बुधवार, 30 अक्टूबर 2019

चित्रा मुद्गल की कहानियों का सांगोपांग अध्ययन

चित्रा मुद्गल की कहानियों में यथार्थ और कथाभाषा
 डॉ. संगीता शर्मा/ 2019/ रु. 350/ पृष्ठ : 214 
सृजलोक प्रकाशन, बी-1, दुग्गल कॉलोनी, खानपुर, नई दिल्ली - 110062  
बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों और इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभिक दशकों के लगभग पचास वर्ष के काल खंड में अपनी रचनाधर्मिता की अलग पहचान बनाने वाली लेखिका चित्रा मुद्गल कथासाहित्य के अध्येताओं के लिए एक चुनौतीपूर्ण रचनाकार रही हैं। वे एकांत अध्ययन कक्ष में बैठकर काल्पनिक संसार बुनने वाली लेखिका नहीं हैं। बल्कि एक सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता की तरह यथार्थ जगत में उपस्थित रहने वाली लेखिका हैं। वास्तविक जीवन से सजीव और सक्रिय रिश्ते के कारण उनके अनुभव बहुत गहरे, सूक्ष्म, विराट और व्यापक है। अनुभव की यह सच्चाई उनकी अभिव्यक्ति को भी धार प्रदान करती है। यही कारण है कि उनकी कहानियाँ विषयवस्तु और भाषाशैली जैसे दोनों धरातलों पर यथार्थ से अनुप्राणित दिखाई पड़ती हैं।

चित्रा मुद्गल की कहानियों की इसी मूलभूत विशेषता को डॉ.संगीता शर्मा (1969) ने अपनी ताजा शोधपूर्ण कृति ‘चित्रा मुद्गल की कहानियों में यथार्थ एवं कथाभाषा’ (2019) में अत्यंत पैनीदृष्टि से प्रतिपादित, विवेचित और विश्लेषित किया है। यही कारण है कि स्वयं लेखिका चित्रा मुद्गल ने उन्हें साधुवाद और आशीर्वाद देते हुए 5 सितंबर, 2019 को लिखे पत्र में यह स्वीकार किया है कि “यह तो सच है कि कहानियाँ जीवन यथार्थ की ही अभिव्यक्ति होती हैं। कुछ अपने जिए-भोगे का यथार्थ होते हैं कुछ नजदीक से देखे जीवन के अनुभव जनित संसार का हिस्सा। तुमने अपने अध्यवसाय और गहन विश्लेषण विवेचन के माध्यम से इन कहानियों में मानव जीवन के यथार्थ और उसकी प्रासंगिकता को उसके पात्रों, घटनाओं और परिस्थितियों के आधार पर रेखांकित किया है, यह सराहनीय है।”

लेखिका डॉ.संगीता शर्मा ने ‘आदि-अनादी’ शीर्षक से तीन खंडों में प्रकाशित चित्रा मुगल की समस्त कहानियों का विहंगम परिचय कराने के बाद विस्तार से व्यक्तिपरक यथार्थ की दृष्टि से उनका विश्लेषण किया है। और दिखाया है कि अहं, द्वंद्व, घुटन, संत्रास, अकेलापन और आत्मनिर्वासन जैसी आधुनिक जीवन शैली से जुड़ी मनोविकृतियाँ आधुनिक मनुष्य के जीवन को नारकीय बनाए रही हैं।

इसके अलावा सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक यथार्थ के विविध पहलुओं की अभिव्यक्ति की दृष्टि से इन कहानियों का विवेचन-विश्लेषण करते हुए लेखिका ने यह प्रतिपादित किया है कि आधुनिक जीवन का कोई भी मार्मिक कोण चित्रा मुद्गल की कलम की नोक से अछूता नहीं रह सका है। कहना न होगा कि जीवन और जगत के यथार्थ के इस गहरी पहचान ने ही चित्रा मुद्गल को हमारे समय की महान लेखिका बनाया है।

इस पुस्तक का भाषा विश्लेषण विषयक अंश अपने आप में विशिष्ट ही नहीं स्वतःपूर्ण भी है। यथार्थपरक भाषा प्रयोग की पड़ताल करते हुए जहाँ परिवार और समाज में अलग-अलग स्तरों पर बदलती भाषा के रंग देखे और दिखाए गए हैं वहीं शैली के स्तर पर शब्दों के चुनाव और उक्तियों के गठन में निहित समाजशास्त्रीय दृष्टि और बुनावट के सौंदर्य को उजागर किया गया है। विश्वास और बुनावट के सौंदर्य को उजागर किया गया है। विश्वास किया जाना चाहिए कि विशेष रूप से कथाभाषा और शैलीविज्ञान को आधार बनाकर अनुसंधान करने वाले शोधर्थियों के लिए यह पुस्तक बड़े काम की चीज साबित होगी। साधारण पाठक भी चित्रा मुद्गल के कथाकार व्यक्तित्व के अलग-अलग आयामों से परिकित होने के लिए इस पुस्तक को उपयोगी पाएँगे।

हिंदी कुंज पर प्रकाशित

बुधवार, 16 अक्टूबर 2019

यथार्थ की खूँटी पर सपनों का आकाश

खूँटी पर आकाश (निबंध संग्रह)/ ज्ञानचंद मर्मज्ञ 
2018/ 112 पृष्ठ /  रु. 200/  
प्रकाशक : ज्ञानचंद मर्मज्ञ, नं.13, तीसरा क्रॉस, के.आर.लेआउट,
छठवाँ फेज, जे.पी.नगर, बेंगलूरू – 560078
मोबाइल : 9845320295. 

ज्ञानचंद मर्मज्ञ (1959) पिछले तीन दशक से अधिक समय से कर्नाटक में रहकर हिंदी भाषा और साहित्य के प्रचार-प्रसार और विकास के लिए सतत प्रयत्नशील हैं। कवि, पत्रकार और निबंधकार के रूप में उन्होंने वहाँ अच्छी ख़ासी ख्याति अर्जित की हैं। उनकी गद्य और पद्य रचनाएँ विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में शामिल हैं तथा वे स्वयं भारत सरकार के संचार मंत्रालय के तहत बैंगलूर टेलिकॉम डिस्ट्रिक्ट की सलाहकार समिति के सदस्य के रूप में मनोनीत हैं। ‘मिट्टी की पलकें’ काव्य संग्रह, ‘बालमन का इंद्रधनुष’ बाल कविता संग्रह और ‘संभव है’ निबंध संग्रह के बाद अब उनकी चौथी पुस्तक के रूप में एक और निबंध संग्रह आया है ‘खूँटी पर आकाश’ (2018)। 

इस संग्रह में लेखक के कुल 22 निबंध संकलित हैं जिन्हें व्यक्तिव्यंजक अथवा ललित निबंध कहा जा सकता है। इन निबंधों के विषय अत्यंत विविधतापूर्ण है जिनसे लेखक के सरोकारों की व्यापकता का पता चलता है। समसामयिक, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थितियों पर टिप्पणी करते हुए लेखक यथास्थान कटाक्ष भी करता चलता है – कभी मीठी चुटकी के रूप में तो कभी तीखी चोट के रूप में। 

कुछ स्थानों पर ज्ञानचंद मर्मज्ञ हिंदी के आरंभिक लेकिन कालजयी निबंधकार प्रताप नारायण मिश्र की मुहावरेदानी और वाक् चातुरी की याद दिलाते हैं तो कुछ अन्य स्थानों पर हजारी प्रसाद द्विवेदी और विद्यानिवास मिश्र के काव्यात्मक गद्य का स्मरण कराते हैं। बीच-बीच में किस्सागोई और संसमरणात्मकता के कारण ये निबंध कभी रामचंद्र शुक्ल तो कभी महादेवी वर्मा के गद्य की स्मृतियों को ताजा करते हैं। इसका अर्थ न तो यह है कि ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने इन गद्यकारों का अनुकरण किया है और न ही यह कि वे इनके समान हैं। बल्कि कहने का अभिप्राय इतना ही है कि ज्ञानचंद मर्मज्ञ ने हिंदी निबंध की पूरी परंपरा को आत्मसात करके अपने गद्य लेखन को अपने व्यक्तित्व की धार प्रदान की है। इसीलिए खूँटी, झुर्री, शून्य, बेंच, चप्पल, बाल और रंग जैसे प्रत्यक्ष विषयों से लेकर अस्तित्व, सत्य और स्वतंत्रता जैसे अमूर्त विषयों पर वे समान कुशलता और सफलता से लेखनी चला सके हैं। 

इन निबंधों में लेखक की मान्यताएँ बड़े स्पष्ट रूप में मुखरित हुई हैं। वे मानते हैं कि मनुष्य के प्राकृतिक भोलेपन की मिठास उसकी सच्छी पहचान की गरिमा में छिपी हुई होती है (पृ.14), बिना मतलब के सबसे लिपट-लिपटकर प्यार लुटाना शहर की सभ्यता नहीं है (पृ.15), झुर्री के रूप में बदन की दरारों में जीवन के शाश्वत संदर्भों की परिभाषाएँ अंकुरित होती हैं (पृ.21), उजाला सबको प्रिय है परंतु आँखें होते हुए भी ‘अँधेरा’ देखने वालों की भी कमी नहीं है (पृ.31), जिस भूख ने कभी आदमी को जानवर से मनुष्य बनाया, वही भूख आज मनुष्य को जानवर बना रही है (पृ.38), आकाश और खूँटी का संदर्भ उन लोगों के लिए निरर्थक है जो अपना आकाश दूसरों की खूँटी पर टाँग देते हैं और सफलता की ऊँची-ऊँची मीनारों पर चढ़कर अपनी पीठ स्वयं थपथपाते है (पृ.44)। ऐसी अनुभवजन्य उक्तियाँ इन निबंधों के हर एक पृष्ठ की खूँटी पर करीने से टंगी हुई हैं। 

इन ललित निबंधों में मनुष्यता और संस्कृति के संबंध में हमारे समय की चिंताओं को केवल अभिव्यक्ति ही नहीं मिली है बल्कि उनके समाधान भी उजागर हुए हैं। लेखक ज्ञानचंद मर्मज्ञ की इन चिंताओं में भाषा का प्रश्न भी बहुत बेचैनी पैदा करने वाला है। ‘मेरी मारीशस यात्रा’ में इसीलिए उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा है कि हिंदी के नाम पर कुछ कर देना और हिंदी के लिए कुछ ठोस करना, दोनों में बहुत अंतर है। वे मानते हैं कि हिंदी के वर्तमान परिदृश्य में विश्व हिंदी सम्मेलन की सार्थकता उलझी हुई दिखाई देती है। उनके ये प्रश्न बहुत कुछ कह जाते हैं कि “प्रश्न उठता है कि क्या हम हिंदी को इसी तरह घसीटते हुए लेकर आगे बढ़ेंगे? हिंदी तो अपने बलबूते पर विश्व-पटल पर विस्तार पा रही है। क्या यह आवश्यक नहीं कि पूरे विश्व का ढिंढोरा पीटने से पूर्व हम अपने घर को व्यवस्थित कर लें? क्या यह उचित है कि जिस हिंदी का शृंगार दुल्हन की तरह करके हम विश्व के सामने प्रदर्शित कर रहे हैं वह अपने ही देश में अनुवाद के कारावास में पड़ी सिसकती रहे?” (पृ.111)

अभिप्राय यह है कि ‘खूँटी पर आकाश’ के माध्यम से ज्ञानचंद मर्मज्ञ अपने पाठकों को रसानुभूति तो कराते ही है, वैचारिक उत्तेजना और ऊर्जा भी जगाते हैं। इसलिए इस पुस्तक को सुधी पाठकों का भरपूर आशीर्वाद मिलेगा, इसमें संदेह नहीं। 

मंगलवार, 30 जुलाई 2019

तेलंगाना में देवी पूजा की परंपरा : बोनालु

22 जून, 2014 को भारत के 29 वें राज्य के रूप में तेलंगाना राज्य का पुनर्गठन हुआ था। विविध लोकोत्सव इस राज्य को विशिष्ट निजी सांस्कृतिक पहचान प्रदान करते हैं। खास तौर से 'बोनालु' पर्व को तेलंगाना का सांस्कृतिक प्रतीक कहा जा सकता है जिसका संबंध देवी पूजा से है। 

विदित ही है कि देश भर में देवी पूजा की परंपरा है। तेलंगाना भी इसका अपवाद नहीं है। विशेष बात यह है कि तेलंगाना में ग्राम देवियों को अनेक नामों से पुकारते हैं - एलम्मा, पोचम्मा, नल्लपोचम्मा, मैसम्मा, गंडिमैसम्मा, नानचारम्मा, नूकालम्मा, पोलेरम्मा, मारेम्मा, पेद्दम्मा, गंगालम्मा, मुत्यालम्मा, महांकालम्मा, अंकालम्मा आदि। लोकजीवन में इनकी पूजा-अर्चना की अनेकविध परिपाटी मिलती है। देवी पूजा की परिपाटी के उदाहरण के रूप में एडुपायला जातरा और समक्का-सारलम्मा जातरा का उल्लेख किया जा सकता है। 

मेदक जिला के नागासनपल्लि ग्राम में स्थित एडुपायला सात नदियों का संगम स्थल है। एडुपायला वन दुर्गा भवानी का मंदिर तेलंगाना में सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली मंदिरों में से एक है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ प्रवाहित नदी की सात धाराएँ सात ऋषियों के नामों से बनी हैं - जमदग्नि, अत्रि, कश्यप, विश्वामित्र, वसिष्ठ, भरद्वाज और गौतम। हर शिवरात्रि को यहाँ जातरा (मेला) का आयोजन होता है। एडुपायला जातरा के अवसर पर भेड़-बकरी और मुर्गियों की बलि दी जाती है। यह त्योहार शिवरात्रि के दिन से शुरू होकर तीन दिनों तक चलता है। आसपास के 32 गाँवों से सैकड़ों सजी-धजी बैलगाडियों की शोभायात्रा निकलती है। इसे ‘बंडि उत्सवम’ (गाड़ियों का उत्सव) कहा जाता है। इसके बाद देवी माँ की रथयात्रा निकलती है। इसी प्रकार समक्का-सारलम्मा जातरा वरंगल जिला में स्थित कन्नापल्लि जंगल में शुरू होकर वरंगल से 90 किमी दूरी पर स्थित मुलुगु जिले के तड़वई मंडल के मेडारम में समाप्त होती है। इसलिए इसे मेडारम जातरा भी कहा जाता है। इस उत्सव में चार दिनों तक भक्त देवी माँ को सोना (गुड़) चढ़ाते हैं और सुख-समृद्धि की कामना करते हैं। कोया आदिवासियों का यह विशेष त्योहार एशिया का सबसे बड़ा जनजातीय त्योहार माना जाता है। ये दोनों जातराएँ यह प्रतिपादित करने के लिए पर्याप्त हैं कि तेलंगाना का सामान्य लोक देवीपूजक लोक है। 

इसी का परिणाम है कि विशेष रूप से हैदराबाद में मनाए जाने वाले देवीपूजा के पर्व बोनालु को लोकपर्व से राजपर्व की प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। तेलंगाना के राजकीय लोकपर्व बोनालु के जुलूस में महाकाली के विभिन्न अवतारों की अर्चना की जाती है। इसलिए इसे ‘महांकाली जातरा’ भी कहते हैं। पहले यह त्योहार मुख्य रूप से हिंदू समाज की हाशियाकृत जातियों में अधिक लोकप्रिय था। कालांतर में सभी जाति-वर्णों ने इसे अपना लिया। तेलंगाना के राजकीय पर्व के रूप में ख्याति अर्जित करने के बाद तो अब यह सबका पर्व हो चुका है। 

इस पर्व की मुख्य रीति है कि मन्नत माँगकर स्त्रियाँ देवी माँ को बोनम (भोजन) समर्पित करती हैं। बोनम अर्थात देवताओं को समर्पित किया जाने वाला भोजन या नैवेद्य। ‘बोनालु’ को हैदराबादी भाषा में ‘बोनाल’ कहा जाता है। ‘बोनालु’ शब्द ‘भोजनालु’ (भोजन) का बिगड़ा हुआ रूप है। आषाढ़ मास के पहले रविवार को शुरू होकर यह पर्व अंतिम रविवार को समाप्त होता है। अर्थात एक माह तक मनाया जाता है। त्योहार के पहले और अंतिम दिन गोलकोंडा एलम्मा के लिए विशेष पूजाएँ की जाती हैं। दो नए छोटे मटकों को हल्दी का लेप लगाकर कुमकुम से सजाया जाता है। नीम की टहनियाँ बाँधी जाती हैं। उन मटकों में बोनम रखा जाता है। दोनों मटकों को एक के ऊपर एक रखा जाता है। ऊपर के मटके पर तेल का दीपक जलाया जाता है। इसे ‘बोनाला ज्योति’ (बोनालु की ज्योति) कहा जाता है। श्रद्धा और भक्ति से स्त्रियाँ उन मटकों को सिर पर रखकर देवी माँ के मंदिर में बोनम चढ़ाने जाती हैं। पुरुष वाद्य यंत्र बजाते हुए, भक्ति गीत गाते हुए उनके साथ जाते हैं। बोनम के रूप में मुख्य रूप से मिष्टान्न चढ़ाया जाता है जो देवी माँ का अत्यंत प्रिय खाद्य पदार्थ है। नमक और काली मिर्च के साथ पका हुआ चावल और दही चावल भी चढ़ाया जाता है। मंदिर में देवी माँ के समक्ष जो चावल का ढेर लग जाता है उसे ‘बल्लम गल्ला’ कहा जाता है। बोनम के साथ माँ को ‘कल्लु’ (देशी शराब) और बलि भी चढ़ाने की परंपरा रही है। बहुत समय तक भैंस की बलि दी जाती थी। धीरे-धीरे भैंस के स्थान पर मुर्गी और बकरी की बलि चढ़ाने लगे। लेकिन अब अधिकतर प्रतीक बलि दी जाती है; अर्थात कद्दू, पेठा, नींबू आदि की बलि। वास्तव में बलि की प्रथा को रोकने के लिए ऐसा किया जाने लगा, क्योंकि गाँवों में कभी-कभी नर बलि भी दी जाती थी - दुश्मनी के कारण। इसमें शक नहीं कि तेलंगाना लोक में मांसाहार का अत्यधिक प्रचलन है। लेकिन बोनालु त्योहार के एक महीने तक वे लोग मांसाहार से दूर रहते हैं। शायद इसीलिए अंतिम दिन देवी माँ के समक्ष मुर्गी और बकरी की बलि चढ़ाकर उस दिन मांसाहार का सेवन करते हैं। 

बोनालु उत्सव आषाढ़ माह के चार सप्ताह के लिए क्रमशः गोलकोंडा, सिंकदराबाद, लाल दरवाजा और पुराने शहर में मनाया जाता है। सबसे पहले हैदराबाद के गोलकोंडा किले के भीतर मंगलावरम नामक पहाड़ी पर स्थित जगदंबिका मंदिर में इस त्योहार की शुरूआत होती है। आषाढ़ मास के प्रथम रविवार से तीन दिन पहले गोलकोंडा के पास स्थित लंगर हाउस से देवी की रथयात्रा शुरू होती है। रंगबिरंगे कागजों से बने ऊँचे बेंत के झूले में माँ की तस्वीर सजाकर ज्योति के साथ गोलकोंडा तक शोभायात्रा निकलती है। इसे ‘तोट्टेल उत्सवम’ (झूले का उत्सव) कहा जाता है। सरकार की ओर से भेंट स्वरूप माँ को रेशमी कपड़े और सुहागिन के सिंगार की वस्तुएँ समर्पित की जाती हैं। 

उसके बाद सिकंदराबाद उज्जैनी महाकाली मंदिर, बलकम्पेट एल्लम्मा मंदिर, चिलकलगुडा पोचम्मा मंदिर और कट्टा मैसम्मा मंदिर, लाल दरवाजा सिंहवाहिनी श्रीमहाकाली मंदिर, हरिबावली अकन्ना मादन्ना मंदिर, शाह अली बंडा में स्थित मुत्यालम्मा मंदिर में बोनालु पर्व क्रमशः मनाया जाता है। फिर अन्य स्थानों में स्थित देवी माँ के मंदिरों में बोनम समर्पित किया जाता है। वापसी में गोलकोंडा के जगदंबिका मंदिर में अंतिम बोनम अर्पित करने के बाद ही यह उत्सव समाप्त होता है। 

बोनालु का पर्व रविवार को शुरू होता है। अगले दिन सोमवार को रंगबिरंगे कागजों से बने बेंत के ऊंचे झूले में प्रतिष्ठित देवी को प्रतिष्ठित कर जुलूस निकाला जाता जाता है। इस जुलूस का अर्थ है खुशी से माता को उनके मायके के लिए विदा करना। सुहागिन को ले जाने के लिए तो भाई ही आते हैं न! सो, देवी माँ की विदाई के लिए उनके भाई और अंगरक्षक ‘पोतुराजु’ आते हैं। नदी किनारे झूला और ‘बल्लम गल्ला’ रख दिए जाते हैं और नदी में दिया छोड़कर लोग वापस आ जाते हैं। लोक विश्वास है कि यह भोजन पाकर प्रेतात्माएँ तृप्त हो जाएँगी; अतः कोई अनिष्ट नहीं होगा और देवी माँ सबकी रक्षा करेगी। 

उल्लेखनीय है कि पोतुराजु को महाराष्ट्र में पोतराज, मरीआई अथवा कड़क लक्ष्मी के नाम से भी जाना जाता है। असल में पोतराज इस अंचल की एक जनजाति है जो लुप्त होती जा रही है। वे देवी माँ के उपासक होते हैं। पोतुराजु का वेश धारण करने वाला व्यक्ति लाल धोती को घुटनों के ऊपर तक कसकर बाँधता है। पैरों में घुँघरू, हाथ में चाबुक, पूरे शरीर में हल्दी का लेप, माथे पर कुमकुम का टीका और गले में नींबू की माला पहनकर वह ढोल नगाड़ों की थाप पर नाचता रहता है और अपने हाथ में लिए हुए चाबुक से अपनी ही पीठ पर प्रहार करता रहता है। यह माना जाता है कि पोतुराजु स्वयं पर चाबुक के प्रहार से लोगों की विपत्तियों को दूर करता है जिससे देवी माँ भक्तों पर कृपा करती है। पोतुराजु का वेश धारण करके नाचना भी एक जीवन-वृत्ति है। बच्चों को बहुत कम उम्र में जबरन इस वृत्ति का प्रशिक्षण दिया जाता ताकि वे बड़े होकर अपनी पीठ पर कोड़े सहते हुए नाच सकें। 

बोनालु के अगले दिन 'रंगम' का भी आयोजन किया जाता है। रंगम अर्थात भविष्यवाणी। एक स्त्री ‘गले’ (जोगिनी, मातंगी) कच्ची मिट्टी के घड़े पर खड़ी होकर भविष्यवाणी करती है। वह भविष्य के संकटों के प्रति लोगों को जागरूक करती है। भविष्यवाणी करने वाली इस स्त्री को साक्षात देवी का स्वरूप माना जाता है। हैदराबाद-सिकंदरबाद बोनालु में जोगिनी श्यामला और रंगम स्वर्णलता इस प्रक्रिया को संपन्न करती हैं। माँ की शोभायात्रा से पहले यह धार्मिक प्रक्रिया संपन्न होती है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है यह शोभायात्रा गोलकोंडा के जगदंबिका मंदिर से शुरू होकर सिकंदराबाद के उज्जैनी महांकाली मंदिर और उसके बाद लाल दरवाजा सिंहवाहिनी श्रीमहाकाली मंदिर में जाकर समाप्त होती है। इसे लोक आस्था का प्रताप ही कहा जा सकता है कि सामान्य जनता ही नहीं बल्कि तेलंगाना और आंध्र प्रदेश के राजनीतिज्ञ और स्वयं मुख्यमंत्री भी प्रायः इस आयोजन में भविष्यवाणी जानने के लिए उपस्थित होते हैं। 

वर्तमान युग में धीरे-धीरे इस लोक पर्व का राजसीकरण भी होने लगा है। हैदराबाद और सिकंदराबाद के अलावा रंगारेड्डी जिले के लगभग 3 हजार मंदिरों को सरकार की ओर से आर्थिक सहायता उपलब्ध कराई जा रही है। 2018 में तेलंगाना राष्ट्र समिति की सांसद के.कविता ने माँ को 3.8 किलो सोने से बने बर्तन में बोनम समर्पित किया था। अब मिट्टी के मटकों के स्थान पर लोग अपनी पद-प्रतिष्ठा के अनुरूप या कहें कभी-कभी दिखावे के लिए सोने और चाँदी के बर्तनों में बोनम अर्पित करने लगे हैं। यह प्रवृत्ति भविष्य में इस पर्व के मूलभूत लोक चरित्र को क्षति पहुँचाने वाली सिद्ध हो सकती है। 

रंगम के बाद घटम का जुलूस निकलता है। इसके लिए घटम (तांबे का बर्तन) को देवी के रूप में सजाया जाता है। बोनालु उत्सव के पहले दिन से लेकर अंतिम दिन तक घटम को जुलूस में ले जाया जाता है। अंतिम दिन इसे पानी में विसर्जित किया जाता है। घटम के विसर्जन के साथ उत्सव का समापन माना जाता है। हरिबावली के अक्कन्ना मादन्ना मंदिर से घटम को हाथी पर रखकर माँ की शोभायात्रा निकलती है तथा नयापुल के पास घटम का विसर्जन किया जाता है। 

यह सब तो हुआ बोनालु के कर्मकांड का विवरण। अब ज़रा इसके इतिहास में भी झांक लिया जाए। बोनालु पर्व की शुरूआत 19वीं शताब्दी में हुई। इसकी कहानी हैदराबाद-सिकंदराबाद जुड़वा शहर के रेजिमेंटल बाजार से जुड़ी है। हैदराबाद-सिकंदराबाद के इतिहास से यह पता चलता है कि वर्ष 1813 में आषाढ़ मास अर्थात वर्षा आरंभ होते ही यहाँ प्लेग की भयानक महामारी फैल गई थी। इससे हजारों लोगों की मृत्यु हुई। संयोगवश इससे ठीक पहले हैदराबाद से एक सैन्य बटालियन को उज्जैन में तैनात किया गया था। जब इस हैदराबादी मिलिट्री बटालियन को महामारी के बारे में पता चला, तो उन सिपाहियों ने उज्जैन के महाकाली मंदिर में देवी से प्रार्थना की कि वे हैदराबाद तथा सिकंदराबाद को इस महामारी से बचाएँ। उन्होंने यह मनौती भी मानी कि यदि देवी माँ ऐसा करेंगी, तो यहाँ लौटने पर वे शहर में देवी महाकाली की मूर्ति स्थापित करेंगे। ऐसा माना जाता है कि महाकाली ने महामारी को नष्ट कर दिया। सैन्य बटालियन शहर लौट आई और देवी की एक मूर्ति स्थापित की तथा भक्ति और श्रद्धा भाव से माँ को बोनालु समर्पित किया। तब से, यह एक परंपरा बन गई जिसका पालन आज तक किया जा रहा है। इस दौरान देवी माँ को प्रसन्न करने के लिए पूजा-पाठ, व्रत-त्योहार, मेले-ठेले का आयोजन किया जाता है। 

लोक पर्वों के साथ लोक कथाएँ भी जुड़ जाती हैं। बोनालु के साथ भी ऐसा ही है। लोक विश्वास है कि आषाढ़ मास के दौरान महाकाली अपने माता-पिता के घर आती हैं। अतः ससुराल से मायके आई हुई माँ के स्वागत में बोनालु पर्व मनाया जाता है। माँ से घर और समाज की सुख-समृद्धि की प्रार्थना की जाती है। आषाढ़ में नई नवेली दुल्हन को एक महीने तक मायके भेज दिया जाता है। एक महीने के बाद श्रावण में माता-पिता बेटी को भेंट देकर ससुराल विदा करते हैं। उस समय भाई उसके अंगरक्षक बनकर उसको विदा कराने आते हैं। इसी लीला को हर वर्ष दोहराया जाता है। 

लेकिन लोक की प्रथाएँ केवल अंधविश्वास नहीं होतीं। उनमें भी कुछ न कुछ वैज्ञानिकता निहित होती है। इस दृष्टि से भी बोनालु उत्सव की सार्थकता असंदिग्ध है। आषाढ़ में बीमारियाँ फैलती हैं। इसलिए इस महीने में बोनालु उत्सव मनाया जाता है जिसमें नीम और हल्दी की प्रचुरता रहती है। कहने की ज़रूरत नहीं कि नीम की पट्टियों और हल्दी में कीटनाशक तत्व निहित हैं। इसके अलावा बीमारियों को दूर करने के साथ-साथ यह त्योहार सारे समाज के भाईचारे का भी प्रतीक है। 

बोनालु के अवसर पर लोग अपनी खुशियों को लोक गीतों – विशेषकर भक्ति गीतों - के माध्यम से व्यक्त करते हैं। उदाहरण के तौर पर दो गीतों के मुखड़े द्रष्टव्य हैं- 


  • सूर्युने बोट्टुगा पेट्टुकोनि/ भल्लान्ने चेतिलो पट्टुकोनि/ महामारि तलने नरिकिनावु पेद्दम्मा/ कैलासम वद्दनि विडिचिनावु/ कलियुग्म लो माकै वच्चिनावु/ माँ पिल्ललिनी सल्लागा चूसिनावु मायम्मा/ पुलिपै सवारी चेसिनावु ओ यम्मा/ अंदुके नीकु बोनालु एत्तुतमु। 
(सूरज को माथे की बिंदी बनाकर/ भाले हो हाथ में लेकर/ महामारी का सिर कुचल डाला/ हे माँ! दुष्टों को नरक भेज दिया/ कैलास छोड़कर/ कलियुग में हमारे लिए यहाँ आकर/ हमारे बच्चों रक्षा करती हो हे माँ!/ हे माँ, सिंहवाहिनी!/ तेरे लिए हम नैवेद्य लाएँगे।) 


  • पल्लेलु पट्नालन्नि पच्चगा चूसे तल्लि/ ऊरी पोलिमेरलो उंडि ऊरंता कासे तल्लि/ पोचम्मा, एलम्मा, मैसम्मा, मारेम्मा, महांकालम्मा, मुत्यालम्मा, पोलेरम्मा/ एडुगुरु अक्का-चेल्लेल्लु नीकु/ एडु अंतस्तुला बोनमे अम्मा!
(गाँवों और शहरों को हरा-भरा रखने वाली माँ!/ गाँव की सीमा पर रहकर गाँव की रक्षा करने वाली माँ!/ पोचम्मा, एलम्मा, मैसम्मा, मारेम्मा, महांकालम्मा, मुत्यालम्मा, पोलेरम्मा/ सात बहनें हैं तेरी,/ सात भवन के नैवेद्य हैं माँ।) माना जाता है कि महाकाली की सात बहनें हैं - पोचम्मा, एलम्मा, मैसम्मा, मारेम्मा, महंकालम्मा, मुत्यालम्मा और पोलेरम्मा। 

इस महान लोक पर्व ने आधुनिक तेलुगु साहित्य में भी पर्याप्त जगह पाई है, जो इसकी व्यापक स्वीकृति का प्रतीक है। दाशरथी रंगाचार्य की कृति ‘माया जलतारु’ (मायाजरतार, 1973, विशालांध्रा पब्लिशिंग हाउस) में बोनालु का चित्रण प्राप्त होता है – “चेंबु मीदा मरोका चेंबु पेट्टारु। अदि बोनाम। आड़ुवारंता तललकु बोनालु एत्तुकोनि तयारुकागा मगवारु डप्पुलु तीसुकोनि बायिलुदेरारू।” (मटके के ऊपर एक और मटका रख दिया। वही है बोनम। स्त्रियाँ बोनालु को सिर पर रखकर तैयार हुईं और पुरुष ढोल लेकर उनके साथ चल पड़े।) 

तेलुगु के क्रांतिकारी कवि गद्दर (गुम्मडी विट्ठल राव, 1949) ने अपनी रचना ‘प्रति पाटकु ओका कथा उंदा?’ (हर गीत के लिए एक कथा है क्या?, 1991) में यह स्पष्ट किया है कि बोनालु त्योहार विशेष रूप से तेलंगाना के लोगों द्वारा मनाया जाता है। इस त्योहार का बहुत महत्व है। चाहे कुछ भी हो जाए, कर्ज में डूबे रहने पर भी इस त्योहार को जरूर मनाएँगे क्योंकि तेलंगाना की जनता यह मानती है कि देवी माँ को संतुष्ट रखना जरूरी है अन्यथा उनके क्रोध का शिकार होना पड़ेगा। 

अपने आराध्य को प्रसन्न करने के लिए भोजन (नैवेद्य) अर्पित करना एक प्राचीन परंपरा है। यही कारण है कि ताल्लपाक अन्नमाचार्य के कीर्तनों में भी बोनालु का उल्लेख मिलता है – “विंदगु वेंकटा विभुनि प्रेमचे बोंदुगा बेट्टेनु बोनालु।” (श्री वेंकटेश्वर स्वामी को प्रेम से बोनालु समर्पित करें। - अन्नमाचार्य, शृंगार संकीर्तन, तालपत्र 53)। इस कीर्तन से यह स्पष्ट होता है कि बोनालु की परंपरा सिर्फ तेलंगाना में ही नहीं बल्कि संपूर्ण आंध्र प्रदेश में रही है। नन्नैया कृत ‘आंध्र महाभारतम’ और कृष्णदेवराय की ‘आमुक्तमाल्यदा’ में भी इसका उल्लेख है। वस्तुतः ‘बोनालु’ का अर्थ है श्रद्धा और भक्ति से देवी-देवताओं को भोजन समर्पित करना ताकि उनकी कृपा बनी रहे। अतः आज भी लोक कल्याण की सामूहिक कामना ही इस पर्व का परम अभीष्ट है।

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

तेलुगु साहित्य : 2017 : एक सर्वेक्षण

आधुनिक तेलुगु साहित्य अपने आरंभिक काल से ही सामाजिक और राजनैतिक दृष्टि से अत्यंत चेतना संपन्न साहित्य रहा है। समकाल की धड़कनों को समझने और अंकित करने विभिन्न विधाओं के माध्यम से तेलुगु साहित्यकार भारत में अग्रणी रहे हैं। अपनी इस सामाजिक-राजनैतिक संचेतना के कारण आज का साहित्यकार इस बात से अत्यंत विचलित प्रतीत होता है कि इक्कीसवीं सदी में भी जाति और वर्ण के नाम पर समाज में अराजकता और अमानुषिकता का बोलबाला है। समकालीन साहित्यकार इन विसंगतियों की ओर ध्यान केंद्रित कर रहा है। यही कारण है कि 2017 में तेलुगु साहित्य में दलित विमर्श, स्त्री विमर्श और अल्पसंख्यक विमर्श से संबंधित स्वानुभूति पर आधारित अत्यंत महत्वपूर्ण रचनाएँ सामने आई हैं। 

यद्यपि दलित विमर्श का प्रचलन बहुत बाद का है तथापि यह तथ्य उल्लेखनीय है कि ‘माकोद्दु नल्ल दोरतनम’ (हमें नहीं चाहिए ये काले अंग्रेज़) के कवि के रूप में प्रसिद्ध कुसुम धर्मन्ना (1900-1946) तेलुगु के प्रथम दलित कवि थे जिन्होंने वर्ण व्यवस्था का खंडन किया था। वे ‘जयभेरी’ के संपादक भी थे। आयुर्वेदिक चिकित्सक के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने दलितों के उत्थान के लिए संघर्ष किया। उन्होंने ‘हरिजन शतक’, ‘नल्ल दोरतनम’ (काले अंग्रेज़), ‘निम्नजाति तरंगिणी’, ‘मद्यपान निषेधम’ (शराब निषेध), ‘अंटरानिवाल्लम’ (छुआछूत) आदि कविता और निबंध संग्रहों के माध्यम से जनता को चेताया था। अब मद्दुकूरि, पुट्ल हेमलता और अन्य ने कुसुम धर्मन्ना के संपूर्ण साहित्य को ‘कुसुम धर्मन्ना रचनलु’ (कुसुम धर्मन्ना की रचनाएँ) नाम से सात खंडों में संपादित किया है। 

तेलुगु साहित्य में शिखामणि के नाम से प्रसिद्ध कवि और आलोचक डॉ. कर्रि संजीव राव ने दलित विमर्श से संबंधित अनेक काव्य संग्रह और आलोचना ग्रंथों की रचना की है। उनके कविता संग्रह ‘चूपुडुवेलु पाडे पाटा’ (तर्जनी के गीत) में संकलित कविताओं का मुख्य स्वर दलित की व्यथा-कथा है। 

‘दग्धम कथलु’ (दग्ध कथाएँ) शीर्षक कहानी संग्रह में बूतम मुत्यालु ने दलितों के मानवाधिकारों के हनन का हृदयस्पर्शी चित्रण किया है। ‘जालि’ (दया) शीर्षक कहानी में दलित समुदाय में मानव संबंधों की गरिमा का अंकन किया गया है। ‘मीना’ शीर्षक कहानी दलित बाल मजदूर की आशाओं एवं आकांक्षाओं की कहानी है। पर-स्त्री के कारण पति अपनी पत्नी की हत्या करता है। ऐसे पिता के प्रति प्रतीकार की भावना से पीड़ित पुत्र की कहानी है ‘दग्धम’ (दग्ध)। बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से यह कहानी उल्लेखनीय है। धर्म और अंधविश्वासों के नाम पर दलितों पर होने वाले अत्याचारों का पर्दाफाश करने वाली कहानी है बलिमर्मम (बली का मर्म)। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि इस कहानी संग्रह में संकलित कहानियों में दबे हुए और कुचले हुए व्यक्ति की पीड़ा निहित है। 

धर्म की आड़ में ढोंगी बाबाओं का राज्य चल रहा है। राजनैतिक दल-बल से जनता के विश्वास को लूटकर कुछ धोखेबाज़ अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं और दिगंबर पूजा के नाम पर अविवाहित स्त्रियों की अस्मत लूट रहे हैं। मोलकपल्लि कोटेश्वर राव ने अपने उपन्यास ‘स्वामुलोरु’ (स्वामीजी) में ऐसे धोखेबाज़ों का पर्दाफाश करते हुए भक्ति और अंधविश्वास के अंतर को स्पष्ट किया है। धर्म, वर्ग, वर्ण, जाति, लिंग, प्रांत आदि के भेदभाव के कारण होने वाले मनुष्य के शोषण का चित्रण अनवर के कहानी संग्रह ‘बकरी’ में सम्मिलित कहानियों में प्रभावी ढंग से किया गया है। अल्पसंख्यक विमर्श की दृष्टि से ये कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। 

आज भी भारत के अन्य प्रांतों की भाँति तेलुगु भाषी राज्यों में भी बाल मजदूरी प्रथा विद्यमान है। यह भारतीय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था पर कलंक की तरह है। भारत सरकार ने बाल श्रम के उन्मूलन के लिए अनेक सकारात्मक कदम उठाए हैं, लेकिन आज तक भी बाल मजदूरी को रोक पाना संभव नहीं हो पाया है। आर. शशिकला के कहानी संग्रह ‘माँ तुझे सलाम’ में बाल श्रम, बाल शोषण और बाल मानवाधिकारों से संबंधित मार्मिक कहानियाँ संकलित हैं। ‘चिट्टी चिट्टी मिरियालु’ (छोटी छोटी काली मिर्च) शीर्षक कविता संग्रह में पालपर्ती इंद्राणी ने बाल कविताओं के माध्यम से जीवन मूल्यों को उकेरा है। 

तेलुगु साहित्यकार जहाँ एक ओर मानवाधिकारों की बात करते हैं वहीं दूसरी ओर अपनी संस्कृति को भी उजागर करते हैं। उदयमित्र के कहानी संग्रह ‘दोसेडु पल्लीलु’ (मुट्ठी भर मूँगफली) में संकलित 17 कहानियों में तेलंगाना की सांस्कृतिक, राजनैतिक और सामाजिक स्थितियों का मार्मिक अंकन देखा जा सकता है। इन कहानियों में स्त्री शोषण और संघर्ष के विविध आयाम भी बखूबी उभरे हैं। तेलंगाना के भीमदेवरपल्लि मंडल के आंदोलन के इतिहास को डॉ. एरुकोंडा नरसिंहस्वामि और डेगल सूरय्या ने ‘मा पोराटम : भीमदेवरपल्लि मंडल उद्यम चरित्र’ (हमारा आंदोलन : भीमदेवरपल्लि मंडल के आंदोलन का इतिहास) शीर्षक कृति में विस्तार से विवेचित किया है। इसी प्रकार मानवाधिकारों के लिए संघर्षरत के. बालगोपाल ने अपने निबंध संग्रह ‘नक्सलइट उद्यमम : वेलुगु नीडलु (नक्सलइट आंदोलन : प्रकाश और परछाई) में 40 निबंधों तथा एक साक्षात्कार के माध्यम से तेलंगाना क्षेत्र के नक्सलइट आंदोलन के भविष्य और उससे संबंधित अनेक मुद्दों पर वैचारिक मंथन किया है। 

तेलंगाना की सांस्कृतिक पहचान है बतुकम्मा। 2014 से यह त्योहार राजकीय लोकपर्व के रूप में मनाया जाने लगा है। इस देवी पूजन से संबंधित अनेक लोककथाएँ प्रचलित हैं। कूतुरु रामरेड्डी के कहानी संग्रह ‘बतुकम्मा कथला संपुटि’ (बतुकम्मा कहानियों का संग्रह) में सम्मिलित 18 कहानियों में बतुकम्मा से संबंधित लोककथाओं के साथ-साथ तेलंगाना आंदोलन का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य और मद्य निषेध आंदोलन आदि का चित्रण है। सुरवरम प्रताप रेड्डी के संपादन में प्रकाशित ‘गोलकोंडा’ पत्रिका में तेलुगु साहित्य और संस्कृति के साथ-साथ सामाजिक और राजनैतिक चेतना, तेलंगाना के परिवेश और संस्कृति से ओत-प्रोत कहानियाँ प्रकाशित हुईं थीं। इनमें से 52 कहानियों को यामिजाल आनंद ने ‘गोलकोंडा पत्रिका कथलु’ (गोलकोंडा पत्रिका की कहानियाँ) शीर्षक से संकलित किया है। आचार्य एस.वी. रामाराव की कृति ‘तेलंगाना सांस्कृतिक वैभवम’ (तेलंगाना का सांस्कृतिक वैभव) में तेलंगाना संस्कृति की विशेषताओं का वर्णन है। आमगोत वेंकट पवार ने ‘मरो लदणि’ (दूसरा लदणि) में बंजारा संस्कृति का चित्रण किया है। उल्लेखनीय है कि आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में तेलुगु भाषा के अलग-अलग रूपों का प्रचलन है। यहाँ तक कि पृथक तेलंगाना राज्य की माँग के पीछे निहित कई कारणों में से एक कारण इस क्षेत्र की तेलुगू की निजता की प्रतिष्ठा की माँग भी थी। इस संदर्भ में डॉ. कालुव मल्लय्या का ‘तेलंगाना भाषा, चदुवला तल्लि’ (तेलंगाना की भाषा, ज्ञान की देवी) शीर्षक निबंध संग्रह उल्लेखनीय है। 

समकालीन तेलुगु साहित्यकारों ने निम्न और मध्यवर्गीय जीवन शैली और समाज-आर्थिक तथा राजनैतिक स्थितियों को अंकित करने के लिए कथा साहित्य को माध्यम बनाया है। गुंडु सुब्रह्मण्य दीक्षितुलु के ‘अम्मा अज्ञानम’ (माँ का अज्ञान), गुडिपाटि कनकदुर्गा कृत ‘अनुबंधालु-आत्मीयुलु’ (सहयोगी-आत्मीयजन), डॉ. वी. आर. रासानी कृत ‘मुल्लुगर्रा’ (काँटों की छड़ी) शीर्षक कहानी संग्रहों में आम आदमी की कथा अंकित है। आज व्यक्ति भीड़ में भी अकेला होता जा रहा है। संबंध विच्छेद हो रहे हैं। वैवाहिक संबंधों में दरारें आ रही हैं। सुखी दांपत्य जीवन के लिए पति-पत्नी के बीच समंजस्य की आवश्यकता होती है। सफल वैवाहिक जीवन के लिए आवश्यक जानकारियाँ डॉ. गोडवर्ती सत्यमूर्ति के निबंध संग्रह ‘विवाहालु-विभेदालु’ (विवाह-विभेद) में सम्मिलित हैं। 

माइग्रेशन के कारण उत्पन्न सांस्कृतिक संक्रमण और समाज-आर्थिक विसंगतियों का चित्रण के. सदाशिव राव के ‘क्रासरोड्स’ शीर्षक कहानी संग्रह में सम्मिलित कहानियों में देखा जा सकता है। उन्होंने वैज्ञानिक फिक्शन के आधार पर कहानियाँ बुनी है जो ‘आत्माफैक्टर’ शीर्षक संग्रह में सम्मिलित हैं। 

विरिंची नाम से प्रसिद्ध तेल्लाप्रगडा गोपाल कृष्ण के कहानी संग्रह ‘सहनाववुतु’ में शामिल 24 कहानियों में मध्यवर्गीय मानसिकता, मध्यवर्ग की जीवन शैली, सामाजिक विसंगतियाँ, आर्थिक संकट, स्त्री शोषण और पुरुष मानसिकता से त्रस्त स्त्री का चित्रण है। 

बुनकरों पर केंद्रित साहित्य कम देखने को मिलता है। बुनकरों की जीवन शैली, उनकी परंपरागत कला, आर्थिक संकट आदि को कथावस्तु बनाकर रचित 58 कहानियों को डॉ. मेडिकुर्ति ओबुलेसु, वेल्लंदि श्रीधर और सिंगिशेट्टि श्रीनिवास ने ‘पडुगु पेकलु’ (ताना-बाना) शीर्षक से संकलित किया है। 

रजक (धोबी) जाति का मुख्य कार्य कपड़े धोना, रंगना और इस्त्री करना है। आंध्र प्रदेश के मेडुलमिट्टा नामक स्थान के रजकों की जीवन शैली, आर्थिक और सामाजिक स्थिति, संस्कृति और विभिन्न संस्कारों को विंजमूरि मस्तानबाबु ने अपनी कहानियों की विषयवस्तु बनाया है। इन कहानियों को ‘मेडुलमिट्टा कथलु’ (मेडुलमिट्टा की कहानियाँ) शीर्षक संग्रह के रूप में प्रकाशित किया गया है। 

विकास के नाम पर मनुष्य विनाश कर रहा है। प्रकृति का दोहन कर रहा है। उर्वर कृषि मैदानों की छाती पर कंक्रीट भवनों का निर्माण कर रहा है। झोंपड़पट्टियों में रहने वालों की स्थिति और भी दयनीय है। यदि ऐसी ही स्थिति रहेगी तो भविष्य में जल, जमीन और जंगल की अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। सलीम ने अपने कहानी संग्रह ‘नीटिपुट्टा’ (पानी का बिल) में इन स्थितियों को उजागर किया है और यह आशा व्यक्त की है कि भविष्य में मनुष्य कंक्रीट जंगलों को ध्वस्त करके कृषि प्रधान भूमि निर्मित करेगा। 

समकालीन समाज में व्याप्त सामाजिक एवं राजनैतिक विद्रूपताओं पर प्रहार करने के लिए साहित्यकार हास्य-व्यंग्य का सहारा ले रहा है क्योंकि व्यंग्य पाठक को गुदगुदाने के साथ-साथ सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विसंगतियों के उद्घाटन द्वारा पाठक को विचलित करता है। तेलुगु के हास्य-व्यंग्य लेखक यासीन ने अपनी व्यंग्य कृति ‘हा... हा... कारालु’ (हाहाकार) में सामाजिक एवं राजनैतिक विद्रूपताओं का पर्दाफाश करने के साथ-साथ सांस्कृतिक मूल्य संक्रमण को भी उजागर किया है। हास्यब्रह्म शंकरनारायण ने ‘इंगलीशुकु तल्लि तेलुगु?!’(इंगलिश की जननी तेलुगु?!) में उदाहरणों के साथ यह कहा है कि तेलुगु के शब्दों को तोड़ मरोड़कर अंग्रेजी में प्रयोग किया जा रहा है। उदाहरण के लिए तेलुगु शब्द ‘मनिषी’ (मनुष्य) को तोड़ने से अंग्रेजी के शब्द बनते हैं – ‘मनी’ और ‘शी’। शंकर नारायण की एक और हास्य कृति है ‘तीपिगुर्तुलु’ (मीठी स्मृतियाँ)। 

यात्रा साहित्य में मुत्तेवि रवींद्रनाथ कृत ‘मा कश्मीर यात्रा’ (हमारी कश्मीर यात्रा), जीवनी साहित्य में सी. भवानी देवी कृत ऊटुकूरि लक्ष्मीकास्तम्मा, संजय किशोर कृत फिल्म अभिनेता अक्किनेनी नागेशवरराव के जीवन पर आधारित ‘मना अक्किनेनी’ (हमारा अक्किनेनी), कूनपराजु कुमार कृत फिल्म के हास्य-व्यंग्य कलाकार एम.एस. नारायण की जीवनी, वेंकट सिद्दारेड्डी कृत सिनेमा का आलोचनात्मक संग्रह ‘सिनीमा ओका आल्केमी’ (सिनेमा एक आल्केमी), डॉ. के. किरण कुमार कृत ‘जी.एस.टी. गाइड’, ममता वेणु के काव्य संग्रह ‘मल्लेचेट्टु चौरस्ता’ (चमेली का चौराहा), श्रीनागास्त्र के काव्य संग्रह ‘गायपड्डा गुंडे भाषा’ (घायल हृदय की भाषा) आदि विभिन्न विधाओं की कृतियाँ सामने आई हैं। वांड्रंगी कोंडल राव कृत ‘ऊरु-पेरु : आंध्र प्रदेश’ (गाँव-नाम : आंध्र प्रदेश) में आंध्र के 13 जिले के कुछ चयनित गाँव और शहरों के नाम, स्थान विशेष की जानकारी, ऐतिहासिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विरासत आदि सम्मिलित हैं। यह पुस्तक क्षेत्र कार्य पर आधारित है। विन्नकोटा रविशंकर कृत आलोचनात्मक कृति ‘कवित्वमलो नेनु’ (कविता में मैं) में कोकानी, श्रीश्री जैसे प्रतिष्ठित कवियों के विचार और उनसे से जुड़ी स्मृतयों को सँजोया गया है। 

तेलुगु साहित्य में मौलिक लेखन के साथ-साथ अनुवाद का कार्य भी चल रहा है। अष्टम अनुसूची में उल्लिखित 22 भारतीय भाषाओं की प्रमुख कहानियों को तेलुगु में अनूदित करके काकानी चक्रपाणि ने ‘भारतीय कथा भारती’ नामक महाकाय ग्रंथ में सम्मिलित किया है। कहानी के साथ-साथ मूल लेखक का परिचय भी सम्मिलित है। अनुवादों के माध्यम से भारत की सामासिक संस्कृति को अक्षुण्ण रखा जा सकता है। 

वर्ण व्यवस्था आज भी समाज में व्याप्त है। पश्चिमी तमिलनाडु के कोंगुनाडु में स्थिति तोलूर गाँव में दो प्रेमियों को जाति के नाम पर मौत के घाट उतार दिया गया। इसका सशक्त चित्रण पेरुमाल मुरुगन ने अपने तमिल उपन्यास ‘पूकुलि’ में किया है। के. सुरेश ने तेलुगु में ‘चिति’ (चिता) शीर्षक से इसका अनुवाद किया है। इसमें मजदूर शोषण और स्त्री शोषण को भी दर्शाया गया है। इसमें शोषण के प्रसंग अत्यंत मार्मिक बन पड़े हैं जो पाठक की चेतना को झकझोरती हैं। 

कोलूरि सोमशंकर ने हिंदी, उर्दू, बांग्ला और अंग्रेजी की कहानियों को तेलुगु में रूपांतरित करके ‘नान्ना तोंदरगा वच्चेई’ (पापा जल्दी आ जाना) शीर्षक कहानी संग्रह में प्रकाशित किया है। अटल बिहारी वाजपेयी की जीवनी पर आधारित विजय त्रिवेदी की कृति ‘हार नहीं मानूँगा’ का आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद ने ‘वोटमिनि अंगीकरिंचनु’ के रूप में रूपांतरित किया है। नगराजु रामस्वामी ने ‘ई पुडमि कवित्वम आगदु : जॉन कीट्स कविता वैभवम’ (इस धरती की कविता रुकेगी नहीं : जॉन कीट्स का काव्य वैभव) के रूप में जॉन कीट्स की कविताओं का काव्यानुवाद प्रस्तुत किया है। के. सदाशिवराव ने ‘काव्य कला’ शीर्षक से स्पेन, जर्मनी, फ्रांस, अफ्रीका, हंगेरी, क्यूबा और रूस की कविताओं का काव्यानुवाद प्रस्तुत किया है। 

उपर्युक्त सर्वेक्षण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वर्ष 2017 में तेलुगु साहित्यकारों की दृष्टि मुख्य रूप से हाशियाकृत समूहों और हाशियाकृत प्रश्नों पर केंद्रित रही। यदि यह कहा जाए कि इस वर्ष सभी विधाएँ हाशिए पर फोकस रहीं तो अनुचित न होगा। इस वर्ष विभिन्न विधाओं की कृतियों में दलित, स्त्री, अल्पसंख्यक, उपेक्षित श्रमिक, बालक, किसान और पारिस्थितिकी से जुड़े प्रश्न मुख्य विषयवस्तु बनते दिखाई दिए। यह तेलुगु साहित्य की सटीक समकालीनता का ज्वलंत प्रमाण है। 

संदर्भ  
[1] कुसुम धर्मन्ना रचनलु (कुसुम धर्मन्ना की रचनाएँ)/ (सं) मद्दुकूरि, पुट्ल हेमलता और अन्य/ प्रजाशक्ति पब्लिकेशन्स 

[2] चूपुडुवेलु पाडे पाटा (तर्जनी के गीत)/ शिखामणि/ मूल्य : रु. 150/ नवोदया बुक हाउस, हैदराबाद 
दग्धम कथलु (दग्ध कथाएँ)/ बूतम मुत्यालु/ पृष्ठ 116/ मूल्य : रु. 80 

[3] स्वामुलोरु (स्वामीजी)/ मोलकपल्लि कोटेश्वर राव/ पृष्ठ 160/ मूल्य : रु. 120/ विशालांध्रा पब्लिशिंग हाउस, विजयवाडा 

[4] बकरी/ अनवर/ पृष्ठ 140/ मूल्य रु. 80 

[5] माँ तुझे सलाम/ आर. शशिकला/ पृष्ठ 104/ मूल्य रु. 60 
[6] चिट्टी चिट्टी मिरियालु (छोटी छोटी काली मिर्च)/ पालपर्ती इंद्राणी/ पृष्ठ 80/ मूल्य : रु. 50/ जे. आई. पब्लिकेशन्स 

[7] दोसेडु पल्लीलु (मुट्ठी भर मूँगफली)/ उदयमित्र/ पृष्ठ 175/ मूल्य : रु. 120 

[8] मा पोराटम : भीमदेवरपल्लि मंडल उद्यम चरित्र (हमारा आंदोलन : भीमदेवरपल्लि मंडल के आंदोलन का इतिहास)/ एरुकोंडा नरसिंहस्वामि, डेगल सूरय्या/ पृष्ठ 264/ मूल्य : रु. 200 

[9] नक्सलइट उद्यमम : वेलुगु नीडलु (नक्सलइट आंदोलन : प्रकाश और परछाई)/ के. बालगोपाल/ पृष्ठ 306/ मूल्य : रु. 200 

[10] बतुकम्मा कथला संपुटि (बतुकम्मा की कहानियों का संग्रह)/ कूतुरु रामरेड्डी/ पृष्ठ 180/ मूल्य : रु. 120 

[11] गोलकोंडा पत्रिका कथलु (गोलकोंडा पत्रिका की कहानियाँ)/ (सं) यामिजाल आनंद/ पृष्ठ 252/ मूल्य : रु. 190 

[12] तेलंगाना सांस्कृतिक वैभवम (तेलंगाना संस्कृति का वैभव)/ आचार्य एस.वी. रामाराव/ पृष्ठ 252/ मूल्य : रु. 252 

[13] मरो लदणि (दूसरा लदणि)/ आमगोत वेंकट पवार/ पृष्ठ 149/ मूल्य : रु. 100 

[14] तेलंगाना भाषा, चदुवला तल्लि (तेलंगाना की भाषा, ज्ञान की देवी)/ कालुव मल्लय्या/ पृष्ठ 106/ मूल्य : रु. 100 

[15] अम्मा अज्ञानम (माँ का अज्ञान)/ गुंडु सुब्रह्मण्य दीक्षितुलु/ पृष्ठ 248/ मूल्य : रु. 125 

[16] अनुबंधालु-आत्मीयुलु (सहयोगी-आत्मीयजन)/ गुडिपाटि कनकदुर्गा/ पृष्ठ 251/ मूल्य अंकित नहीं 

[17] मुल्लुगर्रा (काँटों की छड़ी)/ डॉ. वी. आर. रासानी/ पृष्ठ 252/ मूल्य : 170 

[18] विवाहालु-विभेदालु (विवाह-विभेद)/ डॉ. गोडवर्ती सत्यमूर्ति/ पृष्ठ 219/ मूल्य : रु. 150 

[19] क्रासरोड्स/ के. सदाशिव राव/ पृष्ठ 152/ मूल्य : रु. 75 

[20] आत्माफैक्टर/ के. सदाशिव राव/ पृष्ठ 480/ मूल्य : रु. 250 

[21] सहानाभवुतु/ विरिंची/ पृष्ठ 264/ मूल्य : रु. 150 

[22] पडुगु पेकलु (ताना-बाना)/ (सं) मेडिकुर्ति ओबुलेसु, वेल्लंदि श्रीधर और सिंगिशेट्टि श्रीनिवास/ पृष्ठ 568/ मूल्य : रु. 300 

[23] मेडुलमिट्टा कथलु’ (मेडुलमिट्टा की कहानियाँ)/ विंजमूरि मस्तानबाबु/ पृष्ठ 160/ मूल्य : रु. 50 

[24] नीटिपुट्टा (पानी का बिल)/ सलीम/ पृष्ठ 184/ मूल्य : रु. 150 

[25] हा... हा... कारालु (हाहाकार)/ यासीन/ पृष्ठ 206/ मूल्य : रु. 160 

[26] ‘इंगलीशुकु तल्लि तेलुगु?!’(इंगलिश की जननी तेलुगु?!)/ हास्यब्रह्म शंकरनारायण/ पृष्ठ 186/ मूल्य : रु. 144 

[27] तीपिगुर्तुलु’ (मीठी स्मृतियाँ)/ हास्यब्रह्म शंकरनारायण/ पृष्ठ 200/ मूल्य : रु. 150 

[28] मा कश्मीर यात्रा (हमारी कश्मीर यात्रा)/ मुत्तेवि रवींद्रनाथ/ पृष्ठ 216/ मूल्य : रु. 250 

[29] ऊटुकूरि लक्ष्मीकास्तम्मा/ सी. भवानी देवी/ पृष्ठ : 132/ मूल्य : रु. 50/ साहित्य अकादमी 

[30] मना अक्किनेनी (हमारा अक्किनेनी)/ संजय किशोर/ पृष्ठ 335/ मूल्य : रु. 2000 

[31] एम.एस. नारायण जीवित कथा (एम.एस. नारायण की जीवनी)/ कूनपराजु कुमार/ पृष्ठ 208/ मूल्य : रु. 175 

[32] सिनीमा ओका आल्केमी (सिनेमा एक आल्केमी)/ वेंकट सिद्दारेड्डी/ पृष्ठ 272/ मूल्य : रु. 130 

[33] जी.एस.टी. गाइड/ डॉ. के. किरण कुमार/ पृष्ठ 160/ मूल्य : रु. 125 

[34] मल्लेचेट्टु चौरस्ता (चमेली का चौराहा)/ ममता वेणु/ पृष्ठ 100/ मूल्य अंकित नहीं 

[35] गायपड्डा गुंडे भाषा (घायल हृदय की भाषा)/ श्रीनागास्त्र/ पृष्ठ 132/ मूल्य : 100 

[36] ऊरु-पेरु : आंध्र प्रदेश (गाँव-नाम : आंध्र प्रदेश)/ वांड्रंगी कोंडल राव/ पृष्ठ 280/ मूल्य : रु. 100 

[37] कवित्वमलो नेनु (कविता में मैं)/ विन्नकोट रविशंकर/ पृष्ठ 275/ मूल्य : रु. 100 

[38] भारतीय कथा भारती/ (अनुवाद) काकानी चक्रपाणि/ पृष्ठ 800/ मूल्य : रु. 400 

[39] चिति (चिता)/ (अनुवाद) के. सुरेश/ पृष्ठ 160/ मूल्य : रु. 100 

[40] नान्ना तोंदरगा वच्चेई (पापा जल्दी आ जाना)/ कोलूरि सोमशंकर/ पृष्ठ 66/ मूल्य : 80 

[41] वोटमिनि अंगीकरिंचनु : अटलबिहारी वाजपेयी जीवन गाथा (हार नहीं मानूँगा : अटलबिहारी वाजपेयी जीवन गाथा)/ यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद/ पृष्ठ 420/ मूल्य : 399 

[42] ई पुडमि कवित्वम आगदु : जॉन कीट्स कविता वैभवम (इस धरती की कविता रुकेगी नहीं : जॉन कीट्स का काव्य वैभव)/ नगराजु रामस्वामी 

[43] काव्य कला/ के. सदाशिवराव/ पृष्ठ 308/ मूल्य : रु. 150 

रविवार, 14 जुलाई 2019

आचार्य पी. आदेश्वर राव अभिनंदन ग्रंथ

समीक्षित कृति : ॐ आदेश्वराय नमः 
(आचार्य पी.आदेश्वर राव जी का अभिनंदन ग्रंथ)
संपादक : आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद 
प्रकाशक : माया प्रकशन, कानपुर
पृष्ठ : 250, मूल्य : 625 रुपये 

प्रो.पी.आदेश्वर राव (ज. 20 दिसंबर, 1936) दक्षिण भारत के उन वरिष्ठ हिंदी साहित्यकारों में अग्रणी हैं जिन्होंने हिंदी की भाषिक संस्कृति को प्रयाग और वाराणसी जैसे हिंदी के गढ़ में रहकर आत्मसात किया। यही कारण है कि वे सार्वदेशिक और अखिल भारतीय हिंदी के प्रतीक और उन्नायक दोनों है। उन्होंने 1961 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए की उपाधि अर्जित की और 1965 में श्रीवेंकटेश्वर विश्वविद्यालय से पीएचडी। 1964 में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा के उच्च शिक्षा और शोध संस्थान की स्थापना के समय वे चेन्नै में प्राध्यापक के रूप में नियुक्त हुए। बाद में आंध्र विश्वविद्यालय के अतिरिक्त बेल्जियम के स्टेट विश्वविद्यालय में आचार्य के रूप में हिंदी का अध्यापन और शोध निर्देशन किया। 85 वर्षीय आचार्य आदेश्वर राव आज भी निरंतर हिंदी में अनुवाद और सृजनात्मक लेखन में व्यस्त रहते हैं। यदि यह कहा जाए कि अपने मौलिक साहित्य सृजन द्वारा अखिल भारतीय स्तर पर पहचान बनाने वाले दक्षिण भारत के गिने चुने हिंदीतरभाषी हिंदी साहित्यकारों में उनका नाम पहली पंक्ति में आता है, तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। सच तो यह है कि अपनी विद्वत्ता और सृजनशीलता के बल पर उन्होंने जो निजी पहचान अर्जित की है, वह ‘हिंदीतर’ जैसे किसी रेजीमेंटेशन की मोहताज नहीं। वे हिंदी, तेलुगु और अंग्रेजी साहित्य का चलता फिरता विश्वकोश हैं और अपनी स्मृति तथा वाग्मिता में अद्वितीय हैं। 

ऐसे अप्रतिम आचार्य और अतुल्य हिंदी-सेवी के सम्मान में प्रकाशित अभिनंदन ग्रंथ का शीर्षक "ॐ आदेश्वराय नमः" पूर्णतः सटीक है। विश्व भर में अपनी हिंदी-चेतना के लिए समादृत आचार्य यार्लगड्डा लक्ष्मीप्रसाद के संपादकत्व में प्रकाशित इस ग्रंथ से आचार्य आदेश्वर राव के व्यक्तित्व और कृतित्व के अनेक संस्मरणीय, अविस्मरणीय और अछूते पहलुओं का पता चलता है। संपादक का यह कथन अत्यंत विचारणीय है कि कवि के रूप में प्रो.आदेश्वर राव हिंदी के छायावादी कवि चतुष्टय के समकक्ष प्रतिभा से संपन्न है। अंतराल, धार के आरपार और वातायन ये प्रेम सौध के – कवि आदेश्वर राव की छायावादी काव्य साधना के प्रतीक हैं तो तुलनात्मक साहित्य तथा अनुवाद के क्षेत्र में किए गए उनके कार्य उनकी गहन समीक्षादृष्टि और भावप्रवणता के मानदंड हैं। हिंदी जगत ने उनकी इस प्रतिभा और साधना का लोहा माना और खूब स्नेह लुटाया, इसमें भी कोई शक नहीं। साहित्य अकादमी के दो पुरस्कार और गंगाशरण सिंह पुरस्कार सहित आपको इक्कीस राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हैं। 

"ॐ आदेश्वराय नमः (आचार्य पी. आदेश्वर राव का अभिनंदन ग्रंथ)" बड़े आकार का 250 पृष्ठ का ग्रंथ है। इसमें जहाँ एक ओर हिंदी जगत के प्रतिष्ठित विद्वानों और साहित्यकारों ने अभिनंदनीय व्यक्तित्व के प्रति स्नेह और श्रद्धा व्यक्त की है, वहीं दूसरी ओर तटस्थ भाव से उनके आलोचनाकर्म और सृजनधर्म का मूल्यांकन भी किया है। इनमें प्रो.शिवरामी रेड्डी, प्रो.ए.अरविंदाक्षन, प्रो.गिरीश्वर मिश्र, प्रो.ऋषभदेव शर्मा, प्रो.एम.वेंकटेश्वर, प्रो.निर्मला एस. मौर्य और प्रो.एस.ए. सूर्यनारायण वर्मा आदि प्रतिष्ठित नाम सम्मिलित हैं। इनके अलावा डॉ. सी.जयशंकर बाबू से लेकर डॉ. अनुपमा तिवारी तक अपेक्षाकृत नई पीढ़ी के लेखकों ने भी मुक्त भाव से गुरुओं के गुरु आदेश्वर राव के प्रति अपना सम्मान व्यक्त किया है।

इस अभिनंदन ग्रंथ में सम्मिलित आचार्य पी.आदेश्वर राव का आत्मकथ्य ‘मेरी कविताओं की रचना प्रक्रिया’ बार-बार पढ़ने और गुनने योग्य है। उन्होंने इसे अपना सौभाग्य माना है कि हिंदी और तेलुगु के दिग्गज कवि आलूरि बैरागी चौधरी तथा शीर्षस्थ साहित्यकार आचार्य डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने उन्हें भाषा, साहित्य, सृजन और समीक्षा के संस्कार प्रदान किए। ग्रंथ के एक खंड में आदेश्वर राव के कुछ प्रतिनिधि गीत भी उद्धृत किए गए हैं। अगर यह खंड कुछ और बड़ा होता तो कुछ और रसमय हो जाता! अस्तु; फिलहाल इस चर्चा को उनकी इन पंक्तियों के साथ विराम दिया जा सकता है –

"पंख लगा दो प्राणों में।
उड़ जाऊँ मैं मुक्त गगन में,
लेकर तुझ को बाहों में॥ 
भय से मत हो जाओ कंपित
नय से मत हो जाओ पुलकित
मुझ से मत हो जाओ शंकित
विचरेंगे मेघों के वन में।
पंख लगा दो प्राणों में॥


रविवार, 16 जून 2019

स्वीकृति वक्तव्य : डॉ. सी. नारायण रेड्डी साहित्य पुरस्कार-2019


समारोह की अध्यक्ष आदरणीया प्रो. शुभदा वांजपे जी, मुख्य अतिथि श्रद्धेय डॉ. नंदिनी सिद्दा रेड्डी जी, राइटर्स एंड जर्नलिस्ट्स असोसिएशन ऑफ इंडिया, तेलंगाना इकाई के महासचिव श्री देवाप्रसाद मयला जी, कादंबिनी क्लब, हैदराबाद एवं आथर्स गिल्ड ऑफ इंडिया, हैदराबाद चैप्टर की संयोजक परम आदरणीया डॉ. अहिल्या मिश्र जी, मंचासीन विद्वज्जन, सभागार में उपस्थित साहित्य प्रेमियो.... 

यह मेरे लिए अत्यंत हर्ष और गौरव का विषय है कि ‘डॉ. सी. नारायण रेड्डी साहित्य पुरस्कार-2019’ के लिए मुझे चुना गया है। इस हेतु मैं पुरस्कार समिति के सदस्यों के प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करती हूँ। मैं इस पुरस्कार को विनम्रतापूर्वक शिरोधार्य करती हूँ। मेरे लिए यह सम्मान समस्त तेलुगु एवं हिंदी साहित्यिक जगत के स्नेह और आशीर्वाद का प्रतीक है। 

यह क्षण मेरे लिए अविस्मरणीय क्षण है। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि कभी मुझे डॉ. सी. नारायण रेड्डी के नाम से प्रवर्तित पुरस्कार प्राप्त होगा। 

मैं इस अवसर पर नारायण रेड्डी जी से जुड़ी हुई कुछ स्मृतियों को आपसे साझा करना चाहती हूँ। लगभग 40 वर्ष की दोस्ती थी मेरे पिताजी श्री गुर्रमकोंडा श्रीकांत और डॉ. सी. नारायण रेड्डी जी की। दोनों ने मिलकर साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन भी किया था। दोनों ही साहित्यकार होने के कारण घंटों चर्चा-परिचर्चा में बिताते थे। समय का पता ही नहीं चलता था उन्हें। साहित्य से लेकर राजनीति तक तमाम बातें होती थीं। 1992 में मुझे पहली बार नारायण रेड्डी जी के दर्शन का सौभाग्य मिला - रवींद्र भारती के सांस्कृतिक विभाग में। पिताजी और नारायण रेड्डी जी चर्चा कर रहे थे और मैं बस उनकी बातें सुन रही थी। अचानक अपनी बात रोककर नारायण रेड्डी जी ने मुझसे तेलुगु में प्रश्न किया तो मैंने अंग्रेजी में उत्तर दिया। तो एकदम गुस्से में आ गए और पिताजी को डाँटने लगे। तब पिताजी ने कहा कि ‘तमिलनाडु में पली-बढ़ी होने से यह तमिल जानती है। तेलुगु भी समझ तो सकती है लेकिन उसमें बात नहीं कर सकती। अंग्रेजी और हिंदी में जवाब देती है।’ तब नारायण रेड्डी जी ने मुझ से हिंदी में बात की और कहा ‘यह अच्छी बात नहीं है बेटा। देखो! आपके कारण पिताजी को आज मेरे सामने शर्मिंदा होना पड़ा। कल किसी और के सामने होना पड़ेगा। इसलिए मातृभाषा सीखो। माँ को सम्मान दो।’ उसके बाद मैंने अपने आप से वादा कर लिया था कि मेरे कारण पिताजी को कभी शर्मिंदा न होना पड़े। 

उस दिन नारायण रेड्डी जी ने अपनी प्रसिद्ध काव्य पंक्तियाँ सुनाई – ‘नड़का ना तल्लि/ परुगु ना तंड्री/ समता ना भाषा/ कविता ना श्वासा।’ (गति मेरी माँ है/ प्रयाण मेरा पिता/ समता मेरी भाषा है/ कविता मेरी साँस)। नारायण रेड्डी जी की बातों से मैं बेहद प्रेरित हुई। उसके बाद तेलुगु बोलना ही नहीं, लिखना-पढ़ना भी सीख गई। आज मैं तेलुगु साहित्य को यथाशक्ति हिंदी पाठकों के समक्ष लाने का कार्य कर रही हूँ – सेतुबंध में गिलहरी बनकर। तेलुगु साहित्य पर केंद्रित मेरी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। दोनों ही कृतियाँ सरकारी अनुदान से प्रकाशित हुई हैं। पहली पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अवलोकन’ परिलेख हिंदी साधक सम्मान से पुरस्कृत है तो दूसरी पुस्तक ‘तेलुगु साहित्य : एक अंतर्यात्रा’ केंद्रीय हिंदी निदेशालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय के ‘हिंदीतर भाषी हिंदी लेखक पुरस्कार’ से पुरस्कृत है। वर्तमान मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक जी की एक पुस्तक का हिंदी से तेलुगु में और तेलुगु साहित्यकार कालोजी की कुछ कविताओं का हिंदी में अनुवाद करने का भी सुअवसर मुझे मिला है। मुझे सदा तेलुगु साहित्य पर हिंदी में लिखने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करने वाले अपने गुरुवर श्रद्धेय प्रो.ऋषभदेव शर्मा जी के प्रति मैं आजीवन ऋणी रहूँगी। 

तीन चार विभिन्न अवसरों पर नारायण रेड्डी जी से मुलाक़ात हुई। उनके साथ मंच साझा करने का अप्रतिम अवसर भी प्राप्त हुआ। 2009 में जब पिताजी को श्रीश्री सम्मान प्राप्त हुआ तो मैं उनके साथ कार्यक्रम में गई। मुख्य अतिथि थे डॉ. सी. नारायण रेड्डी जी। पिताजी ने मेरी ओर इशारा करते हुए उनसे पूछा ‘इसे पहचाना?’ तो रेड्डी जी ने कहा – ‘हाँ, मैंने कुछ कार्यक्रमों में तेलुगु पुस्तकों की समीक्षा करते हुए इनको सुना है। अच्छी समीक्षक है। लग रहा है कि दोनों भाषाओं पर अधिकार पाने की कोशिश कर रही है।’ तब पिताजी ने हँसते हुए कहा – ‘यह तो मेरी वही बेटी है जिसके कारण आपने मुझे डाँटा था।’ बेहद खुश होकर मेरी पीठ थपथपाते हुए उन्होंने कहा – ‘अच्छा; तेलुगु सीख गई! पिता का नाम रोशन करेगी।’ आज मेरे पिताजी होते तो वे बहुत ही प्रसन्न होते। 

‘डॉ. सी. नारायण रेड्डी साहित्य पुरस्कार’ मिलने से मेरी ज़िम्मेदारी और बढ़ गई है। अब मुझे पहले से ज्यादा साहित्य की सेवा करनी होगी। मैंने कभी नियमित रूप से नहीं लिखा है। कविता तो मैं तभी लिखती हूँ जब मेरे अंदर कुछ संघर्ष चलता है। गद्य की भी स्थिति लगभग ऐसी ही है। लेकिन मेरी ज़िम्मेदारी अब आप लोगों ने बढ़ा दी है। 

सिनारे ने अपनी एक कविता में ज़ोर देकर कहा था - 

‘एक बादल का हस्ताक्षर उसकी बारिश की बूँदों में पाया जाता है 
एक पेड़ का हस्ताक्षर उसकी कोमल पत्तियों में पाया जाता है 
मेरे हस्ताक्षर के लिए दस्तावेजों की तलाश व्यर्थ है 
मेरे मन का हस्ताक्षर मेरी काव्य कृतियों में पाया जाता है’ 

तो मैं उन्हीं की इन पंक्तियों को साक्षी मानकर आप सबके समक्ष आज संकल्प लेती हूँ कि मैं निरंतर लिखूँगी और हिंदी तथा तेलुगु के लिए आजीवन काम करूँगी। 

मैं सभी आयोजकों, अतिथियों और पुरस्कार चयन समिति के सदस्यों के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ। 

अंत में सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात है कि आज ‘फादर्स डे’ है। इस दिन यह पुरस्कार ग्रहण करते हुए मैं सचमुच भावविह्वल हूँ। और यह सम्मान मैं अपने माता-पिता की स्मृति को समर्पित कर रही हूँ। 

धन्यवाद। 
- गुर्रमकोंडा नीरजा

रविवार, 2 जून 2019

प्रतिरोध में उठता मन : रमणिका गुप्ता


                                                           
"हमने तो कलियाँ माँगी ही नहीं
काँटे ही माँगे
पर वो भी नहीं मिले
यह न मिलने का अहसास
जब सालता है
तो काँटों से भी अधिक गहरा चुभ जाता है
तब
प्रतिरोध में उठ जाता है मन-
भाले की नोकों से अधिक मारक बनकर"

... कहने वाली बेबाक साहित्यकार रमणिका गुप्ता का जन्म 22 अप्रैल, 1930 को सुनाम (पंजाब) में हुआ था। उन्होंने अपने पिता से उदारता और माता से जिद्दी स्वभाव अर्जित की। अपनी आत्मकथा ‘आपहुदरी’ में उन्होंने स्वयं इस बात की पुष्टि की। 

रमणिका गुप्ता ने आजीवन आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों के उत्थान हेतु कार्य किया। स्त्रियों की मुक्ति के संदर्भ में उनका कथन उल्लेखनीय है। उन्होंने एक साक्षात्कार में कहा कि "जब मैं स्त्री मुक्ति का नाम भी नहीं सुनी थी, तभी से स्त्री के स्वाभिमान की लड़ाई लड़ रही हूँ। घर से ही मैंने नौकरों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी है।" स्त्री विमर्श का दिशा निर्धारित करते हुए उन्होंने कहा है कि - "स्त्री विमर्श ने औरत में वस्तु से व्यक्ति बनने की समझ पैदा की है। स्त्री विमर्श से स्त्रियों में आटोनामी यानी स्वायत्तता की इच्छा जगी है। उनमें निर्णय लेने की शक्ति पनपी है। हालांकि इतना ही काफी नहीं है क्योंकि अब भी और बहुत कुछ करना बाकी है। भारत की 99 प्रतिशत स्त्रियाँ सुहाग-भाग पति-परमेश्वर, पारिवारिक इज्जत की अवधारणओं से ग्रस्त हैं। ये अवधारणाएँ एक ग्रंथि की सीमा तक पहुँच चुकी हैं, उनके अंतर्मन में कुंडली जमाकर बैठी हुई हैं। हमें इनसे निजात पानी है तो अपने को इनसे मुक्त करना ही होगा।" (गुप्ता, रमणिका. स्त्री मुक्ति, संघर्ष और इतिहास, नई दिल्ली : सामयिक प्रकाशन. पृ.66) 

रमणिका गुप्ता की कृतियों में (कविता संग्रह) भीड़ सतर में चलने लगी है, तुम कौन, तिल तिल नूतन, मैं आजाद हुई हूँ, अब मूरख नहीं बनेंगे हम, भला मैं कैसे मरती, आदम से आदमी तक, विज्ञापन बनते कवि, कैसे करोगे बँटवारा इतिहास का, निज घरे परदेसी, प्रकृति युद्धरत है, पूर्वांचल : एक कविता यात्रा, आम आदमी के लिए, खूँटे, अब और तब, गीत-अगीत; (उपन्यास) सीता, मौसी; (कहानी संग्रह) बहू जुठाई; (गद्य पुस्तकें) कलम और कुदाल के बहाने, दलित हस्तक्षेप, सांप्रदायिकता के बदलते चेहरे, दलित चेतना : साहित्यिक और सामाजिक सरोकार, दक्षिण-वाम के कठघरे और दलित साहित्य, असम नरसंहार : एक रपट, राष्ट्रीय एकता, विघटन के बीज; (आत्मकथा) हादसे, आपहुदरी उल्लेखनीय हैं। उत्कृष्ठ साहित्य के लिए वे अनेक सम्मानों एवं पुरस्कारों से अलंकृत हो चुकी हैं। 

रमणिका गुप्ता ने स्वयंसेवी कार्यकर्ता एवं साहित्यकार के रूप में हमेशा ही स्त्री, आदिवासी, दलित और मजदूरों के मुद्दों को उकेरा। उनके साहित्य को ध्यान से पढ़ने से यह स्पष्ट होता है कि उन्होंने आदि से अंत तक मुक्ति की कामनी की। अनेक रूपों एवं आयामों में यह मुक्ति उनके साहित्य में निहित है। अपनी कविता ‘मैं आजाद हुई हूँ’ में वे कहती हैं कि "हाँ! डरो मत! आओ न!/ भीतर चले आओ तुम/ अब तुम पर कोई खिड़कियाँ/ बंद करने वाला नहीं है/ अब मैं अपने वश में हूँ/ किसी और के नहीं/ इसलिए रुको मत/ मैं आजाद हुई हूँ।" 

रमणिका गुप्ता जो भी लिखती हैं बेबाक लिखती हैं। वे हमेशा विवादों के कटघरे में खड़ी रही। उनका कहना है कि पुरुषों का आर्थिक दोहन होता है तो स्त्रियों का दैहिक दोहन होता है। वे कहती हैं कि "हम राजनीतिक तौर पर आजाद तो चुके हैं, पहनावे में भी पश्चिम की नकल कर रहे हैं किंतु सोच के स्तर पर विशेषकर स्त्री और सेक्स के बिंदु पर, हमारी मानसिकता मध्यवर्गीय ही है – बल्कि कहा जाए तो 16वीं सदी की मानसिकता ही हम आज भी ढो रहे हैं। हम सूडोमॉडर्न हैं – मॉडर्न नहीं।" (गुप्ता, रमणिका. 2005. हादसे. नई दिल्ली : राधाकृष्ण पेपरबैक्स) 

रमणिका गुप्ता ने एक साक्षात्कार में स्त्रियों की स्थिति के बारे में स्पष्ट करते हुए कहा कि "देश में लाखों की संख्या में जो महिलाएँ खेतों में खटती हैं वे हमसे ज्यादा स्वतंत्र हैं। मध्य वर्ग की स्त्री को क्या चाहिए वर्जनाओं से मुक्ति, काम करने की छूट, स्वावलंबी बनने की छूट। निम्न वर्ग की स्त्रियाँ पहले से ही स्वावलंबी हैं। कई बार वो पति से ज्यादा कमाती हैं। बच्चों को पालती हैं। उनको छूट है शादी करने की, छोड़ने की और दूसरा मर्द करने की। पर उनके यहाँ दबाव दूसरी तरह के हैं। वहाँ दबंग हावी हैं। उच्च वर्ग की बात करें तो यहाँ की महिला या तो बिजनेस वीमेन है या फिर वे ड्राइंग रूम डॉटर्स हैं। वो उसी में खुश हैं। हमारी 90 फीसदी औरतें अपनी गुलामी का जश्न मनाती हैं। वो सुहाग, पति परमेश्वर जैसी बातों में रहती हैं। निम्न वर्ग में बलात्कार होता है तो जुल्म होता है और हमारे यहाँ बलात्कार होता है तो इज्जत लुटती है। इज्जत का सिंड्रोम शुचिता, कुंवारीं लड़की, इसका सिंड्रोम औरत को गुलाम बनाए रखता है। परिवार ने महिलाओं को पुरुष के नजरिये से सोचने वाला बना दिया है। कामकाजी महिला अपने पति से मार खाती है, डॉक्टर महिला मजार-मंदिर पर जाकर लड़के की माँग करती है। परिवार के टूटने से ही स्त्रियों की स्थिति में कुछ सुधार होगा। वह स्वतंत्र बनेगी, बाहर निकलेगी, काम करेगी तब कहीं जाकर वह अपनी इज्जत करना सीखेगी। जब वह अपनी इज्जत करेगी तभी दूसरे भी उसका सम्मान करेंगे।" 

रमणिका गुप्ता की आत्मकथा ‘हादसे’ के संबंध में सीताराम येचुरी का कहना है कि ‘हादसे’ मुठभेड़ों की शृंखला है। सुकृता पॉल रमणिका गुप्ता को व्यक्ति के बजाए संस्था के रूप में रेखांकित करते हुआ कहती हैं कि यदि उन्होंने आत्मकथा (हादसे) में खुद को ‘कोयले की रानी’ और ‘पानी की रानी’ बताती हैं तो इसके पीछे का तथ्य यह है कि उन्होंने झारखंड के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में कोयले और पानी के लिए संघर्ष किया था। रमणिका गुप्ती की कथनी और करनी में अंतर नहीं दीखती। वे आदिवासियों, दलितों और स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ हमेशा लड़ती रहीं। 

‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिका के माध्यम से रमणिका गुप्त ने हाशियेकृत समाजों के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण कार्य किया। इसकी शुरूआत उन्होंने 1986 में त्रैमासिक पत्रिका के रूप में हजारीबाग से की थी। बाद में इसका प्रकाशन दिल्ली से होने लगा और 2013 अक्टूबर से मासिक के रूप में परिवर्तित हुई। इसका मुख्य उद्देश्य आदिवासियों, दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं की सृजनशीलता को प्लेटफार्म प्रदान करना था। स्त्री अधिकारों के संघर्षरत रमणिका गुप्ता 27 मार्च, 2019 को पंचतत्व में विलीन हुई। स्त्री, आदिवासी, दलित और अल्पसंख्यक की मुक्ति की कामना करने वाली रमणिका गुप्ता को भावभीनी श्रद्धांजलि अर्पित करती हैं।

मंगलवार, 21 मई 2019

हरित विमर्श की प्रस्तावना

प्रकृति और मनुष्य एक दूसरे से संबद्ध है। प्रकृति का अर्थ है संपूर्ण भौतिक वातावरण अथवा पर्यावरण। मनुष्य तथा प्राकृतिक पर्यावरण के बीच संतुलन बनाए रखना सृष्टि के अस्तित्व की अनिवार्य शर्त है। आदर्श स्थिति यह हो सकती है कि पेड़-पौधे, पशु-पक्षी और मनुष्य सामंजस्य में रहें तथा कोई भी किसी पर हावी न हो या एक-दूसरे को नष्ट न करे। पुराने जमाने में मनुष्य की आवश्यकताएँ सीमित थीं। अतः वह पर्यावरण के दोहन की बात सपने में भी नहीं सोच सकता था। लेकिन सभ्यता के विकास के साथ-साथ मनुष्य ने प्रकृति का दोहन करना सीखा। सृष्टि का सबसे अधिक योग्य और बुद्धिमान सृजन होने के कारण मनुष्य ने यह भ्रम पाल लिया कि वह सारी सृष्टि का एक मात्र मालिक है और उसके अलावा सृष्टि में जो कुछ भी है सब उसके उपभोग के लिए है। इसलिए उसने पर्यावरण का अंधाधुंध उपभोग किया। इस तरह प्राकृतिक संसाधनों के व्यापक दुरुपयोग ने मनुष्य को विनाश के कगार पर लाकर छोड़ दिया है। पिछले कुछ दशकों से पर्यावरण के क्षरण और प्रदूषण ने मानव समाज के लिए खतरा पैदा किया है। मनुष्य सुख-सुविधाओं के लिए पर्यावरण को प्रदूषित करके कुछ समय के लिए यह सोच सकता है कि उसने प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है लेकिन उसे याद रखना चाहिए कि जब प्रकृति बदला लेगी तो उसका सामना करना मनुष्य के लिए संभव नहीं होगा – ‘प्रकृति रही दुर्जेय/ पराजित थे हम सब अपने मद में।‘ (जयशंकर प्रसाद. कामायनी)। 

मनुष्य जब पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ करता है तो वह अपना रुद्र रूप प्रदर्शित करती ही है। पौराणिक भाषा में इस स्थिति को प्रलय कहा गया है। ‘कामायनी’ के आरंभ में प्रकृति के भयानक रूप का वर्णन है जिसमें जल-प्रलय के बाद सब कुछ नष्ट हो जाता है। जयशंकर प्रसाद ने ‘कामायनी’ के प्रथम सर्ग में जिस प्रलय का चित्रण किया है उसके पीछे प्राकृतिक संपदा के अबाध उपभोग और पर्यावरण के संतुलन के प्रति देव जाति का अवज्ञापूर्ण आचरण निहित है। कहना अनुचित न होगा कि इस दृष्टांत के माध्यम से प्रसाद ने अविवेकपूर्वक प्रकृति के दोहन की उपभोगवादी संस्कृति के विनाश की भविष्यवाणी की है। इसे बीसवीं शताब्दी के हिंदी साहित्य में पर्यावरण विमर्श का सार्थक उद्घोष माना जा सकता है। यही वह समय था जब भारतीय समाज आधुनिक उपभोक्तावादी संस्कृति के संपर्क में आ रहा था और साथ ही उसके परिवार से लेकर परिवेश तक पर पड़ने वाले विपरीत प्रभावों को देख और समझ भी रहा था। 

पुरुषप्रधान सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में प्रकृति और स्त्री दोनों को एक-दूसरे के प्रतीक के रूप में देखा जाता रहा है। आदर्श स्थिति तो यह होनी चाहिए थी कि इन दोनों के साथ सामंजस्यपूर्ण सहअस्तित्व रखते हुए सभ्यता का विकास किया जाता। धरती और स्त्री दोनों को पूजनीय मानने के पीछे शायद यही दृष्टि रही हो। सामान्यतः धरती को स्त्री के समान और स्त्री को धरती के समान माना जाता रहा है। लेकिन अधिकार और सत्ता की अपार इच्छा पुरुषवादी व्यवस्थाओं के चरित्र को शोषण की मनोवृत्ति से संपन्न करती रही है। इस मनोवृत्ति के कारण ही पुरुष केन्द्रित समाज का विकास पर्यावरण और स्त्री के निरनटर दोहन पर टिका है। इस दोहन के पीछे पुरुष की आधिपत्य की भावना है। ‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद पुरुष के इस सत्तावादी व्यवहार के प्रति भी ध्यान आकर्षित करते हैं। मनु जब इड़ा से दुर्व्यवहार करता है तो देव-शक्तियाँ क्रोध से भर जाती हैं – ‘उधर गगन में क्षुब्ध हुई सब देव-शक्तियाँ क्रोध-भरी,/ रुद्र-नयन खुल गया अचानक – व्याकुल काँप रही नगरी,/ अतिचारी था स्वयं प्रजापति, देव अभी शिव बने रहें!/ नहीं, इसी से चढ़ी शिंजिनी अजगव पर प्रतिशोध भरी।‘ (जयशंकर प्रसाद. कामायनी, स्वप्न, पृ.69)। इसे पर्यावरण विमर्श की अत्यंत महत्वपूर्ण शाखा ईकोफेमिनिज़्म (स्त्रीवादी पर्यावरण विमर्श) की आहट के रूप में विश्लेषित किया जा सकता है। 

इसमें कोई संदेह नहीं है कि उपभोक्तावादी संस्कृति ने एक ओर तो पर्यावरण को नष्ट किया तथा दूसरी ओर स्त्री को ‘उपभोग की वस्तु’ बना डाला। मनुष्य की महत्वाकांक्षाएँ इतनी बढ़ रही हैं कि “अपने नफे के लिए साधारण आवश्यकता की वस्तुओं के दाम चढ़ा सके, अपने माल की खपत कराने के लिए युद्ध करा दे, गोला-बारूद और युद्ध सामग्री बनाकर दुर्बल राष्ट्रों का दमन कराए।“ (प्रेमचंद, महाजनी व्यवस्था)। ‘गोदान’ में प्रेमचंद कहते हैं कि “धन-लोभ ने मानव भावों को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लिया है। कुलीनता और शराफत, गुण और कमाल की कसौटी पैसा, और केवल पैसा है। .... यह हवा इतनी जहरीली हो गई है कि इसमें जीवित रहना कठिन होता जा रहा है।“ (प्रेमचंद, गोदान)। 

मनुष्य इतना स्वार्थी बन चुका है कि उपजाऊ जमीन को भी नष्ट करके उसके स्थान पर कारख़ाने ही कारखाने खड़े कर दिए हैं जिससे पर्यावरणीय संतुलन ध्वस्त हो गया है। प्रेमचंद इस ओर ‘रंगभूमि’ (1925) में पहले ही संकेत कर गए हैं। सूरदास कहता है कि “जमीन जाएगी तो इसके साथ ही मेरी जान भी जाएगी।“ जब जॉन सेवक जमीन के लिए मुँह माँगा दाम देने के लिए सूरदास से सौदा करने लगता है तो सूरदास कहता है “इस जमीन से मुहल्लेवालों का बड़ा उपकार होता है। कहीं एक अंगुल भर चरी नहीं है। आस-पास के सब ढोर यहीं चरने आते हैं। बेच दूँगा तो ढोरों के लिए कोई ठिकाना न होगा।“ उसे किसी भी स्थिति में यह स्वीकार नहीं है कि, “कारखाने के लिए बेचारी गउएँ मारी-मारी फिरें!” (प्रेमचंद, रंगभूमि)। लेकिन बीसवीं शताब्दी का पूरा इतिहास गवाह है कि दुनिया भर में सूरदास की यह आवाज दबा दी गई और औद्योगीकरण ने विजय प्राप्त की। 

औद्योगीकरण के साथ ही शहरीकरण की होड़ लगी। अब तो स्मार्ट शहरों की बात की जा रही है। लेकिन इस सच्चाई से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता है कि हरियाली की कीमत पर पत्थर के जंगल खड़े होने से दुनिया भर को ग्लोबल वार्मिंग का खतरा झेलना पड़ रहा है। ओज़ोन की पर्त में छेद होते जा रहे हैं। नदियों की तुलना में समुद्र ऊँचा होता जा रहा है। ये सब उस प्रलय की ओर ही इशारा करने वाली घटनाएँ हैं जिसके मूल में पर्यावरण का अंधाधुंध दोहन और प्रदूषण निहित है। पर्यावरण के संरक्षण के प्रति उदासीन मनुष्य जाती अपने आपको एक ऐसी सड़ांध से घेरती जा रही है जो फेफड़ों में जाकर मनुष्य के अस्तित्व की जड़ों को खोखला करने वाली है। दरअसल, पर्यावरण को प्रदूषित करने वाले स्रोतों को पहचानने और वहीं उसका निराकरण करने की आवश्यकता कल भी थी और आज भी है। प्रेमचंद ने अपने उपन्यास ‘कमभूमि’ (1932) में प्रतीकात्मक शैली में इस ओर इशारा किया है - “गली में बड़ी दुर्गंध थी। गंदे पानी के नाले दोनों तरह बह रहे थे। घर प्रायः सभी कच्चे थे। गरीबों का मुहल्ला था। शहरों के बाज़ारों और गलियों में कितना अंतर है! एक फूल है – सुंदर, स्वच्छ, सुगंधमय; दूसरी जड़ है – कीचड़ और दुर्गंध से भरी टेढ़ी-मेढ़ी; लेकिन क्या फूल को मालूम है कि उसकी हस्ती जड़ से है?” (प्रेमचंद. कर्मभूमि)। यहाँ यह संकेत निहित है कि ग्रामीण परिवेश और पर्यावरण यदि स्वस्थ नहीं रहेगा तो शहरी परिवेश भी एक न एक दिन प्रदूषित हो ही जाएगा। अतः शहर केंद्रित आधुनिक सभ्यता को अपनी जड़ें पहचान कर गाँवों को स्वच्छ और स्वस्थ बनाने की चिंता करनी ही चाहिए। हम कह सकते हैं कि यह पर्यावरण विमर्श का ग्राम केंद्रित मॉडल हो सकता है। 

प्रकृति के दोहन से उतपन्न समस्याओं के कारण एक नया अध्ययन क्षेत्र उपस्थित हुआ जिसे ईकोक्रिटिसिज़्म कहा जाता है। हिंदी में इसके लिए पारिस्थितिकी और पर्यावरण विमर्श जैसे शब्द प्रचलन में हैं। ये दोनों ही अनूदित नामकरण क्रमशः अपारदर्शी और अपर्याप्त प्रतीत हो गए हैं। इनकी तुलना में प्रो. गोपाल शर्मा द्वारा अपने एक निबंध ‘ईकोक्रिटिसिज़्म : हरित विमर्श की अवधारणा’ में ईकोक्रिटिसिज़्म के लिए प्रस्तावित ‘हरित विमर्श’ अपेक्षाकृत अधिक पारदर्शी और सटीक है। जिसका केंद्रीय लक्ष्य है - संस्कृति और प्रकृति के बीच संबंधों पर पुनर्विचार। यह लक्ष्य ‘हरित विमर्श’ द्वारा बेहतर ढंग से संप्रेषित हो सकता है। 

दरअसल, सांस्कृतिक परिदृश्य का अनिवार्य संबंध भौतिक परिदृश्य अर्थात भूगोल से होता है। इसमें भी संदेह नहीं कि प्रकृति को काटछांट कर ही मनुष्य ने तथाकथित संस्कृति का निर्माण किया है। जब तक मनुष्य प्रकृति के साथ घनिष्ठ आत्मीय संबंध का निर्वाह करता है तब तक पर्यावरण के लिए कोई खतरा नहीं होता। दुर्भाग्य यह है कि अपनी सुख सुविधाओं को बढ़ाने के लिए मनुष्य विज्ञान और प्रौद्योगिकी की प्रगति के साथ प्रकृति से अलग होता गया। परिणामस्वरूप प्राकृतिक पर्यावरण धीरे-धीरे कृत्रिम वातावरण में बदलता गया। इसका अर्थ है कि पर्यावरण संकट इस कारण नहीं है कि ईकोसिस्टम कैसे कार्य करता है बल्कि इसके लिए हमारी नैतिक प्रणाली की खामियाँ जिम्मेदार हैं। 

आज हम प्रदूषित वातावरण में जी रहे हैं। प्राणवायु के स्थान पर मौत की हवा अपनी साँसों में भर रहे हैं। पल-पल हवाएँ खराब होती जा रही हैं। प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति को ऐसी स्थिति में पर्यावरण दोहन का विरोध करने लिए उठा खड़ा होना होगा। 

तेलुगु साहित्य 2016 : एक सर्वेक्षण

2016 में तेलुगु साहित्य की विभिन्न विधाओं में प्रभूत लेखन सामने आया। पाठकीय रुझान की दृष्टि से कथा साहित्य केंद्रीय विधा बना हुआ है। संस्मरण और आत्मकथा भी तेलुगु के लेखकों और पाठकों की प्रिय विधाएँ हैं। इस वर्ष भी इन विधाओं में रोचक कृतियाँ सामने आईं। समीक्षा और फिल्म विषयक लेखन के साथ ही मीडिया के प्रभाव विषयक पुस्तकें भी पर्याप्त चर्चित रहीं। 

यह निर्विवाद सत्य है कि संपूर्ण भारतवर्ष में लोककथा की अत्यंत समृद्ध परंपरा रही है। लोककथाएँ लोक के कंठ से फूटती हैं और उनमें संवेदनाओं के साथ-साथ सृजनात्मकता का सम्मिश्रण होता है। इन्हीं लोककथाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कहानियों को अक्षरबद्ध करने लगा ताकि यह संपदा पीढ़ी दर पीढ़ी अक्षुण्ण रहे। ‘टी तोटला आदिवासुलु चेप्पिना कथलु’ (चाय बागान के आदिवासियों की कथाएँ)[1] शीर्षक कहानी संग्रह में संकलित 16 कहानियाँ दार्जिलिंग के चाय बागान में कार्यरत आदिवासियों द्वारा कही गई लोककथाएँ हैं। सामान्या ने इन लोककथाओं को अक्षरबद्ध किया है ताकि यह विरासत लुप्त न हो जाए। इन कहानियों के माध्यम से आदिवासी जीवनशैली, रीति-रिवाज, संस्कार आदि के संबंध में जानकारी उपलब्ध होती है। आज उत्तर आधुनिक संदर्भ में आदिवासियों को केंद्र में रखकर कहानियाँ एवं उपन्यास लिखे जा रहे हैं, शोधकार्य कार्य हो रहे हैं और आलोचनात्मक ग्रंथ पाठकों के सामने आ रहे हैं। इस दृष्टि से बालगोपाल कृत ‘आदिवासुलु : वैद्यम, संस्कृति, अनचिवेता’ (आदिवासी : चिकित्सा, संस्कृति और दमन)[2], ‘आदिवासुलु : चट्टालु, अभिवृद्धि’ (आदिवासी : न्याय और अभिवृद्धि)[3] उल्लेखनीय हैं। 

आज के साहित्यकार अपने चारों ओर निहित परिवेश से कथासूत्र ग्रहण करते हैं और थोड़ा बहुत कल्पना के योग से कहानी बुनते हैं। कोम्मिशेट्टि मोहन कृत ‘पूला परिमलम’ (फूलों की सुगंध)[4] शीर्षक कहानी संग्रह में कुल 12 कहानियाँ संकलित हैं। इन कहानियों में मध्यवर्गीय मानसिकता के साथ-साथ निम्नवर्ग के लोगों की समस्याओं का चित्रण भी है। इन कहानियों को पढ़ते समय पाठक को ऐसा लगता है कि वह इन पात्रों से भलीभाँति परिचित है। इस संग्रह में संकलित कहानी ‘वाग्दानम’ (वादा) में कहानीकार ने यह दर्शाया है कि शराब के शिकंजे में फँसे हुए व्यक्ति के परिवार को किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। पार्वतम्मा का पति शिवय्या शराबी है। इस आदत से छुटकारा दिलाने के लिए वह प्रयत्न करती है। पति के व्यसन से त्रस्त पार्वतम्मा पति को कोसती रहती है, गुस्से में आकर पीटती भी है। लेकिन शराबी पति शराब छोड़ने का नाम नहीं लेता, तो वह प्यार से समझाती है कि उसके स्वास्थ्य के लिए शराब हानिकारक है। पत्नी का दिल रखने के लिए वह शराब छोड़ने का नाटक करता है। इतने में सरकार घोषणा करती है कि शराब पर रोक लगाई जा रहा है। यह सुनकर शिवय्या अपने आपको रोक नहीं पाता और भगवान की मनौती हेतु रखे हुए पैसों को लेकर शराब पीने चला जाता है यह कहकर कि इसके बाद गलती से भी वह कभी शराब को हाथ तक नहीं लगाएगा। शिवय्या रात को नशे में घर आता है और सुबह मृत पाया जाता है। कहानी का अंत पत्नी के विलाप से होता है - ‘उन्होंने अपना वादा पूरा किया।’ यहाँ कहानीकार ने यह दर्शाया है कि शिवय्या की खुली हुई आँखें मानो कह रही हों कि ‘मैं शराब को कभी हाथ नहीं लगाऊँगा। यह मेरा वादा है।’ 

शहरीकरण, एकल परिवार, कम आय आदि से समाज जूझ रहा है। जहाँ बूढ़े माता-पिता अपनी संतान के साथ रह सकते हैं, वहाँ तो फिर भी खैर है; परंतु जहाँ युवक गाँव छोड़कर शहर जा रहे हैं, वहाँ परिस्थिति बहुत गंभीर है। कोम्मिशेट्टि मोहन कृत ‘पूला परिमलम’ (फूलों की सुगंध) कहानी संग्रह में संकलित कहानी ‘ओ हो... अलागा!’ (अ हा... ऐसा है क्या!) इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। इसमें वृद्धों की मनोदशा, उनके आयुजनित बड़प्पन, बहू के रूखा व्यवहार और बेटे की निरूपायता को बखूबी दर्शाया गया है। बेटा चाहते हुए भी माता-पिता को अपने साथ शहर में रख नहीं सकता। जब बूढ़े माता-पिता बेटे-बहू से मिलने गाँव से शहर आते हैं तो उनके प्रति बहू का व्यवहार ठीक नहीं रहता लेकिन बेटा कुछ नहीं कर सकता। जब वह दीपावली के अवसर पर माता-पिता के लिए भी नए वस्त्र लाता है तो बहू हंगामा कर देती है। तीर्थयात्रा के लिए निकले माता-पिता भगवान के पास चले जाते हैं। बरसी के दिन बहू वही नए कपड़े उनकी तस्वीर के समक्ष लाकर रखती है तो उनके बेटे के पूछने पर जवाब देती है कि नए कपड़े दादा-दादी के लिए हैं। यह सुनकर वह नन्हा बालक कहता है, ‘अच्छा! ऐसा है क्या! लेकिन दादा-दादी तो नहीं रहे, फिर कपड़े कौन पहनेंगे माँ?’ जीते जी वृद्ध माता-पिता को न तो सम्मान प्राप्त हुआ और न ही प्यार, लेकिन मरने के बाद नए कपड़े अर्पित किए जाने पर कहानीकार ने छोटे बच्चे के माध्यम से व्यंग्य कसा है। इस कहानी संग्रह में संकलित परीक्षा, स्वार्थम (स्वार्थ), वारसत्वम (विरासत), अम्मायिलु... जिंदाबाद... (लड़कियाँ.. जिंदाबाद), पूल परिमलम (फूलों की सुगंध), प्रयाणम (यात्रा) आदि कहानियों के कथासूत्र और चरित्र हमारे इर्द-गिर्द उपस्थित हैं और रोज़ ही हमारा उनसे आमना-सामना होता रहता है। 

पोतूरी विजयलक्ष्मी कथाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनके 20 उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं और समसामयिक मुद्दों पर 250 से भी अधिक कहानियाँ। उनके ‘पूर्वी’[5] शीर्षक कहानी संग्रह में कुल 16 कहानियाँ सम्मिलित हैं। इस संग्रह की शीर्ष कहानी ‘पूर्वी’ एक ऐसी युवती की कहानी है जिसका जन्म पूर्वी भारत में होता है और विवाह तेलुगुभाषी युवक से। एक दुर्घटना में पति का निधन हो जाता है। बीमाराशि सास-ससुर को देने के उद्देश्य से पूर्वी उनकी खोज में आंध्र प्रदेश जाती है और अपने सास-ससुर से मिलती है। इस संग्रह में संकलित सुखांतम (सुखांत), प्रेमिकुला रोजु (प्रेमियों के दिन), श्रीदेवी अम्मगारि मामिडी तोरणम (श्रीदेवी माता के आम का तोरण) आदि कहानियों में परिवेश चित्रण की दृष्टि से तेलुगु भाषासमाज और संस्कृति की प्रामाणिक छवियाँ ध्यान खींचती हैं। 

परिमला सोमशेखर की कहानियाँ स्त्री विमर्श की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। ‘परिमला सोमशेखर कथलु’ (परिमला सोमशेखर की कहानियाँ)[6] शीर्षक संग्रह में संकलित 42 कहानियाँ प्रमुख रूप से स्त्री प्रधान कहानियाँ हैं जो परंपरागत रूढ़ियों के प्रति स्त्री को विद्रोह करने के लिए प्रेरित करती हैं। इन कहानियों में स्त्री सशक्तीकरण को भलीभाँति देखा जा सकता है। परिमला सोमशेखर की कहानियों के स्त्री पात्र एक ओर परंपरागत रूढ़ियों को मानने वाले हैं तो दूसरी ओर स्त्री-आचार संहिता को तोड़ने वाले भी हैं। इन कहानियों में स्त्री-पुरुष संबंध, स्त्री के प्रति पुरुष की मानसिकता, पुरुष के प्रति स्त्री की मानसिकता, स्त्री संघर्ष और आक्रोश को भी रेखांकित जा सकता है। 

प्रसन्नकुमार सर्राजु की कहानियों में हास्य और व्यंग्य का सम्मिश्रण है। ‘प्रसन्नकुमार सर्राजु कथलु-2’ (प्रसन्नकुमार सर्राजु की कहानियाँ-2)[7] शीर्षक कहानी संग्रह में कुल 12 कहानियाँ संकलित हैं। ये कहानियाँ पाठकों के चहरे पर मुस्कान लाने के साथ-साथ उन्हें सोचने पर भी बाध्य करती हैं। उदाहरण के लिए ‘डॉनल भूगर्भ शत्रुत्वम’ (माफिया की शत्रुता) शीर्षक कहानी सिनेमा जगत पर व्यंग्य कसती है। यह कहानी दर्शाती है कि किस तरह सिनेमा को अंडरवर्ल्ड माफिया संचालित कर रहा है। ‘ए टेल ऑफ इंडियन सिनेमा’ शीर्षक कहानी इस ओर संकेत करती है कि सिनेमा को उद्योग के रूप में परिवर्तित करके सरकार कैसे मुनाफा अर्जित कर रही है। 

शेख हुसैन सत्याग्नि की कहानियाँ सामाजिक विसंगतियों, विद्रूपताओं, सांप्रदायिक ताकतों एवं राजनैतिक षड्यंत्रों के खिलाफ आवाज उठाने वाली कहानियाँ हैं।[8] देवुलपल्लि कृष्णमूर्ति ने तेलुगु समाज के उपेक्षित वर्ग ‘दासरी’ की जीवनशैली को अपनी कहानी ‘यक्षगानम’ (यक्षगान) में चित्रित किया है तथा ‘मृत्युंजयुडु’ (मृत्युंजय) शीर्षक कहानी में निजाम शासन के विरोध में किए गए आंदोलन का चित्रण किया है। ऐसी अनेक सामाजिक कहानियों का समुच्चय है देवुलपल्लि कृष्णमूर्ति की पुस्तक ‘यक्षगानम’ (यक्षगान)।[9]

2 जून, 2014 को तेलंगाना राज्य का गठन हुआ। तत्पश्चात तेलंगाना के साहित्यकार तेलंगाना का इतिहास, तेलंगाना का साहित्य, संस्कृति और उससे जुड़े आंदोलनों को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। तेलुगु साहित्य के इतिहास का भी पुनर्लेखन किया जा रहा है। प्रसिद्ध पत्रकार और आलोचक प्रतापरेड्डी द्वारा समय-समय पर तेलंगाना संस्कृति और साहित्येतिहास आदि विषयों पर लिखे गए आलोचनात्मक लेखों का संकलन है ‘तेलंगाना साहित्योद्यमालु (तेलंगाना के साहित्यिक आंदोलन)।[10] वाई. यानालु ने अपनी आलोचनात्मक पुस्तक ‘तेलंगाना चरित्र, संस्कृति वारसत्वम’ (तेलंगाना : ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत)[11] में तेलंगाना से संबद्ध अनेकानेक आंदोलन एवं सांस्कृतिक विरासत को साझा किया है। 

क़ासिम ने तेलंगाना आंदोलन से संबंधित अनेक कविताएँ लिखी हैं। तेलंगाना की जनता की व्यथा-कथा को उन्होंने अभिव्यक्त किया है। के कहते हैं कि ‘साठ वर्ष के अज्ञातवास के बाद/ दूध की धारा बन प्रवाहित हो रहा है तेलंगाना।’ (मेरा तेलंगाना)। ‘क़ासिम कवित्वम’ (क़ासिम की कविता)[12] काव्य संग्रह में 96 कविताएँ सम्मिलित हैं जिनमें 3 लंबी कविताएँ भी शामिल हैं। डॉ. देवराजु महाराजु ने ‘गुडिसे गुंडे’ (झोंपड़ी का हृदय)[13] शीर्षक कविता संग्रह में तेलंगाना की क्षेत्रीय बोली का प्रयोग किया है। यह तेलंगाना की क्षेत्रीय बोली में लिखित प्रथम काव्य संग्रह है। 

चाहे कविता हो या कथासाहित्य, संस्मरण हो या जीवनी, आत्मकथा, रिपोर्ताज और यात्रावृत्त; विभिन्न विधाओं में साहित्यकार अपनी स्मृतियों एवं अनुभूतियों को अभिव्यक्त करता है। जहाँ कविता, कथा आदि में कल्पना के लिए खुला आकाश होता है, वहीं आत्मकथा आदि विधाएँ अकाल्पनिक विधाएँ हैं जो मूलतः स्मरणाधारित हैं। तेलुगु में इस कोटि की कृतियों की समृद्ध परंपरा बन चुकी है। इसी क्रम में, प्रसिद्ध तेलुगु साहित्यकार बुच्चिबाबु की धर्मपत्नी शिवराजु सुब्बलक्ष्मी की संस्मरणात्मक पुस्तक ‘मा ज्ञापकालु’ (हमारी स्मृतियाँ)[14] संस्मरण के साथ-साथ आत्मकथा भी है। 12वर्ष की आयु में उनका विवाह बुच्चिबाबु से संपन्न हुआ। संतानहीन रहे लेकिन कभी चिंतित नहीं हुए। दोनों एक-दूसरे के लिए संतान बने। बुच्चिबाबु ने सुब्बलक्ष्मी को आगे की पढ़ाई जारी रखने के लिए प्रेरित किया और सृजनात्मक लेखन के क्षेत्र में प्रोत्साहित किया। नाटककार, कवि, कथाकार, चित्रकार और आलोचक के रूप में तेलुगु पाठक बुच्चिबाबु से परिचित तो हैं ही, लेकिन सुब्बलक्ष्मी ने अपनी पुस्तक के माध्यम से उनके भीतर निहित ममता, वात्सल्य, करुणा और प्रेम के विविध पक्षों को उजागर किया है। 

विजयनागिरेड्डी मूलतः चिकित्सक थे। हर व्यक्ति को उत्तम चिकित्सा उपलब्ध कराने की दृष्टि से उन्होंने चेन्नई में ‘विजया हॉस्पिटल’ की स्थापना की। सिनेमा के प्रति रुचि के कारण उन्होंने ‘विजया संस्था’ की स्थापना की और अनेक सफल फिल्मों के निर्माता-निर्देशक बने तथा अनेक लोगों को जीविका प्रदान की। ‘विजया पब्लिकेशंस’ की स्थापना करके उन्होंने ‘चंदामामा’ के साथ-साथ अनेक पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का दायित्व भी निभाया। विजयनागिरेड्डी ने जीवन में सफलता अर्जित करने के लिए अनेक छोटे-मोटे व्यापार भी किए। उनके सुपुत्र विश्वनाथ रेड्डी ‘विश्वम’ ने अपने पिता के जीवन से संबद्ध छोटी-छोटी घटनाओं के साथ-साथ पिता के साथ गुजारी मधुर स्मृतियों को ‘नन्नातो नेनु (पिताजी के साथ मैं)[15] शीर्षक पुस्तक में संजोया है। इस पुस्तक के माध्यम से तमिल, तेलुगु, कन्नड और मलयालम फ़िल्मी जगत की अनेक छोटी-बड़ी हस्तियों की जानकारी भी उपलब्ध होती है। यह पुस्तक जीवनी के साथ-साथ संस्मरण भी है। 

आज की युवा पीढ़ी पुराने साहित्यकारों और उनके साहित्य से परिचित नहीं है। इस दृष्टि से पुराने साहित्य एवं साहित्यकारों पर फिर से दृष्टि केंद्रित की जा रही है। कालिपाका मधुसूदन ने अपनी आलोचनात्मक कृति ‘चंदाला केशवदासु : जीवितम-साहित्यम’ (चंदाला केशवदासु : व्यक्तित्व और कृतित्व)[16] में खम्मम जिला (तेलंगाना) के जक्कपल्लि गाँव में 1876 को जन्मे केशवदास के प्रदेय पर प्रकाश डाला है। इस पुस्तक से यह तथ्य सामने आता है कि केशवदास ने तेलुगु की प्रथम ‘टाकी फिल्म’ भक्तप्रह्लाद (1931) के लिए पदों की रचना की थी। ‘श्रीकृष्ण तुलाभारम’ (1966) फिल्म के लिए उनके द्वारा लिखे गए गीत आज भी तेलुगु पाठकों के हृदय में अंकित हैं। नाटककार, अभिनेता, गीतकार और अवधानी के रूप में भी उन्होंने ख्याति अर्जित की। 

‘बुच्चिबाबु साहित्य व्यासालु’ (बुच्चिबाबु के साहित्यिक निबंध)[17] शीर्षक निबंध संग्रह नवतेलंगाना पब्लिशिंग हाउस द्वारा प्रकाशित है। इसमें बुच्चिबाबु द्वारा समय-समय पर लिखे गए अंग्रेजी साहित्य से संबंधित शोधपरक आलेख संकलित हैं। इसी तरह प्रसिद्ध नाटककार और कथाकार सिंगराजु लिंगमूर्ति की रचनाएँ भी दो खंडों में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत हैं।[18] ‘प्रजासेवालो नागिरेड्डी (जनसेवा में नागिरेड्डी)[19] शीर्षक पुस्तक में चेरुकूरि सत्यनारायण ने प्रसिद्ध फिल्म निर्माता-निर्देशक नागिरेड्डी के जीवन पर प्रकाश डाला है। ओलेटि श्रीनिवासभानु की पुस्तक ‘एल.वी.प्रसाद जीवित प्रस्थानम’ (एल.वी.प्रसाद की जीवन यात्रा)[20] में एल.वी.प्रसाद के जीवन पर प्रकाश डाला गया है। जयधीर तिरुमलराव ने अलिशेट्टि प्रभाकर की कविताओं को संगृहीत किया है।[21] डॉ. पेद्दी रामाराव ने अपनी पुस्तक ‘यवनिका’[22] में रंगमंच से संबंधित अनेक विषयों का विश्लेषण किया है। इस पुस्तक में संकलित 34 आलेखों में तेलुगु नाटक साहित्य की विकास यात्रा, नाट्यकर्मियों का संक्षिप्त परिचय, रंगमंच के विभिन्न तत्व, नाटक प्रदर्शनी आदि की सैद्धांतिक चर्चा के साथ-साथ व्यावहारिक चर्चा भी सम्मिलित है। 

समाज में व्याप्त विसंगतियों, विद्रूपताओं एवं राजनैतिक षड्यंत्रों के प्रति जनता को जागृत करने के लिए कविहृदय धड़कता रहता है। कवि के समक्ष यह भी प्रश्न खड़ा होना स्वाभाविक है कि कविता किस तरह समाज को प्रभावित कर सकती है और कितने लोग कविता पढ़ने में रुचि प्रदर्शित करते हैं? इस तरह के अनेक प्रश्नों से जूझता हुआ कविमन उनके उत्तर की तलाश करता रहता है। एन. वेणुगोपाल की पुस्तक ‘कवित्वमतो मुलाकात’ (कविता से मुलाकात)[23] में इस तरह के अनेक प्रश्नों के समाधान निहित हैं और वेणुगोपाल की मौलिक कविताओं के साथ ही माओ, पाब्लो नेरुदा, कैफ़ी आज़मी, देवीप्रसाद मिश्र, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि की कविताओं का अनुवाद भी सम्मिलित है। 

जापानी काव्यविधा हाइकू को तेलुगु साहित्यकारों ने भी अपनाया है। हाइकू में 5,7,5 अक्षरों के माध्यम से बिंब निर्माण किया जाता है। तेलुगु साहित्य में इस विधा को लिखने वालों में बी.वी.वी. प्रसाद का नाम अग्रगण्य है। उन्होंने अपने हाइकू ‘बी.वी.वी. प्रसाद हाइकूलु (बी.वी.वी. प्रसाद के हाइकू)[24] शीर्षक पुस्तक में संकलित किए हैं। वासिरेड्डी पब्लिकेशंस ने एम.एस.नायुडु की कविताओं को ‘गालि अद्दम’[25] (हवा दर्पण) शीर्षक से प्रकाशित किया है। 

कविता, कहानी, आलोचना और संस्मरण साहित्य के साथ-साथ तेलुगु साहित्य यात्रावृत्त क्षेत्र में भी समृद्ध है। ’मा केरल यात्रा’ (हमारी केरल की यात्रा)[26] शीर्षक यात्रावृत्त में मुत्तेवी रवींद्रनाथ ने केरल के भौगोलिक और प्राकृतिक परिवेश के साथ-साथ वहाँ के लोगों की जीवन शैली, खान-पान, वेश-भूषा, संस्कृति तथा केरल से संबंधित ऐतिहासिक घटनाओं का भी उल्लेख किया है। इसी प्रकार राजेश वेमूरि ने यूरोप की भौगोलिक एवं प्राकृतिक शोभा के साथ-साथ वहाँ के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक यथार्थ की जानकारी अपनी पुस्तक ‘ना ऐरोपा यात्रा’ (मेरी यूरोप की यात्रा)[27] में रोचक ढंग से प्रस्तुत की है। 

इस वर्ष में तेलुगु में पत्रकारिता और फिल्म जगत से भी संबंधित कई पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है। सत्ता के खिलाफ आवाज उठाने वाले व्यक्तियों को हमेशा यातना का शिकार होना पड़ता है; फर्जी केस में फँसकर उम्रकैद की सजा भुगतनी पड़ती है या फाँसी पर लटकना पड़ सकता है। मुग़ल बादशाह बहादुर शाह ज़फ़र पर लगाए इल्जाम से लेकर आंध्र प्रदेश के पार्वतीपुरम नक्सल केस तक अनेकानेक फर्जी केसों, षड्यंत्रों, पुलिस मुठभेड़ों आदि का विवरण, दंड भुगतने वालों की जानकारी, साक्षात्कार आदि का ब्यौरा प्रमाणों के साथ ‘सूर्योदयम कुट्रकादु’ (सूर्योदय षड्यंत्र नहीं है)[28] शीर्षक ग्रंथ में संकलित किया गया है। अन्नम श्रीधर बाचि कार्टून चित्रों के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों एवं राजनैतिक दावपेंच पर व्यंग्य कसते हैं। उनके कार्टून चित्रों का संकलन है ‘बाचि कार्टूनलु’ (बाचि के कार्टून)।[29] इसके अलावा दाशरथि कृष्णामाचार्युलु (22.7.1925-5.11.1987) द्वारा लिखित तेलुगु सिनेमा के प्रसिद्ध गीत ‘दाशरथि सिनेमा पाटला पंदिरी’ (दाशरथि के फिल्मी गीत)[30] शीर्षक पुस्तक में सम्मिलित हैं। 

मौलिक रचनाओं के साथ-साथ अनूदित रचनाएँ भी प्रकाशित हुई हैं। राहुल सांकृत्यायन कृत ‘बहुरंगी मधुपुरी’ (कहानी संग्रह) का तेलुगु अनुवाद ‘मधुपुरी’[31] शीर्षक से प्रकाशित हुआ है। सर ऑथर कॉनेन डॉयल कृत ‘शरलॉक होम्स’ का के. बी. गोपालम ने ‘एडवेंचर ऑफ शरलॉक होम्स-1'[32], ‘एडवेंचर ऑफ शरलॉक होम्स-2’[33] के रूप में तेलुगु में अनुवाद किया है। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ के काव्य संग्रह ‘संघर्ष जारी है’ का तेलुगु में भागवतुल हेमलता ने ‘सागुतुन्ना समरम’[34] शीर्षक से अनुवाद किया है। इस संग्रह में राष्ट्रीय अस्मिता की कविताएँ संकलित हैं. इन कविताओं में कवि ने वर्तमान व्यवस्था से बेहतर व्यवस्था, समाज, राष्ट्र और मानव कल्याण की चिंताएँ व्यक्त की हैं. 

इस प्रकार कहा जा सकता है कि वर्ष 2016 तेलुगु साहित्य की दृष्टि से पर्याप्त वैविध्यपूर्ण और गंभीर कृतियों के प्रकाशन की वर्ष रहा है। यह भी देखा जा सकता है कि इधर अकाल्पनिक गद्य विधाओं के प्रति तेलुगु लेखक और प्रकाशक अपेक्षाकृत अधिक रुचि प्रदर्शित कर रहे हैं। 

संदर्भ 

[1] टी तोटला आदिवासुलु चेप्पिना कथलु (चाय बागान के आदिवासियों की कथाएँ, 2016)/ सामन्या/ पृष्ठ 92/ मूल्य : रु. 120 

[2] आदिवासुलु : वैद्यम, संस्कृति, अनचिवेता (आदिवासी : चिकित्सा, संस्कृति और दमन, 2016)/ बालगोपाल/ पृष्ठ 150/ मूल्य : रु. 100/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : नव तेलंगाना पब्लिशिंग हाउस, हैदराबाद 

[3] आदिवासुलु : चट्टालु, अभिवृद्धि (आदिवासी : न्याय और अभिवृद्धि, 2016), बालगोपाल/ पृष्ठ 176/ मूल्य : रु. 130/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : नव तेलंगाना पब्लिशिंग हाउस, हैदराबाद 

[4] पूला परिमलम (फूलों की सुगंध, 2016)/ डॉ. कोम्मिशेट्टि मोहन/ मूल्य : रु.100/ पृष्ठ 88/ प्रतियों के लिए संपर्क सूत्र : सरस्वती मोहनम, 24/327-4, अमृता गार्डन्स, पावरहाउस स्ट्रीट, प्रोद्दुटूरू – 516360, कड़पा जिला (आंध्र प्रदेश), मोबाइल : 09441323170 

[5] पूर्वी (2016)/ पोतूरी विजयलक्ष्मी/ 130 पृष्ठ/ मूल्य : रु. 120/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : 040-27637729 

[6] परिमला सोमशेखर कथलु (परिमला सोमशेखर की कहानियाँ, 2016)/ परिमला सोमशेखर/ पृष्ठ 460/ मूल्य : रु. 280/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : नवचेतना पब्लिशर्स, हैदराबाद 

[7] प्रसन्नकुमार सर्राजु कथलु-2 (प्रसन्नकुमार सर्राजु की कहानियाँ-2, 2016)/ मूल्य : रु. 100/ पृष्ठ 137/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : : 09849026928 

[8] सत्याग्नि कथलु (सत्याग्नि की कहानियाँ, 2016)/ शेख हुसैन सत्याग्नि/ पृष्ठ : 173/ मूल्य : रु. 120/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : 09866040810 

[9] यक्षगानम (यक्षगान, 2016), देवुलपल्ली कृष्णमूर्ति/ पृष्ठ : 152/ मूल्य : रु. 120/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : 040-23521849 

[10] तेलंगाना साहित्योद्यमालु (तेलंगाना के साहित्यिक आंदोलन, 2016)/ कासुला प्रतापरेड्डी/ पृष्ठ 430/ मूल्य : 275/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : श्री वेंकटरमण बुक डिस्ट्रिब्यूटर्स, हैदराबाद 

[11] तेलंगाना चरित्र, संस्कृति वारसत्वम (तेलंगाना : ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत, 2016)/ वाई. यानालु/ पृष्ठ 430/ मूल्य : 399/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : 07396586170 

[12] क़ासिम कवित्वम (क़ासिम की कविता, 2016)/ क़ासिम/ पृष्ठ 266/ मूल्य : रु. 140 

[13] गुडिसे गुंडे (झोंपड़ी का हृदय, 2016)/ डॉ. देवराजु महाराजु/ पृष्ठ : 66/ मूल्य : रु. 60 

[14] मा ज्ञापकालु (हमारी स्मृतियाँ, 2016)/ शिवराजु सुब्बलक्ष्मी/ मूल्य : रु.100/ पृष्ठ 142/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : विशालांध्र पब्लिशिंग हाउस 

[15] नन्नतो नेनु (पिताजी के साथ मैं)/ विश्वम/ मूल : रु. 100/ पृष्ठ 280/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : विजया पब्लिकेशंस, चेन्नई, 040-23652007 

[16] चंदाला केशवदासु : जीवितम-साहित्यम (चंदाला केशवदासु : व्यक्तित्व और कृतित्व, 2016)/ कालिपाका मधुसूदन/ पृष्ठ 48/ मूल्य : रु. 40/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : नवचेतना बुक हाउस, हैदराबाद 

[17] बुच्चिबाबु साहित्य व्यासालु (बुच्चिबाबु के साहित्यिक निबंध)/ पृष्ठ 245/ मूल्य : रु. 150/ प्रतियों के लिए संपर्क सूत्र : नवतेलंगाना पब्लिशिंग हाउस, हैदराबाद 

[18] सिंगराजु लिंगराजु रचनलु (सिंगराजु लिंगराजु की रचनाएँ, 2016), भाग 1, पृष्ठ 243/ मूल्य : रु. 170/ भाग 2, पृष्ठ 270/ मूल्य : 175, प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : नवचेतना पब्लिशिंग हाउस, हैदराबाद 

[19] प्रजासेवलो नागिरेड्डी (जनसेवा में नागिरेड्डी, 2016)/ चेरुकूरि सत्यनारायण/ पृष्ठ 500/ मूल्य : रु. 50/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : 09848631604 

[20] एल.वी.प्रसाद जीवित प्रस्थानम (एल.वी.प्रसाद की जीवन यात्रा, 2016)/ ओलेटि श्रीनिवासभानु/ पृष्ठ 210/ मूल्य : रु. 250/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : 09848506964 

[21] अलिशेट्टि प्रभाकर कविता (अलिशेट्टी प्रभाकर की कविता, 2016)/ संपादक जयधीर तिरुमलराव, निजाम वेंकटेशम और बी. नरसन/ पृष्ठ 350/ मूल्य : रु. 150/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : 09440128169 

[22] यवनिका/ 2016/ डॉ. पेद्दी रामाराव/ पृष्ठ 200/ मूल्य : रु. 200 

[23] कवित्वमतो मुलाकात (कविता से मुलाकात, 2016)/ एन. वेणुगोपाल/ पृष्ठ 206/ रु. 120 

[24] बी.वी.वी. प्रसाद हाइकूलु (बी.वी.वी. प्रसाद की हाइकू, 2016)/ पृष्ठ 160/ मूल्य : रु. 90/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : वासिरेड्डी पब्लिकेशंस, बी-2 टेलीकॉम क्वार्टर्स, कोत्त्पेट, हैदराबाद – 500060 

[25] गालि अद्दम (हवा दर्पण, 2016)/ एम.एस.नायुडु/ पृष्ठ : 182/ मूल्य : रु. 120/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : वासिरेड्डी पब्लिकेशंस, हैदराबाद, मोबाइल : 09000528717 

[26] मा केरल यात्रा (हमारी केरल की यात्रा, 2016)/ मुत्तेवी रवींद्रनाथ/ पृष्ठ 256/ मूल्य : रु. 250/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : 040-24224458 

[27] ना ऐरोपा यात्रा (मेरी यूरोप की यात्रा, 2016)/ राजेश वेमूरि/ पृष्ठ 184/ मूल्य : रु. 150/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : 040-23325979 

[28] सूर्योदयम कुट्रकादु (सूर्योदय षड्यंत्र नहीं है, 2016)/ चेरुकूरि सत्यनारायण/ पृष्ठ 508/ मूल्यः रु. 90 

[29] बाचि कार्टूनलु (बाचि के कार्टून, 2016)/ अन्नम श्रीधर बाचि/ पृष्ठ 160/ मूल्य : रु. 150/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : बाचि, हैदराबाद, फोन : 040-24042847 

[30] दाशरथि सिनेमा पाटला पंदिरी (दाशरथि के फिल्मी गीत, 2016)/ प्रधान संपादक : के. प्रभाकर/ पृष्ठ : 350/ मूल्य : 326/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : के. विमलारानी, 104, ब्लॉक 1, डॉ. प्रभाकररेड्डी चित्रपुरी कॉलोनी, मणिकोंडा जागीर, राजेंद्रनगर मंडल, हैदराबाद – 500008 

[31] मधुपुरी/ हिंदी मूल : राहुल सांकृत्यायन, तेलुगु अनुवाद : कविनि आलूरि/ पृष्ठ 272/ मूल्य : रु. 200/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : विशालांध्र पब्लिशिंग हाउस 

[32] एडवेंचर ऑफ शरलॉक होम्स-1/ मूल : सर ऑथर कॉनेन डॉयल, तेलुगू अनुवाद : के. बी. गोपालम/ पृष्ठ 206/ मूल्य : रु. 100/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : क्रिएटिव लाइंस, हैदराबाद, 09848065658 

[33] एडवेंचर ऑफ शरलॉक होम्स -2/ मूल : सर ऑथर कॉनेन डॉयल, तेलुगू अनुवाद : के. बी. गोपालम/ पृष्ठ 220/ मूल्य : रु. 100/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : क्रिएटिव लाइंस, हैदराबाद, 09848065658 

[34] सागुतुन्ना समरम (संघर्ष जारी है, 2016)/ हिंदी मूल : डॉ. रमेश पोखरियाल ‘निशंक’/ तेलुगु अनुवाद : डॉ. भागवतुल हेमलता/ पृष्ठ 135/ मूल्य : रु. 150/ प्रतियाँ प्राप्त करने के लिए संपर्क सूत्र : डॉ. भागवतुल हेमलता, फ्लैट नं. 403, साई रामप्रसाद अपार्टमेंट्स, ओल्ड प्रतिभानिकेतन स्ट्रीट, माछवरम, विजयवाडा – 520004, मोबाइल : 09492437606