सब को ‘हिंदी दिवस’ (14 सितंबर) की शुभकामनाएँ देते समय हमें याद आ रहा है कि हिंदी अपने व्यापक अर्थ में ‘हिंद की’ भाषा है अर्थात सारी भारतीय भाषाओं को समग्रतः हिंदी कहा जा सकता है. हिंदी किसी एक प्रांत विशेष की भाषा नहीं है बल्कि अपने व्यापक अर्थ में वह सब भाषाओं का द्योतक शब्द है, हिंदुस्तान की भाषा है. आज भले ही इस व्यापक अर्थ में ‘हिंदी’ को ग्रहण नहीं किया जा रहा है पर इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हिंदी ने स्वतंत्रता आंदोलन के समय पूरे देश को एक सूत्र में पिरोया है. हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा और राजभाषा है; देश के व्यापक भू-भाग की मातृभाषा तो है ही. इसमें संदेह नहीं कि अनेक आंचलिक बोलियों से मिश्रित यह भाषा भारत की आत्मा है. वैज्ञानिक, शैक्षणिक, सामाजिक और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में हिंदी के नए नए रूप उभर रहे हैं. “इन रूपों के प्रचलन से हिंदी में नए शब्दों, नई अभिव्यक्तियों, नए सह-संबंधों का आगमन हुआ है, इनके प्रयोग की दिशाएँ खुली हैं और इन्हें सामाजिक स्वीकार्यता मिली है. इस तरह हिंदी भाषा एक निरंतर गतिशील भाषा है.” (प्रो. दिलीप सिंह, ‘हिंदी भाषा का अंतरराष्ट्रीय संदर्भ’, हिंदी भाषा चिंतन, पृ. 276). उल्लेखनीय है कि जीवंत भाषा हिंदी की तीन सामाजिक शैलियाँ हैं – उच्च हिंदी, उच्च उर्दू और हिंदुस्तानी. जहाँ ‘उच्च हिंदी’ और ‘उच्च उर्दू’ पंडितों और मुल्लाओं की भाषा है अर्थात परिनिष्ठित भाषा रूप है वहीं ‘हिंदुस्तानी’ इन दोनों का सम्मिश्रण है जिसे महात्मा गांधी ने ‘सांप्रदायिक भावना के विरोध के रूप में स्वीकार किया.’ (रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, ‘हिंदी भाषा : परिभाषा के कुछ संदर्भ’, पूर्णकुंभ, मार्च 97, पृ. 27). हिंदुस्तानी सामान्य बोलचाल की भाषा शैली है. इस शैली को सीखने वाला भाषा को अनौपचारिक रूप से सीखता और बोलता है. इन तीनों शैलियों के अतिरिक्त एक और भाषा रूप है ‘दक्खिनी हिंदी’ जिसके निर्माण तथा विकास में भाषा संपर्क की अहम भूमिका है. “यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में उत्तर भारत के असंख्य हिंदू-मुसलमान दक्षिण में आ कर बस गए. इस प्रकार जो संपर्क सूत्र निर्मित हुआ उसने तत्कालीन साहित्य और संस्कृति पर भी अपना गहरा प्रभाव छोड़ा. उत्तर भारत के समुदायों के साथ उनकी विभिन्न बोलियाँ भी सहज ही दक्षिण भारत आ पहुँचीं. हम यदि दक्खिनी हिंदी साहित्य की भाषा का विश्लेषण करें तो हमें हिंदी की अधीनस्थ अनेक बोलियों की शब्द, अभिव्यक्तियाँ दक्खिनी हिंदी में अपने ठेठ रूप में उपस्थित मिल जाएँगी. सामान्यतः दैनंदिन बोलचाल से संबद्ध दक्खिनी हिंदी का व्यावहारिक रूप संपर्क के कारण क्रमशः मानकीकृत बना और साहित्यिक अभिव्यक्ति के लिए इसका प्रयोग होने लगा. कई विद्वान तो खड़ी हिंदी का सर्वप्रथम कवि इन दक्खिनी हिंदी रचनाकारों को ही मानते हैं.” (प्रो. दिलीप सिंह, ‘हिंदी विकास की मजबूत कड़ी : दक्खिनी हिंदी’, बहुब्रीहि, वर्ष 1, अंक 2, जनवरी-जून 2014, पृ. 71). कहना न होगा कि हिंदी भाषा अपनी साहित्यिक शैलियों, अधीनस्थ बोलियों तथा अन्य भारतीय भाषाओं के साथ सामासिक संस्कृति की अभिव्यक्ति का कार्य बखूबी कर रही है. यहाँ हम पिछले दशकों में तीव्रता से उभरे हिंदी के अंग्रेजी मिश्रित रूप को भी जोड़ना चाहेंगे जिसे प्रायः शुद्धतावादी अभिजन ‘हिंगलिश’ कहकर नाक-भौं सिकोड़ते हैं.
हिंदी भाषा का एक सुनिश्चित सामाजिक संदर्भ है जहाँ हिंदी विषमरूपी है. हिंदी भाषा के बारे में सुनीति कुमार चटर्जी का कथन द्रष्टव्य है – “बोलने वालों एवं व्यवहार करने तथा समझने वालों की संख्या की दृष्टि से हिंदुस्तानी का स्थान जगत की महान भाषाओं में तीसरा है, इसके पहले केवल चीनी भाषा की उत्तरी बोली तथा अंग्रेजी का रूप आता है. इस प्रकार हिंदी या हिंदुस्तानी आज के भारतीयों के लिए बहुत बड़ा रिक्थ है. यह हमारे भाषा विषयक प्रकाश का एक महत्तम साधन तथा भारतीय एकता एवं राष्ट्रीयता का प्रतीक रूप है. वास्तव में हिंदी ही भारत की भाषओं का प्रतिनिधित्व कर सकती है.” (प्रो. दिलीप सिंह, ‘हिंदी भाषा का अंतरराष्ट्रीय संदर्भ’, हिंदी भाषा चिंतन, पृ. 277). पिछले दिनों से यह भी कहा जाने लगा है कि प्रयोक्ताओं की संख्या की दृष्टि से अब हिंदी दुनिया में पहले पायदान पर है.
यह निर्विवाद तथ्य है कि भाषा अस्मिता का द्योतक है. अतः यह कहा जा सकता है कि हिंदी भारतीय अस्मिता की भाषा है. “कोई भाषा जितने ही अधिक व्यापारों में मनुष्य का साथ देगी उसके विकास और प्रचार की उतनी ही अधिक संभावना होगी.” (रामचंद्र शुक्ल, हिंदी की पूर्व और वर्तमान स्थिति). हिंदी भाषा अन्य भारतीय भाषाओं के साथ समन्वित रूप में भारतीय आत्मा, भारतीय संस्कृति और भारतीयता को समग्र रूप से उजागर करती है.
भाषा एक सामाजिक यथार्थ है. वह प्रयोक्ता समाज की अस्मिता है. ध्यान से देखा जाय तो यह स्पष्ट होता है कि भाषा में वह सामजिक शक्ति है जो आपस में सबको बाँधती है, जोड़ती है तथा आपसी संबंधों को मजबूत करती है. “भाषा किसी भी सामाजिक समुदाय के सदस्यों को अंदरूनी तौर पर जोड़ने और बाँधने वाली एक जबर्दस्त ताकत के रूप में अपनाई जा सकती है. दूसरी तरफ किसी एक संगठित समुदाय में अलगाव और बिखराव पैदा करने वाले एक हथियार के रूप में भी भाषा का इस्तेमाल किया जा सकता है. भाषा में जोड़ने या तोड़ने वाली ताकत एक ही चीज के दो पहलू हैं, एक ही समस्या को देखने की दो दृष्टियाँ हैं, और वह चीज या समस्या है – सामाजिक अस्मिता (आइडेंटिटी).” (रवींद्रनाथ श्रीवास्तव, ‘सामाजिक अस्मिता और भाषाई सवाल’, पूर्णकुंभ, मार्च-1997, पृ. 9).
अक्सर यह कहा जाता है कि भाषा संप्रेषण का सशक्त साधन है. लेकिन पंडित विद्यानिवास मिश्र के अनुसार भाषा सिर्फ संप्रेषण का ही नहीं बल्कि ‘आत्मीयता रचने का सशक्त माध्यम है’ तथा संप्रेषण ‘व्यक्ति की परस्पर संसक्तता’ का परिणाम है. उनके अनुसार “वह आधुनिकता अभिशप्त है जो विकल्पों की छूट नहीं देती.” (प्रो. दिलीप सिंह, ‘भाषा आत्मीयता रचने का माध्यम है’, स्रवन्ति, जून 2001, पृ. 4).
कहना न होगा कि भाषा में निहित सांस्कृतिक तत्व बहुत महत्वपूर्ण होते हैं जो लोक/ समाज के अभिन्न अंग हैं. सांस्कृतिक सामंजस्य और जातीय विलयन की स्वाभाविक प्रक्रिया ने भारत की बहुभाषिक और बहुसांस्कृतिक प्रकृति को बनाया है. यह भी कहा जा सकता है कि आदान-प्रदान को सहजता के साथ स्वीकारने, मिश्र संस्कृति का निर्माण करने और इसे अपनाने की अकूत क्षमता हिंदी भाषा में भरी पड़ी है. अपनी भाषा और संस्कृति को हर हाल में बचाना हर नागरिक का कर्तव्य है. स्मरणीय है कि भारत में भाषा संकट पश्चिम की देन है तथा इस भाषा संकट के अधिकतर कारण भी सामाजिक न होकर राजनैतिक ही हैं. यह ऐतिहासिक तथ्य है कि ब्रिटिश शासन काल में अंग्रेजी भाषा में ही सभी शासकीय कार्य होते थे. उन्होंने भारत को गुलाम बनाए रखने के लिए भाषा में निहित भारत की सांस्कृतिक रीढ़ को तोड़ने का षड्यंत्र रचा था. उन्होंने हिंदी सहित सभी भारतीय भाषाओं को गँवारों की भाषा कहकर तिरस्कृत किया तथा शिक्षा, न्याय, प्रशासन आदि सभी क्षेत्रों में अंग्रेजी को स्थापित किया. इस ब्रिटिश उपनिवेशवाद ने हमारे साहित्य और संस्कृति की जड़ों पर प्रहार करके हमें तोड़ने की पुरजोर कोशिश की पर संतोष का विषय है कि हमारी जड़ें इतनी गहरी थीं कि हमारी भाषाओं और बोलियों ने भी डटकर संघर्ष किया.
हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में जोड़ने की शक्ति है. ऐसी शक्ति संपन्न हिंदी को राष्ट्रीय स्तर पर ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पहुँचाने का प्रयास जारी है. हिंदी की दशा और दिशा, हिंदी का भविष्य और भविष्य की हिंदी, हिंदी का वैश्विक परिदृश्य, विदेशों में हिंदी आदि विषयों पर लगातार चर्चा-परिचर्चा, कार्यशालाओं और संगोष्ठियों का आयोजन किया जाता है. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा जैसी स्वैच्छिक संस्थाएँ हिंदी के प्रचार-प्रसार में पुरजोर काम कर रही हैं. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा की भूमिका 1918 में इंदौर के आठवें अधिवेशन में बनी तथा उसी वर्ष चेन्नै में सभा की स्थापना हुई. हिंदी का प्रचार-प्रसार ही सभा का मुख्य उद्देश्य है. सभा ने हिंदी प्रचार के माध्यम से भारत की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक एकता को सुदृढ़ करने का कार्य किया है. परिणामस्वरूप भारत की संसद द्वारा पारित अधिनियम संख्या 14, सन 1964 के माध्यम से सभा को ‘राष्ट्रीय महत्व की संस्था’ घोषित किया गया. तब से इसके दायित्व और कार्यक्षेत्र का विस्तार हुआ. सभा प्राथमिक से लेकर राष्ट्रभाषा प्रवीण तक की पाठ्यक्रमों के माध्यम से हिंदी का प्रचार-प्रसार करती है. साथ ही उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, विश्वविद्यालय विभाग एम.ए. (हिंदी), एम.फिल. (हिंदी), पीएच.डी. (हिंदी) और डीलिट (हिंदी) के पाठ्यक्रमों के माध्यम से अनुसंधान के क्षेत्र में भी महत्पूर्ण कार्य कर रही है. सभा शताब्दी वर्ष की ओर अग्रसर है. हम उसकी उन्नति हेतु कामना करते हैं.
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