शनिवार, 29 मार्च 2014

हिंदी तथा तेलुगु के प्रमुख संतों की रचनाओं में अंतःसंबंध

[20-21 मार्च 2014 को श्री वीरतपस्वी चन्नवीर शिवाचार्य बीएड कॉलेज, सोलापुर में आयोजित 'संत साहित्य के धरातल पर हिंदी तथा भारतीय भाषाओं का अंतःसंबंध' विषयक द्विदिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में 'हिंदी तथा तेलुगु के प्रमुख संतों की रचनाओं में अंतःसंबंध शीर्षक सत्र में विषय प्रवर्तक के रूप में प्रस्तुत शोधपत्र]

भारत में अनेक भाषाएँ हैं और प्रत्येक भाषा का अपना एक सुनिश्चित साहित्य है. इन साहित्यों की अपनी-अपनी विशिष्टताएँ हैं. जैसे तमिल का संगम साहित्य, तेलुगु के द्विअर्थी काव्य और अवधान, मलयालम के संदेश काव्य, वलप्पाटु (नौका गीत) और मणिप्रवाल साहित्य, मराठी के पवाडे, गुजराती के आख्यान और फागु, उर्दू का गज़ल साहित्य और हिंदी के भक्ति व संत काव्य, छायावादी काव्य आदि. इन निजी वैशिष्ट्यों के बावजू यह भी संदेह से परे है कि समूचे भारतीय साहित्य में भारतीय समाज की ऐतिहासिक परंपरा, सांस्कृतिक मूल्य और काव्य संवेदना समान रूप से मुखरित है. अभिप्राय यह है कि भारतीय संस्कृति मूलतः एक है जो हमें विरासत में प्राप्त हुआ है. 

देश में समय-समय पर अनेक राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आंदोलन हुए जिन्होंने भारतीय जनता की चित्तवृत्ति को व्यापक रूप से प्रभावित और परिष्कृत किया. इसके परिणामस्वरूप साहित्य में भी अनेकानेक बदलाव होते आए हैं. भक्ति का उदय, प्रवाह और उसके परिणामस्वरूप भक्ति साहित्य का सृजन ऐसी ही व्यापक अखिल भारतीय परिघटना है. सामाजिक-सांस्कृतिक चिंताधारा के विकास के रूप में सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं के साहित्य में भक्ति की एकाधिक धाराएँ प्रस्फुटित और प्रवाहित हुईं. ऐसी धाराओं में संभवतः सबसे व्यापक और सर्वाधिक लोकप्रिय धारा संत काव्य है. 

यह कहना कठिन है कि भारत में भक्ति का आरंभ कब हुआ तथा इसके बीज कहाँ कहाँ फैले. विद्वानों में काफी मतभेद है. इस मतभेद को दरकिनार कर यदि देखें तो यह स्पष्ट होता है कि आधुनिक भारतीय भाषाओं के उदय काल में भारतीय समाज में नाथ पंथियों और शिव भक्तों का महत्वपूर्ण स्थान था. दक्षिण भारत में नाथ साहित्य का सृजन पूर्वी और उत्तर भारत की अपेक्षा बहुत कम हुआ है. दक्षिण में शिव की सगुण भक्ति ही प्रमुख रही. उसके बाद चारण काव्य और संत साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ. इस संगोष्ठी का मूल विषय संत साहित्य पर केंद्रित है अतः हम संत काव्य की परंपरा - विशेष रूप से हिंदी तथा तेलुगु के प्रमुख संतों की रचनाओं के अंतःसंबंध पर दृष्टि केंद्रित करेंगे. 

हम सब भलीभाँति जानते हैं कि भक्ति आंदोलन का सूत्रपात उस समय हुआ जब भारतीय समाज में सामंतवाद की अतिशयता के कारण जनता में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा था बाह्याडंबरों को प्रमुखता मिल गई थी. अतः यह स्पष्ट है कि भक्ति आंदोलन का मूल संबंध मनुष्य के आचरण से है. संतों ने आचरण को श्रेष्ठता प्रदान करने के लिए अपनी बानियों और अपने आचरण को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया. 

संत अर्थात सज्जन या धार्मिक व्यक्ति. मराठी संत साहित्य में ज्ञानदेव, नामदेव, एकनाथ और तुकाराम की भाँति हिंदी साहित्य में कबीर, सूर और तुलसी हैं तो कन्नड़ में बसवेश्वर और अक्कमहादेवी. तमिल साहित्य में तिरुप्पन, तिरुमंगै, कुलशेखर, पेरियालवार, नम्मालवार, आंडाल आदि वैष्णव आलवार संत हैं तथा तिरुज्ञानसंबंधर, तिरुनावुकरसर, माणिक्यवाचगर आदि शैव संत. स्मरणीय है कि हिंदी, तमिल, कन्नड और मराठी संत साहित्य की भांति तेलुगु में संत साहित्य की अलग परंपरा नहीं है. फिर भी पोतुलूरी वीरब्रह्मेंद्रा स्वामी, सिद्धय्या, अन्नामाचार्य, रामदास, त्यागराज, वेमना और तरिगोंडा वेंगमाम्बा को संतों की परंपरा में गिना जा सकता है. 

मनुष्य के आचरण को प्रभावित करने वाले तीन तत्व हैं - सामाजिक बोध, ईश्वर और नैतिकता. इन सारे तत्वों को हम संतों में देख सकते हैं. वस्तुतः लोकहितकर कार्य ही संतों के लिए मानदंड है. तुलसी ने भी कहा है कि संतों का हृदय नवनीत के समान होता है. वे अपने दुःख से नहीं बल्कि दूसरों के दुःख से दुखी होते हैं. वे तो दुःख-सुख, शत्रु-मित्र आदि चीजों से परे होते हैं. उनके लिए मनुष्य भी प्राणी है और जीव-जंतु भी. इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है. यह धरती सबके लिए समान है. तो फिर मनुष्य अपने आप में यह उच्च-नीच का भेदभाव क्यों करता रहता है? इस संदर्भ में तेलुगु संत कवि तल्लपाका अन्नमाचार्य का संकीर्तन द्रष्टव्य है – 

मेंडैन ब्रह्माणुडु मेट्टुभूमि ओकटे
चंडालुडुंडेटि सरि भूमि ओकटे

[ब्राह्मण भी इसी धरती पर अपना कदम रखता है और चांडाल भी उसी के समान ही इसी धरती पर अपना कदम रखता है. अर्थात ब्राहमण और चांडाल दोनों का निवास (आधार) एक ही है] तो फिर इस जाति भेद का क्या मतलब है? मनुष्य ने अपने स्वार्थ साधने के लिए जाति की दीवारें खड़ी कर दी हैं. कहना होगा कि अन्नमाचार्य ने जिस प्रकार के जातिभेद विहीन समाज की संकल्पना अपने संकीर्तन में प्रस्तुत की, सारे भारत के भक्ति आंदोलन की केंद्रीय संकल्पना भी वही है. संत तो जाति-पांत के कट्टर विरोधी होते हैं. इसीलिए अन्नमय्या कहते हैं कि जात-पांत सब व्यर्थ हैं – 

विजातुलन्नियु वृथा वृथा
अजामिलादुल कदयि जाति

[जाती-पांति का भेद व्यर्थ है. अजामिल की जाति क्या थी?] अर्थात इस जग में एक ही जाति श्रेष्ठ है -मनुष्य जाति. 

जब सभी मनुष्यों के खून का रंग एक है तो यह भेदभाव कैसा? इस संदर्भ में पोतुलूरी वीराब्रह्मेंद्र स्वामी क्या कहते हैं ज़रा सुनिए – 
वच्चिंदी तेलियदु, पोयेदी तेलियदु
मद्यलो मनब्रतुकु येमौनो तलियदु
एमी तेलियनि जन्मकु येंदुकु रा गर्वमु

[आने का पता नहीं, जाने का पता नहीं, मध्यांतर में हमारा क्या होगा, यह भी पता नहीं, जिस जीवन का कुछ भी पता नहीं, उस पर इतना दंभ क्यों?] पोतुलूरी वीरब्रह्मेंद्र स्वामी को तेलुगु साहित्य में ब्रह्मांड से संबंधित दार्शनिक तत्वज्ञाता के रूप में जाना जाता है. अपने पदों में उन्होंने भविष्य में विश्वभर में घटित होने वाली घटनाओं की भविष्यवाणी की है.

संत वेमना भी जात-पांत और अस्पृश्यता के विरोधी थे. वेमना को योगी या संत कवि के रूप में याद किया जाता है लेकिन वे वास्तव में महाकवि हैं, जनकवि हैं. वेमना के पदों में माधुर्य के साथ साथ तत्कालीन भ्रष्ट समाज के प्रति विद्रोह का स्वर है. वेमना का जन्म रेड्डी वंश में हुआ था. आंध्र प्रदेश में रेड्डी संपन्न जाति है. कहा जाता है कि योगी बनने से पूर्व वेमना भी भोगलिप्सा में प्रवृत्त थे. बचपन में ही माँ का स्वर्गवास हो गया अतः घर में वे सबके लाड़ले थे. तत्कालीन समाज में वेश्यावृत्ति चरमोत्कर्ष पर थी. संपन्न लोगों में वेश्याओं के पास जाना शान समझा जाता था. अपने यौवनकाल में वेमना भी एक वेश्या के प्रति आसक्त थे. उस वेश्या को प्रसन्न करने के लिए वेमना ने अपनी भाभी से गहने माँगे. वेमना को सही दिशा में लाने और उस वेश्या से छुटकारा दिलाने के लिए उनकी भाभी ने उन्हें गहने इस शर्त पर दिए कि वे गहने पहनने के बाद वेश्या के निर्वसन रूप का दर्शन अवश्य करें. पूर्णतः निर्वसन स्त्रीदेह को देखने के बाद वेमना का स्त्रीदेह के प्रति मोह भंग हो गया और उन्होंने सांसारिक सुख त्याग दिया. योगी बन गए. वेमना के पदों में तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियाँ मुखरित हैं. इतना ही नहीं उनमें भौगोलिक, राजनैतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और लोक जीवन भी निहित है. उन्होंने अपने पदों में अपने अनुभव को अभिव्यक्त किया है. उनके पद लोकभाषा की धरोहर हैं. उनके पदों में चार पंक्तियाँ होती हैं. प्रथम तीन पंक्तियों में कोई-न-कोई सूक्ति अवश्य होती है और अंतिम पंक्ति में आत्मसंबोधन निहित है. यह आत्मसंबोधन एक तरह से वेमना के पदों की विशेषता है. उनके मतानुसार सब एक ही जाति के हैं और वह है मानव जाति. वस्तुतः मानवता ही वेमना का मत है. वे विश्वमानव की कल्पना करते हैं. इसीलिए वे कहते हैं कि –
“कुलमु चेताबट्टि गुंपिंचा नेटिकि
पादु उन्न चोटा प्रबलु वित्तु
एटि कुलम्बिंका येक्कडि द्विजुडया
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”

(जाति को हाथ में पकड़कर इतराना किसलिए/ अनुकूल स्थिति में बीज अंकुरित होते हैं/ कैसी जाति कैसा ब्राह्मण/ विश्वदाभिराम सुन रे वेमा). वेमना यह मानते हैं कि किसी को जन्म और जाति के आधार पर नहीं आंका जा सकता बल्कि गुण के आधार पर ही किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता की पहचान होती है –
“गुणमुलु कलवानि कुल मेंचगा नेल
गुणमुलु कलिगनेनि कोटि सेयु
गुणमुलेका युन्न गुड्डी गुव्वयु लेदु
विश्वदाभिरामा विनुरा वेमा.”

(सद्गुणी व्यक्ति की जाति पूछने की क्या आवश्यकता/ उनके अच्छे गुण ही उन्हें गौरव दिलाएँगे/ गुणहीन है फूटी कौड़ी के बराबर/ विश्वदाभिराम सुन रे वेमा.) इस पद को पढ़ते समय स्वतः ही कबीर का प्रसिद्ध दोहा याद आना स्वाभाविक है – “जाति न पूछो साधू की, पूछ लीजिए ज्ञान, मोल करो तलवार का, पड़ा रहन दो म्यान.”

पोतुलूरी वीरब्रह्मेंद्र स्वामी भी बाह्याडंबरों के विरोधी थे. उनका कहना है कि 
बाह्य विषयमुलकै परुगेत्तिनावंटे
एड्पिंचि नीपै स्वारी जेसुनु
परमात्मा वैपुन मनसु निलिपावंटे
प्रकृति नीपाद सेवा जेसुनु

[बाह्याडंबरों के पीछे भागते रहोगे तो वे सब तुम्हें रुलाएंगे. यदि परमात्मा की भक्ति में रम जाओगे तो प्रकृति भी तुम्हारी सेवा करेगी.]

वस्तुतः संत एक ऐसा सफल समाज स्थापित करना चाहते थे जिसमें जाति, वर्ग, वर्ण, लोभ आदि का नामोनिशान न हो. कुछ हो तो सिर्फ सद्गुणों की महत्ता, प्रेम की महत्ता. कैसा प्रेम? सच्चा प्रेम, सच्चा अनुराग. कबीर इसीलिए तो कहते हैं – 
पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय

और इन सबसे ऊपर है मनुष्यता. हम जहाँ भी जाएँ मनुष्य अर्थात व्यक्ति को तो पा सकते हैं लेकिन मनुष्यता! मनुष्यता को पाना कठिन है. 

आंध्र प्रदेश के जयदेव और लीलाशुक माने जाने वाले भक्त कवि रामदास का भगवान राम के प्रति समर्पण सर्वस्व समर्पण है. उनके समर्पण में त्याग है. बलिदान है. वे ईश्वर को दयालु मानते हैं. उनके मतानुसार ज्ञान की तुलना में ईश्वर का प्रेम महत्वपूर्ण है. कुछ लोग उन्हें कबीर का शिष्य भी मानते हैं. लोग यह मानते हैं कि उनकी भक्ति के सामने काल को झुकना पड़ा और उनके मृत पुत्र को पुनर्जीवन देना पड़ा. वे तानाशाह के यहाँ तहसीलदार थे. भगवान राम के लिए भद्राचलम में उन्होंने मंदिर का निर्माण करवाया. इस कार्य के लिए सरकारी धन व्यय करने के कारण उन्हें तानाशाह के क्रोध का शिकार होना पड़ा. लोगों का विशवास है कि उन्हें तानाशाह की जेल से स्वयं भगवान राम ने मुक्ति दिलाई. पूरे आंध्र प्रदेश में यह एक दंतकथा की तरह प्रचलित है. रामदास ने अपने आपको राम के चरणों में समर्पित कर दिया था. उन्हें तो चारों ओर सिर्फ राम ही दिखाई देते थे. उनका मानना था कि तीर्थ यात्रा करना, पवित्र नदियों में डुबकी लगाना आदि व्यर्थ हैं. क्योंकि वे मानते थे कि मानव जन्म उत्तम और अंतिम जन्म है. तथा हर एक के मन में भगवान स्थित हैं. अतः वे कहते हैं कि - 
अंता राममयम जगमंता राममयम
अंतरंगमुना आत्मा रामुडु !!अंता राममयम!!

[सब स्थल राममय हैं. यह समस्त संसार राममय है. हर एक का अंतरंग राम का निवास स्थान है. सब स्थल राममय हैं] 

हेच्चुगा नूट येनिमिदि तिरुपतुलेलमि,
तिरुगु पनिलेदन्ना.
मुच्च टगु ता पुण्य नदुललो
मुनुगुट पनि एमिटि कन्ना?
धर्ममु तप्पक भद्रादीशुनि
तम मदिलो नाम मुक युन्ना

[तिरुपति के मंदिर में एक सौ आठ बार परिक्रमा करने की क्या जरूरत है? पवित्र नदियों में बार बार डुबकियाँ लगाना किस लिए? राम में विश्वास रखो तो पाओगे कि वह तुम्हारे मन-मंदिर में स्थित है.] यहाँ पुनः कबीर की याद आना स्वाभाविक है. वे भी यही कहते हैं –
मोको कहाँ दूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में
ना तीरथ में ना मूरत में, ना एकांत निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में, ना काबे कैलास में
मैं तो तेरे पास में बंदे, मैं तो तेरे पास में

सामाजिक बोध के अलावा मनुष्य के आचरण को प्रभावित करने वाला दूसरा तत्व है – परमात्म तत्व या ईश्वर. संतों ने ईश्वर को भी मानवीकृत करके सहज सुलभ बना दिया. वस्तुतः तेलुगु और हिंदी के संतकाव्य के अनुशीलन से यह पता चलता है कि भक्ति उस दौर में एक खास तरह का ज्ञान - आत्मज्ञान थी. भक्ति न केवल जाति-पांति की दीवारें तोड़ रही थी बल्कि वह एक समानांतर ‘जाति’ बना रही थी – भक्तों की जाति. स्मरणीय है कि विशिष्टाद्वैत सिद्धांत के अनुसार परमात्मा नित्य परिपूर्ण है और सगुण भी. उसके सूक्ष्म और स्थूल दोनों रूप होते हैं. जहाँ परमात्मा का सूक्ष्म रूप चित् और अचित् से युक्त है वहीं स्थूल रूप जगत और जीव से. वही अन्तर्यामी है. इस सृष्टि का कर्ता, धर्ता और भोक्ता है. वह सब जगह उपस्थित है. इस संदर्भ में अन्नमाचार्य का संकीर्तन सुनिए – 
परमात्मुडु सर्व परिपूर्णुडु
चेनकि मायकु मायै जीवुनिकी जीवमै
पूवुल वासन वले पोंचि युन्नाडु
भाविंच निराकारमै पट्टिते साकारमै
श्री वेंकटाद्रि मीदा श्रीपतै उन्नाडु

[परमात्मा परिपूर्ण है. वह माया की माया है और जीव का जीव. वह फूल में सुगंध की तरह सर्वत्र व्याप्त है. निराकार और साकार ब्रह्म वेंकटाचल पर श्रीपति के रूप में अवतरित हैं.] एक जगह वे कहते हैं - 
कडलेनि नी भक्ति कलिगिते चालु
कडजन्म मयिना निक्क्पू विप्रकुलमे

[मन में भगवान के प्रति भक्ति भावना हो तो निम्न वर्ण के होने पर भी उच्च होते हैं.] 

संकीर्तनाचारि त्यागय्या भी राम की भक्ति में तल्लीन होकर गाते हैं - 
मरुगेलरा? ओ राघव!
मरुगेलरा? चराचरा रूपा!
परात्परा! सूर्य सुधाकर लोचना!
अन्नी नीवनुचु नन्नंतरंगमुना
दिन्नगा वेदिकी तेलुसु कोंटिनय्या

[हे राघव! यह आँख मिचौनी क्यों? चराचर रूप, परात्पर, सूर्य सुधाकर लोचन, तुम्हें ही सब कुछ मानकर अपने अंतरंग में ढूँढ़ने से यह समझ पाया कि तुम ही मेरे मन में बसे हो.] 

पोतुलूरी वीराब्रह्मेंद्र स्वामी का कहना है कि - 
देव ध्यानमु कन्ना मिंचिनदि लेदया
अनंत शक्तुलु अंदुलो उन्नायी 
अष्ट कष्टंबुलकु, कठिन रोगम्बुलकु
दिव्यऔषदम्बनि नंबिनदया!

[भगवान का ध्यान ही सब कुछ है, उसीमें अनंतकोटि की शक्तियाँ निहित है, सभी प्रकार के दुःख-दर्द, पीड़ा-व्यथा दूर करने की शक्ति उसमें निहित है. वह तो सर्वरोग निवारणी है.] 

भक्ति काव्य की चर्चा हो और मीराँ का उल्लेख न किया जाए, तो चर्चा को अपूर्ण ही कहा जाएगा. वे ऐसी प्रेम दीवानी हैं जिन्होंने ‘संतन संग बैठ-बैठ लोक-लाज खोई.’ उन्हीं के समान दक्षिण की मीराँ के नाम से जाने जाने वाली तरिगोंडा वेंगमांबा का जीवन भी मीरा के समान ही है. ब्राह्मण परिवार में जन्मी वेंगमाम्बा ने अपने हृदय से भगवान श्रीवेंकटेश्वर को अपना पति स्वीकार कर लिया था. उनकी भक्ति भावना से त्रस्त पिता उनकी शादी करा देते हैं पर वे पति को नजदीक भी आने नहीं देतीं. वे श्रीपति को ही सर्वस्व मानकर जीती हैं. इसी पीड़ा को झेलते-झेलते उनके पति की मृत्यु हो जाती है. जब लोग वेंगमांबा को विधवा का वेश धारण कराना चाहते हैं तो वे उन रीति-रिवाजों का विरोध करती हैं. उन्होंने स्वयं को श्रीपति वेंकटेश्वर के लिए समर्पित कर दिया – 
सललितमुगा निज मदिलोपल
गोलुचु संतसिंचे भामामणियुन्

[हृदय में श्रीवेंकटेश्वर के दिव्य रूप को बसाकर उनकी स्तुति करते हुए घूमना आनंददायक है.]

संत काव्य में मुखरित मानवीय आचरण का तीसरा तत्व है - नैतिकता. कहा जा सकता है कि नैतिकता संतों के चरित्र का अंग है. संतों की वाणी में मनुष्य और मनुष्यता के सम्मुख उपस्थित संकट को दूर करने का आश्वासन निहित है. वे मानते हैं कि यह सिर्फ गुरु के कारण ही संभव होगा. गुरु की महिमा के बारे में लगभग सभी संतों का मत एक ही है. कबीर कहते हैं – 
गुरू गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाँय
बलिहारी गुरू आपणे, गोबिंद दियो मिलाय

सतगुरू की महिमा अनंत, अनंत किया उपकार
लोचन अनंत उघाडिया, अनंत दिखावणहार

तो तरिगोंडा वेंगाम्बा भी कहती हैं –
वेदांतमेदैना सद्गुरूनि पादम्मुलु चेंदि
आ दयानिधि करुणा चे, सद्बोधमंदवले नारायण

ये विद्यकैना गुरुवु लेकुन्ना, आ विद्य पट्टुवडदु
कावुना अभ्यासिकि गुरू शिक्षा कावलेनु नारायणा.

[कोई भी विद्या हो, चाहे वेद हो या वेदांत, सद्गुरू के चरणों में रहकर ही प्राप्त की जा सकती है. गुरु के अभाव में विद्या अर्थात ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं है. अतः शिष्य को गुरु से गुरूमंत्र प्राप्त करना होगा.] 

दरअसल, हमारी भाषाओं का संत साहित्य मूलतः सामाजिक चेतना का साहित्य है. हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कहे तो “जातिगत, कुलगत, धर्मगत, संस्कारगत, विश्वासगत, शास्त्रगत, संप्रदायगत बहुतेरी विशेषताओं के जाल को छिन्न करके ही वह आसन तैयार किया जा सकता है जहाँ एक मनुष्य दूसरे से मनुष्य की हैसियत से ही मिले. जब तक यह नहीं होता तब तक अशांति रहेगी. मारामारी रहेगी. हिंसा-प्रतिस्पर्धा रहेगी.” सभी संत इस तमाम अशांति, मारामारी, हिंसा और प्रतिस्पर्धा के प्रतिरोध का मार्ग मनुष्य के उदात्तीकरण और अहंकार की समाप्ति के रूप में सुझाते हैं. यह मार्ग प्रेम का मार्ग है. इस संदर्भ में संत दादू दयाल की इस वाणी के साथ मैं अपनी वाणी को विराम दूंगी कि – 

प्रेम ही भगवान की जाति है, प्रेम ही भगवान की देह है. प्रेम ही भगवान की सत्ता है, प्रेम ही भगवान का रंग है. विरह का मार्ग खोजकर प्रेम का रस्ता पकड़ो, लौ के रास्ते जाओ, दूसरे रास्ते पैर भी न रखना– 
इश्क अलह की जाति है इश्क अलह का अंग.
इश्क अलह औजूद है इश्क अलह का रंग. 
वाट विरह की सोधि करि पंथ प्रेम का लेहु.
लब के मारग आइये दूसर पाँव न देहु. 

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

Very good thoughts.

Since most Devanagari scripted languages(Magahi,Mathili,Bhojpuri etc) are fading away under the influence of Hindi/Urdu ,a regional state may learn Hindi in their native script or in India's simplest nukta and shirorekha free Gujanagari script through script converter.

Also why not make Hindi Telugumaya(Indianized/teluganised)
by using more Telugu words and giving meanings of words in the footnotes in your writings.

Renuka ने कहा…

VERY NICE ARTICLE ON TELUGU SANT KAVI. COVERED ALL THE POINTS VERY WELL.VERY HAPPY TO READ ABOUT ANNAMAYAA, VEMANA, BRAMHAM GARU AND ALL AFTER LONG TIME.