सोमवार, 23 जून 2014

परिलेख हिंदी साधक सम्मान : स्वीकार वक्तव्य : गुर्रमकोंडा नीरजा

आदरणीय मंच, सभागार में उपस्थित साहित्य प्रेमियो, देवियो और सज्जनो, 

नमस्कार. 

सर्वप्रथम तो मैं परिलेख कला एवं संस्कृति समिति, नजीबाबाद तथा मातृ संस्था – लोक समन्वय समिति, नजीबाबाद के प्रति आभारी हूँ. विशेष रूप से भाई अमन कुमार त्यागी के प्रति आभारी हूँ. 

मैं इस सम्मान को अपनी संक्षिप्त सी हिंदी सेवा की हिंदी भाषा समाज द्वारा स्वीकृति के रूप में ग्रहण कर रही हूँ. आपके इस अकारण स्नेह से मैं गद्गद हूँ. 

मैं यह नहीं मानती कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत दो भिन्न भारत हैं. और यह भी नहीं मानती कि यह सम्मान उत्तर भारत द्वारा दक्षिण भारत का सम्मान है. मैं तो यही कहना चाहूँगी कि भाषाई और सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के ये दोनों हिस्से एक हैं. एक भाषा क्षेत्र हैं. एक सांस्कृतिक क्षेत्र हैं. इसके भीतर भले ही अनेक रंग हों, अनेक shades हों - ये दोनों एक ही हैं. इसलिए मैं यह समझती हूँ कि परिलेख सम्मान हिंदी भाषा समाज द्वारा हिंदी के विनम्र सेवकों का सम्मान है. परस्पर स्नेह की अभिव्यक्ति है. 

आपका यह स्नेह, मेरे लिए यह एक बड़ी उपलब्धि है. यह क्षण मेरे लिए बहुत ही अनमोल है क्योंकि यह सम्मान मैं अपने गुरुवर प्रो. ऋषभ देव शर्मा जो आज यहाँ सपत्नीक उपस्थित है – के समक्ष ग्रहण कर रही हूँ. साथ ही अभी फोन पर इस संस्था के प्रणेता प्रो. देवराज जी ने वर्धा से आशीर्वाद दिया है. वे मेरे दादा गुरु हैं. इन लोगों के गुरु स्थानीय श्रद्धेय डॉ. योगेंद्रनाथ शर्मा अरुण जी तो प्रत्यक्ष रूप से यहाँ उपस्थित हैं ही. इनका बड़ा स्नेह मुझे मिला है. मैं इस सम्मान को इन सबका आशीर्वाद और प्रसाद समझ कर शिरोधार्य रही हूँ क्योंकि जैसा कि हमारे यहाँ तेलुगु में कहते हैं - ‘वेदांतमेदैना सद्गुरुनि पादुमुलु चेंतने, ये विद्यकैना गुरुवु लेकुन्ना आ विद्या पट्टुवडदु’ (अर्थात कोई भी विद्या हो, चाहे वेद हो या वेदांत, सद्गुरु के चरणों में रहकर ही प्राप्त की जा सकती है). और सारे भारत में सभी भाषाओं में यही मान्यता है कि गुरु रूपी पारस के स्पर्श से लोहा भी स्वर्ण बन जाता है. मैं अभी स्वर्ण नहीं बन सकी हूँ पर आपने यह सम्मान देकर मेरे भीतर राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति गहरी जिम्मेदारी का बोध अवश्य जगा दिया है. 

मैं इस अवसर पर नजीबाबाद के सभी साहित्य प्रेमियों को प्रणाम करती हूँ. मुझे इस बात का अहसास है कि नजीबाबाद शहर में हिंदीतर भाषी जन समुदाय को प्रेरित करने के लिए देशभर के अनेक लेखकों और कवियों का, हिंदी सेवियों का सम्मान करने की परंपरा रही है. कहना न होगा कि राष्ट्रभाषा के प्रति इस तरह के निःस्वार्थ प्रेम की मिसालें बहुत ज्यादा नहीं हैं. इसीलिए इस सम्मान और आयोजन के लिए नजीबाबाद का यह सांस्कृतिक शहर अभिनंदनीय है. मैं इस शहर की धरती की वंदना करती हूँ और इस सम्मान और स्मृति चिह्न के साथ यहाँ की मिट्टी को भी अपने साथ लेकर जाऊँगी.

मेरी मातृभाषा तेलुगु है. हिंदी तो हमारी राष्ट्रभाषा है ही. इसीलिए इस अवसर पर मैं यह जरूर कहना चाहूँगी कि हिंदी और तेलुगु दोनों के माध्यम से लोक और साहित्य में एक जैसी भारतीयता की अभिव्यक्ति मिलती है. मेरी राष्ट्रीय और सांस्कृतिक चेतना का पोषण हिंदी और तेलुगु रूपी दो माताओं के साहित्य की दुग्धधारा से हुआ है. मैं इन दोनों भाषाओं को नमन करती हूँ. 

मैं आप से एक बात बाँटना चाहती हूँ. पिछले दिनों प्रो. देवराज जी के निर्देश पर तेलुगु से हिंदी में अनूदित साहित्य पर कुछ काम किया तो मेरे सामने ऐसी बहुत सारी जानकारियाँ आईं जो हिंदी भाषा समाज को नई लग सकती हैं. पर साथ ही हिंदी और तेलुगु बोलने वालों को एक दूसरे के नजदीक लाने वाली सिद्ध हो सकती हैं. जैसे - 

  • तेलुगु साहित्य की एक विशिष्ट विधा है – अवधान. इसमें एक व्यक्ति से कम से कम 8 से लेकर 1000 तक पृच्छक प्रश्न पूछते हैं और वह व्यक्ति प्रश्नों का उसी क्रम से काव्यमय उत्तर देता है. 100 पृच्छक हों तो – शतावधानम और 1000 हों तो – सहस्रावधानम कहा जाता है. 
  • हमारे समाजों में कुछ मिलते-जुलते संस्कार हैं. जन्म से जुड़े संस्कार को ही लें. तेलुगु समाज में जन्म के समय बच्चे के मामा को कुछ रस्में निभानी पड़ती हैं. जैसे नाल काटना. बच्चे की नाल मामा काटता है हमारे यहाँ. उसके बाद लहसुन डालकर उबाले गए तेल में बच्चे का चेहरा देखने का रिवाज है. 
  • तेलुगु समाज में आज भी विद्यारंभ संस्कार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है. इसके लिए शुभ मुहूर्त निकला जाता है. शास्त्रोक्त विधि से मुंडन कराया जाता है. तब पंडितजी बच्चे की उंगली पकड़कर कच्चे चावलों पर ‘ॐ’ लिखवाते हैं. इसके बाद पंडितजी को धोती का एक जोड़ा और तांबूल में रखकर दक्षिणा दी जाती है. 
  • दक्षिणा में 116 (एक सौ सोलह रुपए) या फिर 1116 (एक हजार एक सौ सोलह रुपए) देना का रिवाज है. इसे शुभ माना जाता है. 
  • यज्ञोपवीत या उपनयन का संस्कार भी धूमधाम से मनाया जाता है. इसे विवाह की पहली सीढ़ी माना जाता है. 
  • तेलुगु समाज में विवाह से संबंधित संस्कार अत्यंत व्यापक है. हिंदी समाज में सिंदूर और सात फेरे को जो महत्व प्राप्त है, तेलुगु समाज में मंगलसूत्र उसी महत्व का अधिकारी है. हल्दी में भिगोए हुए मोटे धागे (ताली) में दो गोल-गोल ढक्कनों की तरह मंगलसूत्र पिरोया जाता है. इस धागे को विवाह के अवसर पर मंत्रोच्चार के साथ वर द्वारा वधू के गले में पहनाया जाता है.
  • शादी के समय सफ़ेद सूत की साड़ी को हल्दी में डुबोकर पूजा के बाद वधू को पहनाया जाता है. इसे ‘मधुपर्कालु’ (शादी का जोड़ा) कहा जाता है. 
  • विवाह के अवसर पर लड़की को मायके की ओर से जो उपहार (स्त्रीधन) दिया जाता है, उसे तेलुगु समाज में ‘हल्दी-कुमकुम’ कहते हैं. 
  • विभिन्न शुभ अवसरों पर ताड़, नारियल और केले के पत्तों का प्रयोग किया जाता है. विवाह के अवसर पर ताड़ या नारियल के पत्तों से शामियाना लगाया जाता है और केले के गोदों को आँगन में मुख्य द्वार पर बाँधा जाता है. तोरण आम के पत्तों का बनाया जाता है. 
  • शुभ अवसरों पर आगंतुकों का स्वागत गीले चंदन द्वारा किया जाता है. 
  • शादी के अवसर पर तो अनेक तरह की रस्म होती हैं. दूल्हा और दुल्हन को एक दूसरे की जूठन खानी होती है. दूध के भरे बर्तन में से अँगूठी खोजने पड़ती है. फूलों की छड़ी से मारने का भी रिवाज है.
अंत में मैं यह भी कहना चाहती हूँ की हिंदी और तेलुगु भाषाओं में भी अनेक समानताएँ हैं. आपको यह जानकर रोचक लगेगा कि इन दोनों भाषओं की वर्णमाला का क्रम एक जैसा ही है. तेलुगु में कुछ अतिरिक्त वर्ण भी हैं जैसे ह्रस्व ए, ह्रस्व ओ, मूर्धन्य ल आदि. दोनों भाषाओ में अनेक शब्द संस्कृत स्रोत से आए हैं. जैसे – भक्ति, लग्नमु (लग्न), गौरवमु (गौरव) आदि. आज जरूरत इस बात की है कि हिंदी को सही अर्थों में सार्वदेशिक भाषा बनाने के लिए इसमें विभिन्न दक्षिण भारतीय और पूर्वोत्तर भारतीय भाषाओं के शब्दों का भी समावेश किया जाए.

ये बातें कहने से मेरा अभिप्राय इतना भर है कि भारत के लोग भले ही अलग अलग प्रांतों में रहते हों और अलग अलग भाषाएँ बोलते हों, उनकी सामाजिक संस्कृति और लोक संपदा एक जैसी है. हम सब इस साझी विरासत के भागीदार हैं और हिंदी इस विरासत के अलग अलग दिखने वाले हिस्सों को जोड़ने वाली भाषा है. इस भाषा ने जो आज मुझे सम्मान दिलाया है उसके लिए कृतज्ञता प्रकट करते हुए मैं आप सबको प्रणाम करती हूँ और हैदराबाद आने के लिए आमंत्रित करती हूँ ताकि आप देख सकें कि वहाँ राष्ट्रभाषा का कैसा वातावरण है. 

नमस्कार. 

मंगलवार, 17 जून 2014

हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा !!!

हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ में मान्यता दिलवाने तथा रोजमर्रा जीवन में हिंदी के प्रयोग को बढ़ावा देने का मुद्दा वैसे तो हर बार विश्व हिंदी सम्मेलन में अवश्य उठता है और आंकड़े यह भी बताते हैं कि हिंदी विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली दूसरी या तीसरी भाषा है. फिर भी आज तक संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में हिंदी को समुचित स्थान प्राप्त नहीं हुआ है जबकि अंग्रेजी, फ्रांसीसी, स्पैनिश, रूसी, चीनी और अरबी को संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद की कामकाज की भाषाएँ होने का गौरव प्राप्त है. एक ओर तो हिंदी भाषा को अखिल भारतीय स्वरूप प्रदान करने ही नहीं बल्कि उसके वैश्विक प्रसार की बात की जाती है तथा दूसरी ओर घोर उपेक्षा. 

सूचना के अधिकार (आरटीआइ) के तहत हाल ही में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने से संबंधित 12 वर्षीय लड़की ऐश्वर्या पाराशर के एक सवाल के जवाब में विदेश मंत्रालय ने बताया कि भारत ने हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की भाषा बनाने के लिए कोई प्रस्ताव नहीं किया है चूँकि ऐसा होने पर सरकार पर 82 करोड़ रुपए से अधिक वार्षिक खर्च आएगा. विदेश मंत्रालय के केंद्रीय जनसूचना अधिकारी एस. गोपालकृष्णन ने कहा कि ‘हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की एक आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल किए जाने के कई वित्तीय एवं प्रक्रियागत परिणाम आएँगे. संयुक्त राष्ट्र में औपचारिक प्रस्ताव रखने से पहले इन जरूरतों को पूरा करना पड़ेगा. प्रस्ताव करने वाले देश के रूप में भारत को दुभाषियों, अनुवाद, मुद्रण तथा दस्तावेजों के प्रतिलिपिकरण आदि पर होने वाले अतिरिक्त खर्च को पूरा करने के लिए संयुक्त राष्ट्र को समुचित वित्तीय संसाधन भी उपलब्ध करवाने होंगे.’ स्मरणीय है कि 1973 में अरबी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा के रूप में मान्यता मिली थी. इस पर भी प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि ‘यह महज खर्च का सवाल नहीं है, क्योंकि संयुक्त राष्ट्र महासभा को 192 सदस्य राष्ट्रों के बहुमत से एक प्रस्ताव अनुमोदित करना पड़ेगा. किसी अन्य भाषा को आधिकारिक भाषा बनाने से संयुक्त राष्ट्र के बजट में खासी बढ़ोतरी होती है, जबकि सदस्य राष्ट्र आमतौर पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ डालने वाले प्रस्तावों को समर्थन देने में अनिच्छुक होते हैं. 1973 में जब महासभा ने अरबी को अपनी आधिकारिक एवं कामकाज की भाषा के रूप में स्वीकार किया था तो यह काम इस बात को ध्यान में रखकर किया गया था कि अरबी संयुक्त राष्ट्र के 19 सदस्यों की भाषा है.’

इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि हिंदी विश्व के कई देशों में बोली जाती है. इसके बावजूद संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनने का गौरव हिंदी को उपलब्ध नहीं है. यह विडंबना नहीं है तो और क्या है कि नागपुर में 1975 में आयोजित पहले विश्व हिंदी सम्मलेन में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिलाने का प्रस्ताव पारित किया गया था. लेकिन आज तक भी हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ है ! 2012 में नौवें विश्व हिंदी सम्मलेन के अवसर पर विदेश राज्य मंत्री परनीत कौर ने कहा था कि ‘हिंदी को संयुक्त राष्ट्र में दर्जा दिलाने की प्रक्रिया लंबी और खर्चीली है जिसके चलते इसमें सफलता मिलने में देरी होना लाजमी है. लेकिन भारत सरकार इस दिशा में प्रयास करती रहेगी और कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी.’ परंतु ऐश्वर्या पाराशर के सवाल के जवाब से तो यही लगता है कि इस दिशा में प्रयास को महँगा समझ कर ठंडे बस्ते में डाला जा चुका है. 

आजकल हर क्षेत्र में हिंदी का प्रयोग किया जा रहा है तथा वह बाज़ार और कंप्यूटर की भाषा के रूप में अपनी क्षमता को प्रमाणित कर रही है. इंटरनेट की आभासी दुनिया में भी हिंदी में कार्य बहुत तेजी से बढ़ रहा है. अनेक वेब पत्रिकाएँ हिंदी में निकल रही हैं. अनेक हिंदी वेबसाइट हैं. हिंदी के अनेक ब्लॉग भी हैं. अनेक विदेशी हिंदी भाषा सीख रहे हैं. इसमें संदेह नहीं कि संयुक्त राष्ट्र संघ में हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाने से पूरे विश्व में भारत का गौरव बढ़ेगा तथा अर्थव्यवस्था भी सुदृढ़ होगी. लेकिन यह तब तक नहीं हो सकता जब तक कि अंग्रेजी के चक्रव्यूह से बाहर निकलकर सब लोग हिंदी को न अपनाएँ. 

भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार से इस दिशा में ठोस पहल की अपेक्षा है. उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के लिए सर्वत्र हिंदी को अपनाया. अहिंदीभाषी क्षेत्रों में भी उन्होंने हिंदी का भरपूर प्रयोग किया. सत्ता में आने पर उन्होंने दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संगठन (सार्क) के नेताओं से हिंदी में बात की. यह एक अच्छा संकेत है. जिस तरह राजनीति, भष्टाचार, गरीबी आदि कई मुद्दों पर उनकी सोच बेबाक और दो टूक है उसी प्रकार भाषा के संबंध में भी उनका विचार सुस्पष्ट है. अतः उम्मीद की जानी चाहिए कि वे भारत में हिंदी का संवैधानिक स्थान बहाल करते हुए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक-कूटनैतिक क्षेत्रों में हिंदी के व्यवहार को आधिकारिक प्रतिष्ठा प्रदान करेंगे और अब संयुक्त राष्ट्र की भाषा के रूप में मान्यता प्राप्ति के मार्ग की बाधाओं का निराकरण करेंगे.