शनिवार, 27 अप्रैल 2013

तपिश


तप रहा है बदन
तप रहा है मन
युग युगों से
तुम्हारी कैद में
सोने के पंजरे में

बुना तो था प्यार का घोंसला
बन गया जाने कब
बिना दरवाजों का अंधेरा तलवार.

रिश्ते कफन बन गए
घर चिता.

मैं झुलसती रही
इस आग में.

नचाते रहे तुम
नाचती रही मैं.
कभी चाभी के सहारे
कभी चाबुक के साहरे.

बस हो गया
अब नहीं नाचूँगी

मेरी चाभी मुझे दे दो
रोक दो अब तो चाबुक

चाहती हूँ मैं
'मैं' बनकर जिऊँ
सदियों तक. 

1 टिप्पणी:

साहित्य और समीक्षा डॉ. विजय शिंदे ने कहा…

आजादी की मांग करती कविता। चावी मांग करना और अपना 'मैं' खुद बनाना अत्यंत सुंदर।