सोमवार, 19 जनवरी 2015

संवेदनाओं के धनी एक रचनाकार के सम्मान में .....

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रमेशचंद्र शाह
देर आयद दुरुस्त आयद ! यह कहावत साहित्य अकादमी के वर्ष 2014 के पुरस्कारों की घोषणा पढ़ने सुनने पर अपने आप याद आ गई. संदर्भ था डॉ. रमेशचंद्र शाह को उनके उपन्यास ‘विनायक’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किए जाने की घोषणा का. डॉ. रमेशचंद्र शाह का साहित्य लंबे समय से इस सम्मान का दावेदार और हकदार था. सुना तो यहाँ तक है कि इससे पहले उनकी औपन्यासिक कृतियाँ, कविता संग्रह और डायरी इस पुरस्कार के लिए छह बार शोर्ट लिस्ट हो चुकी हैं. अब सातवीं बार जाकर यह चिर प्रतीक्षित घोषणा सामने आई है. इससे पूर्व वे पद्मश्री, व्यास सम्मान, मध्य प्रदेश शासन के संस्कृत विभाग द्वारा ‘शिखर सम्मान’, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता द्वारा ‘पूर्वापर’ उपन्यास के लिए, मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा आलोचना, उपन्यास तथा काव्य संग्रह के लिए क्रमशः नंददुलारे वाजपेयी पुरस्कार, वीरसिंह देव पुरस्कार तथा भवानी प्रसाद मिश्र पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं. इतना ही नहीं उन्हें 2015 के लिए गजानन माधव मुक्तिबोध राष्ट्रीय साहित्य सम्मान 8 फरवरी को आयोजित समारोह में प्रदान किया जाएगा. 

साहित्य अकादमी से पुरस्कृत उपन्यास ‘विनायक’ के बारे में बताते हुए रमेशचंद्र शाह ने ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ के संवादताता अभिनय शुक्ल से कहा कि “Vinayak is the hero of the novel. When the novel starts, he is about 55. He is going to retire in a few years. The novel is about with the grown up Vinayak, but Vinayak is the name of the protagonist of my first novel Gobar Ganesh also, which has run in six editions. Although, Vinayak is complete in itself yet there is a link between Vinayak and Gobar Ganesh. Gobar ganesh dealt with the childhood, youth and boyhood of Vinayak, but this novel deals with the middle age of Vinayak.” 

अल्मोड़ा में जन्में डॉ. रमेशचंद्र शाह (1937) हिंदी के विरिष्ठ कवि, कथाकार और आलोचक हैं. 1997 में भोपाल के शासकीय हमीदिया कॉलेज से अंग्रेजी प्रोफेसर एवं विभागाध्यक्ष के पद से सेवानिवृत्त हुए. तत्पश्चात 1997-2000 तक वे भोपाल स्थित निराला सृजनपीठ के निदेशक भी रह चुके हैं. 78 वर्ष की आयु में भी वे निरंतर साहित्य सृजन कर रहे हैं. उनकी प्राकशित कृतियों में [निबंध संग्रह] रचना के बदले (1967), शैतान के बहाने (1980), आडू का पेड़ (1984), सबद निरंतर (1987), पढ़ते-पढ़ते (1980), स्वधर्म और कालगति (1994), स्वाधीन इस देश में (1995), नेपथ्य से; [काव्य संग्रह] कछुए की पीठ पर, हरिश्चंद्र आओ, नदी भागती आई, प्यारे मुचकुंद को, देखते हैं शब्द भी अपना समय, अनागरिक, चक पर समय; [उपन्यास] गोबर गणेश, किस्सा गुलाम (नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा अनेक भारतीय भाषाओं में अनूदित), पूर्वापर, आखिरी दिन, पुनर्वास, आप कहीं नहीं रहते, विभूतिबाबू, कम्बित इस मोड़ पर और विनायक; [आलोचना] छायावाद की प्रासंगिकता, समानांतर, वागर्थ, जयशंकर प्रसाद, अज्ञेय (साहित्य अकादमी मोनोग्राफ), भूलने के विरुद्ध, अज्ञेय : वागर्थ का वैभव, आलोचना का पक्ष, [डायरी] इस खिड़की से और जंगल जुही आदि उल्लेखनीय हैं. इनके अतिरिक्त कई कहानी संग्रह, नाटक, निबंध, यात्रावृत्त तथा कई संपादित ग्रंथ भी प्रकाशित हो चुके हैं. टेमोनोस अकादमी, लंदन से व्याख्यानों की पुस्तक ‘Ancestral Voices : Four Essays towards a Philosophy of Imagination’ भी प्रकाशित है. उनकी धर्मपत्नी ज्योत्सना मिलन (19 जुलाई 1941-5 मई 2014) भी सुप्रसिद्ध साहित्यकार थीं. ‘अ अस्तु का’ उनका चर्चित उपन्यास है. 

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डॉ. रमेशचंद्र शाह से मेरी मुलाकात हैदराबाद में 30 जुलाई 2012 को आंध्र प्रदेश हिंदी अकादमी में हुई थी. मैं उनका व्याख्यान सुनने गई थी. बड़े ही निश्छल भाव से वे सबसे मिल रहे थे. मैं मन ही मन सोच रही थी - इतनी बड़ी हस्ती और इतना सहज! कुर्ता पजामा में थे. चेहरे की आकृति न ही पूरी तरह से गोलाकार है और न ही पूरी तरह से अंडाकार. दोनों का अद्भुत सम्मिश्रण. चश्मेदार तो थे ही. पूरी तरह से पके हुए बाल. चहरे पर चमक. उन्हें बस देखती रह गई. व्याख्यानमाला शुरू हुई. उन्होंने भारतीय भाषाओं पर अपना सुव्यवस्थित विचार प्रस्तुत किए. व्याख्यान समाप्त होने के बाद सबसे विदा लेते समय मैं संकोच करते हुए उनसे जाकर मिली और अपनी पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ और दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, हैदराबाद की पत्रिका ‘स्रवंति’ उन्हें भेंट की तो वे बहुत ही आत्मीय भाव से मुझसे मिले और मेरी पुस्तक के पन्ने पलटते हुए आशीर्वाद दिए – ‘यशश्वी भवः’. उसके बाद 20 अक्टूबर 2012 को ‘भास्वर भारत’ के प्रवेशांक के लोकार्पण समारोह में एक बार फिर उनसे मिलने का अवसर प्राप्त हुआ. आगे बढ़कर जैसे ही मैंने उनका चरण स्पर्श किया तो उन्होंने कहा – ‘बेटी, तुम्हारी किताब पढ़ डाला. बहुत अच्छा लगा. हिंदी भाषाभाषियों को तेलुगु साहित्य और साहित्यकारों की जानकारी देने का यह कार्य स्तुत्य है. मेरा आशीर्वाद सदा ही तुम्हारे साथ रहेगा.’ मैं गद्गद हो गई. उसके बाद न ही डॉ. रमेशचंद शाह से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ और न ही उनसे बातचीत करने का. लेकिन समय समय पर ‘भास्वर भारत’ के माध्यम से उनके विचारों से रू-ब-रू होना का अवसर प्राप्त होता रहा. 

साहित्य आकादमी की पुरस्कार की घोषणा होने पर ऊहापोह में रहने के बाद कि इतने बड़े लेखक को मेरा फोन करना ठीक भी होगा या नहीं, मैंने 21 दिसंबर 2014 को बधाई देने हेतु जब उन्हें फोन किया तो उन्होंने अत्यंत प्रसन्न स्वर में आशीर्वाद देते हुए कहा – ‘मैं जहाँ भी जाता हूँ वहाँ हमेशा यही कहता हूँ कि हिंदी का उद्धार दक्षिण भारतीय ही करते हैं और वे ही यह काम कर सकते हैं. क्योंकि वे अपनी मातृभाषा के साथ हिंदी को भी आगे ले जाने का काम कर रहे हैं. ‘स्रवंति’ के माध्यम से जो काम आप लोग आंध्र प्रदेश में रह कर रहे हैं वह अभिनंदनीय है.’ उनका स्नेह और आशीर्वाद पाकर मैं धन्य हो गई. 

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वस्तुतः लेखन के लिए प्रेरणा की जरूरत होती है. साथ ही संवेदनशील सहृदय की भी. देखा जाय तो बचपन से ही हर एक मनुष्य के मानस पर लाखों हजारों स्मृतियाँ अंकित हो जाती हैं. जो अपनी संवेदनाओं को अभिव्यक्त कर सकते हैं वे साहित्यकार बन जाते हैं और हर साहित्यकार के लिए अपनी एक निजी रचना प्रक्रिया होती है. रमेशचंद्र शाह के लिए तो रचना एक अटूट साधना है. अपनी रचना प्रक्रिया के संबंध में उन्होंने स्वयं कहा है कि “मेरी रचनात्मक चेतना के निर्माण में प्रकृति का बहुत योगदान है. मेरी स्मृति पहाड़ से जुड़ी है. वह मेरी चेतना की पूँजी है. मेरे बचपन में मेरी स्मृति में प्रकृति है. लेकिन आज की छापें जो पड़ती हैं स्मृति पर, चेतना पर उनसे मेरा संघर्ष होता है. आज भी प्रकृति मेरा सहारा है.” (रमेशचंद्र शाह से रवींद्र स्वप्निल प्रजापति की बातचीत)

रमेशचंद्र शाह सुधी आलोचक हैं. नामवर सिंह को वे आलोचक से जयादा आस्वादक लगते हैं. उनका मानना है कि रमेशचंद्र शाह स्वाद लेने और स्वाद प्रदान करने वाले आलोचक हैं. वे मुझ जैसे नवांकुरों की छोटी सी छोटी पुस्तक पर भी उसी गंभीरता के साथ लिखते हैं जिस गंभीरता के साथ प्रतिष्ठित रचनाकारों की कृति पर लिखते हैं. इस संदर्भ में डॉ. नामवर सिंह का कथन द्रष्टव्य है – ‘लगता है वे पुस्तकों को चुनते नहीं. आलोचना के लिए जो भी कृति उनके सामने आ जाए, उस पर लिख देते हैं.’ (सृजनात्मकता के बचाव में, नामवर सिंह से विष्णु खरे की बातचीत, कहना न होगा [एक दशक की बातचीत नामवर सिंह के साथ], पृ. 53). रमेशचंद्र शाह भारतीय संस्कृति और दर्शन के साथ साथ पाश्चत्य संस्कृति और दर्शन के भी ज्ञाता हैं. उनके अनुसार आलोचना एक बौद्धिक रचना है. हिंदी आलोचना के संबंध में उनका कहना है कि “हिंदी में सैद्धांतिक आलोचना तो एक कुहेलिका है. हर आलोचक अपना झंडा अलग ही लहराना चाहता है.” (गजानन माधव मुक्तिबोध के नाम पत्र, मेरे युवजन मेरे परिजन, (सं) रमेश गजानन मुक्तिबोध, अशोक वाजपेयी) 

रमेशचंद्र शाह के बारे में रामस्वरूप चतुर्वेदी का कहना है कि “रमेशचंद्र शाह नए साहित्य की समस्याओं को लेकर चलने वाले आलोचक हैं. वे बड़े संवेदनशील समझ के धनी हैं, और उनका अध्ययन भी अत्यंत व्यापक है. इस तैयारी के साथ यदि वे कोई समग्र आलोचना-कृति लिखते तो निश्चय ही अच्छी बनती. पर वे भी स्फुट रूप में निबंध लिखकर संतुष्ट हो जाने वाले आलोचक हैं, जहाँ प्रस्तुत रचनाकार के बारे में निरपेक्ष भाव से कुछ कहा सकना आसान है.” (रामस्वरूप चतुर्वेदी, हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, पृ. 264) 

रमेशचंद्र शाह की आलोचना के बारे में नामवर सिंह कहते हैं कि “रमेशचंद्र शाह की आलोचना में सबसे बड़ी कठिनाई उनकी भाषा है. लगता है अपनी आलोचना में वे रचना से होड़ लेने लगते हैं.” (सृजनात्मकता के बचाव में, नामवर सिंह से विष्णु खरे की बातचीत, कहना न होगा [एक दशक की बातचीत नामवर सिंह के साथ], पृ. 53) 

रमेशचंद्र शाह वाद के कठघरे में फिट होना पसंद नहीं करते. आज के हिंदी लेखन के बारे में वे कहते हैं कि “हिंदी का लेखन अधिकतर ‘सेफ्टी वैल्यू’ की खोज का परिणाम होता है. यों तो एक प्रकार से बड़े-से-बड़े साहित्यकार भी अंतःसुख के लक्ष्य से न्यूनांश से प्रेरित होता है. अधिकांश में होना भी अपने आप में कोई दोष नहीं है. स्वांतःसुखाय में मानव-द्रोह हो यह कतई आवश्यक नहीं फिर भी हम देखते हैं कि मूर्धन्य कलाकारों का जीवन कला से ऊपर उठकर ही अपने उच्च्तम लक्ष्य को प्राप्त कर पाया है.” (गजानन माधव मुक्तिबोध के नाम पत्र, मेरे युवजन मेरे परिजन, (सं) रमेश गजानन मुक्तिबोध, अशोक वाजपेयी) 

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रमेशचंद्र शाह मूलतः कवि हैं. वे कवि होने के नाते कविता की आलोचना करते हुए कहते हैं कि कविता एक ऐसी चीज है जिसमें हमारे नाक और कान भी सक्रिय हो जाते हैं. इतना ही नहीं भाव तंत्र के साथ साथ विचार तंत्र भी सक्रिय होता है. उनके अनुसार कविता एक समन्वित और एकीकृत प्रक्रिया है. वे बल देकर कहते हैं कि कविता से मिलने वाला सुख अन्य किसी चीज से मिलने वाले सुख से अधिक होता है. कविता से जो अभिव्यक्ति मिलती है वह भी अनोखी होती है. कविता में कवि के समूचे व्यक्तित्व को अभिव्यक्ति मिलती है. “कविता अभिव्यक्ति और संप्रेषण दोनों है. जब आप कविता लिखते हैं तो आपका चित्त लगातार बोलता रहता है. उसमें एकाग्र हो जाता है. शांत हो जाता है. ये कैसे होता है, क्यों हो जाता है, यह प्रक्रिया चलती है.” (रवींद्र स्वप्निल प्रजापति से बातचीत) 

रमेशचंद्र शाह की कविता को ध्यान से देखें तो यह प्रतीत होता है कि वह हम से बार बार प्रश्न करती है. उदाहरण स्वरूप उनकी कविता ‘शब्द, बताओ’ को ही देखा जा सकता है – “शब्द, बताओ/ कहना क्या है?/ शब्द, बताओ/ गहना क्या है?/ मेरा तुम्हें/ तुम्हारा मुझे/ उलहना क्या है?/ शब्द, बताओ/ कहना क्यों है?/ शब्द, बताओ/ सहना क्यों है?/ तुमने हमको/ हमने तुमको/ पहना क्यों है? (शब्द, बताओ; प्यारे मुचकुंद को, पृ. 12) 

रमेशचंद्र शाह की कविता के बारे में अशोक वाजपेयी कहते हैं कि “भाषा, चीजें, भूदृश्य, आख्या, छंद-लय आदि सब घुल-मिलकर वह रसायन रचते हैं जो रमेशचंद्र शाह की कविता है. उसकी चिंताएँ भावप्रवण हैं पर निश्चय ही बैद्धिक और आध्यात्मिक भी. वह चीजों को उनकी निरपेक्ष अर्थमयता में देखने के बाजय हमारी आज की जिंदगी और वैचारिक संघर्ष के प्रसंग में उनके गहरे अर्थ और आशय खोजने-देखने की चेष्टा करती है. *** रमेशचंद्र शाह के यहाँ कविता मौलिक प्रश्न पूछने का दुस्साहस करती है और अपनी प्रश्नाकुलता से ही अपना काव्यरूप अर्जित करती है. उसमें जीवंत ब्यौरे, टटकी चित्रमयता, कौशल की परिपक्वता सब हैं.” (अशोक वाजपेयी, ‘प्यारे मुचकुंद को’ के फैल्प से). रमेशचंद्र शाह ने बाल कविताओं का भी सृजन किया है. उनकी बाल कविता का एक उदाहरण देखिए – “पूछ रही मछली कछुए से/ क्या लगते हो मेरे?/ साँप पूछता है कछुए से/ हाल-चाल क्या तेरे?/ सूरज ने धरती से पूछा/ लगा रही क्यों फेरा?/ धरती ने सागर से पूछा/ क्यों मुझको है घेरा?/ लगे हाथ मैंने भी पूछा/ आसमान से जाकर/ ढूँढ़ रहे तुम किसको दादा/ इतने दिए जलाकर?” 

रमेशचंद्र शाह बच्चों के व्यवहार में तथा वर्तमान शिक्षा पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन लाने के पक्ष में है. उनका कहना है कि “हम अपने बच्चों का इस्तेमाल अपनी मनमानी लालसाओं और आकांक्षाओं की तुष्टि के लिए कदापि नहीं करेंगे – जैसा कि हम करते आए हैं – हजारों सालों से. ‘प्रेम’ की हमारी समझ कितनी उथली और बंजर है यह हमारी समझ में तभी आएगा, जब हम सबसे पहले बच्चों को नहीं, उनके शिक्षकों को शिक्षित करने का बीड़ा उठा लें.” (जंगल जुही, पृ. 138) 

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यह पहले भी संकेत किया जा चुका है कि रमेशचंद्र शाह संस्कृति और दर्शन के ज्ञाता हैं. रमेशचंद्र शाह के कुछ विचारों को यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है – 
  • संस्कृतियाँ आत्मावलंबी भी होती हैं और दूसरी ओर, अपने ऐतिहासिक विकास क्रम में पारस्परिक आदान प्रदान द्वारा अधिकाधिक अंतरावलंबन की ओर अभिमुख भी. (भूलने के विरुद्ध, पृ. 216) 
  • कोई संस्कृति यदि अपनी पहचान तक के लिए दूसरों द्वारा की गई व्याख्या पर निर्भर हो उठे – दूसरों द्वारा दी गई समझ और मूल्य दृष्टि के परावर्तित प्रकाश में ही अपने को और अपने जीवन मूल्यों को देखने की आदि हो जाए तो ऐसी हालत में उसका आत्मबोध और आत्माभिव्यक्ति दोनों खंडित होंगे ही. ऐसे औपनिवेशिक मानसिकता और पराधीनता को हम अनुवादजीवी संस्कृति न कहें तो क्या कहें? (वही)
  • प्रत्येक विकासमान और जीवंत संस्कृति में एक दोहरी प्रक्रिया कार्यरत देखे जा सकती है : उसके अपने केंद्र से होने वाला आत्म विकास और बाहर के – दूसरी संस्कृतियों की टकराहट से पैदा होने वाले संघातों का अनुकूलन, याकि आत्मीकरण. (वही, पृ. 218) 
  • मनुष्य भोक्ता भी है और साक्षी भी. स्वयं अपने भोक्तृत्व का साक्षी. ‘कर्म का भोग, भोग का कर्म/ यही जड़ का चेतन आनंद.’ अपने साक्षीपन का उत्तरोत्तर विकसित होता बोध ही मनुष्य को अपनी ‘आत्मा’ का पता देता है – अपने आत्मस्वरूप होने का (‘उपभोक्ता-संस्कृति और उसका विकल्प’, स्वधर्म और कालगति, पृ. 40) 
  • उपभोक्ता संस्कृति आत्म-प्रत्यभिज्ञा और स्वातंत्र्य साधना दोनों के विरुद्ध जाती है. उसमें मानवीय उत्तरदायित्व का ह्रास और विलोप अवश्यंभावी रूप से निहित रहता है. मनुष्य अपने मानवीय उत्तरदायित्व को तभी अनुभव कर सकता है, तभी निभा सकता है, जब वह अपनी स्वतंत्रता की मर्यादाओं को भी साथ-साथ पहचाने. (वही, पृ. 42)
  • भारत की परंपरागत दृष्टि मनुष्य और उसके परिवेश के बीच जिस तरह के संबंध सूत्र का निर्वाह करती रही है, वह उसके आत्म-प्रत्यभिज्ञा के लक्ष्य के अनुरूप ही है. स्वातंत्र्य की परिकल्पना भी मानवजीव तक ही सीमित नहीं, उसकी परिधि में जीव मात्र का सहज समावेश है. इसी अर्थ में वह लोक संसक्त दृष्टि है. (वही) 
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अंततः यह और कहना है कि मुझे साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए चयनित उपन्यास ‘विनायक’ अपने ‘वृद्धावस्था विमर्श’ के कारण अन्य समकालीन उपन्यासों में विरला प्रतीत होता है. इसलिए नववर्ष की शुभकामनाएँ देते हुए, इस उपन्यास के दो अनुच्छेद यहाँ उद्धृत करना समीचीन होगा – 

“मालती जीवन-संगिनी है. जीवन-संगिनी से सहानुभूति न हो, यह कैसे संभव है? मगर क्या विनायक भी उतनी ही, बल्कि मालती की तुलना में कुछ अधिक ही, सहानुभूति का पात्र नहीं? विनायक खुद को अकसर ‘लेट स्टार्टर’ कहा करता है अकसर, तो क्या यूँ ही? सब कुछ विलंब से ही घटित हुआ उसके जीवन में. समय पर सब कुछ होता चलता तो उसकी महत्वाकांक्षा खुद उसके घर के लोगों को अनर्गल लगती? मालती तो कई बार यह बात दुहरा चुकी है कि रिटायरमेंट की दहलीज पर खड़े आदमी को अपने लिए नहीं, अपने बच्चों के लिए जीना चाहिए. उन्हीं के बारे में सोचना चाहिए. उन्हीं की सफलता में अपनी सफलता और उन्हीं की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी देखनी चाहिए. - क्यों साहब, क्यों? आपने क्या अपना यह आश्रम बच्चों की खुशी के लिए खोला है?...तो फिर? ‘पर उपदेश कुसल बहुतेरे’....

मार्गरेट...हाँ, हाँ, मार्गरेट तक ने उस दिन क्या कह दिया था जिससे विनायक का बल्ब एकदम ‘फ्यूज’ हो गया था. ‘एम्बिशन कम्ज व्हेन अर्ली फोर्स इज स्पेंट’ (महत्वाकांक्षा तब जागती है जब प्राणऊर्जा का असली सोता सूख चुका होता है). उसने तो यों ही सहज भाव से जो उसे सूझा या याद आ गया उस प्रसंग में अनायास, उसी को व्यक्त भर किया था. विनायक कहीं से भी लक्ष्य नहीं था उस सूक्ति का; मगर पता नहीं क्यों विनायक को वह बात चुभ गई थी. बेचारी मार्गरेट को तो इसका भान ही नहीं था रत्ती भर, कि अनजाने में यूँ ही, उसके मुँह से निकल गया जुमला विनायक को कितने गहरे विषाद में डुबो गया. मगर क्यों? ऐसा क्या था उस जुमले में? उसका कार्टून सरीखा बनाता हुआ?” 

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