तप रहा है बदन
तप रहा है मन
युग युगों से
तुम्हारी कैद में
सोने के पंजरे में
बुना तो था प्यार का घोंसला
बन गया जाने कब
बिना दरवाजों का अंधेरा तलवार.
रिश्ते कफन बन गए
घर चिता.
मैं झुलसती रही
इस आग में.
नचाते रहे तुम
नाचती रही मैं.
कभी चाभी के सहारे
कभी चाबुक के साहरे.
बस हो गया
अब नहीं नाचूँगी
मेरी चाभी मुझे दे दो
रोक दो अब तो चाबुक
चाहती हूँ मैं
'मैं' बनकर जिऊँ
सदियों तक.
1 टिप्पणी:
आजादी की मांग करती कविता। चावी मांग करना और अपना 'मैं' खुद बनाना अत्यंत सुंदर।
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