शुक्रवार, 26 मई 2017

साधो, यह मुर्दों का गाँव !

महाभारत का एक बड़ा प्रसिद्ध प्रसंग है – यक्ष और युधिष्ठिर के प्रश्नोत्तर. यक्ष ने जो सीधे सवाल युधिष्ठिर से किए थे, उनमें एक यह भी था कि सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है. आप जानते ही हैं कि युधिष्ठिर ने बिना किसी प्रकार के द्वंद्व के यह जवाब दिया था कि - अनेकानेक प्राणी प्रतिदिन मृत्यु के घर जा रहे हैं; यह देखते हुए भी शेष प्राणी सदा जीवित रहने की ही कामना करते हैं; भला इससे बड़ा आश्चर्य और क्या होगा!

जो उत्पन्न हुआ है, उसकी मृत्यु निश्चित है; यह जानते हुए भी मनुष्य अमरत्व की कामना करता है. उसे मृत्यु नहीं, शाश्वत अमरता चाहिए; जो आध्यात्मिक स्तर पर भले ही संभव हो, भौतिक स्तर पर संभव नहीं. अवतार और पैगंबर को भी देह त्यागनी ही पड़ती है. हमारे संत साहित्य में इसीलिए बार-बार देह और भौतिक जगत की क्षणभंगुरता की याद दिलाई गई है. भारतीय परंपरा इस लोक को मरणशील प्राणियों का आवास बताती है और ऐसे सत्कर्मों की प्रेरणा देती है जिनके द्वारा जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हुआ जा सके. 

संत कबीर (1398 ई. -1518 ई.) ने भी अपनी बानियों में अनेक स्थानों पर मृत्यु की अनिवारता की चर्चा की है. वे याद दिलाते हैं कि कुशलता के समाचार लेते-देते ही सब प्राणी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं. मृत्यु को कहीं से आना थोड़े ही है, हर क्षण आपके केश उसकी मुट्ठी में हैं – जब चाहे जहाँ चाहे जैसे चाहे आपकी मुंडी मरोड़ दे! आप हैं क्या चीज़; पानी का बुलबुला; डूबता हुआ तारा; कागज़ की पुडिया? थोड़ा सा रूप क्या मिल गया, थोड़ा सा बल क्या मिल गया, थोडा सा पैसा क्या कमा लिया, एक कुर्सी क्या पा ली, आप तो खुद को परमात्मा ही समझ बैठे ! आपका अस्तित्व ही क्या है? कितनी देर की है आपकी सत्ता? अरे, आप तो मिट्टी का घड़ा भर हैं, जो टूटेगा तो पता भी न चलेगा कि कहाँ गया! घड़े के बाहर-भीतर कहीं भी आप नहीं हैं; परमात्मा रूपी पानी ही पानी है. आपकी सत्ता माया है; भ्रांति है केवल! आत्मतत्व की पहचान के बिना तो आप और आपके साथी-संगी सब मृत हैं, मुर्दा हैं. जहाँ केवल मुर्दे ही मुर्दे बसते हों, उसे मुर्दों का गाँव ही कहा जाएगा न? ... तो सुनिए, संत कबीर क्या कह रहे हैं-

साधो ! यह मुर्दों का गाँव
पीर मरे पैगंबर मरिहैं, मरिहैं जिंदा जोगी
राजा मरिहैं परजा मरिहै. मरिहैं बैद और रोगी
चंदा मरिहै सूरज मरिहै. मरिहैं धरणि आकासा
चौदां भुवन के चौधरी मरिहैं, इन्हूं की का आसा
नौहूं मरिहैं दसहूं मरिहैं. मरि हैं सहज अठ्ठासी
तैंतीस कोट देवता मरि हैं, बड़ी काल की फाँसी
नाम अनाम अनंत रहत है, दूजा तत्व न होई 
कहत ‘कबीर’ सुनो भाई साधो! भटक मरो ना कोई

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