दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के तत्वावधान में 29-30 मार्च 2014 को संस्थान के बेलगाम [कर्नाटक] केंद्र में द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी [पुण्य-स्मरण] आयोजित की गई.यह राष्ट्रीय संगोष्ठी गत दिनों दिवंगत हुए चार साहित्यकारों राजेंद्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव, कैलाश चंद्र भाटिया और ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुण्य-स्मृति को समर्पित थी. इस अवसर पर आंध्र-सभा की पत्रिका ‘स्रवंति’ का इन्हीं साहित्यकारों पर केंद्रित विशेषांक भी प्रकाशित किया गया.
संगोष्ठी के निदेशक प्रो. दिलीप सिंह, संयोजक डॉ. वी. एन. हेगडे तथा डॉ. सी.एन. मुगूटकर की अपील पर साहित्य प्रेमियों, प्राध्यापकों और शोधार्थियों ने दो दिन के इस राष्ट्रीय समारोह में बड़ी संख्या में शिरकत की.
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के तत्वावधान में बेलगाम [कर्नाटक] में 'पुण्य स्मरण : कैलाश चंद्र भाटिया, राजेंद्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव, ओमप्रकाश वाल्मीकि' विषयक द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन संपन्न हुआ.
बीज भाषण देते हुए प्रमुख समाजभाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह ने विगत 14 महीने में दिवंगत हुए विभिन्न साहित्यकारों को भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी. विजयदान देथा को मनुष्य की जिजीविषा को अभिव्यक्त करने वाले तथा राजस्थानी लोककथाओं को हिंदी में लाने वाले कथाकार के रूप में याद किया तो के.सी. सक्सेना को याद करते हुए उन्होंने कहा कि वे ऐसे हास्य-व्यंग्य के जीवट से परिपूर्ण कथाकार थे जो अपने ऊपर भी हंस सकते थे.
डॉ. रघुवंश के साथ जुड़ी यादों को ताजा करते हुए उन्होंने कहा कि डॉ. रघुवंश के साथ उन्होंने समसामयिक कविता पर काम किया जिससे प्रेरित होकर उन्होंने उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के एम.ए. पाठ्यक्रम के लिए 'समसामयिक हिंदी कविता' पुस्तक का संपादन किया. उन्होंने आगे कहा कि वे डॉ. रघुवंश से प्रभावित थे क्योंकि दोनों हाथों से लाचार होते हुए भी उन्होंने पैर की अंगूठी और उंगली के बीच कलम रखकर लिखने का अभ्यास किया. उन्होंने कहा कि रघुवंश अपनी तरह के अकेले काव्यालोचक थे. वे आलोचना से ज्यादा पाठक को महत्व देते थे.
डॉ. सी. प्रसाद को अच्छे बाल साहित्यकार के रूप में याद किया तो शैलेश मटियानी के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा कि शैलेश मटियानी ने मजदूर की जिंदगी जी. इसलिए उनकी कलम कटु यथार्थ की अभिव्यंजना का हथियार है. अमरकांत के बारे में उन्होंने कहा कि कस्बाई जीवन के पहलुओं को अपने लेखन में समेटने में अमरकांत दक्ष थे. वे लिखते नहीं थे, बोलते थे.
डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया का स्मरण करते हुए उन्हें हिंदी भाषा के गहरे अध्येता एवं चिंतक बताया तथा डॉ. परमानंद श्रीवास्तव को 'नई राहों के अन्वेषी आलोचक' के रूप में याद करते हुए कहा कि वे जीवन पर्यंत मार-काट वाली आलोचना का विरोध करते रहे. राजेंद्र यादव के बारे में बात करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि हिंदी साहित्य जगत में उनसे जयादा बखेड़े किसी अन्य साहित्यकार ने नहीं खड़े किए होंगे. राजेंद्र यादव की भाषा पर प्रकाश डालते हुए प्रो. सिंह ने उसे चुनौती और ललकार की भाषा बताया. बीजभाषणकर्ता ने ओमप्रकाश वाल्मीकि को हिंदी साहित्य जगत में पहली बार दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र को लाने वाले साहित्यकार के रूप में स्मरण किया और कहा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि का सारा साहित्य स्वयं में दलित आंदोलन है और उनकी कवितायें वस्तुतः छोटी छोटी चित्रावालियाँ लगती है.
मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए इफ्लू के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि साहित्य का पठन-पाठन सतही स्तर पर करना या व्याख्या भर करना काफी नहीं होता. गहन अध्ययन और विश्लेषण की आवश्यकता आज की माँग है. पाठक को चिंतन एवं भावनात्मक स्तर पर किसी भी साहित्यकार के साथ तादात्म्य करना चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि यह संगोष्ठी निश्चय ही चुनौती से भरी हुई है चूंकि यह ऐसे साहित्यकारों पर केंद्रित है जिन्होंने साहित्य, भाषा, आलोचना, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान जैसे क्षेत्रों के लिए दिशा निर्देशक कार्य किया है. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद से प्रकाशित द्विभाषी मासिक 'स्रवंति' का मार्च 2014 का अंक इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए कर्टन रेसर है क्योंकि यह अंक विशेष रूप से परमानंद श्रीवास्तव, कैलाश चंद्र भाटिया, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राजेंद्र यादव और अमरकांत के पुण्य स्मरण पर केंद्रित है.
अध्यक्षीय भाषण में दिल्ली से पधारे वरिष्ठ कवि एवं भाषाविद प्रो. हीरालाल बाछोतिया ने कहा कि चारों स्मरणीय विभूतियों ने अपने रचनाकर्म द्वारा हिंदी को अक्षुण्ण विचार संपदा से समृद्ध किया है. परमानंद श्रीवास्तव आलोचक और संपादक के साथ साथ विरले कवि थे तो राजेंद्र यादव कथाकार और संपादक के साथ विरले विमर्शकार थे. इसी प्रकार ओमप्रकाश वाल्मीकि केवल दलित साहित्य के ही रचनाकार नहीं थे, विरले समाज चिंतक भी थे तथा डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया पुरातन और अधुनातन का समन्वय करने वाले विरले हिंदी भाषावैज्ञानिक थे.
उद्घाटन सत्र का संचालन उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, धारवाड़ की अध्यक्ष प्रो. अमरज्योति ने किया.
प्रबुद्ध श्रोता गण |
उद्घाटन सत्र : विरले साहित्यकारों का आत्मीय स्मरण
29 मार्च 2014. उद्घाटन दीप प्रज्वलित करते हुए मुख्य अतिथि प्रो. एम. वेंकटेश्वर. साथ में बाएं से - प्रो. ऋषभ देव शर्मा, डॉ. वी.एन. हेगडे, प्रो. हीरालाल बाछोतिया, प्रो. दिलीप सिंह व अन्य |
बीज भाषण करते हुए प्रो. दिलीप सिंह |
डॉ. रघुवंश के साथ जुड़ी यादों को ताजा करते हुए उन्होंने कहा कि डॉ. रघुवंश के साथ उन्होंने समसामयिक कविता पर काम किया जिससे प्रेरित होकर उन्होंने उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के एम.ए. पाठ्यक्रम के लिए 'समसामयिक हिंदी कविता' पुस्तक का संपादन किया. उन्होंने आगे कहा कि वे डॉ. रघुवंश से प्रभावित थे क्योंकि दोनों हाथों से लाचार होते हुए भी उन्होंने पैर की अंगूठी और उंगली के बीच कलम रखकर लिखने का अभ्यास किया. उन्होंने कहा कि रघुवंश अपनी तरह के अकेले काव्यालोचक थे. वे आलोचना से ज्यादा पाठक को महत्व देते थे.
डॉ. सी. प्रसाद को अच्छे बाल साहित्यकार के रूप में याद किया तो शैलेश मटियानी के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा कि शैलेश मटियानी ने मजदूर की जिंदगी जी. इसलिए उनकी कलम कटु यथार्थ की अभिव्यंजना का हथियार है. अमरकांत के बारे में उन्होंने कहा कि कस्बाई जीवन के पहलुओं को अपने लेखन में समेटने में अमरकांत दक्ष थे. वे लिखते नहीं थे, बोलते थे.
डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया का स्मरण करते हुए उन्हें हिंदी भाषा के गहरे अध्येता एवं चिंतक बताया तथा डॉ. परमानंद श्रीवास्तव को 'नई राहों के अन्वेषी आलोचक' के रूप में याद करते हुए कहा कि वे जीवन पर्यंत मार-काट वाली आलोचना का विरोध करते रहे. राजेंद्र यादव के बारे में बात करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि हिंदी साहित्य जगत में उनसे जयादा बखेड़े किसी अन्य साहित्यकार ने नहीं खड़े किए होंगे. राजेंद्र यादव की भाषा पर प्रकाश डालते हुए प्रो. सिंह ने उसे चुनौती और ललकार की भाषा बताया. बीजभाषणकर्ता ने ओमप्रकाश वाल्मीकि को हिंदी साहित्य जगत में पहली बार दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र को लाने वाले साहित्यकार के रूप में स्मरण किया और कहा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि का सारा साहित्य स्वयं में दलित आंदोलन है और उनकी कवितायें वस्तुतः छोटी छोटी चित्रावालियाँ लगती है.
मुख्य अतिथि का संबोधन : प्रो. एम. वेंकटेश्वर |
मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए इफ्लू के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि साहित्य का पठन-पाठन सतही स्तर पर करना या व्याख्या भर करना काफी नहीं होता. गहन अध्ययन और विश्लेषण की आवश्यकता आज की माँग है. पाठक को चिंतन एवं भावनात्मक स्तर पर किसी भी साहित्यकार के साथ तादात्म्य करना चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि यह संगोष्ठी निश्चय ही चुनौती से भरी हुई है चूंकि यह ऐसे साहित्यकारों पर केंद्रित है जिन्होंने साहित्य, भाषा, आलोचना, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान जैसे क्षेत्रों के लिए दिशा निर्देशक कार्य किया है. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद से प्रकाशित द्विभाषी मासिक 'स्रवंति' का मार्च 2014 का अंक इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए कर्टन रेसर है क्योंकि यह अंक विशेष रूप से परमानंद श्रीवास्तव, कैलाश चंद्र भाटिया, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राजेंद्र यादव और अमरकांत के पुण्य स्मरण पर केंद्रित है.
अध्यक्षीय भाषण में दिल्ली से पधारे वरिष्ठ कवि एवं भाषाविद प्रो. हीरालाल बाछोतिया ने कहा कि चारों स्मरणीय विभूतियों ने अपने रचनाकर्म द्वारा हिंदी को अक्षुण्ण विचार संपदा से समृद्ध किया है. परमानंद श्रीवास्तव आलोचक और संपादक के साथ साथ विरले कवि थे तो राजेंद्र यादव कथाकार और संपादक के साथ विरले विमर्शकार थे. इसी प्रकार ओमप्रकाश वाल्मीकि केवल दलित साहित्य के ही रचनाकार नहीं थे, विरले समाज चिंतक भी थे तथा डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया पुरातन और अधुनातन का समन्वय करने वाले विरले हिंदी भाषावैज्ञानिक थे.
उद्घाटन सत्र का संचालन उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, धारवाड़ की अध्यक्ष प्रो. अमरज्योति ने किया.
विचार सत्र 1 : परमानंद श्रीवास्तव
29 मार्च 2014.
उद्घाटन सत्र के बाद पहला विचार सत्र प्रारंभ हुआ. परमानंद श्रीवास्तव को समर्पित इस सत्र की अध्यक्षता दिल्ली से पधारे प्रो. रामजन्म शर्मा ने की. डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, डॉ. नजीम बेगम (चेन्नै), डॉ. शकीला बेगम (धारवाड़), डॉ. बिष्णुकुमार राय (एरणाकुलम) और डॉ.सी.एन. मुगूटकर (बेलगाम) मंचासीन थे. इस सत्र में पाँच शोधपत्र प्रस्तुत किए गए.
उद्घाटन सत्र के बाद पहला विचार सत्र प्रारंभ हुआ. परमानंद श्रीवास्तव को समर्पित इस सत्र की अध्यक्षता दिल्ली से पधारे प्रो. रामजन्म शर्मा ने की. डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, डॉ. नजीम बेगम (चेन्नै), डॉ. शकीला बेगम (धारवाड़), डॉ. बिष्णुकुमार राय (एरणाकुलम) और डॉ.सी.एन. मुगूटकर (बेलगाम) मंचासीन थे. इस सत्र में पाँच शोधपत्र प्रस्तुत किए गए.
डॉ. नजीम बेगम ने परमानंद श्रीवास्तव के संपादक रूप को उदाहरणों सहित उभारा तो डॉ. शकीला बेगम ने परमानंद श्रीवास्तव के चिंतक रूप को काव्य भाषा के संदर्भ में स्पष्ट किया. डॉ. बिष्णुकुमार राय ने काव्य प्रयोजन के संदर्भ में उनके चिंतक रूप को स्पष्ट किया तो डॉ. सी.एन. मुगुटकर ने उनके चिंतन में निहित साहित्य और मनुष्य के संबंध को रेखांकित किया. डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने डॉ. परमानंद श्रीवास्तव के कवि-आलोचक पक्ष पर अपना शोध पत्र पढ़ा.
प्रो. रामजन्म शर्मा |
अध्यक्षीय भाषण में प्रो. रामजन्म शर्मा ने परमानंद श्रीवास्तव के साथ बिताए हुए क्षणों का स्मरण करते हुए कहा कि वे कर्मठ और सुशील व्यक्ति थे. वे नए लोगों को प्रोत्साहित करते थे और उन्हें कविता और लेखन कर्म के गुर सिखाते थे. गोरखपुर में अनेकानेक कवियों और लेखकों को बनाने का काम उन्होंने किया. उन्होंने यह भी याद दिलाया कि दिल्ली एन सी ई आर टी के पास उनसे संबंधित दुर्लभ पांडुलिपि है 'साहित्यकारों के पत्र' जो आज तक अप्रत्याशित कारणों से अप्रकाशित है. उन्होंने ठोंक बजाकर यह कहा कि हिंदी साहित्य जगत में परमानंद श्रीवास्तव ही ऐसे व्यक्ति थे जो लगातार कविता और आलोचना कर्म को एक साथ साधे हुए थे. उन्होंने आगे कहा कि परमानंद श्रीवास्तव ने जीवनपर्यंत साहित्य की सेवा की. सामाजिक सरोकार उनकी कविता की अंतर्वस्तु है तथा लोकतत्व उनकी कविता का अनुगूंज. यदि वे किसी रचना को उठाते हैं तो उसकी जड़ तक पहुँचते हैं और उस रचना की वस्तु से लेकर शिल्प और शैली तक की संरचना की बात करते हैं. परमानंद श्रीवास्तव का साहित्य उत्तर आधुनिक ही नहीं बल्कि उत्तरोत्तर साहित्य है.
सत्र का सचालन डॉ. के.एस. पाटील (बेलगाम) ने किया.
विचार सत्र 2 : राजेंद्र यादव
बाएं से - डॉ. के.एस. पाटील, डॉ. एच. आर. घरपणकर, प्रो. अर्जुन चव्हाण और प्रो. पी. राधिका |
29 मार्च 2014.
भोजनोपरांत राजेंद्र यादव की स्मृतियों को समर्पित दूसरा विचार सत्र प्रारंभ हुआ. इस सत्र की अध्यक्षता कोल्हापुर विश्विद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. अर्जुन चव्हाण ने की.
भोजनोपरांत राजेंद्र यादव की स्मृतियों को समर्पित दूसरा विचार सत्र प्रारंभ हुआ. इस सत्र की अध्यक्षता कोल्हापुर विश्विद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. अर्जुन चव्हाण ने की.
इस सत्र में एर्णाकुलम से पधारी प्रो. पी. राधिका ने राजेंद्र यादव के साहित्य में निहित स्त्री पक्ष को उजागर किया तो धारवाड़ से पधारे डॉ. एच.आर. घरपणकर ने दलित पक्ष से संबंधित राजेंद्र यादव के विचारों को स्पष्ट करने का प्रयास किया. डॉ. के.एस. पाटील ने सांप्रदायिकता के संदर्भ में राजेंद्र यादव की मान्यताओं पर चर्चा की.
यह सत्र विचारोत्तेजक सत्र रहा. अपनी प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए हैदराबाद से पधारे प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि हिंदी में आज दलित साहित्य की स्थिति मजबूत है. आज हिंदी में दलित पत्रकारिता भी सशक्त है. दलित समस्या वर्गगत समस्या नहीं है बल्कि यह एक राष्ट्रीय समस्या है. राजेंद्र यादव को मानवतावादी संवेदना से युक्त साहित्यकार बताया जो पाश्चात्य साहित्य के गजब अध्येता थे तथा मानते थे कि जीवन को डिक्टेट नहीं किया जा सकता है बल्कि उसे वैसे ही जीना पड़ता है जैसे वह हमें मिलता है, परंतु इसे दूसरों के लिए जीने योग्य बनाना भी आवश्यक है.
अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ. अर्जुन चव्हाण ने कहा कि राजेंद्र यादव एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक संस्था का नाम है. वे जिंदगी से भागने वाले व्यक्ति नहीं थे, जिंदगी में सबको साथ लेकर चलने वाले कर्मठ और जुझारू व्यक्ति थे. वे किसी भी मुद्दे पर बेबाक टिप्पणी करते थे.
सत्र का संयोजन डॉ. सी.एन. मुगुटकर ने किया.
बाएं से - डॉ. संजय मादार, डॉ. अमर ज्योति, डॉ. टी.आर. भट्ट, डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. वी.एन. हेगड़े , डॉ. मंजुनाथ अंबिग और डॉ. मृत्युंजय सिंह |
30 मार्च 2014.
दूसरे दिन का पहला सत्र (विचार सत्र-3) ओमप्रकाश वाल्मीकि पर केंद्रित रहा. अध्यक्ष थे प्रो. टी.आर. भट्ट.
डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. अमर ज्योति, डॉ. मंजुनाथ अंबिग, डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. संजय मादार और डॉ. वी.एन. हेगडे ने क्रमशः आत्मकथा साहित्य, कथा साहित्य, काव्य, सौंदर्यशास्त्र, दलित प्रश्न तथा भाषिक वैशिष्ट्य की दृष्टि से ओमप्रकाश वाल्मीकि के योगदान का विश्लेषण किया.
दूसरे दिन का पहला सत्र (विचार सत्र-3) ओमप्रकाश वाल्मीकि पर केंद्रित रहा. अध्यक्ष थे प्रो. टी.आर. भट्ट.
डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. अमर ज्योति, डॉ. मंजुनाथ अंबिग, डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. संजय मादार और डॉ. वी.एन. हेगडे ने क्रमशः आत्मकथा साहित्य, कथा साहित्य, काव्य, सौंदर्यशास्त्र, दलित प्रश्न तथा भाषिक वैशिष्ट्य की दृष्टि से ओमप्रकाश वाल्मीकि के योगदान का विश्लेषण किया.
अध्यक्षीय टिप्पणी में प्रो. टी.आर. भट्ट ने कहा कि आज के अवर्णों के बीच एक ऐसा वर्ग तैयार हो रहा है जो अपने आपको उच्च मानता है और दूसरे अवर्णों को निम्न. आज सवर्ण और अवर्णों के बीच नहीं बल्कि अवर्ण और अवर्ण के बीच जातिभेद प्रबल होता जा रहा है. उन्होंने कन्नड़ दलित साहित्य की बात करते हुए कहा कि वेंकट सुब्बय्या और देवनूर महादेव जैसे अनेक साहित्यकारों ने दलित लेखन को आगे बढाया है. उन्होंने आगे कहा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की भांति कन्नड़ में भी देवनूर महादेव (1948) दलित साहित्य के अत्यंत सशक्त व प्रतिनिधि कथाकार हैं जिन्होंने भोगे हुए यथार्थ को अपने कथासाहित्य में सशक्त रूप से अभिव्यक्त किया. उनका लेखन स्वानुभूतिपरक सृजनात्मक लेखन है. उन्होंने 1971 में मैसूर जनजातियों की भाषा में उपन्यास का सृजन किया. यह ध्यान देने की बात है कि देवनूर महादेव को उनके उपन्यास 'कुसुम बाले' के लिए 1990 में केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार से तथा 2011 में 'पद्मश्री' से अलंकृत किया गया है.
इस सत्र का संचालन उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, एरणाकुलम केंद्र के प्राध्यापक डॉ. बिष्णुकुमार राय ने किया.
विचार सत्र 4 : डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया
बाएं से - डॉ. रामजन्म शर्मा, डॉ, हीरालाल बाछोतिया, डॉ. दिलीप सिंह, डॉ. एम. वेंकटेश्वर और डॉ. ऋषभ देव शर्मा |
30 मार्च 2014.
भाषाविद डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया पर केंद्रित चौथे विचार सत्र की अध्यक्षता प्रमुख समाजभाषाविज्ञानी प्रो. दिलीप सिंह ने की. साथ में, डॉ. रामजन्म शर्मा, डॉ. एम. वेंकटेश्वर, डॉ. ऋषभ देव शर्मा और डॉ. हीरालाल बाछोतिया मंचासीन थे.
प्रो. एम. वेंकटेश्वर |
प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने यह भी स्पष्ट किया कि इन हस्ताक्षरों के जाने से हिंदी भाषा, साहित्य और भाषाविज्ञान के क्षेत्र में रिक्तता पैदा हो गई है चूंकि दूसरी पीढ़ी अभी तक तैयार नहीं हो पाई. अतः उन्होंने साहित्य, भाषा, शिक्षण आदि क्षेत्रों से जुड़े हस्ताक्षरों से यह अपील की कि वे दूसरी पीढ़ी को तैयार करें. उन्होंने इस अवसर पर उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह को बधाई दी क्योंकि वे निरंतर अगली पीढ़ी को तैयार करने में जुटे हुए हैं. इतना ही नहीं उन्होंने युवा पीढ़ी से कहा कि अहंकार को त्याग कर कार्य करने में जुनून के साथ जुट पड़े. उन्होंने आगे यह भी कहा कि यह सिर्फ गुरु के समक्ष अपने आपको समर्पित करने से संभव होगा.
डॉ. हीरालाल बाछोतिया ने कैलाशचंद्र भाटिया के अनुवाद चिंतन को उदाहरणों के साथ स्पष्ट किया और कहा कि भाटिया जी भाषा की मानकता की रक्षा करने के पक्षधर थे. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भाटिया जी ने प्रयोजनमूलक रूप को पारिभाषित करने के लिए विविधतापूर्ण सामग्री तैयार की और उनकी दृष्टि हमेशा भाषा के अनुप्रयोग पक्ष पर रहती थी. आगे उन्होंने भाटिया जी के अनुवाद चिंतन को स्पष्ट करते हुए कहा कि वे अनुवाद और अनुवादक को दोयम दर्जे का न मानकर उच्च कोटि का मानते थे तथा उन्होंने हिंदी भाषा के आधुनिकीकरण के आलोक में अनुवाद की चर्चा की है. उनकी मान्यता है कि हर भाषा की अपनी निजी क्षमताएँ होती हैं. वे लोक बोलियों के पक्षधर थे. वे मानते थे कि भाषा मूलतः शब्द है और शब्द 'संस्कृति' के वाहक. वे अक्सर इस बात पर बल देते थे कि जिस भाषा से अनुवाद कर रहे हैं उस भाषा से टकराना अनिवार्य है चूंकि दो शब्दोंकी टकराहट से ही अर्थ की आग पैदा होती है. उन्होंने कैलाशचंद्र भाटिया के साथ गुजारे हुए क्षणों को भी याद किया.
डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने कैलाशचंद्र भाटिया के काव्य भाषा संबंधी विचारों की व्याख्या करते हुए कहा कि भाटिया जी साहित्य के मर्मज्ञ ऋषि थे. उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण थी. उन्हें प्राचीन कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक की अनेक काव्य पंक्तियाँ कंठस्थ थीं. काव्यभाषा के अध्ययन के लिए उन्होंने अपना निजी मॉडल अपनाया जो ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का अनुप्रयुक्त मॉडल है. वे यह मानते थे कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में अन्योन्याश्रय संबंध है. उनकी मान्यता है कि वस्तु और रूप को अलग अलग नहीं देखा जा सकता. उनकी पुस्तक 'हिंदी काव्य भाषा की प्रवृत्तियाँ' में राउलवेल (शिलांकित काव्य) से लेकर नई कविता तक 22 निबंध सम्मिलित हैं. वे इन निबंधों में भाषा विकास के वर्तन बिंदुओं को बार बार रेखांकित करते चलते हैं. वे साधारणता की ओर जाते हैं. वे मानते हैं की सृजनात्मकता के लिए तद्भवता और देशजता अनिवार्य है. वे हर निबंध के अंत में निर्भ्रांत टिप्पणी के रूप में अपनी स्थापना देते हैं. उनकी भाषा में वागाडम्बर नहीं है. वे मानते हैं कि काव्यभाषा के रूप में समय समय पर जनभाषा को ही अपनाया गया.
डॉ. रामजन्म शर्मा ने कैलाशचंद्र भाटिया के साथ बिताए हुए क्षणों को याद करते हुए कहा कि वे सरल और कोमल व्यक्ति थे; साथ ही कठोर, नियमबद्ध और अनुशासनप्रिय व्यक्ति भी. वे हालात से समौझाता नहीं करते. वे मानते थे कि समाज ही भाषा का वास्तविक रजिस्टर होता है.
अत्यंत भावपूर्ण अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि कैलाशचंद्र भाटिया ने ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की धारा बदल दी. वे बोलीविज्ञान और क्षेत्रीय भाषाविज्ञान पर बल देते थे. उन्होंने यह आक्रोश वक्त किया कि कैलाशचंद्र भाटिया के बाद भाषाविज्ञान विशेष रूप से अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान में बहुत बड़ा गैप पैदा हो चुका है जिसे कवर पाना बहुत ही कठिन कार्य है. उन्होंने बल देते हुए कहा कि धीरेंद्र वर्मा और भाटिया जी ने हिंदी के लिए बहुत काम किया है जिसे देखना और समझना हमारा कर्तव्य है. उन्होंने आगे यह कहा कि आज वे भी लड़खड़ाते हुए उन्हीं पगडंडियों पर चलते हैं. उन्होंने कहा कि सबकी अपनी अपनी मातृभाषाएँ हैं. इन मातृभाषाओं में क्षेत्रीय विकल्प हैं. उन्होंने सबके सामने प्रश्न चिह्न लगाया कि उन बोलियों की ओर कितने लोगों का ध्यान जा रहा है. क्या उन विकल्पों पर कोई काम करेगा, उन बोलियों में लिखे गए साहित्य का अनुवाद किया जाएगा, या फिर पिछड़ों और दलितों की भाषा कहकर उन्हें यों ही नष्ट होने दिया जाएगा. ये ऐसे प्रश्न हैं जो बार बार प्रो. दिलीप सिंह को कचोट रहे हैं. वे इस बात से विचलित हैं कि आगे इन भाषाओं का क्या होगा! उन्होंने यह भी प्रश्न उठाया कि भाषाविज्ञान के क्षेत्र में कितना शोधकार्य हो रहा है? उन्होंने कहा कि भाटिया जी के साथ साथ दस लोगों ने इस क्षेत्र में कार्य किया अपने निजी मॉडल के साथ, पर उनकी भी अपनी अपनी सीमा थी.
प्रो. दिलीप सिंह ने यह याद दिलाया कि रमानाथ सहाय, कैलाशचंद्र भाटिया और रवींद्रनाथ श्रीवास्तव ने मिलकर एन सी ई आर टी के लिए हिंदी का व्याकरण तैयार किया था जिसमें कामताप्रसाद गुरु जी के व्याकरण की सीमाओं को पहचान कर आधुनिक और व्यावहारिक व्याकरण का निर्धारण किया गया था क्योंकि गुरु जी के समय तक आधुनिक हिंदी का इतना विकास नहीं हुआ था. लेकिन आज तक भी व्याकरण की यह किताब एन सी ई आर टी के गोदाम में धूल फाँक रही है. उन्होंने यह भी कहा कि भाटिया जी बोली के बिना भाषा की बात स्वीकार नहीं करते. उनकी मान्यता है कि बोलियों का एसेंस/ स्वाद/ ज़ायका किसी भी साहित्य के लिए अनिवार्य तत्व है.
इस सत्र का संचालन स्नातकोत्तर कॉलेज, बेलगाम की प्राध्यापक डॉ. माधव बागी ने किया.
डॉ. हीरालाल बाछोतिया |
प्रो. ऋषभ देव शर्मा |
प्रो. रामजन्म शर्मा |
अत्यंत भावपूर्ण अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि कैलाशचंद्र भाटिया ने ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की धारा बदल दी. वे बोलीविज्ञान और क्षेत्रीय भाषाविज्ञान पर बल देते थे. उन्होंने यह आक्रोश वक्त किया कि कैलाशचंद्र भाटिया के बाद भाषाविज्ञान विशेष रूप से अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान में बहुत बड़ा गैप पैदा हो चुका है जिसे कवर पाना बहुत ही कठिन कार्य है. उन्होंने बल देते हुए कहा कि धीरेंद्र वर्मा और भाटिया जी ने हिंदी के लिए बहुत काम किया है जिसे देखना और समझना हमारा कर्तव्य है. उन्होंने आगे यह कहा कि आज वे भी लड़खड़ाते हुए उन्हीं पगडंडियों पर चलते हैं. उन्होंने कहा कि सबकी अपनी अपनी मातृभाषाएँ हैं. इन मातृभाषाओं में क्षेत्रीय विकल्प हैं. उन्होंने सबके सामने प्रश्न चिह्न लगाया कि उन बोलियों की ओर कितने लोगों का ध्यान जा रहा है. क्या उन विकल्पों पर कोई काम करेगा, उन बोलियों में लिखे गए साहित्य का अनुवाद किया जाएगा, या फिर पिछड़ों और दलितों की भाषा कहकर उन्हें यों ही नष्ट होने दिया जाएगा. ये ऐसे प्रश्न हैं जो बार बार प्रो. दिलीप सिंह को कचोट रहे हैं. वे इस बात से विचलित हैं कि आगे इन भाषाओं का क्या होगा! उन्होंने यह भी प्रश्न उठाया कि भाषाविज्ञान के क्षेत्र में कितना शोधकार्य हो रहा है? उन्होंने कहा कि भाटिया जी के साथ साथ दस लोगों ने इस क्षेत्र में कार्य किया अपने निजी मॉडल के साथ, पर उनकी भी अपनी अपनी सीमा थी.
प्रो.दिलीप सिंह के साथ प्रो. एम. वेंकटेश्वर और प्रो. ऋषभ देव शर्मा |
इस सत्र का संचालन स्नातकोत्तर कॉलेज, बेलगाम की प्राध्यापक डॉ. माधव बागी ने किया.
समापन समारोह में डॉ. टी. आर. भट्ट (धारवाड़) और डॉ. ऋषभ देव शर्मा (हैदराबाद) ने संगोष्ठी की समीक्षा की और आशा व्यक्त की कि यह रागात्मक और भावनात्मक संबंध बना रहे. बतौर मुख्य अतिथि डॉ. अर्जुन चव्हाण (कोल्हापुर) ने संगोष्ठी के आयोजकों को बधाई दी. अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए डॉ. जयशंकर यादव (बेलगाम) ने कहा कि बेलगाम के इस स्नातकोत्तर भवन में दो दिनों तक भाषाई सौहार्द अंतःसलिला के रूप में प्रवाहित होता रहा. यह आनंद ही साहित्य और जीवन का सरोकार है.
समापन सत्र का संचालन उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, बेलगाम केंद्र के प्रभारी डॉ. वी.एन. हेगडे ने किया. प्राध्यापक डॉ. सी.एन. मुगुटकर ने धन्यवाद ज्ञापित किया तथा सामूहिक जन-गण-मन के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ.
(प्रस्तुति - डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, बेलगाम से लौटकर)