बुधवार, 29 अक्तूबर 2014

तेलंगाना की सांस्कृतिक पहचान ‘बतुकम्मा’

स्वायत्त अस्तित्व ग्रहण करने के बाद तेलंगाना राज्य ने 24 सितंबर 2014 से 2 अक्टूबर 2014 तक विराट स्तर पर राजकीय लोकपर्व के रूप में ‘बतुकम्मा’ का त्यौहार भव्यता के साथ मनाया. इस त्यौहार का संबंध देवी पूजा से है. रोचक तथ्य यह है कि तेलंगाना का एक अन्य लोकपर्व ‘बोनालु’ भी देवी पूजा से ही संबंधित है. 

अतः ‘बतुकम्मा’ पर चर्चा करने से पूर्व संक्षेप में ही सही ‘बोनालु’ की चर्चा अपेक्षित है. ‘बोनालु’ को हैदराबादी भाषा में ‘बोनाल’ कहा जाता है. ‘बोनालु’ शब्द ‘भोजनालु’ (भोजन) का बिगड़ा हुआ रूप है. आषाढ़ मास आधा बीत जाने के बाद शुरू होकर यह पर्व श्रावण के आधा बीतने पर समाप्त होता है. अर्थात एक माह तक मनाया जाता है. इसके साथ एक लोक कथा जुड़ी हुई है. कहा जाता है कि लगभग डेढ़ सौ साल पहले तेलंगाना में बारिश का मौसम शुरू होते ही आषाढ़ मास में महामारी फैल गई. सब लोग इसे दैवी प्रकोप मानने लगे. देवी माँ को शांत करने के लिए पूजा-पाठ, व्रत-त्यौहार, मेले-ठेले का आयोजन किया गया. और तब से लेकर आज तक यह सिलसिला जारी है. क्रमशः गोलकुंडा, सिंकदराबाद, लाल दरवाजा और पुराने शहर में माह के चार सप्ताह के लिए यह उत्सव मनाया जाता है. प्रसाद के रूप में देवी माँ को नमक और काली मिर्च के साथ पके हुए चावल चढ़ाते हैं. मंदिर में देवी माँ के समक्ष जो चावल का ढेर लग जाता है उसे ‘बल्लम गल्ला’ कहते हैं. इस अवसर पर सोमवार को जुलूस की तैयारी की जाती है. माता के लिए रंगबिरंगे कागजों से सबसे ऊँचा बेंत का झूला तैयार किया जाता है. इस जुलूस का अर्थ है खुशी से माता को उनके ससुराल विदा करना. विदा करने के लिए तो भाई ही जाते हैं. माँ की विदाई के लिए उनके भाई और अंगरक्षक ‘पोतुराजु’ जाते हैं. नदी किनारे झूला और ‘बल्लम गल्ला’ रख दिए जाते हैं और नदी में दिया छोड़कर लोग वापस आ जाते हैं. लोक विश्वास है कि प्रेतात्माएँ भोजन पाकर तृप्त हो जाएँगी अतः कोई अनिष्ट नहीं होगा और देवी माँ सबकी रक्षा करेगी. 

इसी तरह ‘बतुकम्मा’ भी तेलंगाना का विशिष्ट त्यौहार है. यह त्यौहार भाद्रपद मास की समाप्ति के दिन अर्थात अमावस से शुरू होता है. स्मरणीय है कि आश्विन मास में भारतवर्ष में दुर्गा नवरात्र धूमधाम से हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. भारत के विभिन्न भागों में यह त्यौहार अलग अलग ढंग से मनाई जाती है. इस अवसर पर उत्तर भारत में रामलीला का आयोजन होता है तो गुजरात में डांडिया या गरबा का. आंध्र प्रदेश में दशहरे के रूप में मनाया जाता है तो तेलंगाना में ‘बतुकम्मा’ के नाम से प्रचलित है. अलग तेलंगाना राज्य बनने के बाद इस त्यौहार को तेलंगाना राज्य त्यौहार की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है. यह पर्व महालय अमावस के दिन शुरू होकर दुर्गाष्टमी के दिन समाप्त होता है. अंतिम दिन को ‘सद्दुला बतुकम्मा’ या ‘पेद्दा बतुकम्मा’ (बड़ी बतुकम्मा/ महाबतुकम्मा) कहा जाता है. इसके बाद होता है ‘बोड्डम्मा’ (गौरी पूजन) जिसके लिए तालाब की मिट्टी से माँ दुर्गा की प्रतिमा बनाई जाती है. यह भी मान्यता है कि ‘बतुकम्मा’ का त्यौहार जहाँ वर्षा ऋतु के समाप्त होने की निशानी है तो ‘बोड्डम्मा’ शरद ऋतु की शुरूआत की निशानी है. ‘बतुकम्मा’ दो शब्दों की संधि से बना हुआ शब्द है, ‘बतुकु’ (जीवन) + ‘अम्मा’ (माँ) अर्थात जीवनदायिनी माँ. इसका एक और अर्थ भी है कि ‘हे माँ जागो सबकी रक्षा करो’. 

बतुकम्मा पर्व वर्षा ऋतु के समाप्त होने का प्रतीक है. बारिश की समाप्ति के बाद जीवन की रक्षा के लिए देवी माँ के धन्यवाद स्वरूप यह उत्सव मनाया जाता है. विशेष रूप से फूलों से ‘बतुकम्मा’ को सजाते हैं. बरसात में हर जगह जंगली पौधे उग आते हैं. तेलंगाना के क्षेत्र में इस मौसम में हर जगह मद्धम सफेद रंग के ‘गुनुका’ (Celosia) के फूल उग आते हैं. इन्हें बतुकम्मा के फूल कहते हैं. बतुकम्मा को सजाने के लिए इन फूलों का प्रयोग किया जाता है. इन फूलों के साथ साथ तंगेडू (अमलतास), आक, कनेर, घास के फूलों का भी प्रयोग किया जाता है. पहले तो लोग इन फूलों को अपने आसपास के पेड़-पौधों से तोड़ लाते थे लेकिन आजकल जंगली फूलों के स्थान पर गेंदे, गुलाब, गुलदाउदी, गुड़हल और सजावटी फूलों का उपयोग किया जाने लगा है जो बाजार में उपलब्ध हैं. 

अब एक नजर ‘बतुकम्मा’ बनाने की विधि पर. पीतल की थाल जिसे ‘तांबलम’ कहते हैं उसमें गोबर की गोल से सतह बनाई जाती है और उस पर गुनुका (बतुकम्मा के फूल) के फूलों को इस तरह सजाया जाता है कि डंठल भीतर की ओर हो और बाहर फूल दिखाई दें. इन डंठलों पर फिर गोबर से सतह बनाई जाती है और उस पर फिर फूलों से सजाया जाता है. इस तरह परत दर परत पिरामिड आकार में फूलों से सजाया जाता है. शिखर पर कुम्हडे का फूल रखकर उस पर दिया जलाया जाता है. फूल खुशहाली का प्रतीक है और दिया प्रकाश का. आजकल गोबर के स्थान पर बेंत से पिरामिड आकार बनाया जाने लगा है और उसे रंगबिरंगे फूलों से सजाया जाता है. अष्टमी के दिन बतुकम्मा को लेकर स्त्रियाँ नदी किनारे पहुँचती हैं और बतुकम्मा के चारों ओर गोलाकार बनाकर गीत गाते हुए नाचती हैं. इसे स्त्री-बहनापे का भी प्रतीक कहा जा सकता है. गीत-संगीत और नृत्य के बाद ‘बतुकम्मा’ को नदी या तालाब में विसर्जित करते हैं और प्रसाद के रूप में ‘मलीदा’ (बाजरे और जवारी के आटे को मिलकर बनाई गई रोटी में गुड़ मिलाकर बनाया गया नैवेद्य) बाँटते हैं. 

‘बतुकम्मा’ त्यौहार से संबंधित अनेक लोक कथाएँ प्रचलित हैं. उनमें से कुछ इस प्रकार हैं – कहा जाता है कि चोल वंश के राजा धर्मंगा और उनकी पत्नी सत्यवती की सौ शूरवीर संतानें युद्ध में एक साथ शहीद हो जाती हैं. राजपाट सब छोड़कर राजा अपनी पत्नी समेत वनवास चले जाते हैं और संतान की कामना करते हुए माँ से याचना करते हैं. माँ की कृपा से बेटी का जन्म होता है लेकिन जन्म से ही उसे तरह तरह के खतरों का सामना करना पड़ता है. तब उस बच्ची का नामकरण ‘बतुकम्मा’ किया जाता है. इस कथा से संबंधित एक प्रचलित लोकगीत भी है जो आमतौर पर बतुकम्मा के अवसर पर गाया जाता है - बतक्म्मा बतकम्मा उय्यालो, बंगारू बतकम्मा उय्यालो/ आनाटी कलाना उय्यालो, धर्मांगुडनु राजु उय्यालो/ आ राजु भार्यायु उय्यालो, अति सत्यवती अंदुरु उय्यालो/ ...../ कलिकी लक्ष्मीनि गूर्ची उय्यालो, गनता पोंदिरिंका उय्यालो/ ..../ सत्यवती गर्भमुना उय्यालो, जनियिंचे श्रीलक्ष्मी उय्यालो. तेलंगाना क्षेत्र में आज भी यदि किसी घर में जन्म लेते ही बच्ची मर जाती है तो ऐसे माँ-बाप देवी माँ के दरबार में जाकर मन्नत मांगते हैं कि यदि बेटी जन्म लेगी तो उसका नाम ‘बतुकम्मा’ रखेंगे. 

एक और कथा भी प्रचलित है. बलात्कार से त्रस्त एक अबोध बालिका नदी में कूदकर आत्महत्या कर लेती है. गाँव वाले उस लड़की को ‘बतुकम्मा’ (जीवित हो जाओ, माँ) कह कर आशीर्वाद देते हैं. लोग आज भी यह मानते हैं कि ‘बतुकम्मा’ किसी भी अबोध बच्ची के साथ ऐसा कुकृत्य नहीं होने देगी. एक और मिथकीय कथा इस त्यौहार से जुड़ी हुई है. वह यह कि दक्ष के यज्ञ में सती देवी बिना बुलाए चली जाती हैं यह सोचकर कि गुरु और पिता के घर बिन बुलाए जाया जा सकता है. परंतु वहाँ दक्ष शिव की निंदा करते हैं तो सती इस अपमान को सह नहीं पाती और प्राण त्याग देती है. इसी की स्मृति में सती देवी के पुनः जीवित होने की कामना करते हुए फूल और हल्दी से गौरी माता की मूर्ति बनाकर पूजा की जाती है. 

वस्तुतः ‘बतुकम्मा’ का त्यौहार धरती, पानी और मनुष्य के बीच निहित संबंध को उजागर करता है. बतुकम्मा के लिए प्रयुक्त फूलों में औषधीय गुण होते हैं जो पानी के स्वच्छ रखने में सहायक होते हैं. जहाँ बतकम्मा फूलों से सजती हैं वहीं ‘बोड्डम्मा’ तालाब की मिट्टी से बनती है. माँ दुर्गा की मूर्ति को तालाब की मिट्टी से बनाकर पूजा-अर्चना करते हैं तथा तालाब में विसर्जित करते हैं ताकि तालाब हमेशा पानी से लबालब रहे. 

2 अक्टूबर 2014 को दुर्गाष्टमी के दिन शाम को हैदराबाद स्थित टैंक बंड पर ‘बतुकम्मा’ का पर्व बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया गया. इस अवसर पर विभिन्न अंचलों के लोककलाकार यहाँ एकत्र हुए और यक्ष गान, शिव तांडव, विभिन्न अंचलों के लोक नृत्य आदि का प्रदर्शन किया गया. यह त्यौहार प्रकृति की सुंदरता और तेलंगाना के लोगों की सद्भावना का प्रतीक बन गया है. आज यह पर्व तेलंगाना राज्य की सांस्कृतिक पहचान बन चुका है.

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