अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख
गुर्रमकोंडा नीरजा
2015
वाणी प्रकाशन
मूल्य : रु. 495
ISBN : 978-93-5229-249-3
पृष्ठ 304
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‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ पुस्तक की पांडुलिपि कई दिनों से मेरे हाथ में थी. शुरू से आखीर तक दो बार पढ़ चुका था कि शल्य-चिकित्सा के चक्कर में कुछ महीने बेकाम निकल गए. छह महीने बाद डॉक्टरों से ‘नॉर्मल’ होने की सनद मिलते ही पढ़ाई-लिखाई फिर से शुरू की तो पुनः यह पांडुलिपि हाथ में ली. वैसे ‘बेकामी’ वाली अवधि में भी यह पुस्तक सोच-विचार में साथ चलती रही थी. अब धीरे-धीरे, मंथर गति से संभल-समझ कर पढ़ना शरू किया – थोड़ा-थोड़ा करके. इस दौरान पुस्तक के कई प्रकरण वैचारिक भी लगे और विचारणीय भी. यदि पुस्तक के ढाँचे की बात करूँ तो मेरी दृष्टि में यह पुस्तक अलग-अलग लेखों का वर्गीकृत संकलन है. पर इन लेखों का सूत्र एक है – अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान. ऐसे संकलनों में सामान्यतः यह देखने में आता है कि कहीं विचार-शृंखला टूट जाती है या कहीं बीच में कौर के कंकड़ की तरह कोई अनावश्यक प्रकरण अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लगता है. मुझे यह देखकर प्रसन्नता हुई कि इस तरह का ‘संदर्भ-परिवर्तन’ पुस्तक में अपनी पैठ नहीं बना सका है क्योंकि एक तो यह कि पुस्तक की व्यापक विषयवस्तु को संतुलित ढंग से और सही क्रम में रखा गया है. और दूसरी यह कि लेखिका डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा मूलतः तेलुगुभाषी हैं और तमिल, अंग्रेजी और हिंदी भाषा पर भी उनकी कौशलयुक्त दक्षता है. साथ ही वे एक सक्षम अनुवादिका भी हैं. अर्थात भाषासिद्धांतों के अनुप्रयोग को वे अपने जीवन में भी साधती रही हैं. इसीलिए जगह-जगह यह सुखद आभास होता है कि अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख करने में इस ‘वैयक्तिक बहुभाषिकता’ तथा ‘अनुवाद-कार्य’ के दौरान व्यतिरेकी विश्लेषण के आभास ने उनकी भरपूर मदद की है.
आधुनिक भाषाविज्ञान की यह प्रसिद्ध मान्यता है कि किसी भी प्रकार के अनुप्रयोग का प्रस्थान-बिंदु ‘विश्लेषण’ होता है. और यह भी कि इस खास किस्म के विश्लेषण में भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार की सामग्री (डेटा) पर किया जाता है. लेखिका ने इस मान्यता को अपनाते हुए सैद्धांतिक भाषाविज्ञान की इकाईगत स्थापनाओं तथा तदनुरूप ‘सामग्री’ का उपयुक्त चयन किया है. ‘सामग्री विश्लेषण’ के लिए समसामयिक भाषाविज्ञान की महत्वपूर्ण ‘अवधारणाओं’ का चयन भी डॉ. जी. नीरजा की इस पुस्तक के व्यापक अध्ययन क्षेत्र और इन क्षेत्रों में उनकी रुचि का परिचायक है.
इस पुस्तक की रूपरेखा एवं इसकी सामग्री सुचिंतित ढंग से प्रस्तुत और विश्लेषित की गई है. यह एक कटु सत्य है कि आज के अकादमिक माहौल में हिंदी और भारतीय भाषओं को लेकर इस तरह का लेखन विरल होता जा रहा है. भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों का अनुप्रयोग करते हुए जब इस तरह के ‘पाठ-केंद्रित’ अध्ययन दिखाई देते हैं तो अपार संतोष मिलता है कि ‘भाषा और पाठ’ के परिप्रेक्ष्य में विशिष्ट संदर्भों और परिस्थितियों से बंधी भाषा/भाषाओं के विश्लेषण द्वारा विभिन्न भाषा-प्रकार्यों को देखने-समझने की परंपरा अभी कायम है. किसी भी भाषा-समाज के संदर्भ में इस ‘परंपरा’ अथवा ‘विश्लेषण प्रणाली’ (अनुप्रयुक्त) की गंभीरता, गहराई और उपादेयता पर भी लेखिका ने इस पुस्तक में पर्याप्त प्रकाश डाला है.
पुस्तक का प्रत्येक खंड एवं संबद्ध आलेख बड़ी ही तन्मयता के साथ लिखे गए हैं. इस तन्मयता का ही परिणाम है कि हिंदी भाषा के साहित्यिक और साहित्येतर पाठों के विश्लेषण में यह सफल हो सकी है और इस तथ्य को उजागर कर सकी है कि कोई भी भाषा (इस अध्ययन में हिंदी भाषा) अलग-अलग सामाजिक परिस्थितियों और प्रयोजनों में अलग-अलग ढंग से बरती ही नहीं जाती, बल्कि भिन्न प्रयोजनों में प्रयुक्त होते समय अपनी अकूत अभिव्यंजनात्मक क्षमता को भी अलग-अलग संरचनाओं में ढाल कर अलग-अलग तरीकों से सिद्ध करती है. पुस्तक में उद्धृत इस सैद्धांतिक कथन को डॉ. जी. नीरजा ने लगता है कि अपनी ‘परख’ में शब्दशः उतार दिया है –
‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान को आज आधुनिक भाषाविज्ञान का संक्रियात्मक क्षेत्र माना जाता है. भाषाविज्ञान का मूल कार्य है – भाषा की आंतरिक प्रकृति पर प्रकाश डालना तथा भाषा संबंधी तथ्यों का संकलन और विश्लेषण करना, इसके लिए भाषाविज्ञान अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है. भाषाविज्ञान द्वारा प्रयुक्त सिद्धांतों का अनुप्रयोग भाषाविज्ञान, भाषा-उपभोक्ता की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए करता है. इस प्रकार अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के कई ऐसे क्षेत्र हमारे सामने आते हैं जो उपभोक्ता की आवश्यकताओं द्वारा नियंत्रित लक्ष्य का परिणाम होते हैं.’
‘भाषा-प्रायोज’ के विस्तीर्ण होते जा रहे नक्शे ने वैश्विक स्तर पर इस बात में तनिक भी संदेह की गुंजाइश नहीं छोड़ी है कि पिछली आधी सदी में भाषा से भाषा-उपभोक्ता (प्रयोक्ता-यूज़र) की अपेक्षाएँ बहुत बढ़ गई हैं. वास्तविकता यह भी है कि पिछले कुछ दशकों से भाषा-प्रयोक्ता की इन्हीं अपेक्षाओं की आपूर्ति अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान करता आ रहा है. ‘सामाजिक आवश्यकता’ के जरूरी उद्देश्य की पूर्ति में आधुनिक मानव भाषाओं ने भी अपनी तथाकथित भाषायी रूढ़ियों तथा ‘आदर्श भाषारूप’ के निर्वाह की ज़िद को तिलांजलि दे कर अपने प्रयोक्ता को ‘प्रयोग’ की वैविध्यपूर्ण संरचनाएँ प्रदान करने में तनिक भी संकोच नहीं किया. स्वाभाविक है कि ‘माँग और आपूर्ति’ की इस भाषिक प्रक्रिया को संभव बनाने में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की ‘संक्रियात्मक भूमिका’ सर्वोपरि रही. इस ‘सर्वोच्चता’ का एक ही प्रसंग पर्याप्त होगा कि आधुनिक भाषाविज्ञान की ‘व्यावहारिकता’ अथवा प्रयोक्ता/ प्रयोग सापेक्ष विकल्पनों के विश्लेषण की जो अनगिनत प्रविधियाँ आज हमें उपलब्ध हैं वे हमें अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की भिन्न-भिन्न शाखाओं से ही मिली हैं. इस पुस्तक के संबंध में एक सराहनीय बात यह भी है कि लेखिका ने इसमें अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के सीमित (भाषाशिक्षण) तथा व्यापक (समाजभाषा विज्ञान, अनुवाद विज्ञान, शैलिविज्ञान) इन दोनों ही संदर्भों या कहें शाखाओँ को समेटने का यत्न किया है. पुस्तक के सीमित कलेवर में ऐसा कर पाना कठिन रहा होगा पर डॉ. जी. नीरजा ने ऐसा कर पाने में सफलता अर्जित की है.
आधुनिक भाषाविज्ञान की यह भी मान्यता है कि सटीक भाषा-सिद्धांत वही माना जाएगा जो उस सामग्री का ‘पूर्ण’ एवं ‘तार्किक’ विश्लेषण कर पाने में समर्थ हो जिस पर उसका अनुप्रयोग किया जाना है, अथवा किया जा रहा है. और तभी बाह्य-भाषावैज्ञानिक क्षेत्रों में किए गए भाषायी अनुप्रयोगों को भाषावैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुप्रयोग की उत्तम ‘संक्रिया’ कहा जा सकेगा. पुस्तक की विश्लेषणात्मक संक्रिया सीमित सामग्री के होते हुए भी ‘पूर्ण’ एवं ‘तार्किक’ है.
इस बात से आज देश-विदेश के सभी अनुप्रयुक्त भाषावैज्ञानिक सहमत हैं कि व्यतिरेकी भाषाविज्ञान, समाजभाषाविज्ञान, शैलीविज्ञान, अनुवादविज्ञान, कोशविज्ञान, भाषाशिक्षण आदि व्यावहारिक क्षेत्रों में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की भूमिका सर्वोपरि है. इतनी महत्वपूर्ण कि इन सबको अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की शाखाएँ माना गया है – भाषाशिक्षण को तो इसका पर्याय तक कहा जाने लगा था. प्रस्तुत पुस्तक में सबसे पहले ‘अन्य भाषा शिक्षण’ के क्षेत्र को द्वितीय भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण पर बल देते हुए विवेचित किया गया है. इस चर्चा में लेखिका ने भाषिक सिद्धांतों के ‘अनुप्रयोग’ की अनके श्रेणियों को ‘व्यतिरेकी विश्लेषण’ (कंट्रास्टिव एनालिसिस) की अनेक प्रविधियों द्वारा सामने रखा है – स्वाभाविक है कि यह सुचिंतित विश्लेषण दो भाषाओं हिंदी-तेलुगु की ‘भाषायी सामग्री’ पर आधारित है जिसे क्रमशः भाषिक-संरचना, भाषा-विकल्पन और आखीर में समाज-सांस्कृतिक तथ्यों की भाषिक परिणति को व्यतिरेकी विवरण देकर पुष्ट एवं वैज्ञानिक रूपाकार प्रदान किया गया है. पुस्तक का यह पूरा हिस्सा ‘अनुप्रयोग’ की ‘व्यावहारिकता की परख’ की दृष्टि से सर्वथा स्पष्ट एवं संक्षिप्त है. दो सजातीय भाषाओं की संरचना एवं प्रयोगगत भिन्नता के पीछे निहित पारिवारिक और सामाजिक स्तर भेदों (स्ट्रेटिफिकेशन) की ओर भी संकेत दिए गए हैं, जो आगे ‘समाज और ‘भाषा’ तथा ‘अनुवाद’ वाले खंडों में उभरकर सामने आते हैं, और भाषा की समाज-सांस्कृतिक एवं प्रयोगगत विभिन्नताओं पर बहुरेखीय प्रकाश डालते हैं. भाषा, भाषा-भेदों तथा बोलियों के समुच्चय से निर्मित भारतीय भाषाओं के यथार्थ को इस पुस्तक के लगभग सभी खंडों में पहचानने की कोशिश की गई है – टुकड़ों-टुकड़ों में, जिसे इस किताब की एक बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है. यह भी सराहनीय है कि ये सारे टुकड़े परस्पर जुड़कर ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान’ तथा उसकी क्षेत्र केंद्रित (फील्ड स्पेसेफिक) विश्लेषण-प्रक्रिया की भी एक सुथरी तस्वीर रच पाए हैं.
इस पुस्तक के पूरे सैद्धांतिक कलेवर में जगह-जगह यह कहा गया है और इसकी पाठ-विश्लेषण-प्रणाली से भी यह तथ्य छन कर निकलता है कि मनुष्य, किसी भी समाज में जन्म लेते ही ‘भाषा-दर्शन’, ‘भाषा का समाजशास्त्र’ और ‘भाषा-समाज का मनोविज्ञान’ से स्वतः बंधता चला जाता है. मनुष्य की भाषा-अधिगम प्रक्रिया, उसके समाजीकरण एवं उसके व्यक्तित्व-निर्माण में कमोबेश इन तीनों की भूमिका अनिवार्यतः रहती है. संभवतः इसीलिए आधुनिक भाषाविज्ञान की यह मान्यता है कि मानव समाज के लिए भाषा एक बहुआयामी यथार्थ है अथवा ‘व्यवस्थाओं की व्यवस्था’ है. भाषा की यह ‘बहुआयामिता’ भाषायी सिद्धांतों के अनुप्रयोग की पड़ताल से और भी प्रभावी ढंग से उजागर होती जाती है. यही ‘पड़ताल’ संभवतः इस पुस्तक का मूलभूत अभिप्रेत अथवा लक्ष्य है.
यह अभिप्रेत पुस्तक के ‘भाषाशिक्षण और ‘व्यतिरेकी विश्लेषण’ वाले अंश के भीतर से साफ प्रतिध्वनित होता है क्योंकि इसमें लगभग सभी समाजभाषावैज्ञानिक संकल्पनाएँ समाहित हैं. यह तो माना ही जा चुका है कि इनके अभाव में ‘व्यावहारिक भाषा’ की पहचान संभव ही नहीं है. यह बात भी अब सर्वमान्य है कि व्यावहारिक (Functional) और बोधात्मक (Cognitive) पक्ष के अधिगम में ‘समाज-भाषिक’ तथ्यों का यथोचित समावेश ‘भाषा शिक्षण’ को करना ही पड़ता है. वैसे तो इन तथ्यों के बिना अथवा इनकी त्रुटिपूर्ण समझ (Understanding) से उत्पन्न अनुवाद, शैलीविज्ञान और कोश-विज्ञान की अनुप्रयोगात्मक प्रक्रिया को भी अब सही या वैज्ञानिक नहीं माना जाता – अनुवाद और द्विभाषिक कोश निर्माण में ‘द्वि-निर्देशी’ (बाई-डॉयरेक्शनल) और शैलीवैज्ञान में ‘पाठ-केंद्रित’ होकर यह प्रक्रिया हमारे समक्ष आती है. पुस्तक में कोड-मिश्रण, भाषाद्वैत, भाषा-प्रकार जैसी संकल्पनाओं को हिंदी-तेलुगु व्यतिरेक के साथ लेखिका ने देखा है तथा भाषायी-संप्रेषण में इनकी महती भूमिका को एक पृष्ठभूमि की तरह हमारे समक्ष रखा है. ‘पृष्ठभूमि’ इसलिए कि पुस्तक का एक पूरा खंड ‘समाजभाषाविज्ञान’ पर केंद्रित है जिसमें लेखिका ने ‘समाजशैली विज्ञान’ को आधार बनाकर ‘भाषासिद्धांतों’ का अनुप्रयोग किया है. उदाहरण के लिए सर्वनाम प्रयोग के ‘समाज-संदर्भित’ वैविध्यों को ‘गोदान’ के माध्यम से विश्लेषित किया गया है. नाते-रिश्ते की शब्दावली की प्रयोगगत परख हिंदी के भिन्न ‘कथा-पाठों’ द्वारा की गई है. ‘दलित आत्मकथाओं का सामाजिक संदर्भ’ साहित्यिक या आलोचनात्मक अध्ययन बन गया. कमोबेश ऐसी ही स्थिति ‘स्त्री विमर्श’ वाले आलेख की भी है. पर ‘दलित भाषा’ और ‘स्त्री भाषा’ पर सार्थक बहस उठा देने से यह ‘पाठ’ ‘अनफिट’ होने से बच गया है.
किताब का ‘अनुवाद’ संबंधी खंड ठोस है. लेखिका स्वयं एक समर्थ अनुवादिका है. अतः इस खंड की बनावट में उनकी व्यावहारिक दृष्टि की झलक बराबर मिलती चलती है. घटकीय (कंपोनेंशियल) विश्लेषण की समस्याओं पर किया गया विमर्श गहराई और सूक्ष्मता लिए हुए है. इसी कड़ी में ‘अनुवाद समीक्षा’ के अंतर्गत ‘दिनकर’ की चर्चित काव्यकृति ‘कुरुक्षेत्र’ के अंग्रेजी अनुवाद को लेकर शब्द और अभिव्यक्ति के धरातल पर एक के बाद एक घटकों के संरचनात्मक तथा समाज-सांस्कृतिक अंतरों को ‘अनुवादनीयता’ के परिप्रेक्ष्य में उभार दिया है. ‘बच्चन की अनुवाद विषयक मान्यताएँ’ एक जानकारी भरा आलेख है. इसकी प्रस्तुति रोचक एवं पठनीय है. साहित्येतर अनुवाद की समस्याएँ मनोविज्ञान विषयक अनुवाद को आधार बना कर चला है पर इसकी सामग्री (डेटा) इतनी सीमित है कि समस्या को प्रयुक्तिगत विस्तार नहीं मिला पाता. ‘अनुवाद समीक्षा’ की दृष्टि से इस खंड में बहुत कुछ मूल्यवान है.
मेरी दृष्टि में शैलीवैज्ञानिक अध्ययन वाला अंश भी प्रभावशाली है. प्रतापनारायण मिश्र के निबंध ‘शिवमूर्ति’ का भाषिक विश्लेषण इसलिए भी नवीन लगता है कि इसमें ‘पाठ’ को विराम-चिह्नों के आर्थी घटक के रूप में सामने रखकर भी देखा गया है. ‘स्वतंत्रता के पाठ की भाषा’ भी नयापन लिए हुए है क्योंकि यह हिंदी भाषा की समाज-राजनैतिक प्रयुक्ति के साहित्यिक पाठ में समावेश से संबंधित है. शमशेर तथा अज्ञेय की काव्य-भाषा पर विचार करने वाले दोनों आलेख परोक्षतः ‘कविता की भाषा’ पर खास-खास शैलीवैज्ञानिक मुद्दों को उठाने के कारण लेखिका की हिंदी कविता तथा हिंदी काव्य-भाषा के विषय में तात्विक जानकारी की गहरी कसौटी हैं.
‘शैलीविज्ञान’ के ही अंग प्रयोजनमूलक भाषा अथवा प्रयुक्ति विश्लेषण केलिए लेखिका ने अपेक्षाकृत नए क्षेत्रों (फील्ड्स) का चयन किया है – विज्ञापन, प्रिंट मीडिया और टीवी विज्ञापन. मुझे यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि इनकी चयनित सामग्री अद्यतन है और विश्लेषण-प्रक्रिया पोर-पोर वर्गीकृत. यह अध्ययन हिंदी भाषा की मानक संरचना के व्यावहारिक या वैविध्यपूर्ण या आधुनिक बनने-बनाने की प्रक्रिया की ओर भी इशारा करता है – यह इस खंड की अन्य विशेषता है.
इस पुस्तक के दो आलेख ‘प्रेरक’ की कोटि के हैं. एक दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास से संबद्ध है और दूसरा गांधी जी के भाषा-चिंतन से. मेरा इस संस्था से लंबा और गहरा संबंध रहा है अतः स्वाभाविक है कि भावात्मक स्तर पर इन लेखों ने मुझे खूब प्रभावित किया है. दोनों के भूमिकाएँ राष्ट्रभाषा और संपर्क भाषा हिंदी के विस्तार, प्रचार-प्रसार तथा व्यावहारिक स्तर के विकास से आबद्ध हैं. प्रेरक यह भी है कि परतंत्र भारत में ‘हिंदी भाषा’ की भूमिका को राष्ट्रीय, सांस्कृतिक एवं भावात्मक एकता के लिए निर्धारित करते हुए राष्ट्रभाषा के रूप में इसे मान्यता दिलवाने तथा संपर्क भाषा के रूप में उसकी अखिल भारतीय व्याप्ति को प्रमाणित करने के जो प्रयत्न किए गए उनका लेखा-जोखा है. दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के चारों केंद्रों (चेन्नई, हैदराबाद, एर्णाकुलम, धारवाड़) में किए-कराए गए कुछ महत्वपूर्ण भाषा केंद्रित शोध-प्रबंधों की संक्षिप्त सूची देकर लेखिका ने यह भी दर्शा दिया है कि अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के बृहत क्षेत्रों में से किसी एक को चुनकर दक्षिण भारत में हिंदी-शोध की एक परंपरा बन चुकी है. शोधार्थियों के लिए इस तरह के अध्ययन उन्हें बौद्धिकता एवं मौलिकता की दृष्टि से तो संतोष दे ही रहे हैं, ‘प्रोफेशनली’ भी उन्हें लाभ पहुंचा रहे हैं.
पाँच भाषा-विवेचकों के विचारों को अंत में स्थान देने से पुस्तक के सभी खंडों को मानो अतिरिक्त प्रकाश मिल गया है क्योंकि ये विचार सीधे पिछले खंडों से जुड़ते चले जाते हैं और उन्हें विस्तार देने के साथ ही भाषा-संबंधी चिंतन की भिन्न धाराओं को परखने की दिशा भी देते हैं. एक ओर इसमें प्रेमचंद (गद्यकार) और अज्ञेय (कवि) के भाषा-विचार हैं जिनमें हिंदी के विकास और उसकी साहित्यिक रचनात्मकता पर चर्चा है. दूसरी ओर इसमें पं. विद्यानिवास मिश्र शामिल हैं जिनकी भाषा-तात्विक दृष्टि संस्कृतगर्भित और आधुनिक भारतीय चिंतन का अनूठा सम्मिश्रण है. फिर प्रो. रवींद्रनाथ श्रावास्त्व के और मेरे (प्रो. दिलीप सिंह) प्रमुख भाषावैज्ञानिक विचारों का समावेश किया गया है. प्रो. श्रीवास्तव भारत में अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान के जनक माने जाते हैं; विशेषकर ‘हिंदी भाषा’ के लिए ‘अनुप्रयोग’ की दिशाएँ प्रशस्त करने के कारण – खासकर भाषाशिक्षण, शैलीविज्ञान और सामजभाषाविज्ञान के स्तर पर. मैंने कुछ खास नहीं किया है – इन्हीं भाषाविचारकों के कार्य को व्यावहारिक जामा भर पहनाया है. इन पर खुद भी काम किया और विद्यार्थियों से भी कराया. यह स्पष्ट शब्दों में कहा जा सकता है कि ये सभी विचार-सरणियाँ मिलकर ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान’ की वह अपेक्षित छवि उभारती हैं जिन्हें लेखिका ने इस पुस्तक के माध्यम से उकेरने का प्रयास किया है. मैं अपनी तरफ से यह भी कहना चाहूँगा कि इन पाँच विचारकों के भाषा संबंधी विचारों ने मिलकर इस पुस्तक की उपादेयता एवं गंभीरता को बिना कुछ और कहे ही सिद्ध कर दिया है.
अंत में बस इतना ही कि ‘अनुप्रयुक्त भाषाविज्ञान की व्यावहारिक परख’ डॉ. जी. नीरजा के अथक परिश्रम का परिणाम है. लेखिका की विषय के प्रति गहन आस्था पुस्तक के शब्द-शब्द में झलकती है. सुदूर दक्षिण में बैठ कर इस तरह की किताब तैयार करने का साहस दिखाने के लिए मैं व्यक्तिगत तौर पर डॉ. जी. नीरजा को साधुवाद देता हूँ. श्री अरुण माहेश्वरी, प्रबंध निदेशक, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली ने इस पुस्तक के प्रकाशन में रुचि दिखाकर इस प्रकार के विरल होते जा रहे लेखन को प्रोत्साहित किया, वे मेरे धन्यवाद के पात्र हैं.
मुझे पूर्ण विश्वास है कि यह पुस्तक भाषाविज्ञान में रुचि रखने वाले अध्येताओं को पसंद आएगी तथा हिंदीतर भाषाभाषी हिंदी अध्यापकों तथा छात्र-छात्राओं को उपादेय लगेगी.
मातृ-दिवस - दिलीप सिंह
2015
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