बुधवार, 22 फ़रवरी 2017

विवशता और शोषण की मारक अभिव्यंजना : श्याम सुंदर अग्रवाल की लघुकथाएँ


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इतिहास के पन्नों में झाँककर देखें तो यह स्पष्ट होता है कि लघुकथा आज की देन नहीं अपितु संस्कृत, पालि, प्राकृत और अपभ्रंश कथासाहित्य में अनेक लघुकथापरक रचनाएँ उपलब्ध हैं. शायद इसीलिए बलराम अग्रवाल लघुकथा को ‘विश्व कथासाहित्य की प्राचीन विधा’ मानते हैं. इस संदर्भ में विष्णु प्रभाकर का कथन द्रष्टव्य है. उन्होंने अपने लघुकथा संग्रह ‘आपकी कृपा है’ की भूमिका में लिखा है कि “विकास की एक सुनिश्चित परंपरा आज की लघुकथा के पीछे देखी जा सकती है. न जाने किस काल-खंड में मनीषियों ने अपने सिद्धांतों को व्यावहारिक रूप में स्पष्ट करने के लिए दृष्टांत देने की आवश्यकता अनुभव की, इसी अनजाने क्षण में लघुकथा का बीजारोपण हुआ. तब उसका नाम दृष्टांत या ऐसा ही कुछ रहा होगा.” 1901 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ में प्रकाशित माधवराव सप्रे (1871-1926) की रचना ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को हिंदी की पहली लघुकथा माना जाता है. उसके बाद प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, सुदर्शन और उपेंद्रनाथ अश्क आदि की लघुकथाएँ प्राप्त होती हैं. 1947 के बाद आठवें दशक से पहले तक हिंदी में आधुनिका बोध वाली लघुकथा की धारा प्रवाहित हुई लेकिन आंदोलन के रूप में लघुकथा आठवें दशक से विकसित हुई. इस काल में रचित लघुकथाओं में प्रमुख रूप से सामाजिक एवं राजनैतिक विसंगतियों पर कटाक्ष दिखाई देता है. ‘सीधी पहुँच’ लघुकथा की मुख्य विशेषता है. लघुकथाकार कोई पृष्ठभूमि नहीं बाँधता. वह जो कुछ भी कहना चाहता है दो टूक कह देता है. लघुकथा का आरंभ, मध्य और अंत इतनी क्षिप्रता से घटित होता है कि यह शिल्प संवेदनशील पाठकों को झकझोर देता है. कहा जा सकता है कि जीवन की विसंगतियों एवं मानव मन की अभिव्यक्ति को उद्घाटित करने का तीव्र माध्यम है लघुकथा. लघुकथा की लघुता सामासिकता में निहित है. कहने का आशय है कि संक्षेप में प्रभावात्मक ढंग से दूरगामी बात कह देना, वह भी सहजता एवं संकेतात्मकता के साथ - लघुकथा का मुख्य उद्देश्य है. 

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आज की लघुकथाओं को देखने से यह स्पष्ट होता है कि पारिवारिक, सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक विसंगतियों को लघुकथाकारों ने अपना कथ्य बनाया है. लघुकथा आंदोलन से जुड़कर अनेक साहित्यकारों एवं पत्र-पत्रिकाओं ने इस विधा को सशक्त बनाया. अनेकानेक साहित्यकार इस विधा के प्रति समर्पित हैं. ऐसे ही एक समर्पित हस्ताक्षर हैं श्याम सुंदर अग्रवाल. लघुकथा के लिए समर्पित त्रैमासिक पंजाबी पत्रिका ‘मिन्नी’ के संपादक के रूप में 1988 से वे जुड़े हुए हैं. उनका जन्म पंजाब के कोटकपूरा में 8 फरवरी, 1950 को हुआ. उन्होंने सुकेश साहनी, सतीश दुबे और कमल चोपड़ा आदि की लघुकथाओं का पंजाबी में अनुवाद किया है. उन्होंने अब तक पंजाबी से हिंदी तथा हिंदी से पंजाबी में पाँच सौ से अधिक रचनाओं का अनुवाद किया है. लघुकथाओं के अलावा वे अनेक कविताओं का भी सृजन कर चुके हैं. वे अनेक संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी हो चुके हैं. उनकी हिंदी लघुकथाओं को परखने से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने अपने इर्द-गिर्द के परिवेश से कथासूत्र चुना है और पाठकों के समक्ष प्रभावात्मक ढंग से परोसा है. उनकी लघुकथाएँ ज्यादातर सामाजिक विद्रूपताओं का पर्दाफाश करने में सक्षम हैं. उनकी लघुकथाओं का मुख्य बिंदु मूल्य-विघटन ही है. समस्त लघुकथाओं में इसी बिंदु को उकेरा गया है और इसके लिए उन्होंने पात्रों के रूप में भूख से पीड़ित बच्चों, कारखानों में काम करने वाले बच्चों, शोषित स्त्रियों, भिखारियों, नौकरों और वृद्धों को चुना है तथा उनकी विवशता और शोषण की मारक अभिव्यंजना प्रदान की है. 

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भारतीय समाज में आज भी आधी आबादी गरीब है. गरीबी को मानवाधिकारों के हनन का सबसे बड़ा कारक माना जाता है. राजनीतिज्ञ ‘गरीबी हटाओ’ का नारा लगाते हैं और कहते हैं कि अमीर और गरीब का भेदभाव मिट चुका है. पर ये केवल कागजी बातें हैं. अमीरों का क्या कहना! वे तो धन के मद में झूम रहे हैं. उन्हें किसी गरीब और बेबस की भूख दिखाई नहीं देती. लेकिन गरीब के लिए रोटी ही सब कुछ है. ‘रोटी की ताकत’ शीर्षक लघुकथा में बारह वर्ष का एक लड़का सबकी नजरों से बचकर बरात में शामिल होकर खाना खाने लगता है. वह अपने मैले कपड़ों के कारण शीघ्र ही सबकी निगाह में आ जाता है तो बराती “चल भाग साले, बाप का माल है क्या?” कहकर उसे झिड़क देते हैं. फिर जब इसका कोई असर उस पर नहीं पड़ता तो लोग बेरहमी से उसके हाथ से प्लेट छीनकर लात मारते हैं. ठोकर खाकर वह गिर जाता है तो “उसके चेहरे का दर्द लकीरों से भर जाता है.” वह वहाँ से भाग निकलता है. बाहर आकर अपने छोटे भाई से कहता है – “आज तो मजा आ गया! रोटी में बहुत स्वाद है. कितना ही कुछ है. जा, तू भी आँख बचाकर घुस जा.” रोटी की इस ताकत को सिर्फ और सिर्फ भूखा व्यक्ति ही जान सकता है. 

भूख भी क्या चीज है! क्या-क्या नहीं करवाती वह इनसान से. आए दिन नंगे-भूखे बच्चे भीख माँगते हुए सड़कों पर, ट्रेन में, बस स्टेशन पर नजर आते हैं. लोग या तो उनका मजाक उड़ाते हैं या पैसों का लालच देकर अपना काम करवा लेते हैं. इस दृष्टि से ‘बोझ’, ‘चमत्कार’ और ‘दानी’ शीर्षक लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं. ‘बोझ’ लघुकथा में दस-बारह वर्ष के बच्चे रेल के डिब्बे में ढोलक पर थाप देते हुए इस आस में भीख माँगते हैं कि “दो-चार छोटे सिक्के ही मिले.” वे दोनों पैसों के लिए यात्रियों के सामने रिरियाने लगे तो कुछ लोगों ने फिल्मी गाने गाने की फरमाइश जारी कर दी और दोनों गाने लगे. नैरेटर उस लड़के से पूछता है कि “यह लड़की तुम्हारी क्या लगती है?” तो वह जवाब देता है कि वह उसकी छोटी बहन है. यह जवाब सुनकर नेरैटर हैरान हो जाता है और प्रश्न करता है कि “इसे बाहों में लेकर ऐसे गंदे गाने गाते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती?” यह सुनकर वह लड़का बेझिझक जवाब देता है कि “न गाएँ तो साब कोई पैसे नहीं देता, पेट तो खाने को माँगता.” यह स्थिति है इस देश में. बेबस, लाचार और यतीम बच्चों की भूख आखिर कौन मिटा सकता है? ऊपर वाले की लीला भी अपरंपार. भूख से तड़पते हुए लोगों को एक कौर रोटी नसीब नहीं है, बीमार बच्चे को दूध नसीब नहीं है लेकिन भगवान की मूर्ति को पिलाने के लिए दूध है. ‘चमत्कार’ शीर्षक लघुकथा में यह दिखाया गया है कि गरीबू अपने बीमार बच्चे की दुहाई देकर दुकानदार से उधार दूध माँगता है तो दुकानदार कहता है, “उधार-नकद तो बाद की बात है, मेरे पास तो चाय पीने के लिए भी दूध नहीं है. सारा दूध लोग ले गए, भगवान की मूर्ति को पिलाने के लिए. आज तो चमत्कार हो गया, मूर्ति दूध पी रही है.” वह मंदिर जाकर इस आस में घूमता है कि लोग उस पर तरस खाकर एक लोटा दूध ही दे दें पर उसकी कोशिश बेकार जाती है. “मंदिर के पीछे वाली तंग-सी सुनसान गली में से गुजरते हुए उसने एक और चमत्कार देखा – मंदिर के पीछे वाली नाली, जो सदा गंदे पानी से भरी रहती थी, आज दूध से सफ़ेद हुई पड़ी थी.” 

‘दानी’ शीर्षक लघुकथा में यह दिखाया है कि सड़क पर भीख माँगती सात-आठ वर्ष की लड़की को एक भला आदमी पैसे देने के बजाय उसे खाने के लिए भठूरे दिलवाता है. तब बदमाश किस्म का एक आदमी उस भिखारिन लड़की को खींचकर थोड़ा ओट में ले जाता है और उस लड़की से सारे पैसे छीनकर उसे बेरहमी से पीटता है - ‘क्यों री, बहुत भूख लगी थी जो भठूरे खा रही थी? रोकर उस आदमी से एक-दो रुपए नहीं ले सकती थी? साली, तेरी भूख तो मैं ऐसी मिटाऊँगा कि खाना ही भूल जाएगी.” वास्तव में यह एक ‘रैकट’ है. बच्चों का अपहरण करके उनसे भीख मँगवाते हैं, स्मगलिंग करवाते हैं, चोरी-डकैती करवाते हैं, जरूरत पड़े तो खून भी करवाते हैं. यह लघुकथा बाल शोषण और मानवाधिकारों के हनन की ओर संकेत करती है. 

‘भिखारिन’ शीर्षक लघुकथा में पुरुषसत्तात्मक समाज के मुँह पर तमाचा मारा गया है. यह लघुकथा दर्शाती है कि नवधनाढ्य वर्ग सदाशयता के बहाने स्त्री की अस्मत लूट रहा है. यह वर्ग सोचता है कि पैसों के बल पर कुछ भी किया जा सकता है. इस लघुकथा में एक स्त्री अपने नवजात शिशु की भूख मिटाने के लिए भिखारिन बनती है. सेठ पहले तो झल्लाकर उससे बच्चे के बाप का नाम पूछता है और बहुत धिक्कारता है लेकिन उसे भिखारिन का तन सुंदर और आकर्षक लगता है. इसीलिए जब वह हमदर्दी के बहाने उससे कहता है, “मेरे गोदाम में काम करेगी? खाने को भी मिलेगा और पैसे भी” तो भिखारिन उसका नाम पूछ लेती है. इस पर वह झुँझला उठता है तो वह कहती है, “जब दूसरे बच्चे के लिए भीख माँगूँगी और लोग उसके बाप का नाम पूछेंगे तो क्या बताऊँगी?” सेठ सकपका जाता है. 

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बाल मजदूरी इस देश का एक ऐतिहासिक सत्य है. आज भी न जाने कितने बच्चे दासता की जंजीरों में जकड़े हुए हैं. बाल मजदूरी को रोकने, इसे प्रतिबंधित करने, जड़ से समाप्त करने व इन बच्चों के पुनर्वास के लिए कानून में अनेक प्रावधान हैं, लेकिन बाल-मजदूरी को समाज से पूरी तरह से उन्मूलन नहीं किया जा सका है. चाय की दुकानों में, अगरबत्ती की फैक्ट्रियों में और बीड़ी के कारखानों में आज भी बाल मजदूर पाए जाते हैं. भले ही सरकार ने इन बाल मजदूरों के पुनर्वास तथा शिक्षा की व्यवस्था की हो, फिर भी गरीबी के कारण इन बच्चों को पुस्तक के बदले औजार हाथ में लेने पड़ते हैं. ‘मासूम’ शीर्षक लघुकथा में थानेदार रघु को एक कारखाने से आजाद करवाता है लेकिन वह दुबारा बीड़ी बनाने के कारखाने में मजदूरी करते हुए पकड़ा जाता है. जब थानेदार उससे कहता है, “जा, घर जा. बापू को कहना कि तुझे स्कूल भेजा करे. अब सरकार ने स्कूली-शिक्षा जरूरी कर दी है. अगर फिर भी तेरा बापू तुझे काम पर भेजने की जिद करे तो पुलिस को बताना” तो रघु कहता है, “घर जाऊँगा तो बापू बुरी तरह मारेगा”. वह थानेदार से विनती करता है, “मुझे अपने घर ले जाओ साब! सारे काम कर दूँगा... बस दो टैम रोटी दे देना.” सारे जतन रोटी के लिए ही तो हैं. गरीब को जहाँ दो वक्त की रोटी मिले, वहीं उसके लिए स्वर्ग है. ‘मथुरा’ शीर्षक लघुकथा में इसी बात को दर्शाया गया है – “भूखे पेट भी कहीं मन लगता है बीबी जी! यहाँ पेट-भर रोटी मिलती है. हमारी तो यहीं मथुरा है.” 

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लिंग भेद हमारे समय की एक प्रमुख समस्या है जिसे मिटाने के लिए मानवाधिकार आयोग ने अनेक प्रयास किए हैं. कहने को तो आज के समय में लड़के और लड़कियों को समान दर्जा दिया जा रहा है. फिर भी, लिंग भेद की समस्या विद्यमान है. लड़के के जन्म पर तो जश्न मनाया जाता है, लेकिन लड़की के जन्म पर अफसोस जताया जाता है. ‘लड़का-लड़की’ शीर्षक लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि गुप्ता जी की बेटी जुड़वा बच्चों को जन्म देती है – एक लड़का और एक लड़की. समधी कहता है कि दो नवजात शिशुओं का एक साथ पालन-पोषण करना बहुत कठिन है. इसीलिए दोनों में से एक को ले जाएँ. जब गुप्ता जी लड़के को अपने साथ ले जाने के लिए राजी हो जाते हैं तो समधी घबरा जाता है और कहने लगता है, “चलो रहने दो, आपको किसलिए तकलीफ देनी है. जैसे-तैसे हम खुद ही पाल लेंगे.” ‘लड़की के बाबा’ के माध्यम से श्याम सुंदर अग्रवाल ने यह स्पष्ट किया है कि “लड़के-लड़की में क्या फर्क है अब.” यदि सब लोग इसी तरह सकारात्मक सोच रखेंगे तो न तो कन्याभ्रूण की हत्या होगी और न ही किसी कूड़ेदान में कन्या शिशु पाई जाएगी. 

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श्याम सुंदर अग्रवाल ने अपनी लघुकथाओं के माध्यम से यह भी दर्शाया है कि समाज में परंपरागत मान्यताएँ कैसे अंधविश्वास में बदल रही हैं. शादी-ब्याह की बात चलते ही सबसे पहले कुंडली की बात की जाती है. लड़की की कुंडली से लड़के की कुंडली मिल जाए तो ही बात आगे बढ़ती है. ‘कुंडली’ शीर्षक लघुकथा में इसी बात को उभारा गया है. “शास्त्री जी लड़की की कुंडली से भाई की कुंडली का मिलान करते और ‘न’ में सर हिला देते. कभी आठ गुण मिलते तो कभी दस. माँ पच्चीस गुण के मिले बिना अपने सुपुत्र का रिश्ता करने के लिए तैयार नहीं थी. लगभग पंद्रह योग्य लड़कियों के रिश्ते माँ की इस परख-कसौटी की बलि चढ़ चुके थे.” 

जब कुंडली मिल जाती है तो बात आती है दहेज की. लड़की अच्छी भी हो, पढ़ी-लिखी भी हो, नौकरी भी करे और साथ में मोटी रकम लेकर घर में पैर रखे. वरपक्ष की माँगें पूरी न कर पाने पर लड़की के पिता को सिर झुकाना पड़ता है और अपनी बेटी को मायके में ही रखना पड़ जाता है. इस क्रूर सच की ओर ‘उसका डर’ शीर्षक लघुकथा में इशारा किया गया है – “भाई साहब, मेरी बड़ी बेटी इसी कारण शादी के बाद मायके में बैठी है... शादी के बाद हम उनकी माँगें पूरी नहीं कर पाए.” 

लड़का अनपढ़ होने पर भी उसे पढ़ी-लिखी और खूबसूरत बीबी चाहिए. साथ में दहेज भी. गाँव का लड़का भी शहरी लड़की को चाहता है लेकिन शहर की गरीब लड़की गाँव की ओर नहीं जाना चाहती. ‘लड़की की तलाश’ में जब सतीश अपने अनपढ़ बेटे राजू का रिश्ता शहरी लड़की से करने की बात करता है तो सुरेंद्र कहता है, “आपने शादी पर आठ-दस लाख का खर्चा भी गिनाया था. अब तो शहर के गरीब की लड़की भी नखरे करने लगी है. करें भी क्यों न? लड़कियाँ मिलती भी कहाँ हैं. हर मुहल्ले में तीस-तीस साल के लड़के कुँवारे बैठे हैं.” यह सुनकर उसे बीच में ही टोकते हुए सतीश कहता है, “आप पैसे की बात भूल जाओ, एक पैसा भी नहीं चाहिए. बस लड़की चाहिए बटुए जैसी!” कोई भी निश्चित रूप से यह नहीं कह सकता कि मुँह माँगा दहेज देने के बावजूद ससुराल में लड़की खुशहाल जिंदगी बिताएगी. दहेज एक ऐसी बीमारी है जिसका कोई इलाज नहीं. आज इक्कीसवीं सदी में भी शादी के बाद भी पैसों की माँग करके स्त्रियों को सताया जा रहा है, उनकी जिंदगी को मिट्टी के तेल के हवाले किया जा रहा है. ‘इतिहास’ शीर्षक लघुकथा में इसी सच को उजागर किया गया है. 

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समाज में मूल्यहीनता चरम पर है. ‘अर्थ’ के सामने रिश्ते-नाते कुछ मायने नहीं रखते. अर्थनीति समाज पर पूरी तरह से हावी हो चुकी है. ‘बाप बड़ा ना भैया, सबसे बड़ा रुपय्या’ की नीति ने तो भाई-बहन के बीच भी खाई उत्पन्न करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है. ‘रिश्ते’ शीर्षक लघुकथा में इसी विडंबना की ओर संकेत किया गया है. सरिता कानून की सहायता लेकर पिता की बची-खुची संपत्ति प्राप्त कर लेती है. जब बेटी का रिश्ता तय हो जाता है तो भाई राजेश से कहती है कि “भाई कर्ज लेकर भी अपना और बहन दोनों का मान रखते हैं” तो राजेश कहता है कि “दीदी, पारिवारिक रिश्तों में सरकार और समाज दोनों के कानून एक साथ नहीं चलते. उनमें से एक को ही चुनना होता है. आपने सरकार का कानून चुना, इसलिए समाज के रीति-रिवाज निभाने की दुहाई देने का कोई हक नहीं रह गया आपको.” किसी भी रिश्ते के बीच पैसा आ जाए तो कसैलेपन के अलावा कुछ नहीं रहता. 

बाजारीकरण के दौर में मनुष्य भी वस्तु बन चुका है. यहाँ हर चीज बिकती है. यहाँ तक की संवेदनाएँ भी. लेकिन पुरानी पीढ़ी के लिए यह स्थिति असह्य है. वह अपनी मान्यताओं एवं विश्वासों को छोड़ना नहीं चाहती और नई पीढ़ी को यह सब हास्यास्पद लगता है. ‘मोहल्ले’ शीर्षक लघुकथा में लघुकथाकार ने यह स्पष्ट किया है कि “जहाँ बड़ी कोठियाँ होती हैं, वहाँ मोहल्ला नहीं होता... और सच्चे दोस्त एक ही दिन में थोड़े न बन जाते हैं बेटे, वर्षों लग जाते हैं... संकट आते हैं तभी परखे जाते हैं लोग. लोगों को परखने जितनी उम्र ही कहाँ बची है अब! दो-तीन साल ठहर जा बेटे... जब मैं न रहा, तब ले लेना वह कोठी!” यह बात सही है कि संपन्नता में मोहल्ला भी घर का हिस्सा बन जाता है और नए-नए रिश्ते बन जाते हैं. लेकिन आज के बाजारीकरण के दौर में यह आत्मीयता कहाँ बची हुआ है! रिश्ते-नाते तो दूर की बात है आँगन की धूप भी हमारी नहीं रही. 

महानगर तो कंक्रीट के जंगल बन चुके हैं. जहाँ देखो वहाँ गगनचुंबी अट्टालिकाएँ नजर आती हैं. गाँव भी शहर की चकाचौंध से अछूता नहीं रह गया. एक जमाना था जब गाँव से लोग शहर की ओर पलायन कर गए, रोजी-रोटी के लिए. आज शहर से लोग गाँव की ओर जा रहे हैं स्वार्थसिद्धि के लिए. गाँवों में जाकर फैक्ट्रियाँ स्थापित कर रहे हैं, घर के स्थान पर ऊँची बिल्डिंग बना रहे हैं. गाँव का हवा-पानी भी कलुषित होता जा रहा है. ‘आँगन की धूप’ शीर्षक लघुकथा में इसी का खुलासा है. नानाजी कहते हैं, “बेटा, पौधों के फलने-फूलने के लिए धूप बहुत जरूरी है. धूप के बिना तो ये धीरे-धीरे सूख जाएँगे. ××× पहले हमारे घर के सभी ओर हमारे घर जैसे एक मंजिला मकान ही थे. फिर शहर से लोग आने लगे. उन्होंने एक-एक कर गरीब लोगों के कई घर खरीद लिए तथा हमारे एक ओर चार मंजिला इमारत बना ली. फिर ऐसे ही हमारे दूसरी ओर भी ऊँची इमारत बन गई. ××× हमने अपना पुश्तैनी मकान उन्हें नहीं बेचा तो उन्होंने हमारे आँगन की धूप पर कब्जा कर लिया.” 

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यह पहले भी कहा जा चुका है कि आज के परिवेश में मूल्यहीनता चरम पर है. पुरुषसत्तात्मक समाज में स्त्री असुरक्षित है चाहे वह बीस वर्ष की युवती हो या साठ वर्ष की वृद्धा. यहाँ तक कि डेढ़ साल की बच्ची भी सुरक्षित नहीं है. ‘वही आदमी’, ‘औरत का दर्द’, ‘रावण ज़िंदा है’, ‘टूटा हुआ काँच’, ‘एक उज्ज्वल लड़की’, ‘अपना-अपना दर्द’ और ‘बेड़ियाँ’ आदि श्याम सुंदर अग्रवाल की इस दृष्टि से उल्लेखनीय लघुकथाएँ हैं. ‘टूटा हुआ काँच’ में विवश होकर एक विधवा माँ अपने बेटे के साथ होटल में रात गुजारती है. “गहरी रात के अंधेरे में बाज ने पंख फड़फड़ाए और निरीह चिड़िया पर झपट पड़ा. चिड़िया छटपटाई, मिन्नत की – बाबा! मुझे छोड़ दो, तुम्हारी बेटी समान हूँ. यह क्या कर रहे हो!” लेकिन वह दरिंदा अपनी जकड़ और मजबूत करते हुए कहता है, “करना क्या है! लड़के ने महीना भर काँच के जो गिलास तोड़े हैं, उनकी कीमत वसूल रहा हूँ.” 

‘औरत का दर्द’ शीर्षक लघुकथा मार्मिक है. लक्ष्मी अपनी सोलह वर्षीय बेटी को भी मजदूरी करने अपने साथ ले जाती है. जब कमला उससे पूछती है कि बेटी को अपने साथ क्यों ले आई तो कहती है, “घर में किसके पास छोडूँ कमला? बाप इसका तो दारू पी कै पड्या रवै सारा दिन. उसकी निगा तो मन्नै ठेकेदार सै बी खराब लगै. ठेकेदार सै तो मैं बचा लूँगी, उससै कौन बचावैगा छोरी नै?” पिता से भी डरने की नौबत आ जाए तो फिर लड़की कहाँ सुरक्षित है? 

आए दिन स्त्रियों को बलात्कार का शिकार होना पड़ रहा है. विडंबना यह है कि बलात्कारी को न तो समाज कुछ कहता है और न ही कानून उसका कुछ कर पाता है. यदि बलात्कारी किसी मंत्री का सुपुत्र या दामाद हो तो मामला रफू-चक्कर हो जाता है. ‘रावण जिंदा है’ शीर्षक लघुकथा में दर्शाया गया है कि दो नौजवान दिन-दहाड़े युवतियों से छेड़छाड़ करते हैं और जब बात चीरहरण तक पहुँचती है तो एक सिपाही आगे बढ़कर उन गुंडों से लड़कियों को छुड़ाने का प्रयत्न करता है. तब उसका साथी उसे रोककर कान में फूँक मारता है, “मंत्रीजादे को भी नहीं पहचानते! नौकरी नहीं करनी है क्या?” रावण के पुतले को तो दशहरे के दिन आग लगा दी जाती है लेकिन ऐसे रावणों का क्या किया जाए जो दिन-दहाड़े किसी की बहन-बेटियों की आबरू लूट रहे हैं! ‘बेड़ियाँ’ में यह सच ही कहा गया है कि “लोग औरत को तड़पा-तड़पाकर मार देते हैं और कोई उन्हें कातिल भी नहीं कहता.”

प्रायः यह पाया जाता है कि बलात्कार करने वालों को कुछ नहीं कहा जाता बल्कि लड़की को ही दोष दिया जाता है. लेकिन ‘एक उज्ज्वल लड़की’ में यह दर्शाया गया है कि “पवित्रता का संबंध तन से नहीं, मन से है.” ‘वही आदमी’ शीर्षक लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि पुरुष पुरुष ही है चाहे वह पिता हो या पति या फिर पुत्र. जहरीली शराब पीने से सुमित्रा के पिता राघव की मृत्यु हो जाती है. जब तक वह जिंदा था तब भी उसकी जिंदगी नारकीय थी और उसकी मृत्यु के बाद भी वही स्थिति थी. पहले तो वह कहती है, “तेरे मरने से रांड तो जरूर कहाती हूँ रे, पर हो गई सुखी!” लेकिन यह खुशी ज्यादा देर तक नहीं टिकती. जब तक पति जिंदा था उसके हाथों मार खा-खाकर जीती रही. उसकी मृत्यु के बाद उसका स्थान बेटा ले लेता है. शराब की लत के कारण समस्त मर्यादा भूलकर कहता है, “कुत्ती, रोटी नहीं देती, जबान लड़ाती है.” लात मारने से सुमित्रा नीचे गिर जाती है. उसने देखा – “वह तो बिलकुल राघव-जैसा था. सब कुछ तो वैसा ही था, कुछ भी फर्क नहीं. उसने तो लात भी ठीक उसके घरवाले की तरह ही जमाई थी.” स्त्री विमर्श की दृष्टि से भी ये लघुकथाएँ विचारणीय है. 

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वृद्धावस्था विमर्श की दृष्टि से भी श्याम सुंदर अग्रवाल की लघुकथाओं को परखा जा सकता है. वृद्धावस्था में प्रवेश करते ही लोगों में एक तो शारीरिक कमजोरी होती है, साथ ही मानसिक तनाव भी. बच्चों के लिए वृद्ध माता-पिता बोझ लगने लगते हैं. माता-पिता के जमीन-जायदाद का बँटवारा करके बच्चे अपना हक जताने लगते हैं लेकिन वृद्ध माता-पिता का बोझ उठाने के लिए कोई तैयार नहीं होता. यदि वृद्ध माता-पिता बीमार हों, तो स्थिति और भी बदतर हो जाती है. बहू-बेटे उन्हें धिक्कारने लगते हैं. ‘साँझ ढले’ शीर्षक लघुकथा में बेटा अपने पिता से कहता है, “डैड, मम्मी का यही हाल रहना है तो कहीं कमरा किराए पर लेकर रह लो. इतने बड़े घर को क्यों नरक बना रे हो!” ‘बँटवारे का अधिकार’ में वृद्ध अपने बच्चों से प्रश्न करता है कि “बेटा, जब यह मकान मेरा है, तुम्हारी माँ की जिम्मेदारी मेरी है, हम अपनी पेंशन पर गुजारा करते हैं. फिर भला हमें अलग करने का अधिकार तुम्हें किसने दिया?” ‘बेटी का हिस्सा’ में यह दर्शाया गया है कि जहाँ बेटे अपने वृद्ध माता-पिता की जिम्मेदारी नहीं निभाना चाह रहे हैं वहीं बेटी अपने हिस्से के रूप में माता-पिता को अपने साथ ले जाती है. 

यह भी नहीं कहा जा सकता कि बेटे अपनी माता-पिता की जिम्मेदारी नहीं निभाते. ‘माँ का कमरा’ में बेटा अपनी माँ को शहर ले जाता है. नौकर बरामदे के साथ वाले कमरे में उनका सामान टिका देता है. कमरे में डबल बेड, टीवी, टेपरिकार्डर आदि सब सुविधाएँ हैं. जब बेटा ऑफिस से आता है तो माँ कहती है “बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता’ क्योंकि प्रायः यही धारणा रहती है कि शहर में बहू-बेटे के पास रहने से दुर्गति होती है. और तो और नौकरानी की तरह ही रहना पड़ता है तथा रहने के लिए भी नौकरों का ही कमरा दिया जाता है. इसके विपरीत जब बेटा कहता है कि वह उसी का कमरा है तो वह आश्चर्यचकित हो जाती है. ‘कर्ज’ शीर्षक लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि माँ का कर्ज उतार पाना असंभव है. लघुकथाकार ने वृद्ध माता-पिता के प्रति बच्चों के नकारात्मक एवं सकारात्मक दोनों रूपों को बखूबी दर्शाया है. 

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समाज में फरेबियों और चालबाजों की कमी नहीं है. अपना उल्लू सीधा करने के लिए व्यक्ति किसी भी हद तक जा सकता है. बेझिझक झूठ बोल सकता है. स्वार्थ सिद्धि के लिए किसी को भी धर्मभाई या बहन बना सकता है. ‘धर्मभाई’ शीर्षक लघुकथा में कमलेश नौकरी हासिल करने के लिए अधिकारी से झूठ बोलता है कि सुमित कक्कड़ उसका धर्मभाई है और फोन पर रोज उससे बात होती रहती है तब उसकी बात को बीच में ही काटते हुए अधिकारी बताता है, “मिस्टर कमलेश, आपके करीबी मित्र व धर्मभाई सुमित कक्कड़ जी का तीन महीने पहले देहांत हो चुका है और उससे पहले वे छह माह तक कैंसर से लड़ते भी रहे हैं.” इस समाज में ऐसे चालबाजों की कमी नहीं है. ऐसे मौकापरस्ती लोग हर क्षेत्र में पाए जाते हैं. 

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विधायिका, कार्यपालिका, न्‍यायपालिका और मीडिया लोकतंत्र के प्रमुख स्तंभ हैं. विधायिका का काम है कानून बनाना. कार्यपालिका का काम है उस कानून को लागू करना. न्यायपालिका का काम है कानूनों की व्याख्या करना तथा उल्लंघन करने वालों को सजा देना और मीडिया का काम है समसामयिक विषयों पर जनता को जागरूक करना. जब ये चारों स्तंभ अपनी अपनी भूमिकाएँ निभाएँगे तो सही अर्थ में स्वस्थ लोकतंत्र कायम होगा. लेकिन इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि ये चारों ही स्तंभ आज प्रदूषित हो चुके हैं. जनता वोट देकर अपने प्रतिनिधि को चुनती है इस आस में कि वह उसके हित में काम करेगा. लेकिन राजनीतिज्ञ जनता को भुलाकर अपनी स्वार्थ पूर्ति में लिप्त हो जाते हैं. ‘हमदर्द’ शीर्षक लघुकथा में ऐसे नेताओं की चुनावी राजनीति को दर्शाया गया है. जैसे ही चुनाव की घोषणा होने लगती है, नेता मतदाताओं को, विशेष रूप से उपेक्षित बस्तियों में रहने वाले वोटर को, कुछ सामान देकर अपने पक्ष में कर लेना चाहता है. जब एक नौजवान कार्यकर्ता यह पूछता है कि “आपने ये दो घर क्यों छोड़ दिए?” तो वह व्यक्ति जवाब देता है, “गरीब हैं तो हम क्या करें? हम तो वोटर-सूची के अनुसार चल रहे हैं.” उन्हें गरीबों से कुछ लेना-देना नहीं, बस वोटर की सूची में नाम अंकित हो. एक राजनेता के लिए तो वोट ही सब कुछ है क्योंकि एक वोट से सत्ता पलट सकती है. ‘एक वोट की मौत’ में वोट डाले बिना ही रामू धोबी की घरवाली सरबती मर जाती है तो उम्मीदवार अपने कार्यकर्ता से कहता है, “मुकाबला बहुत कड़ा है. एक-एक वोट का महत्व है. वह साली तो मर गई, हमें तो नहीं मरना. तुम जाओ इसके पहले कि मौत की खबर यहाँ तक पहुँचे, अपनी घरवाली को घूँघट कढ़वाकर ले आओ. थोड़ी देर के लिए वह ही सरबती बन जाएगी.” 

नेता चुनाव से पहले तो लाख वादे करते हैं. दिवास्वप्न दिखा देते हैं. लेकिन चुनाव जीतने के बाद लोकसेवक लोकभक्षक बन जाते हैं. ‘रावण’ शीर्षक लघुकथा में इस विद्रूप सच की ओर संकेत किया गया है कि नेता अपने स्वार्थ के लिए विपक्ष के नेता को ठिकाने लगाने के लिए गुंडों के साथ हाथ मिलाने में नहीं हिचकिचाते. ‘लोकसेवक’ में यह दिखाया गया है कि सरकार की गैरजिम्मेदारी के कारण सरकारी स्कूलों में अध्यापकों की नियुक्ति नहीं हो रही है. सच तो यह है कि देश के अनेक विश्वविद्यालयों में अरसे से अनेक शैक्षणिक पद खाली पड़े हैं लेकिन सरकारों की ध्यान शिक्षा की ओर जाता ही नहीं है! 

पुलिस व्यवस्था भी भ्रष्ट हो चुकी है. पुलिस चोरों को पकड़ने के बजाए उनके साथ हाथ मिला रही है. राजनीति और गुंडागर्दी का गठबंधन तो है ही, पुलिस भी उनकी साझेदार हैं. इसी बात को ‘साझेदार’ शीर्षक लघुकथा के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है. ‘वर्दी की ताकत’ लघुकथा में पुलिस अपनी वर्दी की ताकत निर्दोष व्यक्तियों के सामने दिखाती है. ठेलेवाले से बिना पैसा दिए सब्जी ले लेते हैं और पैसे पूछने पर पुलिस के हथकंडे अपनाते हैं. तब सब्जीवाला कहता है, “अब तो आप वर्दी में हो साहब, ले जाइए. डंडे तो हमारे पास एक जैसे ही हैं, बस आपके पास वर्दी की ताकत है.” रेलवे टिकट कलेक्टर की धांधली को ‘योद्धा’ शीर्षक लघुकथा में दर्शाया गया है. 

जान बचाने वाला डॉक्टर ही यदि मरीजों का जान ले ले तो क्या कहा जाए! मेडिकल कैंप लगाकर गरीबों का मुफ्त इलाज करने के बहाने उनके अंगों का व्यापार किया जा रहा है. ‘ब्लड डोनेशन’ कैंप के बहाने खून का व्यापार हो रहा है तो बीमारी का भय दिखाकर पेट का ऑपरेशन करके गुर्दा निकाला जा रहा है. एक समय, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में गरीब किसानों द्वारा मजबूरी में गुर्दे बेचने की घटना पर्याप्त चर्चा में रही थी. यह केवल आंध्र प्रदेश या तेलंगाना की बात नहीं है बल्कि गुड़गांव, नई दिल्ली, बेंगलूर और कोलकाता आदि अनेक राज्यों में ऐसी घटनाएँ घट चुकी हैं. ‘गुर्दे का घोटाला’ तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हो रहा है. ‘जनसेवा’ शीर्षक लघुकथा में ‘किडनी माफिया’ का खुलासा किया गया है – “पेट के ऑपरेशन के कुछ दिन बाद जब पेट में दर्द हुआ तो सूरज पास के ही अस्पताल में गया. तभी उसे पता चला कि मुफ्त इलाज के नाम पर उसका एक गुर्दा शरीर से गायब हो चुका है.” 

मीडिया लोकतंत्र का अधिक विश्वसनीय और प्रामाणिक स्तंभ है जो जनहित के लिए निष्पक्ष रूप से काम करता है. मीडियाकर्मी खतरों से खेलकर जान की बाजी लगाकर फरेब का पर्दाफाश करते हैं. लेकिन आज वे भी बाजार की शक्तियों के हाथों में कठपुतली बने हुए हैं. मीडिया दिनोंदिन अधिक बाजारोन्मुख और अधिक अमानुषिक होता जा रहा है. ‘उत्सव’ शीर्षक लघुकथा में मीडिया की अमानुषिकता को दर्शाया गया है. इसमें चित्रित घटना से हम सब भलीभाँति परिचित हैं. आए दिन बोरवेल में फँसे बच्चों को बचाने के लिए सुरक्षाकर्मियों द्वारा किए जाने वाले प्रयासों के लाइव कवरेज से टीवी चैनल और अखबार की सुर्खियाँ भर जाती हैं. 2013 में तमिलनाडु के कारूर, आंध्र प्रदेश के गुंटूर और मध्यप्रदेश में ऐसी घटनाएँ घटीं तो 2014 में बीजापुर, बैंगलोर और आंध्र प्रदेश में. 12 अप्रैल, 2015 को तमिलनाडु में स्थित कुथलपेरी गाँव (वेलूर जिला) में तीन सौ फुट गहरे बोरवेल में ढाई साल का बच्चा फँस गया था. इस तरह की घटनाएँ देश भर में घट रही हैं. छोटी सी लापरवाही के कारण मासूमों का जान खतरे में पड़ जाती है. ऐसी स्थिति में किसी का भी यह दायित्व होता है कि लोगों को चेताए ताकि भविष्य में ऐसी दुर्घटना का सामना न करना पड़े. लेकिन प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया टीआरपी बटोरने के चक्कर में फँसा हुआ है. ‘उत्सव’ शीर्षक लघुकथा इसी सत्य को उजागर करती है. संवाददाता ने “इधर-उधर देखा और अपने नाम-पते वाला कार्ड युवक को देते हुए धीरे से कहा, ध्यान रखना, जैसे ही कोई बच्चा उस बोरवेल में गिरे, मुझे इस नंबर पर फोन कर देना. किसी और को मत बताना. मैं तुम्हें ईनाम दिलवा दूँगा.” यदि यही स्थिति रही तो मीडिया पर से विश्वास उठ जाना निश्चित है.

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यह पहले भी संकेत किया जा चुका है कि लघुकथा के गठन में आरंभ, चरमोत्कर्ष और अंत का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है. प्रायः यह पाया जाता है कि लघुकथा का आरंभ तनाव, द्वंद्व, आक्रोश या असमंजस की स्थिति के साथ होता है या फिर कौतूहलता व जिज्ञासा के साथ. श्याम सुंदर अग्रवाल की लघुकथाओं के आरंभ शिल्प और अंत शिल्प को ही देखें. कुछ लघुकथाएँ किसी-न-किसी तरह की सूचना और कौतूहलता के साथ प्रारंभ होती हैं. उदाहरण के लिए – 

(अ) अपनी अलमारी के लॉकर में रखी कोई वस्तु जब पत्नी को न मिलती तो वह लॉकर का सारा सामान बाहर निकाल लेती. इस सामान में चाँदी की छोटी-सी एक डिबिया भी होती. सुंदर तथा कलात्मक डिबिया. इस डिबिया को वह बहुत सावधानी से रखती. उसने डिबिया को छोटा-सा ताला भी लगा रखा था. मुझे या बच्चों को तो उसे हाथ भी न लगाने देती. वह कहती, ‘इसमें मेरा अनमोल खजाना है, जीते जी किसी को छूने भी न दूँगी.’ (अनमोल खजाना) : इस लघुकथा का आरंभ इस सूचना से होता है कि अलमारी के लॉकर में रखी कोई वस्तु जब पत्नी को न मिलती तो वह परेशान हो जाती है. उसकी परेशानी ‘लॉकर का सारा सामान बाहर निकाल लेती’ से अभिव्यक्त हो रही है. ‘चाँदी की छोटी-सी एक डिबिया’, ‘डिबिया को छोटा-सा ताला भी लगा रखा’, ‘मुझे या बच्चों को तो उसे हाथ भी न लगाने देती’, ‘मेरा अनमोल खजाना’ तथा ‘जीते जी किसी को छूने भी न दूँगी’ आदि से उस अनमोल खजाने का संकेत मिल जाता है जो उसे अपनी जान से भी प्यारा है. इस लघुकथा का विकास उत्सुकता से होता है कि उस डिबिया में क्या रखा है? वह ‘अनमोल खजाना’ आखिर क्या है? इसका अंत रहस्योद्घाटन से होता है जब पति उस डिबिया को खोलकर देखता है. “मैंने थैली खोलकर पलटी तो पत्नी का अनमोल खजाना मेज पर बिखर गया. उसमें वर्तमान के ही कुल आठ सिक्के थे – तीन सिक्के दो रुपए वाले, तीन सिक्के एक रुपए वाले और दो सिक्के पचास पैसे वाले. कुल मिलाकर दस रुपए.” 

(आ) दस वर्ष की एक बच्ची डॉक्टर के कक्ष से रोती हुई बाहर निकली. उसकी माँ उसे बेंच पर बैठाकर बाहर सड़क की ओर निकल गई. (डर) : इस लघुकथा का आरंभ पाठकों में जिज्ञासा जागृत करता है कि आखिर दस वर्ष की बच्ची डॉक्टर के कक्ष से रोती हुई बाहर क्यों निकली और उसकी माँ वहीं उसे एक बेंच पर बैठाकर बाहर सड़क की ओर क्यों निकल गई! आसपास के लोगों के जिज्ञासावश पूछने पर बच्ची कहती है कि उसे अस्पताल में दाखिल होना पड़ेगा. इस लघुकथा का अंत पाठकों के हृदय को द्रवित कर देता है. बच्ची आँसुओं से भीगे चेहरे को ऊपर उठाकर बताती है, “मेरे पापा के पैसे खर्च होंगे! ××× फिर मेरी दीदी की शादी कैसे होगी? ...पैसे तो पहले ही कम पड़ रहे हैं.” इससे यह स्पष्ट है कि आर्थिक विपन्नता के कारण मासूम बच्चे समय से पहले ही ‘बड़े’ हो जाते हैं. 

(इ) एक हमदर्द की मदद से वह दुश्मन की कैद से भाग निकलने में कामयाब हो गया. छिपते-छिपते किसी तरह सरहद पार कर उसने अपने देश की धरती पर कदम रखा. पता नहीं जंग के दौरान हालत में कैदी बनाए जाने के बाद उसने दुश्मन की जेल में कितने वर्ष बिताए थे. (शहीद की वापसी) : यहाँ लघुकथाकार ने सैनिक जीवन की कठिनाइयों के खुलासे के साथ कथा का आरंभ किया है. कथा को आगे विकसित करते हुए यह दर्शाया गया है कि सरकार द्वारा सैनिक के परिवार को दी गई जमीन को गाँव का सरपंच हड़प लेता है (मिली थी जमीन, बड़ी जूतियाँ तुड़वाने के बाद. पर वह सरपंच ने संभाल ली, जिसने गाँव के बाहर तेरे नाम का बोर्ड लगाया है). कमरे की कच्ची दीवार पर टंगी अपनी जवानी की तस्वीर देखने के बाद शीशे में अपना चेहरा देख कर रोते हुए सैनिक के चित्रण के साथ इस लघुकथा अंत हो जाता है. 

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व्यंग्य लघुकथा को मारक शक्ति प्रदान करता है. श्याम सुंदर अग्रवाल की कुछ लघुकथाओं में व्यंग्य शिल्प भी द्रष्टव्य है. इस दृष्टि से ‘सरकारी मेहमान’, ‘सिटिजन-चार्टर’, ‘योद्धा’, ‘लोकसेवक’, ‘वर्दी की ताकत’, ‘गिद्ध’, ‘शहीद की वापसी’, ‘रावण जिंदा है’ आदि लघुकथाएँ उल्लेखनीय हैं. ‘सरकारी मेहमान’ में यह दर्शाया है गया कि अधिकारी सरकारी दौरे के नाम पर किस तरह अपना निजी कार्य करते हैं और सारा खर्च सरकारी खाते में डाल देते हैं – “प्रोग्राम! कहकर दूसरा अधिकारी थोड़ा मुस्कुराया. उसने इधर-उधर देखा और फिर धीमी आवाज में बोला, थोड़ी देर वर्क्स की चेकिंग करेंगे, नाम को. फिर डॉक्टर नंदा से पत्नी के दाँतों का इलाज करवाना है. शाम को एक दोस्त के बेटे की बर्थ-डे पार्टी अटैंड करेंगे. ××× सरकारी फंड्ज़ में से ही इधर-उधर करने हैं.”

‘गिद्ध’ शीर्षक लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि किस तरह लोग गिद्ध की तरह एक व्यक्ति की मृत्यु के लिए इंतजार करते हैं ताकि छुट्टी का आनंद ले सकें. आजाद की मृत्यु पर व्यक्तियों की टिप्पणियाँ देखें - “इसे मरना तो था ही, दो दिन और ठहर जाता. भला शनिवार भी कोई मरने का दिन है! ××× बुड्ढा दो दिन न सही, एक दिन तो और सांस खींच ही सकता था. रविवार को मरता तो सोमवार की तो सरकार छुट्टी करती ही. ××× आजाद जिस दिन बीमार हो अस्पताल पहुँचा, मैं तो उसी दिन से इसकी मौत पर दो छुट्टियों की आस लगाए बैठा था. सोचा था, एक-आध छुट्टी और साथ मिलाकर कहीं घूम-फिरकर आएँगे. पर इसने सारी उम्मीदों पे पानी फेर दिया!” 

कहा तो जाता है कि इस लोकतांत्रिक देश में यदि किसी भी नागरिक के मानवाधिकारों का उल्लंघन हो जाए तो उन्हें पूरा-पूरा हक है कानून का दरवाजा खटखटाने का, लेकिन सच इसके काफी उलट है. सिटिजन-चार्टर’ में यह दिखाया गया है कि एक ईमानदार व्यक्ति को किस तरह ड्राइविंग लाइसेंस पाने के लिए जूझना पड़ता है. सुभाष सुविधा-केंद्र में ड्राइविंग लाइसेंस बनवाने के लिए कागज दाखिल करवाकर खुश होता है क्योंकि बिना रिश्वत के एक हफ्ते में उसे लाइसेंस मिल जाना चाहिए. लेकिन डेढ़ माह चक्कर लगाने पर भी काम नहीं होता तो वह शिकायत दर्ज करवाता है. विडंबना की बात है, इन्साफ मिलने के बजाय सहमति-पत्र पर उसे हस्ताक्षर करना पड़ता है. 

यह भी हमारे समय की बड़ी विडंबना है कि युवा पीढ़ी प्रेम और तज्जनित स्वतंत्रता का तो उपयोग करना चाहती है लेकिन परिवार में माता-पिता के समक्ष अपने प्रेम का स्वीकार करने का साहस नहीं रखती. यदि लड़की हिम्मत करके कह भी देती है तो लड़का हिम्मत नहीं कर सकता क्योंकि वह कहीं-न-कहीं इस बात से डरता है कि उसे घर से और जायदाद से बेदखल न कर दिया जाए. ‘बच्चा’ शीर्षक लघुकथा में लड़का कहता है कि वह अनके पिता के खिलाफ जाकर कुछ नहीं कर सकता क्योंकि उसे घर से बाहर कर दिया जाएगा. पर वह चाहता है कि लड़की उससे रोज पार्क में मिले तो वह उस पर व्यंग्य कसती है, “सॉरी अजय, मैं डैड की गोद में खेल रहे किसी ‘बच्चे’ से प्यार नहीं करना चाहती.” 

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भाषा की दृष्टि से श्याम सुंदर अग्रवाल की लघुकथाओं को परखने से सामाजिक परिस्थिति, परिवेश और कथ्य के अनुरूप सफल भाषा प्रयोग के संदर्भ सामने आते हैं. साथ ही, कथ्य को सशक्त रूप से अभिव्यक्त करने के लिए लघुकथाकार ने अव्ययों का; और साथ ही बात पर बल देने के लिए अल्पविराम, प्रश्न चिह्न आदि का प्रयोग किया है.

संवाद : कई लघुकथाओं में संवाद प्रोक्ति का प्रभावशाली प्रयोग किया गया है. उदाहरणार्थ, ‘बच्चा’ में बताते क्यों नहीं, क्या कहा, क्या बताऊँ, कहने के लिए बहुत जोर लगाना पड़ा, क्यों नहीं बताया, क्या कहा उन्होंने, क्या सोचा, किसलिए जैसे प्रश्नवाचक प्रयोग संवाद की भंगिमा को पाठक से जोड़ देते हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि पाठक लिखित भाषा नहीं पढ़ रहे हैं अपितु उच्चरित भाषा को ही सुन रहे हैं. 

विवरण : लघुकथाकार ने प्रायः विवरणों के माध्यम से घटनाओं का खुलासा किया है. जैसे, “गली-बाजारों से होता हुआ वह ‘दशहरा मैदान’ की ओर बढने लगा. आबादी के दूर तक फैल जाने के कारण दशहरा मैदान के प्रवेश-द्वार वाला रास्ता काफी तंग हो गया था. भीड़ बढ़ती जा रही थी. जब वह दशहरा मैदान के गेट के पास पहुँचा तो उसका दम घुटने लगा. अचानक ही भीड़ का एक तेज रेला आया और उसे अपने साथ घसीटता हुआ मैदान के भीतर ले गया. कुछ जनाना और मरदाना चींखें सुनाई दीं. उसने देखा कि बदमाश-से दिखने वाले दो नौजवान दो युवतियों के शरीर के एक-एक अंग की गिनती कर रहे थे और पुलिस तमाशबीन बनीं खड़ी थी.” (रावण जिंदा है). : देखा जा सकता है कि इसमें लघुकथाकार ने छोटे-छोटे सरल वाक्यों का संयोजन किया है जो सहज बन पड़ा है. 

निपातों का प्रयोग : वाक्य में निपातों का प्रयोग कथन को महत्व प्रदान करता है. किसी बात पर विशेष बल देने के लिए इनका प्रयोग किया जाता है. अर्थगाम्भीर्य के लिए श्याम सुंदर अग्रवाल ने लघुकथाओं में ‘ही’ और ‘तो’ का अनेकशः प्रयोग किया है. उदाहरण के लिए – 

(अ) सामाजिक रीति-रिवाजों का निर्वाह तो करना ही पड़ता है. (रिश्ते) 

(आ) तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा. (माँ का कमरा) 

(इ) इसे मरना तो था ही, दो दिन और ठहर जाता. (गिद्ध) 

(ई) सुमन को लुभाने के लिए ही तो उसने ससुराल के नजदीक ट्रांसफर करवाया. (वापसी-1)

(उ) बच्चों के लिए ही दूसरी शादी कर रहा हूँ. (रांग नंबर) 

(ऊ) अगर पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो? (भिखारिन) 

(ऋ) जब दूसरे बच्चे के लिए भीख माँगूँगी और लोग उसके बाप का नाम पूछेंगे तो क्या बताऊँगी? (भिखारिन)

(ए) अभी तो डिब्बा आधा ही हुआ है. (रहबर) 

क्रिया + कर (पूर्वकालिक कृदंत) संरचना वाले कृदंत प्रयोग : इससे ‘किए जाने’ की सूचना मिलती है. पात्रों की मानसिक स्थिति को उजागर करने के लिए भी इसका प्रयोग किया गया है. जैसे – 

(अ) अपना साजो-सामान समेटकर जाने की तैयारी कर रहे एक संवाददाता (उत्सव) 

(आ) फिर थोड़ा रुककर बोले (टूटी हुई ट्रे) 

(इ) बाहर पहुँचकर उसने अपने छोटे भाई से कहा (रोटी की ताकत) 

स्थानीय भाषा का प्रयोग : स्थानीय भाषा अथवा बोलीगत प्रयोग पात्रों के सामाजिक स्तर के अनुरूप किए गए हैं. प्रायः निम्नवर्गीय या अशिक्षित पात्रों के लिए स्थानीय भाषा का चयन किया गया है. उदाहरण के लिए - 

(अ) हम तो हफ्ता में दो दिन भी भूख रहन नै तैयार साँ (मरुस्थल के वासी) : गरीबों की बस्ती में जाकर मंत्रीजी लोगों को संबोधित करते हुए यह कहते हैं कि देश में भयंकर सूखा पड़ने के कारण देशवासियों को भूख से बचाने के लिए सबको सप्ताह में कम से कम एक दिन का उपवास रखना है तो भीड़ में से एक व्यक्ति उठकर उक्त कथन कहता है. 

(आ) सरकार, हमनै बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ तै मिलैगा? (मरुस्थल के वासी) : एक गरीब मंत्री जी से प्रश्न करता है कि सप्ताह में हम दो दिन भूखे रहेंगे पर बाकी पाँच दिन का राशन कहाँ से प्राप्त होगा! इसमें व्यंजना निहित है. यही यथार्थ है इस देश के गरीबों का. लघुकथा का शीर्षक ‘मरुस्थल के वासी’ भी व्यंग्यात्मक ही है. 

(इ) बाप इसका तो दारू पी कै पड्या रवै सारा दिन. उसकी निगा तो मन्नै ठेकेदार सै बी खराब लगै. ठेकेदार सै तो मैं बचा लूँगी, उससै कौन बचावेगा छोरी नै? (औरत का दर्द) : बस्ती में रहने वाले पुरुषों की स्थिति को उजागर करने के लिए बोलीगत प्रयोग किया गया है. पुरुष सारी कमाई दारू पर उड़ा देते हैं. नशे में अपनी मनुष्यता भी खो बैठते हैं. रक्षक भक्षक बन जाते हैं. 

विस्मयादिबोधक का प्रयोग : मन के विस्मय, हर्ष, शोक आदि भावों को प्रकट करने के लिए वस्तुतः विस्मयादिबोधक चिह्न का प्रयोग किया गया है. जैसे- 

(अ) मैं ! नहीं तो. (बच्चा) 

(आ) माँ का कर्ज ! (कर्ज) 

(इ) गरीबों के हमदर्द, जिंदाबाद ! (हमदर्द) 

(ई) तो तुझे मरा हुआ समझ लिया गया है ! (शहीद की वापसी) 

(उ) और इस इधर-उधर में अपने हाथ भी कुछ लगेगा ही ! (सरकारी मेहमान) 

(ऊ) नाम ! मेरे नाम से तुझे क्या लेना-देना? (भिखारिन)

(ऋ) बच्चा भूखा है, कुछ दे दे सेठ ! (भिखारिन) 

(ए) मरते वक्त किसे दुख या चिंता नहीं होती ! (सिपाही) 

प्रश्न चिह्न का प्रयोग : 

(अ) अजय, तुम चुप क्यों कर गए? (बच्चा) 

(आ) स्कूल में सब ठीक-ठाक है? (लोकसेवक) 

(इ) बोल कितने पैसे चाहिए तुझे? (वर्दी की ताकत) 

(ई) क्या चीफ साहब सरकारी दौरे पर आ रहे हैं? (सरकारी मेहमान) 

(उ) मेरे विचारधारा को जानने वाले मित्र इसे देखेंगे तो क्या सोचेंगे? (घर) 

पुनरावृत्ति का प्रयोग : 

(अ) सरकार की दी सिलाई मशीन चला-चला कर ही तो यह हाल हुआ है. (शहीद की वापसी) 

(आ) राजकीय विश्राम-गृह की चारदीवारी के भीतर आज बहुत गहमा-गहमी थी. (सरकारी मेहमान) 

(इ) बस्ती से वाकिफ कुछ लोग आगे-आगे चल रहे थे. (हमदर्द) 

(ई) फिर काफिला नेता जी की जय-जयकार करता हुआ अगली झोंपड़ी की ओर बढ़ जाता. (हमदर्द)

(उ) बिजली वैसे ही नहीं आती सारा-सारा दिन. (लोकसेवक) 

(ऊ) कड़-कड़ की आवाज ने मेरी तंद्रा को भंग किया. (बुजुर्ग रिक्शावाला) 

(ऋ) लोग औरत को तड़पा-तड़पाकर मार देते हैं. (बेड़ियाँ)

अल्पविराम का प्रयोग : 

(अ) मिली थी जमीन, बड़ी जूतियाँ तुड़वाने के बाद. (शहीद की वापसी) 

(आ) मैं क्या करूँ जी, दफ्तर में पाँच की जगह केवल दो ही कर्मचारी हैं. (सिटिजन-चार्टर) 

(इ) अब तो रिटायर होने वाले हो, दफ्तर का मोह त्याग दो. (बुढ़ापे के लिए) 

(ई) ऐसा कर, साल के पहले छह महीने इन्हें तू रख लेना, बाद के छह महीने मैं रख लूँगा. (बँटवारा)

अप्रस्तुत विधान : 

(अ) काले कोट वाला टिकट-निरीक्षक यमदूत की तरह सामने खड़ा था. (योद्धा) 

(आ) गहरी रात के अंधेरे में बाज ने पंख फड़फड़ाए और निरीह चिड़िया पर झपट पड़ा. चिड़िया छटपटाई, मिन्नत की – ‘बाबा ! मुझे छोड़ दो, तुम्हारी बेटी समान हूँ.’ (टूटा हुआ काँच) 

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निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि श्याम सुंदर अग्रवाल अपनी लघुकथाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त मूल्यहीनता, मानवाधिकारों के हनन और सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व नैतिक विडंबनाओं पर सीधे सीधे प्रहार करते हैं. गरीबी और भूख के अमानुषिक सच को उन्होंने इस तरह उकेरा है कि व्यंजनापूर्ण शब्दावली पाठक के हृदय को छील देती है. वे सरल संप्रेषणीय भाषा प्रयोग द्वारा भ्रष्ट शासन व्यवस्था पर व्यंग्य कसते ही हैं अनेक लघुकथाओं के अंत में झिड़की भी देते हैं.

4 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

तथ्यपरक विश्लेषण

Unknown ने कहा…

तथ्यपरक विश्लेषण

कविता रावत ने कहा…

श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथाओं की सुन्दर समीक्षा प्रस्तुति हेतु धन्यवाद!

विभा रानी श्रीवास्तव ने कहा…

आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 01 दिसंबर 2018 को लिंक की जाएगी ....http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!