी(धूर्जटी), नीलग्रीवा, नीलकंठ, त्र्यंबक, चंद्रशेखर, गंगाधर, भोलेनाथ आदि नामों से पुकारे जानेवाले भगवान शिव की अभिव्यंजना से भारतीय दर्शन, साहित्य, संगीत, कला और नृत्य अभिव्यंजित है। हड़प्पाकालीन सभ्यता हो या आधुनिक कालीन, शिव अपनी सरलता के कारण लोकाराध्य हैं। शिव हमारे चारों ओर समाहित हैं। वे हमारी अस्मिता के प्रतीक हैं। वे हमारी संस्कृति के प्राणाधार हैं। उनके महात्म्य से भारतीय संस्कृति का कण कण अनुप्राणित है। वे हमारे देवता हैं। हमारी एकता के प्रतीक हैं। उनमें भारत का हृदय धड़कता है। (राष्‍ट्रीय देवता शिव, पृ.103)। इसी तरह उन्होंने अपने निबंध ‘शिवतत्व’ में भी शिव की महिमा का वर्णन किया है। यथा - शिवतत्व अपनी ही शक्‍ति से आभासित होता है और वही संयोजन का कारण भी है और वियोजन का भी। (शिवतत्व, पृ.37)।

भारत गाँवों का देश है। सही अर्थ में भारतीय संस्कृति गाँवों में ही जीवित है। शास्त्रीजी ने गाँवों के जीवन तथा मिट्टी के सोंधेपन को बखूबी अपने निबंधों में प्रस्तुत किया है। ‘लमही में प्रेमचंद’ नामक निबंध में लेखक ने अपनी बात रम्य कल्पना के माध्यम से शुरू की हैं। वे कहते हैं कि लमही उनकी भेंट प्रेमचंद से हुई। भौतिक रूप से भले ही प्रेमचंद उपस्थित नहीं हैं लेकिन लमही के जनमानस में , लमहीवालों की चर्चाओं और प्रसंगों में आज भी प्रेमचंद जीवित हैं। लमही में सिर्फ प्रेमचंद ही नहीं बल्कि उनके होरी, धनिया, मातादीन और सिलिया से भी मिला जा सकता है। ‘प्रेमचंद उस माटी से जुड़े हुए हैं जिसके माध्यम से उन्होंने पूरे भारत की माटी और माटी से जुड़े सपूतों की पीड़ा को उभार कर उसीके परिप्रेक्ष्य में स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय की मांग की थी।’ (लमही में प्रेमचंद, पृ.64)। लेकिन आज तक भी वह न्याय प्राप्‍त नहीं हुआ है। आज भी लमहे के नागरिक प्रेमचंद के समान ही जीतोड़ परिश्रम करके थके मांदे घर लौटते हैं। उनके जीवन में कहीं कोई बदलाव नहीं है। हाँ बदलाव आया है तो बस इतना कि पगडंड़ी की जगह कच्ची सड़क बन गई है।

पहले भी संकेत किया गया है कि शास्त्री जी के निबंधों में स्त्री विषयक चिंतन निहित है। वे यह मानते हैं कि नारी के स्वाभिमान के रक्षा के लिए उसके मन की शुचिता को महत्व दिया जाना चाहिए। जन्म से लेकर स्त्री अपने जीवन काल में अनेक भूमिकाओं का निर्वाह करती है। इन सबमें से मातृत्व का आधिक महत्व है। कहा जाता है कि जब स्त्री माँ बनती है तो वह पूर्ण्ता प्राप्‍त करती है। जिस स्त्री के नसीब में माँ बनने का सौभाग्य नहीं है उसे यह समाज धिक्कारता है और बांझ कहकर उसकी कोख को अपमानित करता है। इसलिए ग्रामीण स्त्रियाँ देवी माँ के सामने याचना करती हैं - ‘माई के दुआरे एक बांझ पुकारे/ देहु ललन घर जाऊँ।’ (ग्रीष्‍म में एक गाँव, पृ.68)। अर्थात्‌ हे माँ! मुझ पर कृपा करो और कम से कम एक पुत्र का वरदान दो जिससे मैं बांझ होने के अभिशाप से मुक्‍त होकर प्रसन्नता पूर्वक घर जा सकूँ। यह स्थिति सिर्फ गाँवों में ही नहीं है, सुशिक्षित सभ्य समाज में भी यही स्थिति है। हमारे समाज में निःसंतान स्त्रियों को आज भी अपमानित होना पड़ता है।


ललित निबंध के क्षेत्र में ‘मोकि कहाँ विश्राम' प्राचीन और उत्तर आधुनिक विमर्श को जोड़नेवाली रचना के रूप में समाधृत होगा। ऐसा विश्‍वास है।
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मोहि कहाँ विश्राम/ डॉ.रामअवध शास्त्री/ 2010/ नमन प्रकाशन, 4231/1, अंसारी रोद, दरियागंज, नई दिल्ली- 110 002/ पृ.119/ मूल्य 250/-

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