सोमवार, 18 दिसंबर 2017

तेलुगु साहित्य : एक अंतर्यात्रा (शुभाशंसा : देवराज)

तेलुगु साहित्य : एक अंतर्यात्रा/ गुर्रमकोंडा नीरजा
ISBN : 978-93-84068-35-6
2016/ मूल्य : रु. 80/ पृष्ठ 231/ परिलेख प्रकाशन, नजीबाबाद 
प्राप्ति स्थल : श्रीसाहिती प्रकाशन, 303 मेधा टॉवर्स 
राधाकृष्ण नगर, अत्तापुर रिंग रोड, हैदराबाद - 500048 
मोबाइल : 09849986346


शुभांशसा



बौद्धिक विमर्श के क्षेत्र बढ़ने के साथ ही उसे प्रभावित करने वाली शक्तियों की संख्या में भी बढोत्तरी हो रही है. सूचनाएँ, तथ्य, क्षेत्र-अध्ययन की विधियाँ, मशीन, नवीन संस्कृतिकरण की चुनौतियाँ, साहित्य और समाजविज्ञान की निरंतर बढ़ती निकटता, भाषाओं के सामने अकस्मात विस्तार पाने और अचानक संकुचित हो जाने के संकट, राजनैतिक अर्थशास्त्र और सशस्त्र संघर्ष के बीच अदृश्य संबंध आदि ने मनुष्य और विमर्श के बीच एक नए संबंध का ढाँचा खड़ा कर दिया है और इसी ढाँचे के भीतर विमर्श की नई-नई शैलियाँ विकसित हो रही हैं. साहित्य की वर्तमान बहसें उसी का अहम हिस्सा हैं. हमारे सामने जो अनगिनत समस्याएँ हैं, उनमें से एक यह है कि साहित्य के रास्ते जीवन की भीतरी दीवारों में छिपे गलियारों को जानने के लिए ज़रूरी समझ कहाँ से उपलब्ध करें. इसमें संदेह है कि एकल साहित्यिक अध्ययन इसमें अधिक दूर तक हमारी सहायता कर सकते हैं. तब हमें अंतर-विषयक और अंतर-अनुशासनिक अध्ययन के निष्कर्ष स्वरूप प्राप्त साहित्यिक जानकारियाँ जुटाने की कोशिश करनी होगी. 

‘तेलुगु साहित्य : एक अंतर्यात्रा’ इसी कोशिश की समर्थ कड़ी प्रतीत होती है. अन्नमाचार्य, गायकब्रह्मा त्यागराज, गुरजाडा अप्पाराव, नागेश्वर पंतुलु, कवि सम्राट विश्वनाथ सत्यनारायण से लेकर सी. नारायण रेड्डी, ज्वालामुखी, श्री श्री, एन. गोपि, वरवर राव आदि ने तेलुगु भाषा के माध्यम से समग्र भारतीय साहित्य को चिंतन और विचार के बहुत सारे आयाम प्रदान किए हैं. प्रस्तुत पुस्तक में उनमें से अनेक आयामों का विश्लेषण किया गया है. तेलुगु के संत कवियों के साथ-साथ दलित और मुस्लिमवादी कविता आंदोलनों पर किया गया विचार दो भिन्न धरातलों की सचाई को सामने लाता है. इन सभी लेखों की केंद्रिकता हमारी बौद्धिक-संपदा को बढ़ाने वाली है. 

तेलुगु साहित्य के विविध पक्षों की व्याख्या करने वाली इस पुस्तक की महत्ता दो अन्य दृष्टियों से समझने की आवश्यकता है. एक यह कि तेलुगु भाषा भारत के कई प्रांतों के साथ ही विश्व के अनेक देशों में रहने वाले लोगों द्वारा व्यवहार में लाई जाती है. दूसरी बात यह कि उसके बोलने वाले अनेक भाषाओं के लोगों के संपर्क में रहते हैं. इसे अन्य ढंग से यों कह सकते हैं कि अनेक देशी-विदेशी भाषाएँ तेलुगु की साहित्यिक प्रकृति से परिचित हो रही हैं. ऐसे में यह ज़रूरी है कि तेलुगु भाषा और उसके साहित्य का विश्लेषण एक ऐसी भाषा में उपलब्ध हो, जिस तक अन्य भाषा भाषियों की आसान पहुँच हो. ऐसी भाषा हिंदी ही हो सकती है. इस आधार पर यह पुस्तक ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह करेगी. 

डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा तेलुगु साहित्य की गंभीर अध्येता ही नहीं हैं, बल्कि उनके भीतर यह भावना भी है कि वे अन्य भाषाओं से संबंध रखने वाले पाठकों के साथ अपने ज्ञान का साझा करें. भाषाई अध्ययन, साहित्य और अनुवाद से जुड़ी होने के कारण वे अपनी भावना को मूर्त रूप देते हुए एक के बाद एक ग्रंथ हिंदी भाषा में प्रस्तुत कर रही हैं. इससे भारतीय साहित्य की निरंतर समृद्धि का मार्ग प्रशस्त हो रहा है. वे हम सभी के साधुवाद की पात्र हैं.

आशा है, उनका लेखन और भी गति पकड़ेगा. 

शुभकामनाएँ.

                                                                                                                                  - प्रो. देवराज 
                                                                                              अधिष्ठाता : अनुवाद एवं निर्वाचन विद्यापीठ
                                                                                         महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय 
                                                                                                       गांधी शिखर, वर्धा- 442 005 (महाराष्ट्र) 

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