बुधवार, 12 नवंबर 2014

EVERLASTING MEMORY

Never imagined about an
Everlasting memorable Day.
Eminent personalities
Raised their hands for blessing
Applauses filled thy vacuum
Joyous tears rolled down thy cheeks
And head bowed down with gratitude.

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

समकालीन हिंदी कविता की चुनौतियाँ

वस्तुतः हिंदी कविता का फलक बहुत ही विस्तृत है. अपनी यात्रा में उसे समय समय पर अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. आज के कवि और कविता को और भी नई नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. इन चुनौतियों में से मुख्य चुनौती संप्रेषणीयता की चुनौती है. अर्थात काव्यभाषा की समस्या. जनभाषा का स्तर एक है तथा कविता की भाषा का स्तर एक. प्रायः यह माना जाता है कि साहित्यकार बनना हर किसी के बस की बात नहीं है. यह बात कवि और कविता पर भी लागू होती है. कविता लिखना हर किसी के लिए साध्य नहीं है. जिस तरह साहित्यकार को शब्द और भाषिक युक्तियों का चयन सतर्क होकर करना चाहिए उसी प्रकार कविता में भी शब्दों का सार्थक और सतर्क प्रयोग वांछित है. कवि को इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि उसे किस शब्दावली और भाषा का चयन करना होगा. सहज संप्रेषणीयता की दृष्टि से घरेलू परिसर और लोक परिवेश से चुने गए शब्दों और प्रतीकों की प्रयोग को केदारनाथ सिंह की कविता ‘एक पारिवारिक प्रश्न’ में देखा जा सकता है – 

“छोटे से आंगन में/ माँ ने लगाए हैं/ तुलसी के बिरवे दो/ पिता ने उगाया है/ बरगद छतनार/ मैं अपना नन्हा गुलाब/ कहाँ रोप दूँ!/ मुट्ठी में प्रश्न लिए/ दौड़ रहा हूँ वन-वन,/ पर्वत-पर्वत,/ रेती-रेती.../ बेकार” (केदारनाथ सिंह, एक पारिवारिक प्रश्न) 

इसमें संदेह नहीं कि आज बहुत भारी संख्या में कविता के नाम पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है. किसे कविता – अच्छी कविता – कहें और किसे नहीं. यह भी एक समस्या है. एक ओर नगरीय बोध वाले कवि हमारे सामने हैं. यदि उनकी कविताओं को ध्यान से देखें तो यह स्पष्ट होता है कि उनकी संवेदना शहर से जुड़ी हुई है. अतः उनकी कविताओं में सहज रूप से शहरी परिवेश को देखा जा सकता है. ऐसे कवि जब किसी और भाषा या भाषिक परिवेश के शब्दों, मिथकों और प्रतीकों को हिंदी कविता में आयात करते हैं तो संप्रेषणीयता की समस्या उत्पन्न हो जाती है. उदाहरण के लिए कुमार लव की एक कविता देखें – 

“प्रोमेथ्यूज़ का कलेजा/ हर रोज़ नोचती चील/ सोचती होगी/ कैसा मूर्ख है यह,/ देवताओं से लड़ता है भला कोई!!” (कुमार लव, उल्लंघन)

जब तक पाठक प्रोमेथ्यूज़ को नहीं जानते तब तक कविता को समझना भी कठिन है. दूसरी ओर ग्रामीण बोध वाले कवि हैं. इनके शब्द चयन में आंचलिकता का अतिशय आग्रह संप्रेषणीयता को बाधित करता है. परंतु जहाँ कवि दैनिक जीवन के बिंबों को प्रचलित लोक शब्दावली में बांधता है वहाँ पाठक को उससे जुड़ने में कोई व्यवधान महसूस नहीं होता. उदाहरण के लिए – 

“चिकनी पीली मिटटी को/ कुएँ के मीठे पानी में गूँथकर/ बनाया था माँ ने वह चूल्हा/ और पूरे पंद्रह दिन तक/ तपाया था जेठ की धूप में/ दिन दिन भर/ उस दिन/ आषाढ़ का पहला दौंगड़ा गिरा,/ हमारे घर का बगड़/ बूंदों में नहा कर महक उठा,/ रसोई भी महक उठी थी –/ नए चूल्हे पर खाना जो बन रहा था./ गाय के गोबर में/ गेहूँ का भुस गूँथ कर/ उपले थापती थी माँ बड़े मनोयोग से/ और आषाढ़ के पहले/ बिटौड़े में सजाती थी उन्हें/ बड़ी सावधानी से” (ऋषभदेव शर्मा, बनाया था माँ ने वह चूल्हा)

यह कविता ग्रामीण जीवन और मानव संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती है. लेकिन आज की शहरी युवा पीढ़ी न ही चिकनी मिटटी से चूल्हा बनाने की प्रक्रिया से अवगत है और न ही गाय के गोबर में गेहूँ का भुस गूँथकर उपले थापने से. आज तो खाना गैस स्टोव पर या इलेक्ट्रिक ओवेन में बनता है तो रसोई की महक क्या होती है और उससे जुड़ी माँ की संवेदना क्या होती है. यह भला कैसे जान सकते हैं? ऐसे में इस कविता की संप्रेषणीयता में व्यवधान उत्पन्न होना स्वाभाविक है. ग्रामबोध वाली कविताओं में बहुत सारे ग्रामीण अंचल के शब्द मुखरित हैं. उदाहरण के लिए ऋषभदेव शर्मा की एक कविता का शीर्षक ही है ‘गलगोड्डा’. अब इस शब्द को समझने के लिए अंचल का दरवाजा खटखटाना जरूरी है. तेलुगु में इसे ‘गुदिबंडा’ कहा जाता है. अर्थात चंचल पशुओं के गले में बाँधा जाने वाला गति-अवरोधक पत्थर, पाया अथवा खूंटा. 

यह तो हुई संप्रेषणीयता की बात. समकालीन कविता के समक्ष उपस्थित होने वाली दूसरी चुनौती है वक्तव्य प्रधानता. ‘चौथा सप्तक’ (1979) की भूमिका में अज्ञेय ने इस बात को रेखांकित किया था कि “आज की कविता में वक्तव्य का प्राधान्य हो गया है. उसके भीतर जो आंदोलन हुए हैं और हो रहे हैं वे सभी इस बात को न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि बहुधा इसी को अपने दावे का आधार बनाते हैं.” वे आगे कहते हैं कि “कविता में वक्तव्य तो हो सकता है और वक्तव्य होने से ही वह अग्राह्य हो जाए ऐसा भी नहीं है. लेकिन वक्तव्य के भी नियम होते हैं और उनकी उपेक्षा काव्य के लिए खतरनाक होती है. यह बात उतनी ही सच है जितनी यह कि काव्य में कवि वक्ता के रूप में भी आ सकता है, लेकिन उत्तम पुरुष के प्रयोग की जो मर्यादाएँ हैं उनकी उपेक्षा करने से कविता का ‘मैं’ कवि न होकर एक अनधिकारी आक्रांता ही हो जाता है. आज कविता पर एक दावे करने वाला ‘मैं’ बुरी तरह छा गया है. कविता में ‘मैं’ भी निषिद्ध नहीं है, दावे भी निषिद्ध नहीं हैं, कविता प्रतिश्रुत और प्रतिबद्ध भी हो सकती है, लेकिन कहाँ अथवा कहाँ तक इन सबका काव्य में निर्वाह हो सकता है और कहाँ ये काव्य के शत्रु बन जाते हैं यह समझना आवश्यक है.” (अज्ञेय, ‘काव्य का सत्य और कवि का वक्तव्य’, भूमिका, चौथा सप्तक). 

समकालीन कविता में प्रायः यह देखा जा सकता है कि कवि अपने बारे में और कविता के बारे में ज्यादा बोलते हैं. वस्तुतः कविता को लाक्षणिक और सांकेतिक होना चाहिए न कि विवरणात्मक. लेकिन आज की कविता बड़ी सीमा तक विवरणात्मक है और वक्तव्य के रूप में, अर्थात गद्य के रूप में, सामने आती है. इसका निराकरण करने के लिए कवि संवादात्मकता की तकनीक अपनाते दिखाई देते हैं. उदाहरण के लिए धूमिल की कविता ‘मोची राम’ वक्तव्य प्रधान होते हुए भी पूरी तरह से संवादात्मक कविता है. देखें – 

“राँपी से उठी हुई आँखों ने मुझे/ क्षण-भर टटोला/ और फिर/ जैसे पतियाये हुये स्वर में/ वह हँसते हुए बोला-/ बाबूजी सच कहूँ - मेरी निगाह में/ न कोई छोटा है/ न कोई बड़ा है/ मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जूता है/ जो मेरे सामने/ मरम्मत के लिए खड़ा है।“ (धूमिलमोची राम) 

आज के उत्तरआधुनिक परिप्रेक्ष्य में विमर्शों की कविता को देखा जा सकता है - स्त्री विमर्श की कविताएँ, दलित विमर्श की कविताएँ, अल्पसंख्यक विमर्श की कविताएँ आदि. एक तरह से ये कविताएँ आत्मवक्तव्य सी बनती जा रही हैं. ऐसे रचनाकारों को यह समझना आवश्यक है कि आपबीती को जगबीती कैसे बनाया जाय. 

समकालीन कविता के सामने जो तीसरी चुनौती उपस्थित है वह है अभिव्यक्ति का खतरा. मुक्तिबोध ने कहा था कि ‘अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे.’ आज के समय में भी अभिव्यक्ति के खतरे हैं क्योंकि पग पग पर विमर्शों का दबाव है. कवि की वैचारिकता विमर्शों के कारण दबाव महसूस करती है. यह भी देखा जा सकता है कि विमर्शों के नाम पर नकली संवेदना अर्थात कल्पित यथार्थ को भी कविता में जगह दी जा रही है. एक ओर सामाजिक-राजनैतिक व्यवस्था का दबाव है तो दूसरी ओर बाजार का सर्वव्यापी दबाव है. बाजार ने मनुष्य को इतना प्रभावित कर दिया है कि उसका जीवन भी बाजार में खरीदी बेची जाने वाली वस्तु बनता जा रहा है. उसकी कल्पनाएँ एवं संवेदनाएँ सूख रही हैं. भूमंडलीकरण और बाजारवाद ने कविता को भी नहीं छोड़ा है. आज की कविता का बड़ा हिस्सा भूमंडलीकरण और बाजारवाद के बीच पिसते हुए मनुष्य की अभिव्यक्ति है. सपनों तक पर बाजार के छा जाने की त्रासदी को कविता में कैसे अभिव्यक्त किया जाय - यह प्रश्न हमारे कवियों के समक्ष उपस्थित है. इस समय उत्तरआधुनिकता से आगे बढ़कर एकदम अस्थिर प्रकृति वाली तरल आधुनिकता भी कवि की चिंता का विषय है. अंततः ‘एक परोपकारी राजा था,/ एक करुणामयी रानी थी,/ एक दुष्ट राक्षस था .... / ऐसी कहानियों के अंत बदल देने चाहिए/ बच्चे बड़े हो रहे हैं.’ (पंकज राग, कहानियों का अंत)

समकालीन साहित्य की चुनौतियाँ : एक चर्चा

पिछले डेढ़ सौ – दो सौ वर्षों में हमारे परिवेश और चिंतन में बड़े बदलाव आए हैं. वैज्ञानिक क्रांति के साथ आधुनिकता की आहटें सुनाई देने से लेकर उत्तरआधुनिकता और उससे जुड़े विमर्शों तक की इस यात्रा ने हमें आज जिस मुकाम पर ला खड़ा किया है वहाँ हम सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक मोर्चों पर नई नई चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो भी सब ओर काफी धुंधलका बरसता दिखाई देता है. इस धुंधलके में रचनाकार को अपनी राह तलाशने की बड़ी चुनौती का सामना है. समकाल की वे चुनौतियाँ उन स्थायी चुनौतियों के अतिरिक्त हैं जिनका सामना वस्तु, विचार, अभिव्यक्ति और शिल्प की खोज के स्तर पर किसी भी रचनाकार को करना होता है. 

इन चुनौतियों से जुड़े विविध पहलुओं पर विचार करने के लिए गत 30-31 अक्टूबर 2014 को कर्नाटक विश्वविद्यालय (धारवाड़), अयोध्या शोध संस्थान (अयोध्या) और साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था (उल्हासनगर) के संयुक्त तत्वावधान में धारवाड में ‘समकालीन हिंदी साहित्य की चुनौतियाँ’ विषयक द्विदिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया. उद्घाटन सत्र की मुख्य अतिथि अमेरिका से पधारी देवीनागरानी थीं. विशिष्ट अतिथियों में डॉ. विनय कुमार (हिंदी विभागाध्यक्ष, गया कॉलेज), डॉ. योगेंद्र प्रताप सिंह (निदेशक, अयोध्या शोध संस्थान, अयोध्या), डॉ. प्रदीप कुमार सिंह (सचिव, साहित्यिक सांस्कृतिक शोध संस्था, उल्हासनगर), डॉ. राम आह्लाद चौधरी (पूर्व अध्यक्ष, हिंदी विभाग, कोलकाता), डॉ. प्रभा भट्ट (अध्यक्ष, हिंदी विभाग, कर्नाटक विश्वविद्यालय), डॉ. एस. के. पवार (कर्नाटक विश्वविद्यालय) और डॉ. बी. एम. मद्री (कर्नाटक विश्वविद्यालय) शामिल थे. 

उद्घाटन भाषण में देवी नागरानी ने कहा कि उन्हें भारत और अमेरिका में कोई विशेष अंतर नहीं दीखता क्योंकि जब कोई भारत से विदेश में जाते हैं तो वे सभ्यता, संस्कृति और संस्कार को भी अपने साँसों में बसाकर ले जाते हैं. एक हिंदुस्तानी जहाँ जहाँ खड़ा होता है वहाँ वहाँ एक छोटा सा हिंदुस्तान बसता है. उन्होंने भाषा और संस्कृति के बीच निहित संबंध को रेखांकित करते हुए कहा कि विदेशों में तो ‘हाय, बाय और सी यू लेटर’ की संस्कृति है जबकि हमारे भारत में विनम्रता से अभिवादन करने का रिवाज है. लेकिन आजकल यहाँ कुछ तथाकथित लोग विदेशी संस्कृति को अपनाकर हमारी संस्कृति की उपेक्षा कर रहे हैं जबकि विदेशों में बसे प्रवासी भारतीय अपनी भाषा और संस्कृति को बचाए रखने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे हैं. विश्वा (सं. रमेश जोशी), सौरभ (सं. अखिल मिश्रा), अनुभूति एवं अभिव्यक्ति (सं. पूर्णिमा वर्मन) आदि अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएँ अंतर्जाल के माध्यम से हिंदी भाषा, साहित्य और संस्कृति को बचाए रखने में महती भूमिका निभा रही हैं. उन्होंने सबसे अपील की कि ‘हमें अपनी भाषा को, अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को बचाए रखने के लिए कदम उठाना चाहिए चूँकि भाषा ही हमें विरासत में प्राप्त हुई है. अतः इसे सींचना और संजोना हमारा कर्तव्य है.’ 

साहित्य को अंधेरा चीरने वाला प्रकाश बताते हुए डॉ. राम अह्लाद चौधरी ने कहा कि ‘आज प्रतिकूल परिस्थितियों को अनुकूल बनाने की चुनौती साहित्यकारों के समक्ष है. भारतीय साहित्य में इतिहास, दर्शन और परंपरा का संगम होता है. लेकिन आज के साहित्य में यह संगम सिकुड़ता जा रहा है. समाकीलन साहित्य के सामने एक और खतरा है अभिव्यक्ति का खतरा. गंभीरता और जिम्मेदारी पर आज प्रश्न चिह्न लग रहा है क्योंकि सही मायने में साहित्य के अंतर्गत लोकतंत्र का विस्तार नहीं हो रहा है. हाशियाकृत समाजों को केंद्र में लाना भी आज के साहित्य के समक्ष चुनौती का कार्य है. आलोचना के अंतर्गत भी गुटबाजी चल रही है. आलोचना पद्धति के मानदंड को बदलना आवश्यक है. साहित्य का कारपोरेटीकरण हो रहा है. सौंदर्य और प्रेम साहित्य के बुनियाद हैं. साहित्य को प्रवृत्तिमूलक दृष्टिकोण से देखना अनुचित है. जब तक उसके स्रोत तक नहीं पहुँचेंगे तब तक सिर्फ प्रवृत्ति के आगे चक्कर लगाते ही रहेंगे. साहित्य हाथ छुड़ाने का काम नहीं बल्कि हाथ थामने का काम करता है. एक दूसरे को जोड़ने काम करता है.’ 

समकालीन रचनाकार एक ऐसे वातावरण में जी रहा है जहाँ यथार्थ को समग्र रूप में देखने के बजाय टुकड़ों में देखने का प्रचलन है. युगों तक हाशिए पर रहने के लिए विवश विविध समुदाय आज अपनी अस्मिता को रेखांकित कर रहे हैं जिससे विविध विमर्श सामने आए हैं. इस संदर्भ में डॉ. प्रतिभा मुदलियार (मैसूर) ने कहा कि ‘समकालीन हिंदी कविता में मानवाधिकारों से वंचित वर्ग ने अपनी अस्मिता कायम करने के लिए अभिव्यक्ति का शस्त्र अपनाया. हिंदी दलित विमर्श ने एक मुकाम हासिल की है. निर्मला पुतुल, ओमप्रकाश वाल्मीकि, तुलसीराम आदि साहित्यकार अपनी रचनाओं के माध्यम से भोगे हुए यथार्थ को अभिव्यक्त किया है. उनकी रचनाओं में उनकी वैचारिकता को रेखांकित किया जा सकता है. ये रचनाएँ अस्तित्व की लड़ाई की रचनाएँ हैं, विद्रोह और संघर्ष की रचनाएँ हैं. इनमें पीड़ा का रस है. घृणा के स्थान पर प्रेम को स्थापित करना की मुहीम है.’

डॉ. ऋषभदेव शर्मा (हैदराबाद) ने कहा कि समकालीन कविता की चुनौतियों को यदि समझना हो तो पंकज राग की कविता ‘यह भूमंडल की रात है’ को देखा जा सकता है क्योंकि भूमंडलीकरण/ भूमंडीकरण आज की सबसे बड़ी चुनौती है. उन्होंने कहा कि ‘कविता के समक्ष कुछ शाश्वत चुनौतियाँ हैं – विषय चयन से लेकर भाषा, पठनीयता और संप्रेषण तक. कविता का धर्म मनुष्यता को बचाना है. व्यक्ति को जारूक बनाना है. कवि को अपने समय से दो चार होते हुए चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. कविता को लोकमंगल, लोक रक्षण की भूमिका निभाने के लिए नए पैतरों को अपनाना होगा.’ उन्होंने इस बात को रेखांकित किया कि ‘आज के समय में पठनीयता की समस्या अर्थात संप्रेषण की समस्या है. यदि कवि लोक से जुड़ने की अपेक्षा लोकप्रियता से जुड़ जाय तो कविता में गंभीरता की क्षति होती है. समाज को टुकड़ों में बांटने वाली कविता नहीं चाहिए जबकि जोड़ने वाली कविता चाहिए. उपदेशों तथा निबंधों का अनुवाद कविता में नहीं करना चाहिए. जीवन की सच्ची अनुभूति की अभिव्यक्ति सरल शब्दों में होना नितांत आवश्यक है.’

साहित्य की पठनीयता के संकट की चर्चा करते हुए डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा (हैदराबाद) ने कहा कि मुख्य चुनौती संप्रेषणीयता की चुनौती है. अर्थात काव्यभाषा की समस्या. जनभाषा का स्तर एक है तथा कविता की भाषा का स्तर एक. प्रायः यह माना जाता है कि साहित्यकार बनना हर किसी के बस की बात नहीं है. यह बात कवि और कविता पर भी लागू होती है. कविता लिखना हर किसी के लिए साध्य नहीं है. जिस तरह साहित्यकार को शब्द और भाषिक युक्तियों का चयन सतर्क होकर करना चाहिए उसी प्रकार कविता में भी शब्दों का सार्थक और सतर्क प्रयोग वांछित है. कवि को इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि उसे किस शब्दावली और भाषा का चयन करना होगा. 

साहित्य को जीवन प्रतिक्रया मानते हुए डॉ. श्रीराम परिहार (खंडवा) ने कहा कि जीवन की जो भी चुनौतियाँ होंगी वे सभी कविता की चुनौतियाँ होंगी. जयशंकर प्रसाद ने भी कहा था कि काव्य जीवन की संकल्पनात्मक अभिव्यक्ति है. श्रीराम परिहार ने इस बात को रेखांकित किया कि भारत और विदेश में मूलभूत अंतर है. विदेश में संस्कृति, धर्म और दर्शन जीवन के हिस्से हैं. लेकिन भारत में धर्म व्यापक है. संस्कृति, समाज और दर्शन सभी धर्म के हिस्से हैं. जीवन में जो आचरण होता है वह कहीं न कहीं धर्म से जुड़ा हुआ होता है. अतः भारतीय साहित्य और कविता को इस दृष्टि से समझना अनिवार्य है.’ उन्होंने यह पीड़ा व्यक्त की कि हम ऐसे आलोचक पैदा नहीं कर पा रहे हैं जो साहित्य के सभी विधाओं को बराबर आदर दे सकें. उन्होंने इस बात को उदाहरणों से पुष्ट करते हुए कहा कि हमारे आलोचक एक रचना को सिर्फ एकांगी दृष्टि से आंकते रहते हैं. उसको समग्रता में नहीं देखते. बैंकों का राष्ट्रीयकरण, डंकल, पेटेंट आदि ने समाज में नवउदारवादी नीति को आगे बढ़ाया जिसके फलस्वरूप भूमंडलीकरण और बाजारवाद का प्रभाव बढ़ता गया. तीन ‘एम’ – ‘माइंड’, ‘मनी’ और ‘मसल’ पूरी तरह से सभी क्षेत्रों में हावी हो गए. साहित्य भी इनके प्रभाव से अछूता नहीं रहा. उन्होंने यह अपील की कि साहित्य को एकांगी दृष्टि से न देखें. उसको समग्रता में देखें और समझें. 

संगोष्ठी के विभिन्न सत्रों में कविता, नाटक, उपन्यास और कहानी के समक्ष उपस्थित समकालीन चुनौतियों पर तो चर्चा हुई ही, एक सत्र में राम साहित्य की प्रासंगिकता पर भी विचार विमर्श हुआ जिससे यह बात उभरकर आई कि उत्तरआधुनिकता से आगे तरल आधुनिक होते जा रहे समकालीन विश्व में मनुष्यता, मानवीय संबंध और जीवन मूल्य खतरे में हैं और यह ख़तरा साम्राज्यवादी ताकतों तथा मुनाफाखोर बाजार से उपजी उपभोक्तावादी संस्कृति से है. इसका सामना करने के लिए रचनाकारों को यथार्थ का अंकन करने के साथ साथ मनुष्य और मनुष्य को जोड़ने वाले मूल्यों की स्थापना करने वाले साहित्य की रचना करनी होगी. यह बात भी उभरकर सामने आई कि रचनाकार जब तक अपने पाठक से सीधे संवाद स्थापित नहीं करेंगे और सामाजिक कार्यकर्ता की सक्रिय भूमिका में नहीं उभरेंगे तब तक साहित्य की प्रासंगिकता प्रश्नों के घेरे में रहेगी.