शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

व्योमकेश दरवेश

हर्ष का विषय है कि हिंदी के वरिष्ठ आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी की रचना ‘व्योमकेश दरवेश’ (2011, राजकमल प्रकाशन) का वर्ष 2014 के मूर्तिदेवी पुरस्कार के लिए चयन किया गया है. स्मरणीय है कि वर्ष 2013 में अपनी इस बहुचर्चित कृति के लिए उन्हें व्यास सम्मान से सम्मानित किया जा चुका है. इसके अतिरिक्त वे गोकुलचंद्र शुक्ल आलोचना पुरस्कार, डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी नवाजे जा चुके हैं और उन्हें प्रगतिशील समीक्षा के आधार स्तंभ के रूप में जाना जाता है. 

16 फरवरी, 1932 को उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के विस्कोहर गाँव में जन्मे विश्वनाथ त्रिपाठी सफल आलोचक तो हैं ही, पर वे मूलतः कवि हैं. उनका पहला काव्य संग्रह 1980 में ‘जैसा कह सका’ के नाम से प्रकाशित हुआ था जिसकी भूमिका त्रिलोचन शास्त्री ने लिखी थी और यह समर्पित था विष्णुचंद्र शर्मा को. इसके बाद ‘प्रेमचंद विस्कोहर’ नाम से उनकी कविताओं का दूसरा संग्रह प्रकशित हुआ. उनकी अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं – (आलोचना) कुछ कहानियाँ : कुछ विचार, हिंदी आलोचना, लोकवादी तुलसीदास, देश के इस दौर में; (संस्मरण) व्योमकेश दरवेश; (आत्मकथा) नंगातलाई का गाँव. 

विश्वनाथ त्रिपाठी मनुष्य को सबसे ऊपर मानते हैं. 80 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में बातचीत करते हुए जब शशिभूषण द्विवेदी ने उनसे प्रश्न किया कि ‘जब आदमी बहत्तर साल का हो जाता है तो देवता हो जाता है, अब आप तो अस्सी के हो गए हैं. क्या लगता है देवता हो गए हैं या अभी तक मनुष्य ही हैं?’ तो उन्होंने कहा कि ‘यह बात मेरे गुरुजी हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने ‘अनामदास का पोथा’ में लिखी है कि बहत्तर साल का आदमी देवता हो जाता है. पंडितजी संस्कृत, ज्योतिष और तंत्र के भी विद्वान थे, उन्होंने ऐसा लिखा है तो संभव है कि परंपरा में ऐसी कोई बात रही हो. लेकिन मेरी समझ से यह बात उन्होंने व्यंग्य में लिखी थी. अब बहत्तर साल का रिटायर्ड आदमी किसी काम का तो रह नहीं जाता, इंद्रियाँ जवाब दे जाती हैं, जो जीना-भोगना होता है, जी-भोग लिया होता है. अब उसे पड़े-पड़े भगवद्-भजन के अलावा क्या करना है. तो ऐसे आदमी को देवता कहो या जो कहो. रही मेरी बात तो मैं मनुष्य ही बना हुआ हूँ और वही बना रहना चाहता हूँ’. अपने गुरु की भाँति विश्वनाथ त्रिपाठी मनुष्य और मनुष्यता को प्रधान मानते हैं. 

विश्वनाथ त्रिपाठी अपनी जड़ों से जुड़े हुए रचनाकार हैं. उनकी कविताओं में सघन मानवीय संवेदना है. वे अपनी कविताओं में राहुल सांकृत्यायन, त्रिलोचन शास्त्री, रामविलास शर्मा, प्रेमचंद और लेनिन को याद करते हैं, साथ ही कुछ ऐसे प्रश्न उठाते हैं जो पाठकों को झकझोरते हैं – ‘मरोड़ी हुई मेरी भुजाओं/ और मेरी बिटिया की दूब-बाहों के बीच/ अधजली रोटी का यह टुकड़ा कहाँ से आ जाता है.’ उनकी कविता में अवधी की छटा भी विद्यमान है – ‘उड़त पखेरुआ हिए छॉंह परि जाइ/ परितै मनई गूँग बहिर ह्वै जाय.’ 

विश्वनाथ त्रिपाठी की रचनाओं में देश, गाँव और मनुष्य को बखूबी देखा जा सकता है. ‘देश के इस दौर में’ (1989) शीर्षक कृति के माध्यम से उन्होंने परसाई के रचना संसार को उद्घाटित करने के साथ साथ रचनात्मक मूल्य, रचनाधर्मिता और स्वातंत्र्योत्तर भारत के बनते-बिगड़ते यथार्थ का शब्दचित्र खींचा है. 

विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘नंगातलाई का गांव’ (2006) को ‘स्मृति आख्यान’ की संज्ञा दी है. इस आत्मकथा में वे बिसनाथ और नंगातलाई दो रूपों में उपस्थित हैं. इसे विलक्षण जुगलबंदी कह सकते हैं. इसके बारे में स्पष्ट करते हुए उन्होंने स्वयं कहा है कि नंगातलाई का गांव वस्तुतः विस्कोहर ही है. यदि कहा जाय कि इसके बहाने उन्होंने ग्रामीण जीवन शैली और सभ्यता की मनोरम झांकी प्रस्तुत की है तो अतिशयोक्ति नहीं होगी. इसमें जय-पराजय, हास-परिहास, मान-अभिमान, क्रोध, प्रसन्नता, विनम्रता, अहंकार आदि सब कुछ समाहित है. यह सिर्फ ‘नंगातलाई’ या कहें ‘विस्कोहर’ का आख्यान नहीं है बल्कि यह भारत के हर गाँव का आख्यान है. इसमें ऐसे अनेक प्रसंग और चरित्र हैं, उनसे जुड़ी स्मृतियाँ हैं, अन्न और जल के संदर्भ हैं जो उस भारतीय मनीषा को झकझोरते हैं जो गाँव की जीवन शैली से अवगत है. उन्होंने इस कृति के माध्यम से गाँव की व्यथा-कथा को दर्शाया है. 

मूर्तिदेवी पुरस्कार हेतु चयित ‘व्योमकेश दरवेश’ (2011) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी पर केंद्रित विलक्षण स्मृति आख्यान है. स्वयं लेखक ने इस पुस्तक को ‘पुण्य स्मरण’ कहा है. इस पुस्तक को लिखने के पीछे निहित पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए एक साक्षात्कार में उन्होंने इस प्रकार कहा है – ‘इस पुस्तक को लिखने की इच्छा मेरी बहुत पहले से थी लेकिन कभी हिम्मत नहीं कर पाता था. एक तो पंडितजी का व्यक्तित्व इतना विशाल था कि उन पर लिखते हुए हमेशा डरता था कि न्याय कर पाऊँगा या नहीं. सबसे पहले इसे लिखने की इच्छा मैंने भीष्म साहनी के सामने जाहिर की थी. अज्ञेय और भीष्म साहनी के बड़े भाई बलराज साहनी पंडितजी के साथ काम कर चुके थे. फिर पंडितजी के न रहने पर मुझे उनकी याद बहुत सताती थी. उनके साथ मेरा तेईस साल लंबा साथ था. उनके परिवार की भी मुझ पर बहुत कृपा रही. छात्र जीवन में जब मैं उनके संपर्क में आया तो बहुत साधनहीन था. बहुत कम लोगों ने अपने छात्र जीवन में उतने उपवास किए होंगे जितने मुझे करने पड़े. कानपुर से बीए किया. वहाँ सिनेमा देखने का चस्का लग गया था. सो किसी तरह सेकंड डिवीजन में पास हुआ. बड़ा दु:खी हुआ और भागकर पंडितजी की शरण में आ गया. पंडितजी के बारे में बहुत सुना था. उनके पास गया तो भक्तिभाव में था, मगर उन्होंने कहा कि तुम्हें क्या पता कि मुझमें कितने दोष हैं. खैर... पंडितजी जानते थे कि भूख आदमी की अनिवार्य जरूरत है. उन्होंने खुद बहुत गरीबी देखी थी. उनके पास जाने पर वे हमेशा पूछते थे कि भोजन किया है या नहीं. भूखे तो नहीं हो. यह बात उनकी सर्जना में भी दिखाई देती है. पंडितजी शास्त्रज्ञ पंडित थे लेकिन साधारण मनुष्य के सुख-दु:ख और उनके जीवन में उनकी बहुत रुचि थी. दलित, वंचित और अभावग्रस्त मनुष्य को लेकर उनके मन में बहुत करुणा थी. वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने अस्पृश्य के संदर्भ में ‘दलित’ शब्द का प्रयोग किया. पंडितजी परंपरा से जुड़े विद्वान थे लेकिन उनका दृष्टिकोण संकीर्णतारहित था. उनका मानना था कि हिंदी कोई अकेली भाषा नहीं है, वह अखिल भारतीय भाषाओं से जुड़ी है. उसका एक कांटा काशी में है तो दूसरा भुवनेश्वर में और तीसरा केरल में. इस तरह ये चीज उनके साम्राज्यवादी दृष्टिकोण से जुड़ती है. हिंदी क्षेत्रों में तो लोग हिंदी के नाम पर तमाम कर्मकांड करते रहते हैं लेकिन पंडित जी ने शांतिनिकेतन में एक बांग्लाभाषी क्षेत्र में पहली बार हिंदी भवन बनवाया. वे कहते थे कि हिंदी राष्ट्रभाषा है या नहीं, यह सोचना हिंदी वालों का काम नहीं है. इस बारे में दूसरे लोग सोचें. हमारे लिए तो हिंदी मातृभाषा है. पंडितजी किसी तरह के कर्मकांड में विश्वास नहीं करते थे. अकादमिक दुनिया में भी तमाम तरह के कर्मकांड होते हैं जो पंडितजी को नहीं आते थे इसलिए वे अकादमिक दुनिया में हमेशा ही अनफिट रहे. उन्हें काशी हिंदू विश्वविद्यालय छोडऩा पड़ा तब भी कुछ ऐसी ही स्थितियाँ थीं. उनके विरोधी बहुत हो गए थे. उन्होंने विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में मीराँ पर पद्मावती ‘शबनम’ की किताब की जगह परशुराम चतुर्वेदी की किताब लगवा दी थी. बेशक परशुराम चतुर्वेदी की किताब पद्मावती ‘शबनम’ की किताब से लाख गुना बेहतर थी लेकिन जिस तरह अकादमिक कर्मकांडों को ताक पर रखकर पंडितजी ने उसे पाठ्यक्रम में लगवाया वह बहुत से लोगों को हजम नहीं हुआ और उनका बहुत विरोध हुआ. आखिरकार पंडितजी को विश्वविद्यालय से हटना पड़ा. लेकिन पंडितजी का सम्मान बहुत था. काशी विश्वविद्यालय से हटते ही उन्हें चंडीगढ़ विश्वविद्यालय से बुलावा आ गया. चंडीगढ़ विश्वविद्यालय में उनकी जगह प्रोफेसर पद के जो उम्मीदवार थे इंद्रनाथ मदान उन्होंने पंडितजी के कारण अपना नाम वापस ले लिया यह कहकर कि प्रोफेसर बनने से अच्छा है पंडितजी के अधीन रहकर रीडर बने रहना. तो पंडितजी का सम्मान तो बहुत था लेकिन अकादमिक कर्मकांड में वे कभी फिट नहीं हो पाए. खैर... तो पंडितजी को मैं जानना चाहता था. जिसके प्रति आपका लगाव होता है उसे आप जानना चाहते हैं. उनके प्रति एक जिज्ञासा थी. श्रद्धा में भी एक जिज्ञासा होती है जैसे प्रेम में होती है. तो उसी जिज्ञासा यानी जानने की प्रक्रिया में यह किताब लिखी गई. लिखना जानने की ही प्रक्रिया है. यही ज्ञान है, गुणकथन है, कीर्तन है. यही कविता है. तो यह एक ही प्रक्रिया के विभिन्न आयाम हैं. फार्म के स्तर पर यह किताब पंडितजी की जीवनी है लेकिन वस्तुत: यह संस्मरणात्मक जीवनी है. चूंकि पंडितजी के प्रति मेरी इतनी श्रद्धा रही है कि उन्हें लेकर मैं तटस्थ रह ही नहीं सकता इसलिए अपनी अक्षमता का मुझे बोध भी है. पंडितजी पर जैसी किताब लिखी जानी चाहिए वह तो बहुत मुश्किल है. हालांकि इस किताब को लिखने को लेकर किसी तरह के नैतिक दायित्व का भाव मुझमें नहीं रहा, बस मैं इसे लिखे बिना रह नहीं सकता था. यह एक तरह से मेरे अस्तित्व की माँग थी. इसे लिखवाने में नामवर जी और नित्यानंद तिवारी की बड़ी भूमिका रही है. मेरे लेखन पर नामवर जी का बहुत असर रहा है. पंडितजी पर किताब लिखने का पहला हक तो नामवर जी का ही था. किन्हीं कारणों से वे नहीं लिख पा रहे हैं, यह अलग बात है. फिर भी उन्होंने पंडितजी पर जो लिखा है - ‘दूसरी परंपरा की खोज’ वह बहुत महत्वपूर्ण है. उसने मुझे बहुत प्रेरित किया. इस तरह इस किताब को लिखने का बहुत बड़ा श्रेय नामवर सिंह को ही जाता है. पंडितजी के बारे में बहुत सी बातें मुझे उन्हीं से पता चलीं.’ इस स्मृति आख्यान को रचने में विश्वनाथ त्रिपाठी जी को काफी समय लगा. उन्होंने एक जगह यह भी कहा है कि ऐतिहासिक महत्व की इस रचना के सृजन के दौरान लंबे समय तक वे द्विवेदी जी की यह डाँट याद करते रहे हैं कि, ‘आलस्य प्रतिभा की खाद होती है, लेकिन तुममे खाद कुछ ज्यादा ही हो रही है.’ 

पाठक ‘व्योमकेश दरवेश’ को पढ़ते समय संस्मरण के साथ साथ आत्मकथा, रेखाचित्र, रिपोर्ताज, डायरी और समीक्षा का आनंद उठा सकते हैं. यह भी कहा जा सकता है कि इस कृति के बहाने विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने गुरु को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की है. यह कृति निश्चित ही विश्वनाथ त्रिपाठी की शोधदृष्टि का परिचायक है. इस पुस्तक में हजारी प्रसाद द्विवेदी के जीवन को अलग-अलग भागों में सोपानबद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है. पहला भाग बचपन, बसरिकापुर और काशी तथा उनके छात्र जीवन से संबंधित है. इस भाग में प्रामाणिक जानकारी प्रदान करने के लिए विश्वनाथ त्रिपाठी ने आचार्य विश्वनाथ द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ, ग्रंथावली के वैयक्तिक संस्मरण खंड - ‘शांतिदूत’, नागरी प्रचारिणी पत्रिका के आचार्य केशव प्रसाद मिश्र स्मृति ग्रंथ तथा द्विवेदी जी द्वारा लिखित महत्वपूर्ण पत्रों व अन्य संदर्भों का उपयोग किया है. साथ ही द्विवेदी जी के परिवार और गाँव सब जगह से उनकी स्मृतियों को खंगाला है और इन सूत्रों को रोचक ढंग से पिरोया है.

दूसरा भाग है ‘अथेयं विश्वभारती.’ इसमें शांतिनिकेतन का प्रभाव, हिंदी भवन, विश्वभारती पत्रिका, शांतिनिकेतन का जीवन, मातृ संस्था का निमंत्रण, मन का बंधन आदि उपशीर्षकों के अंतर्गत द्विवेदी जी के जीवन की परतों को खोला गया है. तीसरा भाग है ‘काशी विश्वविद्यालय : देखी तुम्हारी काशी’. इसमें उन्होंने अध्यापक मंडल, सतीर्थ प्रकरण, ‘संदेश रासक’ प्रकरण, बना रहे बनारस हिंदी विश्वविद्यालय : हजारी प्रसाद द्विवेदी, काशी नागरी प्रचारिणी सभा, साहित्य अकादमी तथा द्विवेदी जी : परिवार में जैसे उपशीर्षकों के माध्यम से बहुत ही अंतरंग और मार्मिक घटनाओं का उल्लेख किया है. आकाशधर्मा का विस्थापन, गाढ़े का साथी : पंजाब, फिर बैतलवा उसी डार पर, व्योमकेश दरवेश चलो अब - शीर्षक भागों में संवेदनशील लेखक ने हजारी प्रसाद द्विवेदी के अकादमिक संघर्ष से लेकर उनके अवसान तक की घटनाओं का हृदयस्पर्शी अंकन किया है. 

विश्वनाथ त्रिपाठी ने हजारी प्रसाद द्विवेदी को जड़ों से समझा है. यदि ऐसा नहीं होता तो इस स्मृति आख्यान को लिख पाना संभव नहीं होता. द्विवेदी जी की विद्वत्ता से तो वे परिचित थे ही, साथ ही गुरु के सान्निध्य में रहकर उनकी विशेषताओं, कमजोरियों और सीमाओं को भी आत्मसात करने का अवसर उन्हें मिला था. इसलिए वे इस पुस्तक में द्विवेदी जी के जीवन की छोटी-छोटी बातों को भी प्रस्तुत कर सके हैं. उन्होंने लिखा है ‘एक कुर्ता तक बनाने के लिए घर में महाभारत मच जाता था. किंतु येन-केन-प्रकारेण काशी पहुँचकर उनकी प्रतिभा रंग लाई.’ 

हजारी प्रसाद द्विवेदी लोक को बहुत महत्व देते थे. विश्वनाथ प्रसाद त्रिपाठी की पुस्तक में भी लोक जीवन का अत्यंत रोचक वर्णन है. देखें - “बनारस के आसपास की ग्रामीण औरतें लाल कत्थई रंग की साडियाँ बहुत पहनती हैं. वे घास काटतीं, घास के गट्ठर सिर पर रखे, सड़क के किनारे काम करती हुई अक्सर दिखलाई पड़तीं. ग्रामीण औरतें जब साथ-साथ चलती हैं तब चुप नहीं रहतीं. या तो गाती, या बात करती हैं, हँसी-ठट्ठा करती हैं, या फिर झगड़ा करती हैं. गुस्से में चुप रहना, न बोलना, शहराती लोगों को आता है.” 

काशी की संस्कृति के बारे में विश्वनाथ त्रिपाठी लिखते हैं कि, “काशी में विद्वत्ता और कुटिल दबंगई का अद्भुत मेल दिखलाई पड़ता है. कुटिलता, कूटनीति, ओछापन, स्वार्थ - आदि का समावेश विद्वता में हो जाता है. काशी में प्रतिभा के साथ परदुखकातरता, स्वाभिमान और अनंत तेजस्विता का भी मेल है जो कबीर, तुलसी, प्रसाद और भारतेंदु, प्रेमचंद आदि में दिखलाई पड़ता है. काशी में प्रायः उत्तर भारत, विशेषतः हिंदी क्षेत्र के सभी तीर्थ स्थलों पर परान्नभोजी पाखंड़ी पंडों की भी संस्कृति है जो विदग्ध, चालू, बुद्धिमान और अवसरवादी कुटिलता की मूर्ति होते हैं. काशी के वातावरण में इस पंडा-संस्कृति का भी प्रकट प्रभाव है. वह किसी जाति-संप्रदाय, मुहल्ला तक सीमित नहीं सर्वत्र व्याप्त है. पता नहीं कब किसमें झलक मारने लगे.” अभिप्राय यह है कि आचार्य द्विवेदी के बहाने लेखक ने ‘व्योमकेश दरवेश’ में एक ओर तो अपनी लोक-संपृक्ति को सृजनात्मक अभिव्यक्ति प्रदान की है वहीं दूसरी ओर भारतीय जीवन-दर्शन की मनुष्य-केंद्रीयता को अपने रचना-नायक के माध्यम से पुनः रेखांकित किया है. ऐसी बहुआयामी कृति के मूर्तिदेवी पुरस्कार हेतु चयन पर ‘स्रवंति’ परिवार की ओर से अनंत शुभकामनाएँ!!

कोई टिप्पणी नहीं: