सोमवार, 6 फ़रवरी 2012

हिंदी के प्रचार-प्रसार में तमिल भाषा भाषियों का योगदान*

भाषा संप्रेषण का एक सशक्त एवं अत्यंत महत्वपूर्ण साधन है. हिंदी भाषा ने विभिन्न भारतीय भाषाओं के बीच संपर्क सूत्र निर्मित करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है. ‘अखिल भारतीय भाषा के रूप में हिंदी भाषा की केंद्रीय भूमिका को स्वीकारने, आदान-प्रदान की प्रमुख भाषा मानकर उसे अपनाने तथा हिंदी में मौलिक सृजन और अनुवाद करके उसे भारतीय भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम बनाने में दक्षिण भारत के चारों प्रांतों के अनेक हिंदी प्रेमियों का योगदान अप्रतिम है. निश्चित ही हिंदी भाषा के प्रति दाक्षिणात्यों के इस कार्य के पीछे हिंदी भाषा की प्रकृति में अंतर्भुक्त सामासिकता के तत्वों की भूमिका रही है.’ (प्रो.दिलीप सिंह, दक्षिण भारत की भाषाई चेतना और हिंदी भाषा, मोटूरि सत्यनारायण जन्मशती समारोह स्मारिका, मार्च 2003, प्रधान संपादक – प्रो.नित्यानंद पांडेय, पृ.261). इस संदर्भ में चंद्रकांत बांदिवडेकर का यह कथन उल्लेखनीय है – ‘हिंदी की अपनी उदार सामासिक शक्ति का यह प्रमाण है कि हिंदी साहित्य केवल हिंदी भाषा भाषियों का साहित्य नहीं रहा. अहिंदी भाषी भारतीय भी साहित्य की सेवा कर रहे हैं. कुछ विद्वानों ने तो ऐसा काम किया है कि उनके कृतित्व को देखकर आश्चर्य होता है.’ (वही).

वस्तुतः भारतीय भाषा भाषियों ने हिंदी को राष्ट्रीय चेतना की भाषा के रूप में अपनाया और उसके प्रचार-प्रसार के लिए अपना तन, मन, धन न्यौछावर कर दिया. डा.रघुवंश ने भारतीय भाषा परिवेश के वैशिष्ट्य को रेखांकित करते हुए लिखा था कि ‘हिंदी का मूलाधार भारतीय भाषाओं की सांस्कृतिक मूल्य-प्रक्रिया में आत्मसात होकर ही शक्ति प्राप्त कर सकता है. बिना इन भाषाओं के विकास के हिंदी को उसका पूरा संश्लिष्ट व्यक्तित्व नहीं मिला सकता.’ (वही, पृ.262). 

राष्ट्रभाषा हिंदी की आवश्यकता को समस्त भारत ने समझा और हिंदी भाषा के विकास में दक्षिण भारतीय भाषा भाषियों ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया. भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी के विकास में यथासंभव योगदान हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य है. इस संदर्भ में भारतेंदु की चिर परिचित उक्ति अत्यंत सार्थक है – ‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल.’ 

आजादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गांधी, बालगंगाधर तिलक आदि के प्रबल प्रयास से हिंदी को राष्ट्रीय अस्मिता मिली थी. इसके बाद ही प्रचार-प्रसार जोर पकड़ने लगा. बालगंगाधर तिलक ने अपनी पत्रिका ‘केसरी’ और ‘मराठा’ में हिंदी को भी स्थान दिया. इनकी प्रेरणा से 1907 में नागपुर से ‘हिंदी केसरी’ पत्रिका निकलने लगी. तमिल के राष्ट्रकवि सुब्रह्मण्य भारती पांडिचेरी से निकलनेवाली तमिल साप्ताहिक ‘इंडिया’ में ‘हिंदी केसरी’ में प्रकाशित लेखों का अनुवाद छापते थे. इतना ही नहीं उन्होंने 1907 में स्वयं हिंदी वर्ग चलाकर राष्ट्रवाणी का प्रचार प्रारंभ किया. तमिल माध्यम से हिंदी सीखने के इस प्रयास का तमिल भाषा भाषियों के बीच भी स्वागत हुआ. कालांतर में ‘स्वदेशमित्रन’ जैसी राष्ट्रीय भावना प्रधान तमिल पत्रिकाओं ने हिंदी पाठों के तमिल रूपांतरण का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया था. (रा.शौरिराजन, हिंदी के प्रसार में तमिलनाडु का योगदान, मोटूरि सत्यनारायण जन्मशती समारोह स्मारिका, मार्च 2003, प्रधान संपादक – प्रो.नित्यानंद पांडेय, पृ. 90)

गांधी जी ने हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने तथा इसका प्रचार-प्रसार करने पर बल देने के साथ साथ दक्षिणांचल में हिंदी प्रचार की आवश्यकता की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट किया. परिणामस्वरूप 1918 में तमिलनाडु की राजधानी मद्रास (अब चेन्नई) के गोखले हाल में पहली हिंदी कक्षा शुरू हुई. गांधी जी के सुपुत्र देवदास गांधी ने एनीबेसेंट, सर सी.पी.रामस्वामी अय्यर, श्री भाष्यम अय्यंगार आदि के नेतृत्व में तमिलनाडु में हिंदी प्रचार का कार्य प्रारंभ किया. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की स्थापना हुई. सभा ने दक्षिण भारतीयों को हिंदी सिखाने के लिए पाठ्य पुस्तकें तैयार के. तब से लेकर आज तक सभा ने उत्तरोत्तर विकास किया है. 

सन 1936 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने तमिल भाषी जनता से अपील की - ‘यदि दक्षिण भारतीय क्रियात्मक रूप से पूरे देश के साथ एक सूत्र में बंधकर रहना चाहते हैं और वे अखिल भारतीय मामलों से और उससे संबंधित निर्णयों के प्रभाव से अपने को दूर रखना नहीं चाहते, तो उन्हें हिंदी अवश्य पढ़नी चाहिए. ... दक्षिण भारतीयों को पूरे भारत वर्ष में सरकारी और व्यावसायिक नौकरियाँ पाने के लिए भी हिंदी समझने और उसमें बोलने और लिखने का ज्ञान प्राप्त करना जरूरी होगा.’ 1937 में राजाजी के नेतृत्व में मद्रास प्रांत के सभी स्कूलों में हिंदी शिक्षण अनिवार्य कर दिया गया. (डा.एन.चंद्रशेखरन नायर, हिंदीतर भाषा भाषियों का हिंदी के लिए योगदान, मोटूरि सत्यनारायण जन्मशती समारोह स्मारिका, मार्च 2003, प्रधान संपादक – प्रो.नित्यानंद पांडेय, पृ.127)

तमिलनाडु में हिंदी की लोकप्रियता के बढ़ जाने के बाद तमिल भाषियों के मन में हिंदी में अनुवाद तथा मौलिक लेखन के प्रति रूचि जगी. अनेक विद्वानों ने अपनी सृजनात्मक प्रतिभा का परिचय भी दिया. हिंदी के लिए तमिल भाषा भाषियों का योगदान उल्लेखनीय है. पूर्णम सोमसुंदरम, डा.न.वी.राजगोपालन, डा.पी.जयरामन, आचार्य ति.शेषाद्री, डा.एन.सुंदरम, के.ए.जमुना, डा.एम.शेषन, रा.शौरिराजन, डा.कुप्पुस्वामी, डा.मु.वरदराजन, डा.गोविंदराजन, सरस्वती रामनाथ, श्रीनिवास राघवन, डा.राजम नटराजन पिल्लै आदि अनेक सुप्रसिद्ध साहित्यकारों ने उत्कृष्ट रचनाओं के अनुवाद के माध्यम से हिंदी भाषा के सांस्कृतिक रूप को और पुष्ट किया. इन विद्वानों ने तमिल भाषा का इतिहास, अपनी संस्कृति, अपने संत-साहित्यकारों की जीवनी और अपनी साहित्यिक संपदा का परिचय हिंदी में देकर भारतीयता की भावना को चरम सीमा तक पहुंचा दिया है. हिंदी साहित्य पर भी इनके विवेचनात्मक कार्य स्तरीय है. 

हिंदी में तमिल साहित्य का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत करनेवाले पहले विद्वान थे पूर्णम सोमसुंदरम. ‘तमिल और उसका साहित्य’ शीर्षक अपनी पुस्तक में उन्होंने तमिल साहित्य की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की थी. डा.न.वी.राजगोपालन ने ‘तमिल साहित्य के विभिन्न कालों की साहित्यिक प्रवृत्तियों का विस्तार से विवेचन किया. डा.के.ए.जमुना ने ‘तमिल भाषा और साहित्य’ शीर्षक अपने लेख में तमिल भाषा और साहित्य के इतिहास को रेखांकित किया. उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से तमिल साहित्य के नए पुराने अनेक कवियों की रचनाओं का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत किया है. डा.पी.जयरामन ने ‘आधुनिक तमिल साहित्य सर्वेक्षण’ शीर्षक अपने शोध परक लेख में आधुनिक तमिल साहत्य की प्रवृत्तियों का विवेचन किया है. 

इसी क्रम में यह उल्लेखनीय है कि वर्ष 2010 के आनंद ऋषि पुरस्कार से सम्मानित डा.एम.शेषन ने हिंदी की अनेक प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में तमिल साहित्य संबंधी अनेकानेक लेख प्रकाशित किए हैं और निरंतर कर रहे हैं. इतना ही नहीं उन्होंने हिंदी में तमिल साहित्य से संबंधित अनेक मौलिक एवं समीक्षात्मक पुस्तकें भी लिखी हैं. उनकी पुस्तकों में तमिल साहित्य : एक झांकी, आधुनिक तमिल काव्य और सुब्रह्मण्य भारती, तमिल नवजागरण और सुब्रह्मण्य भारती आदि उल्लेखनीय हैं. 

तमिल भाषा की श्रेष्ठ साहित्यिक कृतियों का हिंदी में और हिंदी की लोकप्रिय रचनाओं का तमिल में अनुवाद कर दोनों भाषाओं के बीच साहित्य सेतु का कार्य भी इन तमिल भाषी हिंदी लेखकों ने किया है और यह कार्य आज भी चल रहा है. 

तमिल साहित्य की प्राचीनतम नीति ग्रंथ तथा तमिल वेद के नाम से प्रसिद्ध तिरुवल्लुवर रचित ‘तिरुक्कुरल’ का हिंदी अनुवाद श्री मु.गो.वेंकटकृष्णन ने किया है. ‘कुरल’(पद) डेढ़ पंक्तियोंवाला तमिल का प्राचीनतम छंद है. तिरुक्कुरल में 1330 कुरल संकलित हैं. वेंकटकृष्णन ने समस्त कुरलों का अनुवाद खड़ी बोली हिंदी में और दोहा छंद में किया है.डा.शंकरराजुनायुडू ने इसका गद्यानुवाद प्रस्तुत किया है. अत्यंत प्रसन्नता की बात है कि विश्वभारती शांतिनिकेतन के प्रयास से तथा डा.एन.सुंदरम जैसे विद्वानों के परिश्रम से तमिल के प्राचीन भक्ति साहित्य ‘नालायिर दिव्य प्रबंधम’ का हिंदी में प्रामाणिक अनुवाद उपलब्ध है. इसी प्रकार लखनऊ के भुवन वाणी ट्रस्ट ने सभी दाक्षिणात्य भाषाओं के प्राचीन साहित्य के जो हिंदी अनुवाद प्रकाशित किए हैं उनमें महर्षि कंबन कृत तमिल रामायण का आचार्य ति.शेषाद्री कृत अनुवाद अविस्मरणीय है 

तमिल साहित्य के प्रसिद्ध ग्रंथ तोल्काप्पियम, शिलप्पदिगारम, मणिमेखलै, नालायिर दिव्य प्रबंधम आदि का हिंदी अनुवाद जिस तरह उपलब्ध है उसी तरह हिंदी की श्रेष्ठ कृतियाँ राजस्थान का रानिवास(राहुल सांकृत्यायन), सेवासदन(प्रेमचंद), गबन(प्रेमचंद), टेढ़े मेढे रास्ते(भगवती चरण वर्मा), चित्रलेखा(भगवती चरण वर्मा), आधे अधूरे(मोहन राकेश), रुकोगी नहीं, राधिका?(उषा प्रियंवदा), सूरज का सातवाँ घोड़ा(धर्मवीर भारती), अर्धनारीश्वर(विष्णु प्रभाकर), नीला चाँद(शिवप्रसाद सिंह) आदि का तमिल अनुवाद भी उपलब्ध हैं. 

ये सब यही दर्शाते हैं कि तमिल क्षेत्र में हिंदी लेखन तथा हिंदी और तमिल के बीच अनुवाद का सुदृढ़ सेतु निर्मित हो चुका है. दक्षिण भारत के राज्यों ने अपने राष्ट्रीय उत्तरदायित्व को समझने के साथ साथ उसे कार्य रूप में भी निरूपित किया है. 


  • हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद, नामपल्ली की ''हिंदी के क्षेत्र में दक्षिण भाषा भाषियों का योगदान'' शीर्षक  राष्ट्रीय संगोष्ठी (10  दिसंबर, 2011 )में प्रस्तुत आलेख ..
  • हिंदी प्रचार सभा हैदराबाद, नामपल्ली की मुख पत्रिका "विवरण पत्रिका" (जनवरी 2012)  में प्रकाशित. 

1 टिप्पणी:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

इस लेख को विवरण पत्रिका में पढ़ा था। बधाई स्वीकारें डॉ. नीरजा जी।