रविवार, 26 फ़रवरी 2012
शनिवार, 18 फ़रवरी 2012
शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012
भाषा की सामाजिक भूमिका के व्याख्याकार प्रो. दिलीप सिंह
भाषा की सामाजिक भूमिका के व्याख्याकार प्रो. दिलीप सिंह
हिंदी भाषाविज्ञान को एक सुनिश्चित रूप प्रदान करने और समृद्ध करने वाले भारतीय भाषा चिंतकों डा.धीरेंद्र वर्मा, डा.रामविलास शर्मा, डा.देवेंद्रनाथ शर्मा, डा.विद्यानिवास मिश्र, डा.रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, डा.सुरेश कुमार, डा.शिवेंद्र किशोर वर्मा, डा.राजाराम मेहरोत्रा, डा.भोलानाथ तिवारी, डा.कैलाशचंद्र भाटिया और डा.हरदेव बाहरी की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले हिंदी भाषा चिंतक के रूप में डा.दिलीप सिंह (1951) का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और उल्लेखनीय है. उन्होंने व्यावहारिक स्तर पर भाषा की सामाजिक भूमिका के व्याख्याकार के रूप में अपना विशेष स्थान बनाया है.
आधुनिक भाषाविज्ञान के सिद्धांतों का हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के संदर्भ में अनुप्रयोग करना ही वस्तुतः भाषा चिंतक प्रो.दिलीप सिंह की मुख्य चिंता है. उन्होंने अपने लेखन के माध्यम से आधुनिक भाषाविज्ञान और साहित्य चिंतन के बीच की दूरी को पाट कर पाठ विश्लेषण की अपनी मौलिक प्रणाली का प्रतिपादन किया है. इसीलिए उन्हें समाजभाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, पाठ विश्लेषण, अनुवाद चिंतन और भाषा शिक्षण के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त है. अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के क्षेत्र को उन्होंने अपनी लेखनी से समृद्ध किया है. उनकी मौलिक पुस्तकों में व्यावसायिक हिंदी(1983), भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण(2007), पाठ विश्लेषण(2007), भाषा का संसार(2008), हिंदी भाषा चिंतन(2009), अन्य भाषा शिक्षण के बृहत संदर्भ(2010) और अनुवाद की व्यापक संकल्पना(2011) उल्लेखनीय हैं. उन्होंने अनेक पुस्तकों का संपादन भी किया है. उनमें समसामयिक हिंदी कविता(1981), शैलीतत्व : सिद्धांत और व्यवहार(1988), अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य(स्मारिका,1999), साहित्येतर अनुवाद विमर्श(2000), भारतीय भाषा पत्रकारिता : एक अवलोकन(2000), अनुवाद : नई पीठिका, नए संदर्भ(2001), प्रेमचंद की भाषाई चेतना(2006), अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य(2009) आदि सम्मिलित हैं. इसके अतिरिक्त प्रो.रवेंद्रनाथ श्रीवास्तव की समग्र रचनाओं का भी उन्होंने संपादन किया है.
प्रो.दिलीप सिंह यह मानते हैं कि आज के बदलते परिप्रेक्ष्य में शिक्षा का उद्देश्य प्रयोजनपरक होना चाहिए. अतः उन्होंने दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम को प्रयोजनपरक बनाया. 1983 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘व्यावसायिक हिंदी’ इसी उद्देश्य की पूर्ति करती है. इस पुस्तक का लेखन द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी भाषा और साहित्य शिक्षण संबंधी सामग्री के अभाव की पूर्ति करने के लिए किया गया. यह पुस्तक प्रकार्यात्मक हिंदी शिक्षण की उन आरंभिक पुस्तकों में से है जो यह बताती हैं कि हिंदी के किस प्रयोजनमूलक रूप को किस परिप्रेक्ष्य में पढ़ाया जाए. यह पुस्तक उदाहरणों के साथ यह प्रतिपादित करती है कि प्रयोजनमूलक भाषा, भाषा का वह रूप है जिसका प्रयोग किसी विशेष अवसर या कार्य के लिए हो तथा जिसका ज्ञान अभ्यास या विशेष शिक्षा द्वारा प्राप्त किया जाए. स्पष्ट है कि आरम्भ में ही प्रो.सिंह ने प्रयोजन और निष्प्रयोजनमूलक भाषा की गलत बहस को रद्द कर दिया था.
प्रायः देखा जाता है कि भाषावैज्ञानिक अपने आपको साहित्य से और साहित्यकार एवं आलोचक भाषाविज्ञान से दूर रखते हैं. लेकिन प्रो.दिलीप सिंह यह मानते हैं कि साहित्यिक कृति में भाषा अध्ययन की तथा भाषा में सर्जनात्मकता की अनंत संभावनाएँ निहित हैं. 2007 में प्रकाशित पुस्तक ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ इसी बात की पुष्टि करती है कि भाषा के माध्यम से साहित्य और संस्कृति को सीख सकते हैं और सिखा भी सकते हैं. साहित्यिक पाठ वस्तुतः सांस्कृतिक तत्वों से गुंथे होते हैं अतः किसी भी साहित्यिक पाठ को समझने और समझाने के लिए पहले उसमें निहित सांस्कृतिक तत्वों को पहचानकर उनका विश्लेषण करना अनिवार्य है. लेखक यह कहते हैं कि “साहित्यिक पाठ के सन्दर्भ में भी यह सर्व स्वीकार्य तथ्य है कि अधिकांश साहित्यिक पाठ सांस्कृतिक तत्वों से आबद्ध होते हैं अतः सांस्कृतिक सन्दर्भों का विकोडीकरण साहित्यिक पाठ के विश्लेषक/शिक्षक के लिए अनिवार्य है.” (भाषा, साहित्य और सस्कृति शिक्षण, पृ.187). वे यह भी स्पष्ट करते हैं कि “शिक्षक की सजगता का अर्थ है, यह जानना कि प्रत्येक भाषा अपने अनुभव संसार को अपने ढंग से संयोजित और व्यक्त करती है. भौतिक धरातल पर ये तथ्य भले ही एक हों किंतु बोधन के धरातल पर किसी भाषा समाज द्वारा अपनी विशिष्ट सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि के कारण ये एक नए सन्दर्भ में ग्रहण किए जाते हैं.” (वही, पृ.217). इस पुस्तक में संस्कृति शिक्षण पर जोर दिया गया है. इस तरह की यह अनूठी पुस्तक है. इस पुस्तक के बारे में स्पष्ट करते हुए स्वयं लेखक ने कहा है, “भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण के बीच अंतः क्रियात्मक प्रणाली का प्रतिपादन करने से यह पुस्तक अधिगम विकास की उस संकल्पना को साकार करती है जिसमें शिक्षण की एक सीमा के बाद भाषा अध्येता स्वतः अपने प्रयास से अपनी भाषायी समझ और भाषा प्रयोग की शक्ति का विकास करने की ओर उद्यत होता है.” (वही, आवरण).
प्रो.दिलीप सिंह कृति केंद्रित आलोचना पर बल देते हैं. वे यह मानते हैं कि किसी साहित्यकार अथवा साहित्यिक कृति को समझने के लिए साहित्यिक पाठ का संपूर्ण विश्लेषण अनिवार्य है. प्रो.रवींद्रनाथ श्रीवास्तव के कथन ‘कृति (साहित्यिक पाठ) की वस्तु भाषा के द्वारा ही नहीं अपितु भाषा के भीतर जन्म लेती है’ से वे पूरी तरह सहमत हैं. वे मानते हैं कि “कृति केंद्रित आलोचना रचना को गहराई के साथ पढ़ने और सूक्ष्म दृष्टि से किए गए अभिव्यक्ति के विश्लेषण के आधार पर पाठ की अद्वितीयता और उसकी अर्थच्छाया के उद्घाटन की महत्ता पर बल देती है.” (पाठ विश्लेषण, भूमिका). 2007 में प्रकाशित पुस्तक ‘पाठ विश्लेषण’ में लेखक ने दो खंडों (कविता संदर्भ और गद्य संदर्भ) में भक्तिकालीन कविता से लेकर समसामयिक हिंदी साहित्य में निहित लोक, संस्कृति, समाज आदि का पाठ विश्लेषण प्रस्तुत किया है.
भाषा के अभाव में मनुष्य समाज का अस्तित्व संभव नहीं है. हम भाषा के माध्यम से हे सब काम करते हैं परंतु भाषा के बारे में जयादा नहीं जानते. जिस भाषा का प्रयोग हम दैनंदिन जीवन में करते हैं, उसके बारे में जानने और समझने का प्रयत्न नहीं करते. इतना ही नहीं उसके बारे में गलत धारणाएँ भी पाल लेते हैं. प्रो.दिलीप सिंह भाषा के प्रति सजग हैं अतः अपनी पुस्तक ‘भाषा का संसार’ (2008) में उन्होंने भाषा से संबंधित सिद्धांतों, पाश्चात्य एवं भारतीय भाषा चितकों की मान्यताओं के साथ साथ अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की शाखाएँ और भाषा समुदाय, द्विभाषिकता, कोड मिश्रण और कोड परिवर्तन, भाषा द्वैत, भाषा नियोजन, पिजिन और क्रियोल, मानकीकरण और आधुनिकीकरण तथा अधिशासी और अधिशासित भाषाएँ जैसी आधुनिक संकल्पनाओं को स्पष्ट किया है. इस पुस्तक में उन्होंने जोर देकर यह प्रतिपादित किया है की भाषाविज्ञान जड़ नहीं होता.
‘हिंदी भाषा चिंतन’ (2009) में प्रो.दिलीप सिंह ने सात खंडों में मूलतः हिंदी भाषा विषयक विमर्श का एक नया आयाम प्रस्तुत किया है. इस पुस्तक में उन्होंने भाषाविज्ञान के विकास में महिलाओं के योगदान का भी विवेचन किया है. आमतौर पर प्रयोजनमूलक हिंदी कार्यालीन हिंदी तक सीमित रह जाती है. पर लेखक ने यह स्पष्ट किया है कि कार्यालयीन हिंदी प्रयोजनमूलक हिंदी की एक शैली मात्र है. इसको विस्तार देते हुए उन्होंने ‘हिंदी की प्रयोजनमूलक शैलियाँ’ शीर्षक खंड में व्यावसायिक हिंदी की चर्चा करते हुए पत्रकारिता की हिंदी और साहित्य समीक्षा के साथ साथ पाक विधि की हिंदी की प्रयुक्ति का सोदाहरण विवेचन किया है. इस कृति में लेखक ने यह उद्घाटित किया है कि साहित्य से लेकर रसोई तक रस परिपाक का आधार भाषा ही है.
प्रो.दिलीप सिंह मूलतः भाषा शिक्षक हैं. उन्हें द्वितीय भाषा और विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण का व्यापक अनुभव है. हिंदी में अन्य भाषा शिक्षण की सैद्धांतिकी को व्यावहारिक रूप में प्रस्तुत करनेवाली पुस्तकें काफी कम है. डा.सिंह ने इस कमी को दूर करने का यथाशक्ति प्रयास किया है. इस दृष्टि से ‘भाषा, साहित्य और संस्कृति शिक्षण’ के बाद ‘अन्य भाषा शिक्षण के बृहत संदर्भ’ (2010) विशेष रूप से ध्यान खींचने वाली किताब है. यह पुस्तक अन्य भाषा शिक्षण के परिवर्तनशील स्वरूप को सामने रखती है तथा संप्रेषण और शैली को आधार बनाती है. इसमें इलेक्ट्रानिक मीडिया और कंप्यूटर की भूमिका पर भी प्रकाश डाला गया है. वास्तव में यह किताब हिंदी भाषा के अंतरराष्ट्रीय संदर्भ को गढ़ने में अत्यंत उपयोगी हो सकती है. अन्य भाषा शिक्षण में शैलीविज्ञान और समाजभाषाविज्ञान का अनुप्रयोग इस पुस्तक की मौलिक विशेषता है.
हिंदी के अंतरराष्ट्रीय संदर्भ के निर्माण में अनुवाद का भी बड़ा महत्व है. प्रो.दिलीप सिंह अनुवाद चिंतन से आरम्भ से ही जुड़े रहे हैं. अनुवाद विज्ञान के एक सफल अध्यापक के रूप में उन्होंने देश भर में ख्याति प्राप्त की हैं. ‘साहित्येतर हिंदी अनुवाद विमर्श’, ‘अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य’ (स्मारिका), ‘अनुवाद : नई पीठिका, नए संदर्भ’ और ‘अनुवाद का सामयिक परिप्रेक्ष्य’ (ग्रंथ) जैसी संपादित कृतियों के माध्यम से उन्होंने अनुवाद के चिंतन और व्यवहार पक्ष के सभी आयामों को एकत्र करने का अनुष्ठान संपन्न किया है. इसका अगला चरण है ‘अनुवाद की व्यापक संकल्पना’ (2011) जिसमें बदलते भूमंडलीय सामाजार्थिक सन्दर्भों में अनुवाद की नई भूमिका की व्याख्या की गयी है. यहाँ प्रो.सिंह ने समतुल्यता के सिद्धांत को पुनर्व्याख्यायित किया है और अनुवाद मूल्यांकन जैसे सर्वथा नए विषय पर इस पुस्तक में कई प्रारूप दिए गए हैं जो इसे शोधार्थियों और भाषा अध्येताओं के लिए विशेष उपयोगी बानाते हैं. भारत की बहुभाषिकता के संदर्भ में अनुवाद की उपादेयता को प्रतिपादित करने के अलावा यह पुस्तक अब तक के अनुवाद चिंतन को सार रूप में प्रस्तुत करने के कारण इस विषय की अनिवार्य पुस्तक बन गई है.
इस प्रकार प्रो.दिलीप सिंह ने अपनी अब तक प्रकाशित कृतियों के माध्यम से हिंदी भाषाविज्ञान और भाषा चिंतन को ही परिपुष्ट नहीं किया है बल्कि निरंतर सामाजिकता और व्यावहारिकता पर ध्यान केंद्रित रखते हुए अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान को हिंदी के संदर्भ में नई दिशा प्रदान की है.
वर्ष 2011 – 2012 गुरुवर प्रो.दिलीप सिंह का षष्ठिपूर्ति वर्ष है. इस संदर्भ में हम उनके उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना करते हैं :
"चेतना का सुंदर इतिहास-अखिल मानव भावों का सत्य,
विश्व के हृदय-पटल पर दिव्य-अक्षरों से अंकित हो नित्य." (कामायनी)
मंगलवार, 7 फ़रवरी 2012
नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य
अष्ट धातुओं के चूरे की छाई में मैं फूँक भरूँगा
देखोगे, सौ बार मरूँगा
देखोगे, सौ बार जीऊँगा.
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हिंसा मुझसे थर्राएगी
मैं तो उसका खून पीऊँगा
प्रतिहिंसा ही स्थायी भाव है मेरे कवि का
जन जन में जो ऊर्जा भर दे, उद्गाता हूँ मैं उस रवि का." (नागार्जुन)
जनाक्रोश और लोक करुणा से निष्पन्न प्रतिहिंसा ही नागार्जुन की शक्ति है. नागार्जुन ने अपना एक समाज निर्मित किया है जो जन साधारण से बना है. वे घुमक्कड़ कवि और रचनाकार हैं. उनकी रचनाओं में उनके अनुभव का संसार दिखाई पड़ता है.
पिछले वर्ष अर्थात 2011 में हम नागार्जुन की जन्म शताब्दी मना चुके हैं. डा त्रिवेणी झा की शोधपूर्ण समीक्षा कृति के प्रकाशन को नागार्जुन शताब्दी समारोहों की ही एक कड़ी माना जा सकता है.
मिलिंद प्रकाशन, हैदराबाद द्वारा प्रकाशित डा.त्रिवेणी झा की 322 पृष्ठ का महाकाय ग्रंथ 'नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य' नागार्जुन को रस्मी रवायती नजरिये से अलग नए अवलोकन बिंदु से देखने वाला ग्रंथ है. इसमें संदेह नहीं कि नागार्जुन की मूल्यदृष्टि ही उनकी कविता को सही अर्थ में भारतीय कविता बनाती है. प्रो.सुवास कुमार जी ने बहुत संक्षेप में इस ग्रंथ के बारे में यह बहुत सटीक टिप्पणी की हैं कि "नागार्जुन काव्य के महत्वपूर्ण अध्येता डा.त्रिवेणी झा मिथिलांचल से आने के कारण बहुत निकटता से उस काव्य की जड़ों को और तमाम विशेषताओं को पहचान सके हैं. 'नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य' नामक उनका यह शोधकार्य अन्य हिंदी शोध प्रबधों की लीक से हटकर है. दर्शन, समाजशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र, मनोविज्ञान आदि अंतर अनुशासनों की विपुल सहायता लेकर वे नागार्जुन काव्य के जीवन मूल्यों की पहचान और पड़ताल करते हैं. डा. झा अपने व्यापक अध्ययन के मार्फत हमें बताते हैं कि नागार्जुन जीवन के गहरे प्रेम के कवि हैं.सामाजिक सरोकारों के बड़े कवि हैं. उनकी जड़ें संस्कृत, पाली, प्राकृत, बंगला, मैथिली तक फैली हैं. कालिदास और विद्यापति की विरासत को वे अपने युग से जोड़कर बहुत आगे बढाते हैं. वे श्रेष्ठ कवि भी हैं और जनकवि भी. डा.झा की कृति नागार्जुन के जन्म शताब्दी वर्ष में प्रकाशित हो रही है अतः इसका महत्व और भी बढ़ जाता है."
डा.त्रिवेणी झा ने इस ग्रंथ के विषय प्रवेश के अंतर्गत मूल्यों की संकल्पना और परंपरा का विवेचन किया है और यह दर्शाया है कि आधुनिक युग मूल्य विघटन का युग है अतः मूल्य मीमांसा आज की पहली जरूरत है. इसके उपरांत काव्य और जीवन मूल्य के अंतः संबंध की पड़ताल की गई है.
नागार्जुन और उनके काव्य पर विचार करते हुए लेखक ने उनके जीवन में मूल्यों की भूमिका को भी रेखांकित किया है और सिद्ध किया है कि प्रगतिशील जीवन मूल्य नागार्जुन के लिए बहस या सिद्धांत चर्चा का मुद्दा नहीं बल्कि जीवन जीने का ढंग है. उनके काव्य की मूल्य उन्मुखता के संबंध में डा.झा का यह निष्कर्ष द्रष्टव्य है कि "नागार्जुन के काव्य में व्याप्त मूल्यों का मूल चरित्र यह है कि वे स्वानुभूति से उपजे हैं. चाहे रिक्शाचालक के बिवाइयाँ फटे पैर हों या छोटे बच्चे की दंतुरित मुस्कान या फिर रवि ठाकुर – नागार्जुन के लिए सभी काव्यसत्य हैं. व्यंग्य को अपनी कविता का आधार बनाना नागार्जुन के मूल्यधर्मिता का ही उदाहरण है. सच्चा व्यंग्य करुणा से उपजता है और करुणा से बढ़कर तीव्र अनुभूति और क्या होगी?"
आगे नागार्जुन के काव्य के मूल्य संसार की विवेचना परिवार, समाज, सामान्य जन, आत्म, विश्व, दर्शन और राजनीति के सन्दर्भ में की गई है और यह दिखाया गया है कि नागार्जुन मूल्य की दृष्टि से कबीर और निराला की परंपरा के जन कवि हैं तथा जन का मूल्य संसार ही उनके काव्य में पुनर्रचित मूल्य संसार का आधार है.
विवेच्य ग्रंथ में लेखक ने विस्तारपूर्वक राजनैतिक, सामाजिक, दार्शनिक, धार्मिक, सौंदर्य सम्बन्धी, नैतिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक जीवन मूल्यों के समावेश की दृष्टि से नागार्जुन के काव्य का गहन विवेचन किया है. इससे नागार्जुन की मूल्य चेतना तो उभरकर सामने आई ही है, यह भी स्पष्ट हुआ है कि उनके जैसा सिद्धहस्त साहित्यकार अपनी रचनाओं में उपदेशात्मकता से बचते हुए किस प्रकार जीवन मूल्यों को समाविष्ट करता है और सहज ही कला की ऊंचाइयों को छू लेता है. इसमें संदेह नहीं कि यह कृति इस तथ्य को स्थापित करने में सफल रही है कि नागार्जुन के समस्त रचना संसार के पीछे एक अनन्य लोक हृदय धडक रहा है जो सर्वहारा के जीवन सत्य को जीवन मूल्य का स्रोत बनाता है.
'नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य' शीर्षक शोध ग्रंथ के लोकार्पण के अवसर पर मैं इसके लेखक डा. त्रिवेणी झा को बधाई देती हूँ. मुझे विश्वास है कि उनकी इस कृति का हिंदी जगत में व्यापक स्वागत होगा.
- नागार्जुन के काव्य में जीवन मूल्य/ डा.त्रिवेणी झा/ 2012 (प्रथम संस्करण)/ मिलिंद प्रकाशन, 4-3-178/2,कन्दास्वामी बाग, हनुमान व्यायामशाला की गली, सुलतान बाजार, हैदराबाद – 500 095/ पृष्ठ – 322/ मूल्य – रु.400
सोमवार, 6 फ़रवरी 2012
हिंदी के प्रचार-प्रसार में तमिल भाषा भाषियों का योगदान*
भाषा संप्रेषण का एक सशक्त एवं अत्यंत महत्वपूर्ण साधन है. हिंदी भाषा ने विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच संपर्क सूत्र निर्मित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है. ‘अखिल भारतीय भाषा के रूप में हिंदी भाषा की केंद्रीय भूमिका को स्वीकारने, आदान-प्रदान की प्रमुख भाषा मानकर उसे अपनाने तथा हिंदी में मौलिक सृजन और अनुवाद करके उसे भारतीय भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने में दक्षिण भारत के चारों प्रांतों के अनेक हिंदी प्रेमियों का योगदान अप्रतिम है. निश्चित ही हिंदी भाषा के प्रति दाक्षिणात्यों के इस कार्य के पीछे हिंदी भाषा की प्रकृति में अंतर्भुक्त सामासिकता के तत्वों की भूमिका रही है.’ (प्रो.दिलीप सिंह, दक्षिण भारत की भाषाई चेतना और हिंदी भाषा, मोटूरि सत्यनारायण जन्मशती समारोह स्मारिका, मार्च 2003, प्रधान संपादक – प्रो.नित्यानंद पांडेय, पृ.261). इस संदर्भ में चंद्रकांत बांदिवडेकर का यह कथन उल्लेखनीय है – ‘हिंदी की अपनी उदार सामासिक शक्ति का यह प्रमाण है कि हिंदी साहित्य केवल हिंदी भाषा भाषियों का साहित्य नहीं रहा. अहिंदी भाषी भारतीय भी साहित्य की सेवा कर रहे हैं. कुछ विद्वानों ने तो ऐसा काम किया है कि उनके कृतित्व को देखकर आश्चर्य होता है.’ (वही).
वस्तुतः भारतीय भाषा भाषियों ने हिंदी को राष्ट्रीय चेतना की भाषा के रूप में अपनाया और उसके प्रचार-प्रसार के लिए अपना तन, मन, धन न्यौछावर कर दिया. डा.रघुवंश ने भारतीय भाषा परिवेश के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए लिखा था कि ‘हिंदी का मूलाधार भारतीय भाषाओं की सांस्कृतिक मूल्य-प्रक्रिया में आत्मसात होकर ही शक्ति प्राप्त कर सकता है. बिना इन भाषाओं के विकास के हिंदी को उसका पूरा संश्लिष्ट व्यक्तित्व नहीं मिला सकता.’ (वही, पृ.262).
राष्ट्रभाषा हिंदी की आवश्यकता को समस्त भारत ने समझा और हिंदी भाषा के विकास में दक्षिण भारतीय भाषा भाषियों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी के विकास में यथासंभव योगदान हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य है. इस संदर्भ में भारतेंदु की चिर परिचित उक्ति अत्यंत सार्थक है – ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल.’
आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक आदि के प्रबल प्रयास से हिंदी को राष्ट्रीय अस्मिता मिली थी. इसके बाद ही प्रचार-प्रसार जोर पकड़ने लगा. बालगंगाधर तिलक ने अपनी पत्रिका ‘केसरी’ और ‘मराठा’ में हिंदी को भी स्थान दिया. इनकी प्रेरणा से 1907 में नागपुर से ‘हिंदी केसरी’ पत्रिका निकलने लगी. तमिल के राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्य भारती पांडिचेरी से निकलनेवाली तमिल साप्ताहिक ‘इंडिया’ में ‘हिंदी केसरी’ में प्रकाशित लेखों का अनुवाद छापते थे. इतना ही नहीं उन्होंने 1907 में स्वयं हिंदी वर्ग चलाकर राष्ट्रवाणी का प्रचार प्रारंभ किया. तमिल माध्यम से हिंदी सीखने के इस प्रयास का तमिल भाषा भाषियों के बीच भी स्वागत हुआ. कालांतर में ‘स्वदेशमित्रन’ जैसी राष्ट्रीय भावना प्रधान तमिल पत्रिकाओं ने हिंदी पाठों के तमिल रूपांतरण का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया था. (रा.शौरिराजन, हिंदी के प्रसार में तमिलनाडु का योगदान, मोटूरि सत्यनारायण जन्मशती समारोह स्मारिका, मार्च 2003, प्रधान संपादक – प्रो.नित्यानंद पांडेय, पृ. 90).
गांधी जी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने तथा इसका प्रचार-प्रसार करने पर बल देने के साथ साथ दक्षिणांचल में हिंदी प्रचार की आवश्यकता की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया. परिणामस्वरूप 1918 में तमिलनाडु की राजधानी मद्रास (अब चेन्नई) के गोखले हाल में पहली हिंदी कक्षा शुरू हुई. गांधी जी के सुपुत्र देवदास गांधी ने एनीबेसेंट, सर सी.पी.रामस्वामी अय्यर, श्री भाष्यम अय्यंगार आदि के नेतृत्व में तमिलनाडु में हिंदी प्रचार का कार्य प्रारंभ किया. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना हुई. सभा ने दक्षिण भारतीयों को हिंदी सिखाने के लिए पाठ्य पुस्तकें तैयार के. तब से लेकर आज तक सभा ने उत्तरोत्तर विकास किया है.
सन 1936 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने तमिल भाषी जनता से अपील की - ‘यदि दक्षिण भारतीय क्रियात्मक रूप से पूरे देश के साथ एक सूत्र में बंधकर रहना चाहते हैं और वे अखिल भारतीय मामलों से और उससे संबंधित निर्णयों के प्रभाव से अपने को दूर रखना नहीं चाहते, तो उन्हें हिंदी अवश्य पढ़नी चाहिए. ... दक्षिण भारतीयों को पूरे भारत वर्ष में सरकारी और व्यावसायिक नौकरियाँ पाने के लिए भी हिंदी समझने और उसमें बोलने और लिखने का ज्ञान प्राप्त करना जरूरी होगा.’ 1937 में राजाजी के नेतृत्व में मद्रास प्रांत के सभी स्कूलों में हिंदी शिक्षण अनिवार्य कर दिया गया. (डा.एन.चंद्रशेखरन नायर, हिंदीतर भाषा भाषियों का हिंदी के लिए योगदान, मोटूरि सत्यनारायण जन्मशती समारोह स्मारिका, मार्च 2003, प्रधान संपादक – प्रो.नित्यानंद पांडेय, पृ.127).
तमिलनाडु में हिंदी की लोकप्रियता के बढ़ जाने के बाद तमिल भाषियों के मन में हिंदी में अनुवाद तथा मौलिक लेखन के प्रति रूचि जगी. अनेक विद्वानों ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा का परिचय भी दिया. हिंदी के लिए तमिल भाषा भाषियों का योगदान उल्लेखनीय है. पूर्णम सोमसुंदरम, डा.न.वी.राजगोपालन, डा.पी.जयरामन, आचार्य ति.शेषाद्री, डा.एन.सुंदरम, के.ए.जमुना, डा.एम.शेषन, रा.शौरिराजन, डा.कुप्पुस्वामी, डा.मु.वरदराजन, डा.गोविंदराजन, सरस्वती रामनाथ, श्रीनिवास राघवन, डा.राजम नटराजन पिल्लै आदि अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकारों ने उत्कृष्ट रचनाओं के अनुवाद के माध्यम से हिंदी भाषा के सांस्कृतिक रूप को और पुष्ट किया. इन विद्वानों ने तमिल भाषा का इतिहास, अपनी संस्कृति, अपने संत-साहित्यकारों की जीवनी और अपनी साहित्यिक संपदा का परिचय हिंदी में देकर भारतीयता की भावना को चरम सीमा तक पहुंचा दिया है. हिंदी साहित्य पर भी इनके विवेचनात्मक कार्य स्तरीय है.
हिंदी में तमिल साहित्य का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करनेवाले पहले विद्वान थे पूर्णम सोमसुंदरम. ‘तमिल और उसका साहित्य’ शीर्षक अपनी पुस्तक में उन्होंने तमिल साहित्य की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की थी. डा.न.वी.राजगोपालन ने ‘तमिल साहित्य के विभिन्न कालों की साहित्यिक प्रवृत्तियों का विस्तार से विवेचन किया. डा.के.ए.जमुना ने ‘तमिल भाषा और साहित्य’ शीर्षक अपने लेख में तमिल भाषा और साहित्य के इतिहास को रेखांकित किया. उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से तमिल साहित्य के नए पुराने अनेक कवियों की रचनाओं का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है. डा.पी.जयरामन ने ‘आधुनिक तमिल साहित्य सर्वेक्षण’ शीर्षक अपने शोध परक लेख में आधुनिक तमिल साहत्य की प्रवृत्तियों का विवेचन किया है.
इसी क्रम में यह उल्लेखनीय है कि वर्ष 2010 के आनंद ऋषि पुरस्कार से सम्मानित डा.एम.शेषन ने हिंदी की अनेक प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में तमिल साहित्य संबंधी अनेकानेक लेख प्रकाशित किए हैं और निरंतर कर रहे हैं. इतना ही नहीं उन्होंने हिंदी में तमिल साहित्य से संबंधित अनेक मौलिक एवं समीक्षात्मक पुस्तकें भी लिखी हैं. उनकी पुस्तकों में तमिल साहित्य : एक झांकी, आधुनिक तमिल काव्य और सुब्रह्मण्य भारती, तमिल नवजागरण और सुब्रह्मण्य भारती आदि उल्लेखनीय हैं.
तमिल भाषा की श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों का हिंदी में और हिंदी की लोकप्रिय रचनाओं का तमिल में अनुवाद कर दोनों भाषाओं के बीच साहित्य सेतु का कार्य भी इन तमिल भाषी हिंदी लेखकों ने किया है और यह कार्य आज भी चल रहा है.
तमिल साहित्य की प्राचीनतम नीति ग्रंथ तथा तमिल वेद के नाम से प्रसिद्ध तिरुवल्लुवर रचित ‘तिरुक्कुरल’ का हिंदी अनुवाद श्री मु.गो.वेंकटकृष्णन ने किया है. ‘कुरल’(पद) डेढ़ पंक्तियोंवाला तमिल का प्राचीनतम छंद है. तिरुक्कुरल में 1330 कुरल संकलित हैं. वेंकटकृष्णन ने समस्त कुरलों का अनुवाद खड़ी बोली हिंदी में और दोहा छंद में किया है.डा.शंकरराजुनायुडू ने इसका गद्यानुवाद प्रस्तुत किया है. अत्यंत प्रसन्नता की बात है कि विश्वभारती शांतिनिकेतन के प्रयास से तथा डा.एन.सुंदरम जैसे विद्वानों के परिश्रम से तमिल के प्राचीन भक्ति साहित्य ‘नालायिर दिव्य प्रबंधम’ का हिंदी में प्रामाणिक अनुवाद उपलब्ध है. इसी प्रकार लखनऊ के भुवन वाणी ट्रस्ट ने सभी दाक्षिणात्य भाषाओं के प्राचीन साहित्य के जो हिंदी अनुवाद प्रकाशित किए हैं उनमें महर्षि कंबन कृत तमिल रामायण का आचार्य ति.शेषाद्री कृत अनुवाद अविस्मरणीय है
तमिल साहित्य के प्रसिद्ध ग्रंथ तोल्काप्पियम, शिलप्पदिगारम, मणिमेखलै, नालायिर दिव्य प्रबंधम आदि का हिंदी अनुवाद जिस तरह उपलब्ध है उसी तरह हिंदी की श्रेष्ठ कृतियाँ राजस्थान का रानिवास(राहुल सांकृत्यायन), सेवासदन(प्रेमचंद), गबन(प्रेमचंद), टेढ़े मेढे रास्ते(भगवती चरण वर्मा), चित्रलेखा(भगवती चरण वर्मा), आधे अधूरे(मोहन राकेश), रुकोगी नहीं, राधिका?(उषा प्रियंवदा), सूरज का सातवाँ घोड़ा(धर्मवीर भारती), अर्धनारीश्वर(विष्णु प्रभाकर), नीला चाँद(शिवप्रसाद सिंह) आदि का तमिल अनुवाद भी उपलब्ध हैं.
ये सब यही दर्शाते हैं कि तमिल क्षेत्र में हिंदी लेखन तथा हिंदी और तमिल के बीच अनुवाद का सुदृढ़ सेतु निर्मित हो चुका है. दक्षिण भारत के राज्यों ने अपने राष्ट्रीय उत्तरदायित्व को समझने के साथ साथ उसे कार्य रूप में भी निरूपित किया है.
- हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद, नामपल्ली की ''हिंदी के क्षेत्र में दक्षिण भाषा भाषियों का योगदान'' शीर्षक राष्ट्रीय संगोष्ठी (10 दिसंबर, 2011 )में प्रस्तुत आलेख ..
- हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद, नामपल्ली की मुख पत्रिका "विवरण पत्रिका" (जनवरी 2012) में प्रकाशित.
बुधवार, 1 फ़रवरी 2012
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