मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

एक निबंधकार का समग्र अनुशीलन



"अब तो धर्मनिरपेक्षता के लिए राम और रहीम को भूलना अनिवार्य सा हो गया है। राम को कोसिए तो आप धर्मनिरपेक्ष हैं, रहीम को उपेक्षा कीजिए तो आप धर्मनिरपेक्ष हैं। मुसलमान हैं तो हिंदुओं की बात कीजिए आप धर्मनिरपेक्ष हैं, हिंदू हैं तो मुसलमानों की बात कीजिए तो धर्मनिरपेक्ष हैं, पर अपने धर्म की बात कीजिए तो आप सांप्रदायिक हैं। भाइयो! कहीं धर्मनिरपेक्षता को नास्तिकता से तो जोड़ नहीं लिया है। यदि यह सही है तो सत्यानाश हो ऐसी धर्मनिरपेक्षता का। इसे लानत भेजता हूँ। अरे गंजेड़ियो! तुम्हें किसने बता दिया है कि धर्मनिरपेक्ष होने के लिए धार्मिक उदासीनता जरूरी है। जिस किसी ने ऐसा बताया है उसका मन साफ नहीं है। उसको पहचानो, वह कोई और नहीं तुम्हें तपानेवाला कोई कुटिल है।" (बढ़ गई है गर्मी)

यह विचार ललित निबंधकार रामअवध शास्त्री का है। उनकी दृष्‍टि में सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता दोनों निंदनीय हैं चूँकि ये मनुष्‍य को तपाती हैं। इनके ताप से मनुष्‍यता झुलस रही है। उन्होंने एक साक्षात्कार में अपना मत व्यक्‍त करते हुए कहा है कि "धर्म का मानना, उसके अनुसार आचरण करना तो श्रेयस्कर है, पर उसकी आड़ में अपना उल्लू सीधा करना व्यक्‍ति और समाज दोनों के लिए घातक है। दुर्भाग्यवश आज उल्लू सीधा करने की राजनीति चल रही है। राजनीतिज्ञों की सोचने की शैली अपनी है, पर वे ही सर्वेसर्वा नहीं हैं। इस देश में कलाकार हैं, बुद्धिजीवी हैं, विद्वान हैं, दार्शनिक हैं, चिंतक हैं जिनकी समझ कहीं राजनीतिज्ञों की समझ से अधिक सुलझी हुई होती है। उन्हें महत्व मिलना चाहिए तभी इन समस्याओं का समाधान संभव है और तभी हमारी सांस्कृतिक विरासत सुरक्षित रह सकती है। आज के भारत की संस्कृति मिश्रित संस्कृति है। उसके निर्माण में जितना योगदान हिंदुओं का है उससे कम योगदान मुसलमानों तथा अन्य धर्मावलंबियों का नहीं है। इस सच्चाई को स्वीकारना चाहिए।"

रामअवध शास्त्री वस्तुतः मानवता के पक्षधर हैं। उनमें आम आदमी से जुड़ने का भाव है और आदमी को केवल आदमी के परिवेश में देखने की ललक है। इस ललक के कारण ही वे आम आदमी की वकालत करते हैं। इसीलिए उनके निबंध, रेखाचित्र, संस्मरण तथा कविता पाठकों को स्वतः मोह लेते हैं और संदर्भ विशेष में सोचने के लिए विवश करते हैं। मानवतावादी दृष्‍टिकोण ही उनके निबंधों का केंद्रीय तत्व है।

एक कहावात है - काला अक्षर भैंस बराबर। इसमें यह संकेत छिपा है कि शिक्षा मनुष्य को जैविक जंतु से समाज-सांस्कृतिक प्राणी के रूप में परिवर्तित करती है। अतः वह मनुष्य के अस्तित्व का अभिन्न अंग है। रामअवध शास्त्री की दृष्‍टि में जो शिक्षा मनुष्‍य को मनुष्‍य के पास जाने से रोकती है और भेदभाव को जगाती है, उसका मिलना और न मिलना दोनों बराबर है - "जो शिक्षा हमारी विवशता का उन्मूलन नहीं करती, मनुष्‍य को मनुष्‍य से जोड़ना नहीं जानती, मनुष्‍य को मनुष्‍य का महत्व नहीं समझा पाती, उसका मिलना और न मिलना दोनों बराबर है।" (जोगी ठाकुर)

गुरु-शिष्‍य परंपरा बहुत प्राचीन है। गुरु वह है जो शिष्‍य को ज्ञान दे और शिष्‍य वह है जो अपने गुरु से ज्ञान ले। दोनों के बीच आत्मीय संबंध होता है। लेकिन आज गुरु-शिष्‍य के बीच आत्मीयता का अभाव है। न ही शिष्‍य गुरु को सम्मान दे रहे हैं और न ही गुरु शिष्‍य को स्नेह। इस पर शास्त्री जी कहते हैं कि "गुरु और शिष्‍यों के बीच अब आत्मीयता नहीं रही। अब न कोई शिष्‍य किसी गुरु की खोज में निकलता है, न कोई गुरु बहुत जाँच-पड़ताल के बाद अपने शिष्‍यों का चुनाव करता है और न उसके कृत्याकृत्य का भागीदार बनना चाहता है।" (गुरु जी का चूल्हा)

रामअवध शास्त्री के ललित निबंधों में परंपरा की गूँज सुनाई पड़ती है। वे कहते हैं कि ‘परंपरा से कट कर कोई जीवित नहीं रह सकता। मैं परंपरावादी तो हूँ, किंतु रूढ़िवादी नहीं हूँ। रूढ़ियों का तो घोर विरोधी हूँ। स्वयं निजी जिंदगी में भी मैंने रूढ़ियों को तोड़ा है और अपने लेखन द्वारा लोगों को तोड़ने के लिए उकसाया है क्योंकि रूढ़ियाँ प्रगति के लिए बाधक होती हैं। आधुनिकता की तरह परंपरा भी गतिशील है, हाँ चलती है किसी कुलवधू की तरह मंथर गति से। उसकी यह गति लोगों को अपनी ओर आकृष्‍ट करती है, मुझे भी आकृष्‍ट करती है। मैं भी आकृष्‍ट होता हूँ। अपने देश के चिंतन से जुड़ा हूँ, अपने देश के साहित्य से जुड़ा हूँ, अपने देश के महान साहित्यकारों से जुड़ा हूँ कि भले ही हमारा समाज पाषाण युग से प्‍लास्टिक युग में आ गया हो किंतु उसकी कई मान्यताएँ और मूल्य आज भी प्राचीनता की चादर ओढ़े हुए हैं।’

वस्तुतः रामअवध शास्त्री जिजीविषा और जीवट के रचनाकार हैं। वे ऐतिहासिक और परंपरागत मूल्यों में आस्था रखने के बावजूद रूढ़िगत मूल्यों के विरुद्ध जागरूक हैं। उनकी दृष्‍टि में नारी परंपरा की संवाहिनी है और परंपरा निर्वाह से सर्वाधिक सुरक्षा और सुविधा उसे ही प्राप्‍त होती है। इस समाज में नारी को सम्मानजनक स्थान तभी प्राप्‍त होगा जब पुरुष का संवेदनशील हृदय उसके साथ जुड़ेगा। जहाँ कहीं नारी का अपमान होता है, शास्त्री जी का संवेदनशील हृदय विचलित होता है। अतः वे कहते हैं - "बहुत होती थीं चर्चाएँ/ मच जाता था शोर/ जब कोई नारी/ अपमानित हो जाती थी/ किसी चौराहे पर।"

पर आज लोग संवेदनहीन होते जा रहे हैं। दिनदहाड़े आँखों के सामने ही किसी को मौत के घाट उतारा जा रहा है, किसी की इज्जत लूटी जा रही है। फिर भी लोग अपने रास्ते जाते हैं। इस स्थिति से शास्त्री जी का मन पीड़ित होता है - "किंतु अब ऐसा कुछ नहीं होता/ न द्रवित होता है मन/ न फूटती हैं प्रतिक्रियाँ/ किन्हीं ऐसी घटनाओं पर/ हम आश्‍वस्त हो जाते हैं।"

‘निबंधकार रामअवध शास्त्री’ शीर्षक शोधपरक पुस्तक में शानमियाँ ने रामअवध शास्त्री के व्यक्‍तित्व और कृतित्व (विशेष रूप से निबंधों) का समग्र विवेचन किया है और यह दर्शाया है कि वे परंपरा प्रेमी होते हुए भी आअधुनिकता के बोध से सुसंपन्न रचनाकार है। निष्‍कर्षतः यह कृति यह प्रतिपादित करने में सर्वथा समर्थ है कि रामअवध शास्त्री के निबंधों में उनका साहित्यानुरागी एवं बहुभाषाविद्‌ व्यक्‍तित्व झलकता है जो भारतीय संस्कृति की अच्छाइयों का समर्थक तथा आधुनिक समाज में पनपती विसंगतियों के प्रति सचेत है। उनके निबंधों में साहित्य की अन्य विधाओं की ऐसी सुगंध मिलती है जिससे प्रभावित हुए बिना कोई पाठक नहीं रह सकता।

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* निबंधकार रामअवध शास्त्री/ (सं) देवकीनंदन शर्मा/ 2008 (प्रथम संस्करण)/ नवयुग पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स, एल-21/1, गली नं.5, शिवानी मार्ग, वेस्ट घोंडा, दिल्ली-110 053/ पृष्‍ठ-150/ मूल्य- रु.295/-


1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

राम अवध शास्त्री जी पर अच्छी समीक्षा के लिए साधुवाद नीरजा जी॥