श्रीलाल शुक्ल(1925 – 2011) ने बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के भारतीय जन जीवन के यथार्थ को इतनी सफलता के साथ अपनी रचनाओं में व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की कि उनका नाम इस शती के शीर्षस्त साहित्यकारों में शामिल हो गया. इसमें संदेह नहीं कि उनका कालजयी उपन्यास ‘राग दरबारी’ सही अर्थ में स्वातंत्र्योत्तर भारतीय ग्राम और राजनीति का जीता जागता दर्पण है जो यथार्थ को दिखाता ही नहीं बल्कि सभ्यता की समीक्षा भी करता चलता है. गाँवों की हालत में सुधार हो सकता है बशर्ते कि जहालत का अंधेरा कटे. इसके लिए शिक्षा का प्रकाश जरूरी है. लेकिन हर शाख पर बैठे हुए अँधेरे के एजेंट स्वयं शिक्षा तंत्र में इतना अंधेरा मचाए हुए हैं कि इस अंधेर गर्दी में शिक्षा पद्धति रास्ते में पड़ी हुई कुतिया बनकर रह गई है जिसे कोई भी लात मार सकता है. वह भला क्या प्रकाश लाएगी और क्या परिवर्तन करेगी. होना तो यह चाहिए था कि शिक्षा का स्थान समाज में सबसे ऊपर होता, लेकिन हुआ यह है कि ओछी राजनीति का स्थान सबसे ऊपर है और शिक्षा उसकी क्रीतदासी. सब ओर एक ऐसा राग चल रहा है जिसमें दरबारी संस्कृति फल फूल रही है. श्रीलाल शुक्ल ने ‘राग दरबारी’ में इसी दरबारवाद का सच खोलकर पाठक के सामने रखा है.
‘राग दरबारी’ के इस राजनैतिक संदर्भ के विविध पहलुओं की पड़ताल सीमा मिश्रा (1972) ने विस्तारपूर्वक अपनी शोध कृति ‘श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ का राजनैतिक संदर्भ” (2012) में की हैं. जैसा कि प्रो.अमरसिंह वधान ने लक्षित किया है, इस अल्लोच्नात्म्क ग्रंथ में राजनैतिक विमर्श की व्यापकता है, लेखकीय दायित्व के सभी तत्व मौजूद हैं, और साहित्य के गहरे सरोकार लेखिका के आलोचना कर्म में पारदर्शिता से पढ़े जा सकते हैं. वे ‘राग दरबारी’ का विश्लेषण मात्र नहीं करती बल्कि उसमें अंतर्निहित नए रूपों का प्रकाशन भी करती हैं. इस अनुसंधान प्रक्रिया के माध्यम से यदि नए संदर्भ स्वतः उजागर हो उठते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं.
लेखिका ने आरंभ में राजनैतिक चेतना के स्वरूप पर चर्चा करते हुए हिंदी उपन्यासों में उसके विकास पर प्रकाश डाला है. इसके उपरांत श्रीलाल शुक्ल के व्यक्तित्व और कृतित्व का विवेचन करते हुए ‘राग दरबारी’ के रचना वैशिष्ट्य की परख की गई है. राजनैतिक मूल्यह्रास को एक राजनैतिक विडंबना मानते हुए राजनीति और अपराध के गठबंधन की दुर्घटना के ग्राम विकास पर पड़े प्रभाव के संदर्भ में ग्रामीण राजनैतिक परिवेश के ‘राग दरबारी’ में चित्रण की विवेचना के आधार पर लेखिका ने यह प्रतिपादित किया है कि नेताओं और अधिकारियों की मिलीभगत से भ्रष्टाचार की गतिविधियों का विस्तृत चित्रण तथा वर्तमान राजनीति का घृणित विद्रूप चेहरा ‘राग दरबारी’ में देखने को मिलता है. इसके साथ ही राजनीति की भाषा और व्यंग्य की धार विषयक विश्लेषणात्मक सामग्री इस अध्ययन को परिपूर्णता प्रदान करती है. इसमें संदेह नहीं कि व्यंग के व्यापक प्रयोग से उपन्यासकार की अभिव्यक्ति को नई धार मिली है तथा ‘राग दरबारी’ में प्रयुक्त राजनैतिक प्रयुक्ति, शब्द विन्यास, मुहावरे और प्रतीक श्रीलाल शुक्ल की व्यंजना गर्भित अभिव्यक्ति के द्योतक हैं. उनकी जन पक्षधरता भी स्वतः प्रमाणित है. जैसा कि लेखिका के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने स्वयं कहा है “साहित्यकार केवल शब्दों का खिलाड़ी नहीं है. राजनीति के सर्वव्यापी प्रभावों को देखते हुए निश्चय ही उसे अपने निजी विचारों से किसी विचारधारा से असम्पृक्त नहीं रखा जा सकता है. दूसरी बात यह है, कि भारतीय समाज में धर्म, वर्ग और जाती से जकड़े हुए और दूसरे प्रकार के शोषण से बंध स्वरूप को देखते हुए किसी भी संवेदनशील लेखक का जन पक्षधर हो जाना अनिवार्य है.” कुलमिलाकर सीमा मिश्रा की यह शोधपूर्ण आलोचना पुस्तक ‘राग दरबारी’ की गहरी समझ पर आधारित है और साहित्य के गंभीर पाठकों को पसंद आनी चाहिए.
- श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास ‘राग दरबारी’ का राजनीति संदर्भ / सीमा मिश्रा/ 2012/ नॅशनल पब्लिशिंग हाउस, 2/35 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली – 110 002/ पृष्ठ – 180/ मूल्य – रु.350
2 टिप्पणियां:
श्रीलाल शुक्ल और राग दरबारी एक दूसरे के पर्यायवाची बन गए हैं। उनके इस उपन्यास को कई दृष्टिकोणों से देखा जा सकता है। सीमा मिश्र को इस शोध के लिए बधाई और इस समीक्षा के माध्यम से पुस्तक का परिचय कराने के लिए आभार॥
बहुत ही सुंदर लेख...
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