सोमवार, 31 मार्च 2014

दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा ने किया 4 दिवंगत साहित्यिकों का पुण्य स्मरण


हैदराबाद 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के तत्वावधान में 29-30 मार्च 2014 को संस्थान के बेलगाम [कर्नाटक] केंद्र में द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी [पुण्य-स्मरण] आयोजित की गई.यह राष्ट्रीय संगोष्ठी गत दिनों दिवंगत हुए चार साहित्यकारों राजेंद्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव, कैलाश चंद्र भाटिया और ओमप्रकाश वाल्मीकि की पुण्य-स्मृति को समर्पित थी. इस अवसर पर आंध्र-सभा की पत्रिका ‘स्रवंति’ का इन्हीं साहित्यकारों पर केंद्रित विशेषांक भी प्रकाशित किया गया.
प्रबुद्ध श्रोता गण
संगोष्ठी के निदेशक प्रो. दिलीप सिंह, संयोजक डॉ. वी. एन. हेगडे तथा डॉ. सी.एन. मुगूटकर की अपील पर साहित्य प्रेमियों, प्राध्यापकों और शोधार्थियों ने  दो दिन के इस राष्ट्रीय समारोह में बड़ी संख्या में शिरकत की.

 उद्घाटन  सत्र : विरले साहित्यकारों  का आत्मीय स्मरण 
29 मार्च 2014. 
दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के विश्वविद्यालय विभाग, उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के तत्वावधान में बेलगाम [कर्नाटक] में 'पुण्य स्मरण : कैलाश चंद्र भाटिया, राजेंद्र यादव, परमानंद श्रीवास्तव, ओमप्रकाश वाल्मीकि' विषयक द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का उद्घाटन संपन्न हुआ.
उद्घाटन दीप प्रज्वलित करते हुए मुख्य अतिथि प्रो. एम. वेंकटेश्वर.
साथ में बाएं से - प्रो. ऋषभ देव शर्मा, डॉ. वी.एन. हेगडे, प्रो. हीरालाल बाछोतिया, प्रो. दिलीप सिंह
व अन्य 

बीज भाषण करते हुए प्रो. दिलीप सिंह 
बीज भाषण देते हुए प्रमुख समाजभाषावैज्ञानिक प्रो. दिलीप सिंह ने विगत 14 महीने में दिवंगत हुए विभिन्न साहित्यकारों को भावपूर्ण श्रद्धांजलि दी. विजयदान देथा को मनुष्य की जिजीविषा को अभिव्यक्त करने वाले तथा राजस्थानी लोककथाओं को हिंदी में लाने वाले कथाकार के रूप में याद किया तो के.सी. सक्सेना को याद करते हुए उन्होंने कहा कि वे ऐसे हास्य-व्यंग्य के जीवट से परिपूर्ण कथाकार थे जो अपने ऊपर भी हंस सकते थे.

डॉ. रघुवंश के साथ जुड़ी यादों को ताजा करते हुए उन्होंने कहा कि डॉ. रघुवंश के साथ उन्होंने समसामयिक कविता पर काम किया जिससे प्रेरित होकर उन्होंने उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के एम.ए. पाठ्यक्रम के लिए 'समसामयिक हिंदी कविता' पुस्तक का संपादन किया. उन्होंने आगे कहा कि वे डॉ. रघुवंश से प्रभावित थे क्योंकि दोनों हाथों से लाचार होते हुए भी उन्होंने पैर की अंगूठी और उंगली के बीच कलम रखकर लिखने का अभ्यास किया. उन्होंने कहा कि रघुवंश अपनी तरह के अकेले काव्यालोचक थे. वे आलोचना से ज्यादा पाठक को महत्व देते थे.

डॉ. सी. प्रसाद को अच्छे बाल साहित्यकार के रूप में याद किया तो शैलेश मटियानी के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा कि शैलेश मटियानी ने मजदूर की जिंदगी जी. इसलिए उनकी कलम कटु यथार्थ की अभिव्यंजना का हथियार है. अमरकांत के बारे में उन्होंने कहा कि कस्बाई जीवन के पहलुओं को अपने लेखन में समेटने में अमरकांत दक्ष थे. वे लिखते नहीं थे, बोलते थे.

डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया का स्मरण करते हुए उन्हें हिंदी भाषा के गहरे अध्येता एवं चिंतक बताया तथा डॉ. परमानंद श्रीवास्तव को 'नई राहों के अन्वेषी आलोचक' के रूप में याद करते हुए कहा कि वे जीवन पर्यंत मार-काट वाली आलोचना का विरोध करते रहे. राजेंद्र यादव के बारे में बात करते हुए प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि हिंदी साहित्य जगत में उनसे जयादा बखेड़े किसी अन्य साहित्यकार ने नहीं खड़े किए होंगे. राजेंद्र यादव की भाषा पर प्रकाश डालते हुए प्रो. सिंह ने उसे चुनौती और ललकार की भाषा बताया. बीजभाषणकर्ता ने ओमप्रकाश वाल्मीकि को हिंदी साहित्य जगत में पहली बार दलित साहित्य के सौंदर्यशास्त्र को लाने वाले साहित्यकार के रूप में स्मरण किया और कहा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि का सारा साहित्य स्वयं में दलित आंदोलन है और उनकी कवितायें वस्तुतः छोटी छोटी चित्रावालियाँ लगती है.

मुख्य अतिथि का संबोधन : प्रो. एम. वेंकटेश्वर 

मुख्य अतिथि के रूप में संबोधित करते हुए इफ्लू के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि साहित्य का पठन-पाठन सतही स्तर पर करना या व्याख्या भर करना काफी नहीं होता. गहन अध्ययन और विश्लेषण की आवश्यकता आज की माँग है. पाठक को चिंतन एवं भावनात्मक स्तर पर किसी भी साहित्यकार के साथ तादात्म्य करना चाहिए. उन्होंने आगे कहा कि यह संगोष्ठी निश्चय ही चुनौती से भरी हुई है चूंकि यह ऐसे साहित्यकारों पर केंद्रित है जिन्होंने साहित्य, भाषा, आलोचना, अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान जैसे क्षेत्रों के लिए दिशा निर्देशक कार्य किया है. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद से प्रकाशित द्विभाषी मासिक 'स्रवंति' का मार्च 2014 का अंक इस राष्ट्रीय संगोष्ठी के लिए कर्टन रेसर है क्योंकि यह अंक विशेष रूप से परमानंद श्रीवास्तव, कैलाश चंद्र भाटिया, ओमप्रकाश वाल्मीकि, राजेंद्र यादव और अमरकांत के पुण्य स्मरण पर केंद्रित है.

अध्यक्षीय भाषण में दिल्ली से पधारे वरिष्ठ कवि एवं भाषाविद प्रो. हीरालाल बाछोतिया ने कहा कि चारों स्मरणीय विभूतियों ने अपने रचनाकर्म द्वारा हिंदी को अक्षुण्ण विचार संपदा से समृद्ध किया है. परमानंद श्रीवास्तव आलोचक और संपादक के साथ साथ विरले कवि थे तो राजेंद्र यादव कथाकार और संपादक के साथ विरले विमर्शकार थे. इसी प्रकार ओमप्रकाश वाल्मीकि केवल दलित साहित्य के ही रचनाकार नहीं थे, विरले समाज चिंतक भी थे तथा डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया पुरातन और अधुनातन का समन्वय करने वाले विरले हिंदी भाषावैज्ञानिक थे.

उद्घाटन सत्र का संचालन उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, धारवाड़ की अध्यक्ष प्रो. अमरज्योति ने किया.

विचार सत्र 1 : परमानंद श्रीवास्तव 


29 मार्च 2014.
उद्घाटन सत्र के बाद पहला विचार सत्र प्रारंभ हुआ. परमानंद श्रीवास्तव को समर्पित इस सत्र की अध्यक्षता दिल्ली से पधारे प्रो. रामजन्म शर्मा ने की. डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, डॉ. नजीम बेगम (चेन्नै), डॉ. शकीला बेगम (धारवाड़), डॉ. बिष्णुकुमार राय (एरणाकुलम) और डॉ.सी.एन. मुगूटकर (बेलगाम) मंचासीन थे. इस सत्र में पाँच शोधपत्र प्रस्तुत किए गए. 

डॉ. नजीम बेगम ने परमानंद श्रीवास्तव के संपादक रूप को उदाहरणों सहित उभारा तो डॉ. शकीला बेगम ने परमानंद श्रीवास्तव के चिंतक रूप को काव्य भाषा के संदर्भ में स्पष्ट किया. डॉ. बिष्णुकुमार राय ने काव्य प्रयोजन के संदर्भ में उनके चिंतक रूप को स्पष्ट किया तो डॉ. सी.एन. मुगुटकर ने उनके चिंतन में निहित साहित्य और मनुष्य के संबंध को रेखांकित किया. डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा ने डॉ. परमानंद श्रीवास्तव के कवि-आलोचक पक्ष पर अपना शोध पत्र पढ़ा. 

प्रो. रामजन्म शर्मा 
अध्यक्षीय भाषण में प्रो. रामजन्म शर्मा ने परमानंद श्रीवास्तव के साथ बिताए हुए क्षणों का स्मरण करते हुए कहा कि वे कर्मठ और सुशील व्यक्ति थे. वे नए लोगों को प्रोत्साहित करते थे और उन्हें कविता और लेखन कर्म के गुर सिखाते थे. गोरखपुर में अनेकानेक कवियों और लेखकों को बनाने का काम उन्होंने किया. उन्होंने यह भी याद दिलाया कि दिल्ली एन सी ई आर टी के पास उनसे संबंधित दुर्लभ पांडुलिपि है 'साहित्यकारों के पत्र' जो आज तक अप्रत्याशित कारणों से अप्रकाशित है. उन्होंने ठोंक बजाकर यह कहा कि हिंदी साहित्य जगत में परमानंद श्रीवास्तव ही ऐसे व्यक्ति थे जो लगातार कविता और आलोचना कर्म को एक साथ साधे हुए थे. उन्होंने आगे कहा कि परमानंद श्रीवास्तव ने जीवनपर्यंत साहित्य की सेवा की. सामाजिक सरोकार उनकी कविता की अंतर्वस्तु है तथा लोकतत्व उनकी कविता का अनुगूंज. यदि वे किसी रचना को उठाते हैं तो उसकी जड़ तक पहुँचते हैं और उस रचना की वस्तु से लेकर शिल्प और शैली तक की संरचना की बात करते हैं. परमानंद श्रीवास्तव का साहित्य उत्तर आधुनिक ही नहीं बल्कि उत्तरोत्तर साहित्य है.      

सत्र का सचालन डॉ. के.एस. पाटील (बेलगाम) ने किया. 

विचार सत्र 2 : राजेंद्र यादव 
बाएं से - डॉ. के.एस. पाटील, डॉ. एच. आर. घरपणकर, प्रो. अर्जुन चव्हाण और प्रो. पी. राधिका 

29 मार्च 2014.
भोजनोपरांत राजेंद्र यादव की स्मृतियों को समर्पित दूसरा विचार सत्र प्रारंभ हुआ. इस सत्र की अध्यक्षता कोल्हापुर विश्विद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष प्रो. अर्जुन चव्हाण ने की.

इस सत्र में एर्णाकुलम से पधारी प्रो. पी. राधिका ने राजेंद्र यादव के साहित्य में निहित स्त्री पक्ष को उजागर किया तो धारवाड़ से पधारे डॉ. एच.आर. घरपणकर ने दलित पक्ष से संबंधित राजेंद्र यादव के विचारों को स्पष्ट करने का प्रयास किया. डॉ. के.एस. पाटील ने सांप्रदायिकता के संदर्भ में राजेंद्र यादव की मान्यताओं पर चर्चा की.

यह सत्र विचारोत्तेजक सत्र रहा. अपनी प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए हैदराबाद से पधारे प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने कहा कि हिंदी में आज दलित साहित्य की स्थिति मजबूत है. आज हिंदी में दलित पत्रकारिता भी सशक्त है. दलित समस्या वर्गगत समस्या नहीं है बल्कि यह एक राष्ट्रीय समस्या है. राजेंद्र यादव को मानवतावादी संवेदना से युक्त साहित्यकार बताया जो पाश्चात्य साहित्य के गजब अध्येता थे तथा मानते थे कि जीवन को डिक्टेट नहीं किया जा सकता है बल्कि उसे वैसे ही जीना पड़ता है जैसे वह हमें मिलता है, परंतु इसे दूसरों के लिए जीने योग्य बनाना भी आवश्यक है. 

अपने अध्यक्षीय भाषण में डॉ. अर्जुन चव्हाण ने कहा कि राजेंद्र यादव एक व्यक्ति नहीं बल्कि एक संस्था का नाम है. वे जिंदगी से भागने वाले व्यक्ति नहीं थे, जिंदगी में सबको साथ लेकर चलने वाले कर्मठ और जुझारू व्यक्ति थे. वे किसी भी मुद्दे पर बेबाक टिप्पणी करते थे. 

सत्र का संयोजन डॉ. सी.एन. मुगुटकर ने किया.

विचार सत्र 3 : ओमप्रकाश वाल्मीकि 
बाएं से - डॉ. संजय मादार, डॉ. अमर ज्योति, डॉ. टी.आर. भट्ट,
डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. वी.एन. हेगड़े , डॉ. मंजुनाथ अंबिग और डॉ. मृत्युंजय सिंह  

30 मार्च 2014.
दूसरे दिन का पहला सत्र (विचार सत्र-3) ओमप्रकाश वाल्मीकि पर केंद्रित रहा.  अध्यक्ष थे प्रो. टी.आर. भट्ट.

डॉ. मृत्युंजय सिंह, डॉ. अमर ज्योति, डॉ. मंजुनाथ अंबिग, डॉ. गोरखनाथ तिवारी, डॉ. संजय मादार और डॉ. वी.एन. हेगडे ने क्रमशः आत्मकथा साहित्य, कथा साहित्य, काव्य, सौंदर्यशास्त्र, दलित प्रश्न तथा भाषिक वैशिष्ट्य की दृष्टि से ओमप्रकाश वाल्मीकि के योगदान का विश्लेषण किया. 

अध्यक्षीय टिप्पणी में प्रो. टी.आर. भट्ट ने कहा कि आज के अवर्णों के बीच एक ऐसा वर्ग तैयार हो रहा है जो अपने आपको उच्च मानता है और दूसरे अवर्णों को निम्न. आज सवर्ण और अवर्णों के बीच नहीं बल्कि अवर्ण और अवर्ण के बीच जातिभेद प्रबल होता जा रहा है. उन्होंने कन्नड़ दलित साहित्य की बात करते हुए कहा कि वेंकट सुब्बय्या और देवनूर महादेव जैसे अनेक साहित्यकारों ने  दलित लेखन को आगे बढाया है. उन्होंने आगे कहा कि ओमप्रकाश वाल्मीकि की भांति कन्नड़ में भी देवनूर महादेव (1948) दलित साहित्य के अत्यंत सशक्त व प्रतिनिधि कथाकार हैं जिन्होंने  भोगे हुए यथार्थ को अपने कथासाहित्य में सशक्त रूप से अभिव्यक्त किया. उनका लेखन स्वानुभूतिपरक सृजनात्मक लेखन है. उन्होंने 1971 में मैसूर जनजातियों की भाषा में उपन्यास का सृजन किया. यह ध्यान देने की बात है कि देवनूर महादेव को उनके उपन्यास 'कुसुम बाले' के लिए 1990 में केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार से तथा 2011 में 'पद्मश्री' से अलंकृत किया गया है. 

इस सत्र का संचालन उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, एरणाकुलम केंद्र के प्राध्यापक डॉ. बिष्णुकुमार राय ने किया. 

विचार सत्र 4  : डॉ. कैलाश चंद्र भाटिया 
बाएं से - डॉ. रामजन्म शर्मा, डॉ, हीरालाल बाछोतिया, डॉ. दिलीप सिंह, डॉ. एम. वेंकटेश्वर और डॉ. ऋषभ देव शर्मा 

30 मार्च 2014.
भाषाविद डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया पर केंद्रित चौथे विचार सत्र की अध्यक्षता प्रमुख समाजभाषाविज्ञानी प्रो. दिलीप सिंह ने की. साथ में, डॉ. रामजन्म शर्मा, डॉ. एम. वेंकटेश्वर, डॉ. ऋषभ देव शर्मा और डॉ. हीरालाल बाछोतिया मंचासीन थे. 

प्रो. एम. वेंकटेश्वर 
डॉ. एम. वेंकटेश्वर ने डॉ. कैलाशचंद्र भाटिया के कोशकार रूप को रेखांकित किया. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भाटिया जी के 'अंग्रेजी-हिंदी अभिव्यक्ति कोश', 'हिंदी-अंग्रेजी मुहावरा लोकोक्ति कोश' और 'अंग्रेजी-हिंदी प्रशासनिक कोश' आदि बहुत ही महत्वपूर्ण हैं तथा उन्होंने इस बात पर बल दिया कि अनुवाद, राजभाषा, प्रयोजनमूलक क्षेत्र, प्रशासन आदि क्षेत्रों से जुड़े लोगों के लिए ये महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं. विशिष्ट प्रयुक्तिगत क्षेत्रों में शब्द चयन के लिए मानक कोश हैं. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि कैलाशचंद्र भाटिया कोश निर्माण और कोश प्रयोग पर बल देते थे. वे जुनून के साथ काम करते थे. भाटिया जी ने द्वितीय भाषा शिक्षण के लिए भी सहायक सामग्री तैयार की थी. वे कुशल शिक्षक थे. 

प्रो. एम. वेंकटेश्वर ने यह भी स्पष्ट किया कि इन हस्ताक्षरों के जाने से हिंदी भाषा, साहित्य और भाषाविज्ञान के क्षेत्र में रिक्तता पैदा हो गई है चूंकि दूसरी पीढ़ी अभी तक तैयार नहीं हो पाई. अतः उन्होंने साहित्य, भाषा, शिक्षण आदि क्षेत्रों से जुड़े हस्ताक्षरों से यह अपील की कि वे दूसरी पीढ़ी को तैयार करें. उन्होंने इस अवसर पर उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास के कुलसचिव प्रो. दिलीप सिंह को बधाई दी क्योंकि वे निरंतर अगली पीढ़ी को तैयार करने में जुटे हुए हैं. इतना ही नहीं उन्होंने युवा पीढ़ी से कहा कि अहंकार को त्याग कर कार्य करने में जुनून के साथ जुट पड़े. उन्होंने आगे यह भी कहा कि यह सिर्फ गुरु के समक्ष अपने आपको समर्पित करने से संभव होगा.

डॉ. हीरालाल बाछोतिया 
डॉ. हीरालाल बाछोतिया ने कैलाशचंद्र भाटिया के अनुवाद चिंतन को उदाहरणों के साथ स्पष्ट किया और कहा कि भाटिया जी भाषा की मानकता की रक्षा करने के पक्षधर थे. उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भाटिया जी ने प्रयोजनमूलक रूप को पारिभाषित करने के लिए विविधतापूर्ण सामग्री तैयार की और उनकी दृष्टि हमेशा भाषा के अनुप्रयोग पक्ष पर  रहती थी. आगे उन्होंने भाटिया जी के अनुवाद चिंतन को स्पष्ट करते हुए कहा कि वे अनुवाद और अनुवादक को दोयम दर्जे का न मानकर उच्च कोटि का मानते थे तथा उन्होंने हिंदी भाषा के आधुनिकीकरण के आलोक में अनुवाद की चर्चा की है. उनकी मान्यता है कि हर भाषा की अपनी निजी क्षमताएँ होती हैं. वे लोक बोलियों के पक्षधर थे. वे मानते थे कि भाषा मूलतः शब्द है और शब्द 'संस्कृति' के वाहक. वे अक्सर इस बात पर बल देते थे कि जिस भाषा से अनुवाद कर रहे हैं उस भाषा से टकराना अनिवार्य है चूंकि दो शब्दोंकी  टकराहट से ही अर्थ की आग पैदा होती है. उन्होंने कैलाशचंद्र भाटिया के साथ गुजारे हुए क्षणों को भी याद किया.

प्रो. ऋषभ देव शर्मा 
डॉ. ऋषभ देव शर्मा ने कैलाशचंद्र भाटिया के काव्य भाषा संबंधी विचारों की व्याख्या करते हुए कहा कि भाटिया जी साहित्य के मर्मज्ञ ऋषि थे. उनकी स्मरण शक्ति विलक्षण थी. उन्हें प्राचीन कवियों से लेकर आधुनिक कवियों तक की अनेक काव्य पंक्तियाँ कंठस्थ थीं. काव्यभाषा के अध्ययन के लिए उन्होंने अपना निजी मॉडल अपनाया जो ऐतिहासिक भाषाविज्ञान का अनुप्रयुक्त मॉडल है. वे यह मानते थे कि अनुभूति और अभिव्यक्ति में अन्योन्याश्रय संबंध है. उनकी मान्यता है कि वस्तु और रूप को अलग अलग नहीं देखा जा सकता. उनकी पुस्तक 'हिंदी काव्य भाषा की प्रवृत्तियाँ' में राउलवेल (शिलांकित काव्य) से लेकर नई कविता तक 22 निबंध सम्मिलित हैं. वे इन निबंधों में भाषा विकास के वर्तन बिंदुओं  को बार बार रेखांकित करते चलते हैं. वे साधारणता की ओर जाते हैं. वे मानते हैं की सृजनात्मकता के लिए तद्भवता और देशजता अनिवार्य है. वे हर निबंध के अंत में निर्भ्रांत टिप्पणी के रूप में अपनी स्थापना देते हैं. उनकी भाषा में वागाडम्बर नहीं है. वे मानते हैं  कि  काव्यभाषा के रूप में समय समय पर जनभाषा को ही अपनाया गया.

प्रो. रामजन्म शर्मा 
डॉ. रामजन्म शर्मा ने कैलाशचंद्र भाटिया के साथ बिताए हुए क्षणों को याद करते हुए कहा कि वे सरल और कोमल व्यक्ति थे; साथ ही कठोर, नियमबद्ध और अनुशासनप्रिय व्यक्ति भी. वे हालात से समौझाता नहीं करते. वे मानते थे कि  समाज ही भाषा का वास्तविक रजिस्टर होता है.

अत्यंत भावपूर्ण अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो. दिलीप सिंह ने कहा कि कैलाशचंद्र भाटिया ने ऐतिहासिक भाषाविज्ञान की धारा बदल दी. वे बोलीविज्ञान और क्षेत्रीय भाषाविज्ञान पर बल देते थे. उन्होंने यह आक्रोश वक्त किया कि कैलाशचंद्र भाटिया के बाद भाषाविज्ञान विशेष रूप से अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान में बहुत बड़ा गैप पैदा हो चुका है जिसे कवर पाना बहुत ही कठिन कार्य है. उन्होंने बल देते हुए कहा कि धीरेंद्र वर्मा और भाटिया जी ने हिंदी के लिए बहुत काम किया है जिसे देखना और समझना हमारा कर्तव्य है. उन्होंने आगे यह कहा कि आज वे भी लड़खड़ाते हुए उन्हीं पगडंडियों पर चलते हैं. उन्होंने कहा  कि सबकी अपनी अपनी मातृभाषाएँ हैं. इन मातृभाषाओं में  क्षेत्रीय विकल्प हैं. उन्होंने सबके सामने प्रश्न चिह्न लगाया कि उन बोलियों की ओर कितने लोगों का ध्यान जा रहा है. क्या उन विकल्पों पर कोई काम करेगा, उन बोलियों में लिखे गए साहित्य का अनुवाद किया जाएगा, या फिर पिछड़ों और दलितों की भाषा कहकर उन्हें यों ही नष्ट होने दिया जाएगा. ये ऐसे प्रश्न हैं जो बार बार प्रो. दिलीप सिंह को कचोट रहे हैं. वे इस बात से विचलित हैं कि आगे इन भाषाओं का क्या होगा! उन्होंने यह भी प्रश्न उठाया कि भाषाविज्ञान के क्षेत्र में कितना शोधकार्य हो रहा है? उन्होंने कहा कि भाटिया जी के साथ साथ दस लोगों ने इस क्षेत्र में कार्य किया अपने निजी मॉडल के साथ, पर उनकी भी अपनी अपनी सीमा थी.

प्रो.दिलीप सिंह के साथ
प्रो. एम. वेंकटेश्वर और प्रो. ऋषभ देव शर्मा
 
प्रो. दिलीप सिंह ने यह याद दिलाया कि रमानाथ सहाय, कैलाशचंद्र भाटिया और रवींद्रनाथ श्रीवास्तव ने मिलकर एन सी ई आर टी के लिए हिंदी का व्याकरण तैयार किया था जिसमें कामताप्रसाद गुरु जी के व्याकरण की सीमाओं को पहचान कर आधुनिक और व्यावहारिक व्याकरण का निर्धारण किया गया था  क्योंकि गुरु जी के समय तक  आधुनिक हिंदी का इतना विकास नहीं हुआ था. लेकिन आज तक भी व्याकरण की यह किताब एन सी ई आर टी के गोदाम में  धूल फाँक रही है.  उन्होंने यह भी कहा कि भाटिया जी बोली के बिना भाषा की बात स्वीकार नहीं करते. उनकी मान्यता है कि बोलियों का एसेंस/ स्वाद/ ज़ायका किसी भी साहित्य के लिए अनिवार्य तत्व है.

इस सत्र का संचालन स्नातकोत्तर कॉलेज, बेलगाम की प्राध्यापक डॉ. माधव बागी ने किया.

बाएं से - डॉ. ऋषभ देव शर्मा, डॉ. टी.आर. भट्ट, डॉ. जयशंकर यादव और डॉ. अर्जुन चव्हाण 

30 मार्च 2014

समापन समारोह में डॉ. टी. आर. भट्ट (धारवाड़) और डॉ. ऋषभ देव शर्मा (हैदराबाद) ने संगोष्ठी की समीक्षा की और आशा व्यक्त की कि यह रागात्मक और भावनात्मक संबंध बना रहे. बतौर मुख्य अतिथि डॉ. अर्जुन चव्हाण (कोल्हापुर) ने संगोष्ठी के आयोजकों को बधाई दी. अध्यक्षीय टिप्पणी करते हुए डॉ. जयशंकर यादव (बेलगाम) ने कहा कि बेलगाम के इस स्नातकोत्तर भवन में दो दिनों तक भाषाई सौहार्द अंतःसलिला के रूप में प्रवाहित होता रहा. यह आनंद ही साहित्य और जीवन का सरोकार है.

समापन सत्र का संचालन उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, बेलगाम केंद्र के प्रभारी डॉ. वी.एन. हेगडे ने किया. प्राध्यापक डॉ. सी.एन. मुगुटकर ने धन्यवाद ज्ञापित किया तथा सामूहिक जन-गण-मन के साथ कार्यक्रम का समापन हुआ.

(प्रस्तुति - डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, बेलगाम से लौटकर) 

शनिवार, 29 मार्च 2014

हिंदी तथा तेलुगु के प्रमुख संतों की रचनाओं में अंतःसंबंध

[20-21 मार्च 2014 को श्री वीरतपस्वी चन्नवीर शिवाचार्य बीएड कॉलेज, सोलापुर में आयोजित 'संत साहित्य के धरातल पर हिंदी तथा भारतीय भाषाओं का अंतःसंबंध' विषयक द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में 'हिंदी तथा तेलुगु के प्रमुख संतों की रचनाओं में अंतःसंबंध शीर्षक सत्र में विषय प्रवर्तक के रूप में प्रस्तुत शोधपत्र]

भारत में अनेक भाषाएँ हैं और प्रत्येक भाषा का अपना एक सुनिश्चित साहित्य है. इन साहित्यों की अपनी-अपनी विशिष्टताएँ हैं. जैसे तमिल का संगम साहित्य, तेलुगु के द्विअर्थी काव्य और अवधान, मलयालम के संदेश काव्य, वलप्पाटु (नौका गीत) और मणिप्रवाल साहित्य, मराठी के पवाडे, गुजराती के आख्यान और फागु, उर्दू का गज़ल साहित्य और हिंदी के भक्ति व संत काव्य, छायावादी काव्य आदि. इन निजी वैशिष्ट्यों के बावजू यह भी संदेह से परे है कि समूचे भारतीय साहित्य में भारतीय समाज की ऐतिहासिक परंपरा, सांस्कृतिक मूल्य और काव्य संवेदना समान रूप से मुखरित है. अभिप्राय यह है कि भारतीय संस्कृति मूलतः एक है जो हमें विरासत में प्राप्त हुआ है. 

देश में समय-समय पर अनेक राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलन हुए जिन्होंने भारतीय जनता की चित्तवृत्ति को व्यापक रूप से प्रभावित और परिष्कृत किया. इसके परिणामस्वरूप साहित्य में भी अनेकानेक बदलाव होते आए हैं. भक्ति का उदय, प्रवाह और उसके परिणामस्वरूप भक्ति साहित्य का सृजन ऐसी ही व्यापक अखिल भारतीय परिघटना है. सामाजिक-सांस्कृतिक चिंताधारा के विकास के रूप में सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के साहित्य में भक्ति की एकाधिक धाराएँ प्रस्फुटित और प्रवाहित हुईं. ऐसी धाराओं में संभवतः सबसे व्यापक और सर्वाधिक लोकप्रिय धारा संत काव्य है. 

यह कहना कठिन है कि भारत में भक्ति का आरंभ कब हुआ तथा इसके बीज कहाँ कहाँ फैले. विद्वानों में काफी मतभेद है. इस मतभेद को दरकिनार कर यदि देखें तो यह स्पष्ट होता है कि आधुनिक भारतीय भाषाओं के उदय काल में भारतीय समाज में नाथ पंथियों और शिव भक्तों का महत्वपूर्ण स्थान था. दक्षिण भारत में नाथ साहित्य का सृजन पूर्वी और उत्तर भारत की अपेक्षा बहुत कम हुआ है. दक्षिण में शिव की सगुण भक्ति ही प्रमुख रही. उसके बाद चारण काव्य और संत साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ. इस संगोष्ठी का मूल विषय संत साहित्य पर केंद्रित है अतः हम संत काव्य की परंपरा - विशेष रूप से हिंदी तथा तेलुगु के प्रमुख संतों की रचनाओं के अंतःसंबंध पर दृष्टि केंद्रित करेंगे. 

हम सब भलीभाँति जानते हैं कि भक्ति आंदोलन का सूत्रपात उस समय हुआ जब भारतीय समाज में सामंतवाद की अतिशयता के कारण जनता में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा था बाह्याडंबरों को प्रमुखता मिल गई थी. अतः यह स्पष्ट है कि भक्ति आंदोलन का मूल संबंध मनुष्य के आचरण से है. संतों ने आचरण को श्रेष्ठता प्रदान करने के लिए अपनी बानियों और अपने आचरण को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया. 

संत अर्थात सज्जन या धार्मिक व्यक्ति. मराठी संत साहित्य में ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ और तुकाराम की भाँति हिंदी साहित्य में कबीर, सूर और तुलसी हैं तो कन्नड़ में बसवेश्वर और अक्कमहादेवी. तमिल साहित्य में तिरुप्पन, तिरुमंगै, कुलशेखर, पेरियालवार, नम्मालवार, आंडाल आदि वैष्णव आलवार संत हैं तथा तिरुज्ञानसंबंधर, तिरुनावुकरसर, माणिक्यवाचगर आदि शैव संत. स्मरणीय है कि हिंदी, तमिल, कन्नड और मराठी संत साहित्य की भांति तेलुगु में संत साहित्य की अलग परंपरा नहीं है. फिर भी पोतुलूरी वीरब्रह्मेंद्रा स्वामी, सिद्धय्या, अन्नामाचार्य, रामदास, त्यागराज, वेमना और तरिगोंडा वेंगमाम्बा को संतों की परंपरा में गिना जा सकता है. 

मनुष्य के आचरण को प्रभावित करने वाले तीन तत्व हैं - सामाजिक बोध, ईश्वर और नैतिकता. इन सारे तत्वों को हम संतों में देख सकते हैं. वस्तुतः लोकहितकर कार्य ही संतों के लिए मानदंड है. तुलसी ने भी कहा है कि संतों का हृदय नवनीत के समान होता है. वे अपने दुःख से नहीं बल्कि दूसरों के दुःख से दुखी होते हैं. वे तो दुःख-सुख, शत्रु-मित्र आदि चीजों से परे होते हैं. उनके लिए मनुष्य भी प्राणी है और जीव-जंतु भी. इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है. यह धरती सबके लिए समान है. तो फिर मनुष्य अपने आप में यह उच्च-नीच का भेदभाव क्यों करता रहता है? इस संदर्भ में तेलुगु संत कवि तल्लपाका अन्नमाचार्य का संकीर्तन द्रष्टव्य है – 

मेंडैन ब्रह्माणुडु मेट्टुभूमि ओकटे
चंडालुडुंडेटि सरि भूमि ओकटे

[ब्राह्मण भी इसी धरती पर अपना कदम रखता है और चांडाल भी उसी के समान ही इसी धरती पर अपना कदम रखता है. अर्थात ब्राहमण और चांडाल दोनों का निवास (आधार) एक ही है] तो फिर इस जाति भेद का क्या मतलब है? मनुष्य ने अपने स्वार्थ साधने के लिए जाति की दीवारें खड़ी कर दी हैं. कहना होगा कि अन्नमाचार्य ने जिस प्रकार के जातिभेद विहीन समाज की संकल्पना अपने संकीर्तन में प्रस्तुत की, सारे भारत के भक्ति आंदोलन की केंद्रीय संकल्पना भी वही है. संत तो जाति-पांत के कट्टर विरोधी होते हैं. इसीलिए अन्नमय्या कहते हैं कि जात-पांत सब व्यर्थ हैं – 

विजातुलन्नियु वृथा वृथा
अजामिलादुल कदयि जाति

[जाती-पांति का भेद व्यर्थ है. अजामिल की जाति क्या थी?] अर्थात इस जग में एक ही जाति श्रेष्ठ है -मनुष्य जाति. 

जब सभी मनुष्यों के खून का रंग एक है तो यह भेदभाव कैसा? इस संदर्भ में पोतुलूरी वीराब्रह्मेंद्र स्वामी क्या कहते हैं ज़रा सुनिए – 
वच्चिंदी तेलियदु, पोयेदी तेलियदु
मद्यलो मनब्रतुकु येमौनो तलियदु
एमी तेलियनि जन्मकु येंदुकु रा गर्वमु

[आने का पता नहीं, जाने का पता नहीं, मध्यांतर में हमारा क्या होगा, यह भी पता नहीं, जिस जीवन का कुछ भी पता नहीं, उस पर इतना दंभ क्यों?] पोतुलूरी वीरब्रह्मेंद्र स्वामी को तेलुगु साहित्य में ब्रह्मांड से संबंधित दार्शनिक तत्वज्ञाता के रूप में जाना जाता है. अपने पदों में उन्होंने भविष्य में विश्वभर में घटित होने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी की है.

संत वेमना भी जात-पांत और अस्पृश्यता के विरोधी थे. वेमना को योगी या संत कवि के रूप में याद किया जाता है लेकिन वे वास्तव में महाकवि हैं, जनकवि हैं. वेमना के पदों में माधुर्य के साथ साथ तत्कालीन भ्रष्ट समाज के प्रति विद्रोह का स्वर है. वेमना का जन्म रेड्डी वंश में हुआ था. आंध्र प्रदेश में रेड्डी संपन्न जाति है. कहा जाता है कि योगी बनने से पूर्व वेमना भी भोगलिप्सा में प्रवृत्त थे. बचपन में ही माँ का स्वर्गवास हो गया अतः घर में वे सबके लाड़ले थे. तत्कालीन समाज में वेश्यावृत्ति चरमोत्कर्ष पर थी. संपन्न लोगों में वेश्याओं के पास जाना शान समझा जाता था. अपने यौवनकाल में वेमना भी एक वेश्या के प्रति आसक्त थे. उस वेश्या को प्रसन्न करने के लिए वेमना ने अपनी भाभी से गहने माँगे. वेमना को सही दिशा में लाने और उस वेश्या से छुटकारा दिलाने के लिए उनकी भाभी ने उन्हें गहने इस शर्त पर दिए कि वे गहने पहनने के बाद वेश्या के निर्वसन रूप का दर्शन अवश्य करें. पूर्णतः निर्वसन स्त्रीदेह को देखने के बाद वेमना का स्त्रीदेह के प्रति मोह भंग हो गया और उन्होंने सांसारिक सुख त्याग दिया. योगी बन गए. वेमना के पदों में तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियाँ मुखरित हैं. इतना ही नहीं उनमें भौगोलिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और लोक जीवन भी निहित है. उन्होंने अपने पदों में अपने अनुभव को अभिव्यक्त किया है. उनके पद लोकभाषा की धरोहर हैं. उनके पदों में चार पंक्तियाँ होती हैं. प्रथम तीन पंक्तियों में कोई-न-कोई सूक्ति अवश्य होती है और अंतिम पंक्ति में आत्मसंबोधन निहित है. यह आत्मसंबोधन एक तरह से वेमना के पदों की विशेषता है. उनके मतानुसार सब एक ही जाति के हैं और वह है मानव जाति. वस्तुतः मानवता ही वेमना का मत है. वे विश्वमानव की कल्पना करते हैं. इसीलिए वे कहते हैं कि –
“कुलमु चेताबट्टि गुंपिंचा नेटिकि
पादु उन्न चोटा प्रबलु वित्तु
एटि कुलम्बिंका येक्कडि द्विजुडया
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”

(जाति को हाथ में पकड़कर इतराना किसलिए/ अनुकूल स्थिति में बीज अंकुरित होते हैं/ कैसी जाति कैसा ब्राह्मण/ विश्वदाभिराम सुन रे वेमा). वेमना यह मानते हैं कि किसी को जन्म और जाति के आधार पर नहीं आंका जा सकता बल्कि गुण के आधार पर ही किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता की पहचान होती है –
“गुणमुलु कलवानि कुल मेंचगा नेल
गुणमुलु कलिगनेनि कोटि सेयु
गुणमुलेका युन्न गुड्डी गुव्वयु लेदु
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”

(सद्गुणी व्यक्ति की जाति पूछने की क्या आवश्यकता/ उनके अच्छे गुण ही उन्हें गौरव दिलाएँगे/ गुणहीन है फूटी कौड़ी के बराबर/ विश्वदाभिराम सुन रे वेमा.) इस पद को पढ़ते समय स्वतः ही कबीर का प्रसिद्ध दोहा याद आना स्वाभाविक है – “जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान.”

पोतुलूरी वीरब्रह्मेंद्र स्वामी भी बाह्याडंबरों के विरोधी थे. उनका कहना है कि 
बाह्य विषयमुलकै परुगेत्तिनावंटे
एड्पिंचि नीपै स्वारी जेसुनु
परमात्मा वैपुन मनसु निलिपावंटे
प्रकृति नीपाद सेवा जेसुनु

[बाह्याडंबरों के पीछे भागते रहोगे तो वे सब तुम्हें रुलाएंगे. यदि परमात्मा की भक्ति में रम जाओगे तो प्रकृति भी तुम्हारी सेवा करेगी.]

वस्तुतः संत एक ऐसा सफल समाज स्थापित करना चाहते थे जिसमें जाति, वर्ग, वर्ण, लोभ आदि का नामोनिशान न हो. कुछ हो तो सिर्फ सद्गुणों की महत्ता, प्रेम की महत्ता. कैसा प्रेम? सच्चा प्रेम, सच्चा अनुराग. कबीर इसीलिए तो कहते हैं – 
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय

और इन सबसे ऊपर है मनुष्यता. हम जहाँ भी जाएँ मनुष्य अर्थात व्यक्ति को तो पा सकते हैं लेकिन मनुष्यता! मनुष्यता को पाना कठिन है. 

आंध्र प्रदेश के जयदेव और लीलाशुक माने जाने वाले भक्त कवि रामदास का भगवान राम के प्रति समर्पण सर्वस्व समर्पण है. उनके समर्पण में त्याग है. बलिदान है. वे ईश्वर को दयालु मानते हैं. उनके मतानुसार ज्ञान की तुलना में ईश्वर का प्रेम महत्वपूर्ण है. कुछ लोग उन्हें कबीर का शिष्य भी मानते हैं. लोग यह मानते हैं कि उनकी भक्ति के सामने काल को झुकना पड़ा और उनके मृत पुत्र को पुनर्जीवन देना पड़ा. वे तानाशाह के यहाँ तहसीलदार थे. भगवान राम के लिए भद्राचलम में उन्होंने मंदिर का निर्माण करवाया. इस कार्य के लिए सरकारी धन व्यय करने के कारण उन्हें तानाशाह के क्रोध का शिकार होना पड़ा. लोगों का विशवास है कि उन्हें तानाशाह की जेल से स्वयं भगवान राम ने मुक्ति दिलाई. पूरे आंध्र प्रदेश में यह एक दंतकथा की तरह प्रचलित है. रामदास ने अपने आपको राम के चरणों में समर्पित कर दिया था. उन्हें तो चारों ओर सिर्फ राम ही दिखाई देते थे. उनका मानना था कि तीर्थ यात्रा करना, पवित्र नदियों में डुबकी लगाना आदि व्यर्थ हैं. क्योंकि वे मानते थे कि मानव जन्म उत्तम और अंतिम जन्म है. तथा हर एक के मन में भगवान स्थित हैं. अतः वे कहते हैं कि - 
अंता राममयम जगमंता राममयम
अंतरंगमुना आत्मा रामुडु !!अंता राममयम!!

[सब स्थल राममय हैं. यह समस्त संसार राममय है. हर एक का अंतरंग राम का निवास स्थान है. सब स्थल राममय हैं] 

हेच्चुगा नूट येनिमिदि तिरुपतुलेलमि,
तिरुगु पनिलेदन्ना.
मुच्च टगु ता पुण्य नदुललो
मुनुगुट पनि एमिटि कन्ना?
धर्ममु तप्पक भद्रादीशुनि
तम मदिलो नाम मुक युन्ना

[तिरुपति के मंदिर में एक सौ आठ बार परिक्रमा करने की क्या जरूरत है? पवित्र नदियों में बार बार डुबकियाँ लगाना किस लिए? राम में विश्वास रखो तो पाओगे कि वह तुम्हारे मन-मंदिर में स्थित है.] यहाँ पुनः कबीर की याद आना स्वाभाविक है. वे भी यही कहते हैं –
मोको कहाँ दूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बंदे, मैं तो तेरे पास में

सामाजिक बोध के अलावा मनुष्य के आचरण को प्रभावित करने वाला दूसरा तत्व है – परमात्म तत्व या ईश्वर. संतों ने ईश्वर को भी मानवीकृत करके सहज सुलभ बना दिया. वस्तुतः तेलुगु और हिंदी के संतकाव्य के अनुशीलन से यह पता चलता है कि भक्ति उस दौर में एक खास तरह का ज्ञान - आत्मज्ञान थी. भक्ति न केवल जाति-पांति की दीवारें तोड़ रही थी बल्कि वह एक समानांतर ‘जाति’ बना रही थी – भक्तों की जाति. स्मरणीय है कि विशिष्टाद्वैत सिद्धांत के अनुसार परमात्मा नित्य परिपूर्ण है और सगुण भी. उसके सूक्ष्म और स्थूल दोनों रूप होते हैं. जहाँ परमात्मा का सूक्ष्म रूप चित् और अचित् से युक्त है वहीं स्थूल रूप जगत और जीव से. वही अन्तर्यामी है. इस सृष्टि का कर्ता, धर्ता और भोक्ता है. वह सब जगह उपस्थित है. इस संदर्भ में अन्नमाचार्य का संकीर्तन सुनिए – 
परमात्मुडु सर्व परिपूर्णुडु
चेनकि मायकु मायै जीवुनिकी जीवमै
पूवुल वासन वले पोंचि युन्नाडु
भाविंच निराकारमै पट्टिते साकारमै
श्री वेंकटाद्रि मीदा श्रीपतै उन्नाडु

[परमात्मा परिपूर्ण है. वह माया की माया है और जीव का जीव. वह फूल में सुगंध की तरह सर्वत्र व्याप्त है. निराकार और साकार ब्रह्म वेंकटाचल पर श्रीपति के रूप में अवतरित हैं.] एक जगह वे कहते हैं - 
कडलेनि नी भक्ति कलिगिते चालु
कडजन्म मयिना निक्क्पू विप्रकुलमे

[मन में भगवान के प्रति भक्ति भावना हो तो निम्न वर्ण के होने पर भी उच्च होते हैं.] 

संकीर्तनाचारि त्यागय्या भी राम की भक्ति में तल्लीन होकर गाते हैं - 
मरुगेलरा? ओ राघव!
मरुगेलरा? चराचरा रूपा!
परात्परा! सूर्य सुधाकर लोचना!
अन्नी नीवनुचु नन्नंतरंगमुना
दिन्नगा वेदिकी तेलुसु कोंटिनय्या

[हे राघव! यह आँख मिचौनी क्यों? चराचर रूप, परात्पर, सूर्य सुधाकर लोचन, तुम्हें ही सब कुछ मानकर अपने अंतरंग में ढूँढ़ने से यह समझ पाया कि तुम ही मेरे मन में बसे हो.] 

पोतुलूरी वीराब्रह्मेंद्र स्वामी का कहना है कि - 
देव ध्यानमु कन्ना मिंचिनदि लेदया
अनंत शक्तुलु अंदुलो उन्नायी 
अष्ट कष्टंबुलकु, कठिन रोगम्बुलकु
दिव्यऔषदम्बनि नंबिनदया!

[भगवान का ध्यान ही सब कुछ है, उसीमें अनंतकोटि की शक्तियाँ निहित है, सभी प्रकार के दुःख-दर्द, पीड़ा-व्यथा दूर करने की शक्ति उसमें निहित है. वह तो सर्वरोग निवारणी है.] 

भक्ति काव्य की चर्चा हो और मीराँ का उल्लेख न किया जाए, तो चर्चा को अपूर्ण ही कहा जाएगा. वे ऐसी प्रेम दीवानी हैं जिन्होंने ‘संतन संग बैठ-बैठ लोक-लाज खोई.’ उन्हीं के समान दक्षिण की मीराँ के नाम से जाने जाने वाली तरिगोंडा वेंगमांबा का जीवन भी मीरा के समान ही है. ब्राह्मण परिवार में जन्मी वेंगमाम्बा ने अपने हृदय से भगवान श्रीवेंकटेश्वर को अपना पति स्वीकार कर लिया था. उनकी भक्ति भावना से त्रस्त पिता उनकी शादी करा देते हैं पर वे पति को नजदीक भी आने नहीं देतीं. वे श्रीपति को ही सर्वस्व मानकर जीती हैं. इसी पीड़ा को झेलते-झेलते उनके पति की मृत्यु हो जाती है. जब लोग वेंगमांबा को विधवा का वेश धारण कराना चाहते हैं तो वे उन रीति-रिवाजों का विरोध करती हैं. उन्होंने स्वयं को श्रीपति वेंकटेश्वर के लिए समर्पित कर दिया – 
सललितमुगा निज मदिलोपल
गोलुचु संतसिंचे भामामणियुन्

[हृदय में श्रीवेंकटेश्वर के दिव्य रूप को बसाकर उनकी स्तुति करते हुए घूमना आनंददायक है.]

संत काव्य में मुखरित मानवीय आचरण का तीसरा तत्व है - नैतिकता. कहा जा सकता है कि नैतिकता संतों के चरित्र का अंग है. संतों की वाणी में मनुष्य और मनुष्यता के सम्मुख उपस्थित संकट को दूर करने का आश्वासन निहित है. वे मानते हैं कि यह सिर्फ गुरु के कारण ही संभव होगा. गुरु की महिमा के बारे में लगभग सभी संतों का मत एक ही है. कबीर कहते हैं – 
गुरू गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाँय
बलिहारी गुरू आपणे, गोबिंद दियो मिलाय

सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार

तो तरिगोंडा वेंगाम्बा भी कहती हैं –
वेदांतमेदैना सद्गुरूनि पादम्मुलु चेंदि
आ दयानिधि करुणा चे, सद्बोधमंदवले नारायण

ये विद्यकैना गुरुवु लेकुन्ना, आ विद्य पट्टुवडदु
कावुना अभ्यासिकि गुरू शिक्षा कावलेनु नारायणा.

[कोई भी विद्या हो, चाहे वेद हो या वेदांत, सद्गुरू के चरणों में रहकर ही प्राप्त की जा सकती है. गुरु के अभाव में विद्या अर्थात ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं है. अतः शिष्य को गुरु से गुरूमंत्र प्राप्त करना होगा.] 

दरअसल, हमारी भाषाओं का संत साहित्य मूलतः सामाजिक चेतना का साहित्य है. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहे तो “जातिगत, कुलगत, धर्मगत, संस्कारगत, विश्वासगत, शास्त्रगत, संप्रदायगत बहुतेरी विशेषताओं के जाल को छिन्न करके ही वह आसन तैयार किया जा सकता है जहाँ एक मनुष्य दूसरे से मनुष्य की हैसियत से ही मिले. जब तक यह नहीं होता तब तक अशांति रहेगी. मारामारी रहेगी. हिंसा-प्रतिस्पर्धा रहेगी.” सभी संत इस तमाम अशांति, मारामारी, हिंसा और प्रतिस्पर्धा के प्रतिरोध का मार्ग मनुष्य के उदात्तीकरण और अहंकार की समाप्ति के रूप में सुझाते हैं. यह मार्ग प्रेम का मार्ग है. इस संदर्भ में संत दादू दयाल की इस वाणी के साथ मैं अपनी वाणी को विराम दूंगी कि – 

प्रेम ही भगवान की जाति है, प्रेम ही भगवान की देह है. प्रेम ही भगवान की सत्ता है, प्रेम ही भगवान का रंग है. विरह का मार्ग खोजकर प्रेम का रस्ता पकड़ो, लौ के रास्ते जाओ, दूसरे रास्ते पैर भी न रखना– 
इश्क अलह की जाति है इश्क अलह का अंग.
इश्क अलह औजूद है इश्क अलह का रंग. 
वाट विरह की सोधि करि पंथ प्रेम का लेहु.
लब के मारग आइये दूसर पाँव न देहु. 

शनिवार, 15 मार्च 2014

होली के हाइकू

   



 ओढ़े फिरती
 वह प्रीत की पगी
 काली कँबली


                                                                        होली के रंग 
                                                                    बरसते हैं संग 
                                                                         करो न भंग 


टेसू फूले हैं
बौराया यह मन
आया फागुन






                                                                           
                                                                   हर रंग का 
                                                                   है अपना अंदाज 
                                                                  भीग लो आज 



रंगों का क्रम
बैनीआहपीनाला
क्या कर डाला?







                                                                  लाल गुलाल 
                                                                 बुरा मत मानो 
                                                                बनो विशाल 




मत मारो बोली
अपराध क्या किया
खेली जो होली