रविवार, 16 अक्टूबर 2016

भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा

भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य,
समाज, संस्कृति और भाषा
(सं) डॉ. प्रदीप कुमार सिंह
2016, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन,
पृष्ठ 528, मूल्य : रु. 950
भूमंडलीकरण ने समूचे विश्व के समक्ष अनेक चुनौतियाँ खड़ी की हैं. वास्तव में इसका संबंध अर्थतंत्र से है. इस आर्थिक संबंध के कारण ही पूरा विश्व एक बाजार बन चुका है. बाजार पूरे विश्व को नियंत्रित कर रहा है. स्कॉटिश अर्थशास्त्री एडम स्मिथ (16 जून, 1723 – 17 जुलाई, 1790) ने अपनी पुस्तक ‘ऐन इन्क्वायरी इंटू द नेचर एंड कॉसस ऑफ द वेल्थ आफ नेशंस’ (1976) में यह प्रतिपादित किया था कि जब आर्थिक प्रक्रिया स्वायत्त होगी तो देशों का विकास निश्चित है और इसके लिए स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होना अनिवार्य है. उन्होंने आर्थिक दृष्टि से मुक्त बाजार की संकल्पना को स्पष्ट करते हुए इस बात की ओर भी ध्यान दिलाया था कि बाजार पूरी तरह से स्वतंत्र नहीं होगा क्योंकि एकाधिकार बढ़ने का ख़तरा है. 

भूमंडलीकरण ने विश्व बाजार को प्रभावित किया. यदि कहा जाए कि इसके कारण अमीरी-गरीबी की खाई और बढ़ गई तो गलत नहीं होगा क्योंकि बाजार में उत्पादों की कमी नहीं है लेकिन उन्हें खरीदने की शक्ति भी हर किसी के पास नहीं है. स्थानीय लघु उद्योग आम आदमी की औसतन आय को बढ़ाने के लिए जुटे हुए हैं पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर पा रहे हैं. बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आपसी समझौतों के कारण बाजार में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा का लोप हो रहा है. परिणामस्वरूप राष्ट्रीय एवं लघु उद्योगों का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है. अतः यह कहा जा सकता है कि महाजनी सभ्यता का विस्तार है यह भूमंडलीकरण और बाजारीकरण.

भूमंडलीकरण ने एक ओर बाजार तंत्र को प्रभावित किया है तो दूसरी ओर व्यक्ति, समाज, संस्कृति, सभ्यता, साहित्य और भाषा आदि अधिरचनाओं को भी प्रभावित किया है. इस ओर लेखक ही नहीं अपितु संवेदनशील सहृदय चिंतक दृष्टि केंद्रित कर रहे हैं और चिंतन-मनन कर रहे हैं कि यदि भूमंडलीकरण के प्रभाव के कारण हमें बहना-ढहना नहीं, बल्कि रहना है तो क्या करना चाहिए? महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. गिरीश्वर मिश्र का कहना है कि “देशों के बीच की सीमाएँ सहयोग के लिए पारगामी हो रही हैं. अंतरराष्ट्रीय व्यवसाय और व्यापार में दृष्टि के साथ अन्य देशों में प्रवासन की प्रक्रिया भी तीव्र हुई है. अर्थतंत्र अब वैश्विक हो रहा है. बहुराष्ट्रीय कंपनियों का भी प्रसार हो रहा है, जिसके लिए स्वदेशी के अतिरिक्त अन्य भाषाओं के प्रयोग के अवसर बढ़ रहे हैं. भारत में उद्योग में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश भी हो रहा है. इस तरह के बदलते संदर्भ में भाषा और संस्कृति के अनेक अंतरराष्ट्रीय आयाम उभर रहे हैं, जिनकी ओर ध्यान देना आवश्यक है.” (गिरीश्वर मिश्र (2016), ‘संदेश,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 9). 

भूमंडलीकरण के प्रभाव और चुनौतियाँ आदि से संबंधित अनेक पुस्तकें बाजार में उपलब्ध हैं. यह भी बाजारतंत्र का ही एक हिस्सा है. हाल ही में, डॉ. प्रदीप कुमार सिंह द्वारा संपादित पुस्तक ‘भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा’ (2016, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृष्ठ 528, मूल्य : रु. 950) को पढ़ने का अवसर मिला. इसमें देश-विदेश के विद्वानों के 76 आलेख सम्मिलित हैं. हिंदी का सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य (गिरीश्वर मिश्र), देश-विदेश में हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार की समस्याएँ तथा उज्बेकिस्तान में हिंदी भाषा का अध्यापन तथा अध्ययन : वर्तमान और भविष्य (डॉ. सिराजुद्दीन नुर्मातोव), इक्कीसवीं शताब्दी की कहानी और मनुष्य : वैश्वीकरण का यथार्थ (प्रो. ऋषभदेव शर्मा), भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में हिंदी साहित्य में अर्वाचीन स्त्री विमर्श (प्रो. गोविंद मुरारका), मॉरीशसीय जीवन एवं हिंदी शिक्षण पर राम तथा कृष्ण का प्रभाव (डॉ. अलका धनपत), रामायण की वैश्विक यात्रा (डॉ. योगेंद्र प्रताप सिंह), रामायण के प्रति नायक रावण तथा प्रमुख स्थान (डॉ. ई.जी. डबल्यू.पी. गुणसेना) और आधुनिक तेलुगु साहित्य में रामकथा (गुर्रमकोंडा नीरजा) आदि शीर्षकों से ही इन ग्रंथ के बहुआयामी विस्तार का अनुमान किया जा सकता है.

भूमंडलीकरण ने बाजार के साथ-साथ मनुष्य को इतना प्रभावित किया है कि वह ‘कॉमोडिटी’/ वस्तु बन चुका है. आज बाजार इतने व्यापक रूप से फैल चुका है कि “विश्व बाजार के लिए राष्ट्रों की सीमाएँ कोई अर्थ नहीं रखतीं. ऐसा होने पर ही तो पूँजी का मुक्त विचरण संभव है. xxx भारत ने 1990 के बाद अपनी आर्थिक नीति में यही बदलाव किया, जिससे बहुराष्ट्रीय कंपनियों के निवेश के दरवाजे तो खुल गए, लेकिन ‘न्याय पर आधारित समानता’ के स्थान पर ‘संपन्नता पर आधारित समानता’ ने समाज में नई खाइयाँ भी खोद डालीं. तरह-तरह के संकटों ने भी जन्म लिया.” (प्रो. ऋषभदेव शर्मा (2016), ‘इक्कीसवीं शताब्दी की कहानी और मनुष्य : वैश्वीकरण का यथार्थ,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 202). प्रो. ऋषभदेव शर्मा ने यह भी स्पष्ट किया है कि बाजार को वैविध्य पसंद नहीं है. उसे न तो भाषा वैविध्य पसंद है और न ही अलग-अलग सांस्कृतिक पहचानें. “बाजार ‘मॉल’ और ‘माल’ का विस्तार करते हुए रोजगार की गारंटी जैसी जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं है. बाजार बुद्धिजीवियों से लेकर शिल्पियों तक के विदेश पलायन को बुरा नहीं मानता, पर ये सारी चीजें भारत जैसे किसी भी देश के लिए संकट तो खड़ा करती ही हैं.” (वही). भूमंडलीकरण ने जहाँ बाजार और व्यक्ति को प्रभावित किया है वहीं उसने साहित्य को भी प्रभावित किया है. केंद्र, महावृत्तांत और आदर्श टूट रहे हैं. बहुकेंद्रीयता को नई तकनीक के साथ जोड़कर देखा-परखा जा रहा है. साहित्य के नए-नए पाठ निर्मित हो रहे हैं. बाजार “रीमिक्स करके परंपरा और लोक के व्यावसायिक संस्करण तैयार कर रहा है, महावृत्तांतों के टूटने की उत्तर वेला में प्रस्तुति की भव्यता और आदर्श के अभाव के बीच पैरोडी और विडंबना को सिरज रहा है. साहित्य पर भी मीडिया हावी है, बाजार का दबाव है, इसलिए न रस महत्वपूर्ण है, न चेतना महत्वपूर्ण है.” (वही, पृ. 203). ऐसी स्थिति में केवल सूचना महत्वपूर्ण रह गई है.

इस ग्रंथ में यह तथ्य भी कई स्थलों पर उभरा है कि भाषा-परिदृश्य भी भूमंडलीकरण से प्रभावित है. भूमंडलीकरण और प्रौद्योगिकी के कारण भाषा में परिवर्तन स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है. शुद्धतावादियों को इस परिवर्तन से कष्ट हो रहा है. लेकिन भाषा परिवर्तन भाषा विकास का सूचक है. भूमंडलीकरण का ही प्रभाव है कि हिंदी का प्रचार-प्रसार वैश्विक स्तर पर हो रहा है. प्रो. गिरीश्वर मिश्र ने यह याद दिलाया है कि ‘सूरीनाम, मॉरिशस, फिजी, त्रिनिदाद, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका आदि देशों में गिरमिटिया लोगों के लिए हिंदी संस्कृति की वाहिका बनी. अब इंगलैंड, अमेरिका, कनाडा, इटली, नीदरलैंड, कोरिया, पोलैंड, रूस, बुल्गारिया, फिनलैंड आदि में हिंदीभाषी हैं और भारत के बाहर विदेशों में आज सौ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी भाषा और साहित्य का अध्ययन और शोध हो रहा है.’ (प्रो. गिरीश्वर मिश्र (2016), ‘संदेश,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 9). इस संदर्भ में डॉ. सिराजुद्दीन नुर्मातोव का आलेख ‘देश-विदेश में हिंदी प्रचार-प्रसार की समस्याएँ तथा उज्बेकिस्तान में हिंदी भाषा का अध्यापन तथा अध्ययन : वर्तमान और भविष्य’ उल्लेखनीय है. उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि “उज्बेक और हिंदी भाषाओँ में कई हजार की संख्या में पाई जाने वाली आम शब्दावली के अतिरिक्त, ध्वनि विचार, व्याकरण और वाक्य विन्यास के क्षेत्रों में भी बहुत-सी समान विशेषताएँ दृष्टिगोचर हैं.” (डॉ. सिराजुद्दीन नुर्मातोव (2016), ‘देश-विदेश में हिंदी प्रचार-प्रसार की समस्याएँ तथा उज्बेकिस्तान में हिंदी भाषा का अध्यापन तथा अध्ययन : वर्तमान और भविष्य,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 60). उन्होंने यह स्पष्ट किया है कि उज्बेक और हिंदी भाषाओं की सामाजिक एवं व्यावहारिक विशेषताओं में भी समानता है. 

भूमंडलीकरण ने संस्कृति को भी प्रभावित किया है. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने निबंध ‘भारतीय संस्कृति की देन’ में भारतीय संस्कृति के संबंध में कहा है कि “भिन्न-भिन्न देशों और भिन्न-भिन्न जातियों के अनुभूत और साक्षात्कृत अन्य अविरोधी धर्मों की भाँति वह मनुष्य की जययात्रा में सहायक है. वह मनुष्य के सर्वोत्तम को जितने अंश में प्रकाशित और अग्रसर कर सका है, उतने ही अंश में वह सार्थक और महान है. वही भारतीय संस्कृति है, उसको प्रकट करना, उसकी व्याख्या करना या उसके प्रति जिज्ञासा भाव उचित है.” (हजारी प्रसाद द्विवेदी (2007 अट्ठाईसवाँ संस्करण), भारतीय संस्कृति की देन, अशोक के फूल, इलाहाबाद : लोकभारती प्रकाशन, पृ. 69).

भारतीय संस्कृति पुरानी है. हमारा स्वभाव रामायण और महाभारत की कथाओं के माध्यम से फैली है. इनके सहारे से ही हम जुड़े हुए हैं. भारत में ही देश-विदेश में भी रामायण और महाभारत की कथाएँ प्रचलित हैं. डॉ. अलका धनपत ने यह स्पष्ट किया है कि मॉरीशसीय जीवन एवं हिंदी शिक्षण पर राम एवं कृष्ण का प्रभाव दृष्टिगोचर है. उन्होंने इस तथ्य को उजागर किया कि ‘मानस तथा गीता ने हिंदी शिक्षण को प्रेरणा दी और राम तथा कृष्ण के चरित्र ने मजबूत किया.’ (डॉ. अलका धनपत (2016), ‘मॉरीशसीय जीवन एवं हिंदी शिक्षण पर राम एवं कृष्ण का प्रभाव,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 39).

लोगों में यह धारणा है कि श्रीलंका रावण की राजधानी है. पुरातत्वविद इसी प्राक्कल्पना के आधार पर श्रीलंका में रामायण से संबंधित अनेक ऐतिहासिक स्थलों की खोज कर चुके हैं. डॉ. ई.जी.डब्ल्यू.पी. गुणसेना ने अपने शोधपरक आलेख में यह बताया है कि “श्रीलंका में रामायण के स्थानों संबंधी पुरातात्विक खोजों से तथा ऐतिहासिक सूचना के अनुसार ऐसा विश्वास है कि रावण का समय लगभग 5000 वर्ष के पूर्व ठहरता है. xxx [परंतु] श्रीलंका के पारंपरिक विश्वासों, मान्यताओं तथा बौद्ध साहित्य के लंकावतार मसुत्त के अनुसार माना जाता है कि रावण, भगवान बुद्ध का बड़ा भक्त था तथा उसने काश्यप बुद्ध भगवान की पूजा एवं उपासना भी की थी.” (डॉ. ई.जी.डब्ल्यू.पी. गुनसेन (2016), ‘रामायण के प्रति नायक रावण तथा प्रमुख स्थान,’ भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 91). इसे भारत में प्रचलित जैन और बौद्ध रामायणों की भाँति राम कथा के सम्प्रदाय विशेष के लिए उपयोग के रूप में देखा जा सकता है. तेलुगु में उपलब्ध अनेक रामायणें भी बहुपाठीयता की प्रवृत्ति के अनुरूप ठहरती हैं. अनुसंधान के आधार पर तेलुगु भाषा में लगभग रामकथा के 146 पाठ उपलब्ध हैं. उनमें से 60 लोकरामायण के पाठ हैं तो 85 के आसपास संस्कृत से अनुवादित विविध पाठ. यह संख्या ज्यादा भी हो सकती है. ‘आधुनिक तेलुगु साहित्य में रामकथा’ में विश्वनाथ सत्यनारायण (रामायण कल्पवृक्षम), रंगनायकम्मा (रामायण विषवृक्षम) और ओल्गा (विमुक्ता) की कृतियों के विशेष संदर्भ में यह स्पष्ट किया गया है कि “आधुनिक तेलुगु साहित्य में एक ओर रामायण के आदर्श पाठ उपस्थित हैं, तो वहीं दूसरी ओर उसके विमर्शात्मक पाठ भी उपस्थित हैं. समकालीन पारिवारिक, सामाजिक एवं राजनैतिक विसंगतियों को उजागर करने के लिए भी आधुनिक साहित्यकारों ने रामकथा का प्रतीकात्मक प्रयोग किया है.” (गुर्रमकोंडा नीरजा (2016), ‘आधुनिक तेलुगु साहित्य में रामकथा’, भूमंडलीकरण के परिप्रेक्ष्य में साहित्य, समाज, संस्कृति और भाषा, इलाहाबाद : सरस्वती प्रकाशन, पृ. 396)

कुल मिलाकर इस ग्रंथ से यह स्पष्ट है कि भूमंडलीकरण के कारण समाज, साहित्य, संस्कृति और भाषा आदि अधिरचनाएँ प्रभावित हुई हैं. समाज में बदलाव है और बदलते समाज की इस बदलती मानसिकता को अंकित करने में साहित्य सक्षम है. संस्कृति भी प्रभावित हो रही है लेकिन भारतीय संस्कृति एवं स्वभाव रामायण और महाभारत की कथाओं के माध्यम से विश्व भर में फैले हैं, जिन्हें भूमंडलीकरण के प्रतिवाद के रूप में प्रस्तुत करके इसकी धारा को मोड़ा जा सकता है. इतने विचारपूर्ण आलेखों से सुसज्जित इस ग्रंथ के लिए इसके संपादक डॉ. प्रदीप कुमार सिंह बधाई के पात्र हैं.