मंगलवार, 31 जनवरी 2023

रचनात्मक बाल साहित्य के प्रणेता : दिविक रमेश

हिंदी साहित्य जगत में दिविक रमेश जाना-माना नाम है। उनका जन्म 28 अगस्त, 1946 को दिल्ली में नांगलोई के पास हरियाणा की सीमा पर बसे किराड़ी गाँव में हुआ था। लेकिन स्कूल में प्रवेश के समय जन्म तिथि 6 फरवरी, 1946 दर्ज की गई थी। उनका वास्तविक नाम है रमेश शर्मा। वे अपने बचपन के बारे में याद करते हुए कहते हैं, “मेरा गाँव सचमुच का गाँव होता था - बिना सड़क वाला, बिना बिजली और सरकारी पानी वाला। बस पकड़ने के लिए नांगलोई तक पैदल चलकर आने वाला। चौपाल में या पेड़ों के नीचे प्राइमरी शिक्षा की सुविधा रखने वाला। दूर-दूर तक खेतों-खलिहानों वाला। गाँव के घरों से लगते हुए ही खेत शुरू हो जाते थे। किराड़ और मंगोथर जोहड़-तालाबों वाला। नहर और धान्नों (नहर से खेत तक लाए छोटे नाले) वाला। बाग-बगीचे वाला। कुओं से पानी पिलाने वाला। भूतों वाले कुओं, पीपल और खास स्थानों वाला।” (setumag.com)।

बचपन से माता-पिता से प्राप्त संस्कार और जीवन मूल्यों को दिविक रमेश ने आत्मसात किया। उन्होंने अपने अनुभवों एवं अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए साहित्य को साधन बनाया। कवि, आलोचक और बाल-साहित्यकार के रूप में वे जाने जाते हैं। ‘गेहूँ घर आया है’,‘खुली आँखों में आकाश’, ‘रास्ते के बीच’, ‘छोटा-सा हस्तक्षेप’, ‘हल्दी-चावल और अन्य कविताएँ’, ‘बाँचो लिखी इबारत’, ‘वह भी आदमी तो होता है और फूल तब भी खिला होता’, ‘माँ गाँव में है’, ‘वहाँ पानी नहीं है’ उनके प्रमुख काव्य संग्रह हैं तो ‘खंड-खंड अग्नि’ काव्य नाटक है। ‘नए कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धांत’, ‘संवाद भी विवाद भी’, ‘कविता के बीच से’, ‘साक्षात त्रिलोचन’, ‘समझा-परखा’ तथा ‘हिंदी बाल-साहित्य : कुछ पड़ाव’ प्रमुख आलोचना कृतियाँ हैं। ‘101 बाल कविताएँ’, ‘समझदार हाथी : समझदार चींटी’, ‘बंदर मामा’, ‘हँसे जानवर हो हो हो’, ‘कबूतरों की रेल’, ‘बोलती डिबिया’, ‘देशभक्त डाकू’, ‘बादलों के दरवाजे’, ‘शेर की पीठ पर’, ‘ओह पापा’, ‘गोपाल भांड के किस्से’, ‘त से तेनालीराम, ब से बीरबल’, ‘बल्लूहाथी का बालघर’, ‘मुसीबत की हार’, ‘मैं हूँ दोस्त तुम्हारी कविता’, ‘लू लू की सनक’, ‘मेरे मन की बाल कहानियाँ’, ‘फूल भी फल भी’ आदि बाल साहित्य है। बाल कविताओं को ‘101 बाल कविताएँ’ शीर्षक से संग्रहीत किया गया है। ‘बचपन की शरारत’ उनकी संपूर्ण गद्य रचनाओं का संग्रह है।

समकालीन कविता के क्षेत्र में दिविक रमेश का अपना एक विशिष्ट स्थान है। उनके बाल साहित्य में भी समकालीन भावबोध को देखा जा सकता है। दिविक रमेश के संबंध में नामवर सिंह कहते हैं कि “दिविक रमेश हिंदी के वरिष्ठ कवियों - शमशेर बहादुर सिंह और त्रिलोचन, दोनों के निकट संपर्क में रहे और एक तरह से इन दोनों कवियों से उन्होंने कविता की दीक्षा ली। यही कारण है कि इनकी कविताओं पर शमशेर जी की नफासत और भाषा की कीनियागीरी का असर पड़ा है।” (सिंह : 2021)

एक रचनाकार कभी-कभी अपने विशेष नाम के कारण प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा पा जाते हैं। रमेश शर्मा दिविक रमेश कब और कैसे बने इस पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने स्वयं कहा है कि “इतना भर तो बता ही दूँ कि उस समय के एक बहुत ही सक्रिय रचनाकार सुखबीर सिंह ने अपने संपादन में एक कविता-संकलन ‘दिविक’ (दिल्ली विश्वविद्यालयी कविता में आए प्रथम तीन अक्षर) निकाला था जिसमें मेरी कविताएँ रमेश शर्मा के नाम से प्रकाशित हुई थीं। कुछ समय बाद सुखबीर सिंह ने मुझे भी संपादक के रूप में जोड़ते हुए ‘दूसरा दिविक’ निकाला था और अब मैं दिविक रमेश बन चुका था। यहाँ ‘क’ कवि के लिए अपना लिया गया था। या समझा जा सकता है - दिविक का रमेश। यह शब्द कोश में तो उपलब्ध है नहीं, यूँ इसका अर्थ निकाला जा सकता है।” (रमेश : 2016आ : 97)

दिविक रमेश भले ही दिल्ली जैसे शहर में बस चुके हैं, लेकिन वे अपनी जड़ों से जुड़े हुए साहित्यकार हैं। उनकी यादों में तथा उनकी रचनाओं में गाँव बसा हुआ है। इसीलिए नामवर सिंह यह कहने में नहीं हिचकते कि “एक कौरवी जनपद का आदमी, जिसके भीतर दिल्ली शहर में रहते हुए सहसा गाँव जाग गया तो अपने गाँव के शब्द, गाँव की शब्दावली की अनुभूतियाँ - उन चीजों को कविता में नए सिरे से प्रकट करने का विश्वास आया।” (सिंह : 2021)। नामवर सिंह इसे प्रौढ़ता का लक्षण मानते हैं।

इसमें दो राय नहीं कि दिविक रमेश समकालीन कवि और आलोचक हैं, परंतु इस आलेख में उनके बाल साहित्यकार के रूप पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है, क्योंकि बाल साहित्यकार के रूप में उन्होंने अपनी एक निजी पहचान बनाई है।

बड़े, बच्चों को बच्चे समझकर उपदेश देने का कार्य करते हैं। लेकिन आजकल के बच्चे इंटरनेट और सोशल मीडिया के कारण जागरूक हो चुके हैं। पर बड़े, बच्चों से बात करते समय ‘प्रिमिटिव’ ही रहते हैं। पुरानी मान्यताओं और रीतियों को आसानी से छोड़ नहीं सकते। अतः बचपन से ही बच्चों को उपदेश की घुट्टी पिलाना शुरू कर देते हैं। लेकिन इस बात से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता कि बड़ों से ज्यादा बच्चों का ‘एक्सपोजर’ विस्तृत है। बच्चे अपने अनुभवों से स्वयं सीखना चाहते हैं।

कोरोना के कारण शिक्षा व्यवस्था में भी बदलाव आया। घर बैठे-बैठे संसाधनों के माध्यम से ऑनलाइन पढ़ाई शुरू हुई। स्कूल ही घर आ चुका है। ऐसे में यह हमारी नैतिक जिम्मेदारी बन जाती है कि बच्चों को क्या सूचना दी जाए और क्या नहीं। यह पहले बड़ों को समझ लेना चाहिए। सूचना प्रौद्योगिकी ने अनेक द्वार खोल दिए हैं। आज के बच्चे सिर्फ मुद्रित बाल साहित्य पर निर्भर नहीं हैं, बल्कि यूट्यूब और अनेक वेबसाइटों पर प्रकाशित एनीमेशन और बाल साहित्य से भी परिचित हो रहे हैं। उन्हें यदि रोचक न लगे तो वे देखेंगे नहीं और उस साहित्य को पढ़ेंगे भी नहीं।

बाल साहित्य में रोचकता और गुणवत्ता का होना अनिवार्य है। यह भी ध्यान देने की बात है कि बाल साहित्य में सिर्फ मनोरंजन और काल्पनिकता का ही समावेश न हो। बच्चों को सामाजिक तथ्यों से अवगत कराना भी जरूरी है। आज के बच्चों को परी-लोक नहीं, बल्कि यथार्थ दुनिया से रू-ब-रू कराना होगा। आज के समय में जहाँ बच्चों का एक्सपोजर विस्तृत है, वहाँ बाल साहित्यकारों के समक्ष यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि, बाल साहित्य की विषय वस्तु की परिधि क्या होनी चाहिए? क्या हम आज की पीढ़ी को वही घिसी पिटी कहानियाँ ही सुनाएँगे? नहीं, यह नहीं हो सकता। हमें यह देखना होगा कि कहानी कितनी रोचक है और बच्चों को तथ्यों से परिचित कराने में कितनी सफल। इसे छोड़कर यदि उसमें यथार्थ को ही ढूँढ़ते रहेंगे और सिद्धांतों को प्रतिपादित करते रहेंगे तो वह बाल साहित्य न रहकर ‘कुछ और’ बन जाएगा। बच्चे फंतासी को पसंद करते हैं। वे खुद इस बात को तय करेंगे कि उनके लिए कौन सी कहानी सही है और कौन सी नहीं। वे खुद अपने लिए अच्छे और बुरे का मानक तय कर सकते हैं। यह कोई और नहीं कर सकता। आज का बाल साहित्य नटखट परी, चंचल तितली, चालाक लोमड़ी और पोटली बाबा की कहानियों से आगे जा चुका है। अतः बाल साहित्यकारों के समक्ष चुनौती है कि वे आखिर लिखें तो क्या लिखें? बाल साहित्य बाल-मन का व्यापक कैनवास होता है। (महाश्वेता देवी)। बड़ों के लिए लिखना आसान है लेकिन बच्चों के लिए लिखना, उनकी मानसिकता के अनुरूप लिखना कठिन है। यह वास्तव में चुनौती भरा कार्य है। बालसाहित्य लिखने के लिए विशेष प्रतिभा की आवश्यकता होती है, क्योंकि केवल कल्पनाशक्ति के माध्यम से ही बाल साहित्य सृजन संभव है। यहाँ कल्पना का अर्थ यह कदापि नहीं कि बच्चों को हम वास्तविक दुनिया से दूर करके एक काल्पनिक जगत में जीने के लिए विवश करें। कल्पना के माध्यम से बच्चों में सृजनात्मक शक्ति का विकास संभव होता है। बच्चों के मन को आकर्षित करने के साथ-साथ उनकी सृजनात्मक क्षमता को विकसित करना बाल साहित्य का उद्देश्य होना चाहिए। बाल साहित्य के माध्यम से यदि बच्चे प्रेम, सौहार्द, भाईचारा जैसे गुणों को अनायास ही अपनाते हैं तो वह सही अर्थों में बाल साहित्य है। इसका यह अर्थ नहीं कि बाल साहित्य के बहाने हम नीति का ही उपदेश देते रहें। बच्चों में जिज्ञासा प्रवृत्ति सहज ही विद्यमान रहती है। अतः इस प्रवृत्ति को और बढ़ाने का काम करना होगा ताकि बच्चों की सृजनात्मक क्षमता का विकास हो सके। यह दायित्व बाल साहित्य का है। बाल साहित्यकार का है। ऐसे ही दायित्व बोध से युक्त बाल साहित्यकार हैं दिविक रमेश।

दिविक रमेश बाल साहित्य के दो वर्ग मानते हैं - उपयोगी बाल साहित्य और रचनात्मक बाल-साहित्य। जानकारीपूर्ण तथ्यात्मक बाल साहित्य को उपयोगी बाल साहित्य की श्रेणी में रखा जा सकता है जबकि कविता, कहानी, नाटक आदि रचनात्मक बाल साहित्य है। दिविक रमेश रचनात्मक बाल साहित्य को ही मान्यता देते हैं। “बच्चों के लिए रचा गया साहित्य मूलत: बच्चों के आनंद के लिए होता है जिसे वे सहज रूप में अपनाने को अर्थात पढ़्ते चले जाने या सुनते चले जाने को उत्सुक हो जाएँ। वह उन्हें बोझ या ‘घर का काम’ न लगे।” (दिविक रमेश)

बाल साहित्य के माध्यम से बच्चों में मूल्यों की पौध लगाई जा सकती है। उन्हें सुसंस्कृत बनाया जा सकता है। संवेदनशील बनाया जा सकता है। ध्यान देने की बात है कि बाल साहित्य में मूल्यों और संवेदनाओं आदि को थोपा नहीं जाता, बल्कि रचना की बुनावट में ही इस तरह से पिरोया जाता है कि बच्चा खेल-खेल में सीख जाए। उदाहरण के लिए रोटी की महत्ता को दिविक रमेश इन पक्तियों के माध्यम से सहज रूप से समझाते हैं-
मैं बोला -
पर रोटी तुम तो
बड़े काम की चीज़ हो प्यारी।

रोटी बोली -
अक्ल ठिकाने
अब आई है अजी तुम्हारी
मैं धरती की, तुम धरती के
हम दोनों में पक्की यारी। (गपशप-1)

बाल साहित्य सिर्फ और सिर्फ बच्चों का साहित्य नहीं। दिविक रमेश के शब्दों में कहें तो वह ‘सबका साहित्य’ है। “बाल-साहित्य बच्चे से उसके बचपने और उसके अधिकारों को छीनने वाली तमाम ताकतों को सहज रूप से पराजित करता है। उसे एक सहज, अंकुठित, संवेदनशील और उचित मनुष्य बनाने की दिशा में सहजता के साथ खेता है।” (दिविक रमेश)। दिविक रमेश बच्चे को मनुष्यता की साँस समझते हैं। वे इस बात से चिंतित हो उठते हैं कि आज तक बाल साहित्य के नाम पर ‘बालक के लिए साहित्य’ लिखा जाता रहा, बल्कि ‘बालक का साहित्य’ लिखा जाना चाहिए था। आज लिखा भी जा रहा है एक हद तक। बच्चों पर लिखना, बच्चों के लिए लिखना और बच्चों द्वारा लिखना - अलग-अलग चीजें हैं। जब ‘बालक का साहित्य’ लिखा जाता है, तो साहित्यकार को एक बच्चा बनकर सोचना होगा। तभी जाना जा सकता है कि एक बच्चे के लिए क्या चाहिए। उसे महज उपदेश देने से काम नहीं बनता। बनता काम भी बिगड़ सकता है। निःसंदेह बाल साहित्य का सृजन वास्तव में चुनौती है।

बच्चे हमेशा ही कल्पनाशक्ति का भरपूर प्रयोग करते हैं। जब तक उनकी जिज्ञासा शांत नहीं होगी तब तक वे उड़ान भरते रहते हैं। ऐसे ही एक बच्चे की कल्पना को दिविक रमेश ‘कैसे लगते भालू राम!’ शीर्षक कविता में इन शब्दों में उकेरते हैं -
अच्छा, जरा सोचकर देखूँ
कि कैसे लगते भालू राम,
अगर जो होती उनके मुँह पर
चोंच निराली, तोते जैसी।

और जो होती उनके सिर पर,
कलगी प्यारी, मुर्गे जैसी।
अच्छा, जरा सोचकर देखूँ
कैसे लगते यदि दो छोटे
सींग भी उनके सिर पर होते।

कैसे लगते, जो उड़ने को
पंख भी होता, सारस जैसे।
एक चित्र ही अच्छा ऐसा
ज़रा बनाकर उनका देखूँ,
कैसे लगते भालू राम! (रमेश : 2015अ : 62-63)

यह पहले भी कहा चुका है कि बच्चों को उपदेश देने से बनता काम भी बिगड़ सकता है। दिविक रमेश उपदेश नहीं देते बल्कि सहज रूप से बच्चों को घर और रिश्तों के महत्व को समझा देते हैं। वे माँ के रिश्ते को सबसे ऊँचा मानते हैं। ‘हरा मेंढक’ शीर्षक कोरियायी कहानी और कांगो लोककथा पर आधारित ‘माँ का अपमान’ शीर्षक कहानी में उन्होंने इसी बात को उजागर किया है। ‘हरा मेंढक’ कहानी में मेंढक अपनी माँ की एक भी बात सुनता ही नहीं था। हमेशा उल्टा ही करता रहता था। माँ ‘टर्रम-टर्रम’ कहने के लिए कहती तो वह ‘मर्रट-मर्रट’ करता। लेकिन वह क्या करती, आह भरने के अलावा! (रमेश : 2016अ : 252)। ‘माँ का अपमान’ शीर्षक कहानी में छोटा बेटा माँ की हर बात मानता है जबकि बड़ा बेटा “अक्सर अपनी माँ का अपमान करता है। उसे उसी में मजा आता था।” (रमेश : 2016अ : 337)। अंत में उसे माँ की बात न मानने का सजा भी मिल ही जाती है। इसी प्रकार ‘माँ कितनी प्यारी’ शीर्षक कविता का यह अंश भी देखें-
माँ बोली, तू मेरा भालू,
हाथी, बंदर, शेर सभी कुछ,
मैं बोला, माँ इसीलिए तो
मेरा भी तुम ही हो सब कुछ। (रमेश : 2015अ : 114)

‘इनाम’ शीर्षक कहानी में एक पिता अपने ही बेटे को दुख पहुँचाता है, लेकिन बेटा अपने पिता की गलतियों को माफ कर देता है और कहता है, “सब कुछ भूल जाओ बापू। बीती बातों को अब मत दोहराओ। तुम्हारे लिए अब बस यही सजा है कि तुम अब कहीं नहीं जाओगे। हमारे पास रहोगे।” (रमेश : 2016अ : 344)। वस्तुतः बच्चों के विकास में घर-परिवार की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। ‘बल्लू दादा को छुड़ा लिया गया’ शीर्षक कहानी में दिविक रमेश ने मिलजुलकर रहने की शक्ति को दर्शाया है। (रमेश : 2016अ : 74)। उन्होंने ‘घर’ शीर्षक कविता के माध्यम से यह चिंता व्यक्त की है कि जिनके पास घर ही नहीं है वे क्या कर सकते हैं -
पर पापा, इक बात बताओ
नहीं न होता सबका घर।
क्या करते होंगे वे बच्चे
जिनके पास नहीं है घर? (रमेश : 2015अ : 25)

बच्चों की सहज प्रवृत्ति है जिज्ञासा और सबसे घुल-मिल जाना। वे बहुत जल्दी ही नए-नए दोस्त बना लेते हैं। उन्हें ऐसा करना अच्छा भी लगता है। सच्चा दोस्त वही होता है, जो हमें अच्छे-बुरे से अवगत करा सके तथा बुरे वक्त में हमारा साथ निभाए। ऐसे दोस्त बहुत कम मिलते हैं। दोस्ती करना आसान है लेकिन उसे निभाना कठिन है। ‘सच्चा दोस्त’ शीर्षक कहानी भी इसका एक सुंदर उदाहरण है। ‘हर बच्चे को दोस्त बनाएँ’ शीर्षक कविता का यह अंश देखिए जिसमें इस बात को उजागर किया गया है -
हम को तो अच्छा लगता है
सबको दोस्त बनाना जी
माँ कहती आसान नहीं पर
सच्चा दोस्त बनाना जी। (रमेश : 2016अ : 44)

बच्चे इतने निर्मल होते हैं कि आस-पड़ोस के लोगों से रिश्ता जोड़ ही लेते हैं। इसी बात को ‘ताऊ-ताई’ शीर्षक कविता में देख सकते हैं -
मैं पड़ोसी, लेकिन कहता
उनको ताऊ-ताई
कभी न देखी उनमें मैंने
होती कभी लड़ाई। (रमेश : 2009 : 8)

दिविक रमेश लोक व्यवहार की बातें भी बहुत सहज और सरल शब्दों में बताते हैं। वे बच्चों को उपदेश नहीं देते, बल्कि ऐसा तरीका अपनाते हैं कि बच्चे खुद ब खुद समझ लें। ‘गिलहरी ने की मदद भालू की’ (यूक्रेन) शीर्षक कहानी में भालू अपने बड़े शरीर और ताकत के कारण घमंड से इतराता रहता था। लेकिन समय आने पर एक छोटी सी गिलहरी उसकी सहायता करती है। (रेमेश : 2016आ : 315)। जिन्हें हम छोटा, कमजोर और नासमझ समझकर हीन दृष्टि से देखते हैं, वे भी हमारे काम आ सकते हैं। अतः कभी भी किसी की भी निंदा नहीं करनी चाहिए। दिविक रमेश नन्हे बच्चे के मुँह से यह कहलवाते हैं कि एक ऐसे यंत्र का आविष्कार हो जिससे गाली को भी मीठी बातों में बदला जा सके -
गाली को मीठी बातों में
झट बदले, वह यंत्र बनाओ
बुरा-बुरा सब अच्छा कर दे
भैया, ऐसा यंत्र बनाओ।

दिविक रमेश खेल-खेल में प्रेरणात्मक बातें बताते हैं। ‘चतुराई का चमत्कार’ शीर्षक नाटक के माध्यम से वे यह संदेश देते हैं कि चोरी करके पेट पालने से अच्छा है मेहनत करके दो जून रोटी कमाना। (रमेश : 2016आ : 136)। मेहनत की कमाई शक्ति देती है। मेहनत करने से जो पसीना निकलता है, वह दुनिया का सबसे अनमोल रत्न है। ‘बौने के जूते’ (चेकोस्लोवेकिया) शीर्षक कहानी में भी उन्होंने रोचक ढंग से इसी बात को उजागर किया है। (रमेश : 2016आ : 303)

दिविक रमेश बहुत ही सरल शब्दों में खेल-खेल में बच्चों को मूल्य शिक्षा भी देते हैं। उनके द्वारा प्रयुक्त शब्द इतने मधुर और कर्णप्रिय होते हैं कि कहीं भी ऐसा नहीं लगता कि वे उपदेश दे रहे हैं। कविताओं में लय, तुकबंदी का प्रयोग तो होता ही है, शब्दों तथा ध्वनियों की पुनरावृत्ति भी दिविक रमेश के बाल साहित्य में देखी जा सकती है। बाल कविताएँ ही नहीं बल्कि उनकी बाल कहानियाँ और नाटक भी रोचक लगते हैं। सब तरह के मनोभावों को भी वे सहज रूप से अभिव्यक्त करते हैं। चित्रात्मकता उनके बाल साहित्य की विशेषता है। उदाहरण के लिए ‘खरगोश का कलेजा’ (कोरिया) कहानी में वसंत ऋतु का मनोरम चित्रण देखें - “बसंत का समय था। पेड़-पौधे सब खुश थे। छिंयालय फूल (अज़ेलिया) मीठी महक उड़ेल रहे थे। तितलियाँ एक से दूसरे फूल पर मंडरा रही थीं। सुनहरे पीलक पक्षी अपने साथियों को पुकार रहे थे और घर की याद में बुलबुलें दिल को छूने वाला गीत गा रही थीं। अबाबील चहक रही थीं। मानो कह रही हो कि हम गरम दक्षिण से लौट आई हैं। (रमेश : 2016आ : 243)। उत्तरी अमेरिका और कोरिया में पाए जाने वाले अज़ेलिया के फूल के साथ-साथ पीलक पक्षी, बुलबुल, तितली, अबाबील चिड़िया आदि के बारे में रोचक जानकारी दी गई है। इसी वसंत को वे ‘आया वसंत’ शीर्षक कविता के माध्यम से इस तरह चित्रित करते हैं -
हर पौधे को खूब सजाकर
फूलों के झंडे फहराकर
हमें नचाता, हमें झुमाता
गीत गुनगुने हमें सुनाता
आया वसंत, आओ नाचें
प्रेम-भाव की पोथी बाँचें (रमेश : 2015आ : 30)

दिविक रमेश उपदेश नहीं देते पर कहीं न कहीं अपनी कविताओं और कहानियों में सूक्ति के रूप में इस बात को समझा ही देते हैं कि स्वस्थ चरित्र के निर्माण के लिए क्या करना चाहिए। उपर्युक्त कविता में उन्होंने अंत में इस ओर इंगित किया है कि प्रेम-भाव की पोथी पढ़ना चाहिए। यहाँ कबीर का दोहा याद आना स्वाभाविक है - ‘पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।‘ दिविक रमेश बाल साहित्य के माध्यम से रिश्ते-नातों की महत्ता के साथ-साथ बच्चों को वनस्पति और प्राणी जगत की सूचनाएँ भी देते हैं और चरित्र निर्माण के लिए आवश्यक सीख भी।

दिविक रमेश सृजन कार्य को बहुत महत्व देते हैं। उनकी बेचैनी को उन्हीं के शब्दों में जानना समीचीन होगा। वे कहते हैं, “मुझसे सृजन कभी भी ‘होमवर्क’ की तरह नहीं हुआ। कभी-कभार ऐसा समय भी आया जब मैं महीनों नहीं लिख सका। हालांकि लिखने की बेचैनी बनी रही। लिखा मुझसे तभी गया जब कोई रहस्यमय भीतरी दबाव अपने चरम पर पहुँचा। यह भीतरी रहस्यमय दबाव क्या है मैं नहीं जनता। यह कब क्यों बनता है, मैं नहीं कह सकता। हाँ, इतना जरूर है कि न लिख पाने की स्थिति मेरे लिए बहुत ही व्याकुल कर देने वाली भयावह स्थिति होती है।” (रमेश : 2016इ : 139)। वे यह मानते हैं कि बड़ों के लेखन की अपेक्षा बच्चों के लिए लिखना अधिक प्रतिबद्धता, जिम्मेदारी, निश्छलता, मासूमियत जैसी खूबियों की माँग करता है। इसे बाजारवाद की तरह प्राथमिक रूप से मुनाफे का काम समझ कर नहीं करना चाहिए। बाल साहित्यकार के सामने बाजारवाद के दबाव वाले आज के विपरीत माहौल में न केवल बच्चे के बचपन को बचाए रखने की चुनौती है, बल्कि अपने भीतर के शिशु को भी बचाए रखने की भी बड़ी चुनौती विद्यमान है। कोई भी अपने भीतर के शिशु को तभी बचा सकता है जब वह निरंतर बच्चों के बीच रहकर नए से नए अनुभव को खुले मन से आत्मसात कर सके। दिविक रमेश बाल साहित्य को मानव समाज के लिए अनिवार्य मानते हैं। बाल साहित्य के प्रति उनका विशेष अनुराग और निष्ठा है। इसीलिए वे कहते हैं कि “बाल साहित्य सबके लिए होता है, केवल बच्चों के लिए नहीं। इसे मैं आज के मनुष्य के समाज के लिए अनिवार्य भी मानता हूँ, जैसे की साँस।” (रमेश : 2016आ : 7)। निष्कर्षतः दिविक रमेश के बाल साहित्य में बाल सुलभ मानसिकता को विविध रंगों में देखा जा सकता है।

संदर्भ

1. रमेश, दिविक (2009). खूब ज़ोर से बारिश आई. दिल्ली : सरला
2. रमेश, दिविक (2015 अ). एक सौ एक बाल कविताएँ. दिल्ली : मैट्रिक्स
3. रमेश, दिविक (2015 आ). समझदार हाथी, समझदार चींटी. दिल्ली : ट्राइडेंट
4. रमेश, दिविक (2016 अ). छुट्कुल-मुट्कुल बाल कविताएँ. नई दिल्ली : सस्ता साहित्य मंडल
5. रमेश, दिविक (2016 आ). बचपन की शरारत. दिल्ली : आलेख
6. रमेश, दिविक (2016 इ). यादें महकी जब. नई दिल्ली : किताबवाले
7. सिंह, नामवर (2021). किताबनामा. सं. आशीष त्रिपाठी. नई दिल्ली : राजकमल













रविवार, 29 जनवरी 2023

भारत की एकता की भाषा है हिंदी



भाषा सिर्फ आदान-प्रदान का साधन नहीं है, बल्कि वह प्रयोक्ता समाज की अस्मिता है। भाषा के अभाव में तो हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। भाषा ही वह माध्यम है जिसके कारण हम समाज से जुड़ते हैं। हिंदी भाषा ने आज अपना स्वरूप ऐसा बनाया है कि उसे सबको स्वीकारना ही पड़ा। ‘वह एक कोने की खड़ीबोली नहीं है। वह पुरइन के खड़े पत्ते की तरह से पूरे सरोवर में छा जाने वाली भाषा बन गई है।’ (विद्यानिवास मिश्र, साहित्य के सरोकार पृ.154)। भाषा व्यवहार में एकरूपी या समरूपी नहीं होती। भाषा की यह विविधता उसकी सजीवता का लक्षण है। इसी सजीवता का प्रयोग करके रचनाकार अपनी रचना में रंग लाता है।

ध्यान देने की बात है कि हिंदी की शक्ति उसकी जनपदीय भाषाएँ हैं। इनसे हिंदी निरंतर समृद्ध होती रहती है। हिंदी को सींखचों में जकड़कर रखना संभव नहीं है। शुद्धतावादी सिद्धांत काम नहीं करेगा। ‘भाषा की प्रवाहमयता की कीमत चुकाकर शुद्धता की बात’ सोचना मूर्खता है (विद्यानिवास मिश्र)। ऐसी शुद्धता किस काम की जिसमें न कोई प्रवाह है और न ही संप्रेषण। हिंदी में वह शक्ति निहित है जिसके कारण वह अन्य भाषाओं के शब्दों को आत्मसात करती चलती है। इससे हिंदी की अस्मिता विस्तृत होती जा रही है। इतना ही नहीं, हिंदी में वह शक्ति है जो एक भाषा को दूसरी भाषा से और एक प्रांत को दूसरी प्रांत से जोड़ती है। हिंदी की एक सीमा में राजस्थान और पंजाब है तो दूसरी सीमा में बिहार। राजस्थान से बिहार तक के लोग अपने घरों में राजस्थानी, ब्रज, बुन्देली, अवधी, भोजपुरी, मैथिली, मगही आदि क्षेत्रीय भाषाएँ बोलते हैं, लेकिन व्यापक रूप से इनकी मातृभाषा हिंदी है। इन सबकी सामाजिक भाषा हिंदी है। शिक्षा से लेकर कामकाज तक हिंदी में ही होता है। यही विलक्षण बात है।

हिंदी एक ऐसी भाषा है जिसे आसानी से सब समझ सकते हैं। मिथिला का कोई आदमी पंजाब जाए तो उसे पंजाबी समझने में दिक्कत हो सकती है और इसी प्रकार गुजरात का कोई आदमी असम जाए, तो असमिया समझने में दिक्कत हो सकती है और असम के लोगों को गुजराती समझने में, लेकिन हिंदी से काम चला सकते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है, जहाँ उद्योग फैलता है, वहाँ अलग भाषा समुदाय के लोग आकर बस जाते हैं। इन सबके बीच व्यवहार की भाषा हिंदी बन सकती है। इसीलिए महात्मा गांधी ने भी हिंदी को अपनाने पर बल दिया था। यह एक ऐसी भाषा है जो दूसरी भाषाओं को भी साथ लेकर चलती है। इसीलिए आजादी से पहले हिंदी को अंतःप्रांतीय संपर्क के लिए प्रयोग करने की बात भी आई। अनेक नेताओं ने इसका समर्थन भी किया। उनमें वे नेता प्रमुख थे, जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं बल्कि बांग्ला थी। ‘हिंदी भारत की एकता की भाषा’ (रामधारी सिंह 'दिनकर') है। यह इस बात से भी प्रमाणित हो जाता है कि भारत में एक भाषा का साहित्य दूसरी भाषा में अनुवाद के माध्यम से आसानी से पहुँच रहा है और यह काम सबसे ज्यादा हिंदी के माध्यम से हो रहा है।

हिंदी प्रचार-प्रसार आंदोलन का अपना एक महत्व है। यह स्वतंत्रता आंदोलन का ही एक प्रमुख अंग रहा। उस समय महात्मा गांधी ने यह महसूस किया कि जब तक देश के सभी नागरिक एक नहीं होंगे, आपस में संप्रेषण स्थापित नहीं करेंगे तथा समाज में व्याप्त विसंगतियों को दूर नहीं करेंगे तब तक आजादी की लड़ाई सफल नहीं हो सकती। समाज की विसंगतियों को दूर करने के लिए उन्होंने अहिंसा और सत्याग्रह का रास्ता अपनाया तो आम जनता के बीच संप्रेषण स्थापित करने के लिए एक ऐसी भाषा को सीखने पर बल दिया जिसे सब आसानी से समझ सकते हैं और बोल सकते हैं। यह भाषा संपूर्ण हिंदुस्तान की भाषा है – ‘हिंदी’। उन्होंने हिंदी का आंदोलन प्रारंभ किया। वस्तुतः वे हिंदी के माध्यम से देशवासियों के बीच सांप्रदायिक सौहार्द कायम करना चाहते थे। गांधी जी से काफी लोग प्रभावित हुए। परिणामस्वरूप हिंदीतर क्षेत्रों में लाखों लोगों ने हिंदी सीखकर हिंदी का परचम फहराया। “हिंदी प्रचार का काम देशभक्ति का ही काम है। हिंदी को हम इसलिए ऊपर उठा रहे हैं कि उसके साथ सभी भाषाओं का उत्थान हो। हिंदी एक प्रतीक है। असल में हमारा उद्देश्य सभी भाषाओं को ऊपर उठाना है, जिससे यह पूरा देश अपनी भाषाओं में सोच सके और सारी मनुष्य-जाति के लिए भारत की परंपरा में जो संदेश निहित है, उसे अपनी भाषाओं में उछाल सके।” (रामधारी सिंह 'दिनकर', संस्कृति, भाषा और राष्ट्र, पृ. 200)।

पड़ने लगती है पीयूष की शिर पर धारा।
हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा।
बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती।
कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती।
आते ही मुख पर अति सुखद जिसका पावन नाम ही।
इक्कीस कोटि-जन-पूजिता हिन्दी भाषा है वही। (अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’)

मधुकरी के कवि : नरेश मेहता


वहन करो
ओ मन! वहन करो,
सहन करो पीड़ा!!

सृष्टिप्रिया पीड़ा है
कल्पवृक्ष–
दान समझ, शीश झुका

स्वीकारो–
ओ मन करपात्री! मधुकरि स्वीकारो!!
वहन करो, सहन करो,
ओ मन! वरण करो पीड़ा!!

ये पंक्तियाँ मधुकरी के कवि नरेश मेहता के अवचेतन को अंकित करने में सक्षम हैं। नरेश मेहता की कविताओं में इस बिंब को अनेक स्तरों पर देखा जा सकता है। वे परंपरा और आधुनिकता को एक साथ लेकर चलने वाले कवि हैं। वे एक सजग प्रयोगशील सर्जक के रूप में अपने आपको प्रतिष्ठित कर चुके थे। करुणाशंकर उपाध्याय का कहना है कि “नरेश ने काव्य के क्षेत्र में ‘दूसरा सप्तक’ से लेकर ‘मेरा समर्पित एकांत’ तक की यात्रा की है तो उपन्यास में ‘प्रथम फाल्गुन’ से लेकर ‘वह नदी यशस्वी है’ के किनारे तक जा पहुँचा है।” (आधुनिक कविता का पुनर्पाठ, पृ.175)। इस यात्रा के दौरान नरेश मेहता कहानियों और नाटकों से भी गुजरे।

‘बनपाखी सुनो’, ‘बोलने दो चीड़ को’ में संकलित कविताओं में कवि मन प्रकृति के निकट दिखाई देता है। प्राकृतिक सौंदर्य के अनेक उपमान उनकी कविताओं में देखे जा सकते हैं। ‘बाँसों के अनंत वृक्षों वाले/ उस अरण्य में’ कवि अपने आपको एक अनाम वानीर-वृक्ष घोषित करता है। उनकी कविताओं में जहाँ पीले फूल कनेर के दिखाई देते हैं वहीं दूसरी ओर नीलम वंशी से कुंकुम के स्वर गूँज उठते हैं। वसुधा मंत्रोच्चार से वासंती रथ का आह्वान करती है तो अमराई में दमयंती-सी पीली पूनम काँप उठती है। शॉल-सा कंधों पर पड़ा फाल्गुन चैत्र-सा तपने लगता है तो बैलों की घंटियाँ बोलने लगती हैं। पिघलते हिमवानों के बीच दूब का वर्ण खिल उठता है, इंद्रलोक की सीमा केसर के जल से सिंचित हो उठतीहै। उदयाचल से किरन-धेनुओं को हाँकता हुआ प्रभात का ग्वाला दीखता है। उनकी कविताओं में वैश्वानरी-गंध, गायत्री छंद, सावित्रियों के अरण्य-रास, औषधियों का आचमन, हिरण्यगर्भ, आकाशगंगा, पराब्रह्माण्ड, महापिण्ड आदि अनेक दार्शनिक एवं मिथकीय बिंबों को भी देखा जा सकता है। वे वस्तुतः प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से मनुष्य को गतिशील होने की प्रेरणा देते हैं।

मनुष्यता की रक्षा कवि नरेश मेहता का परम कर्तव्य है। वे हर व्यक्ति के भीतर के क्रंदन को लिपिबद्ध करना चाहते हैं। कमल किशोर गाइन्का से बात करते हुए उन्होंने कहा कि “विज्ञान और राजनीति ने मनुष्य को अकेला छोड़ दिया है। आज मनुष्य की जगह उत्पादन को ‘रिफाइंड’ करने की चेष्टा की जा रही है। इस तथाकथित आधुनिकता ने मनुष्य को न तो उदात्त बनाया है और न आनंद प्रदान किया है।” (मेरे साक्षात्कार, पृ. 173)। वे यही मानते थे कि सभी मानवीय दुखों का मूल कारण भ्रष्ट राज्य व्यवस्था है – “मानवीय उदात्तताओं और करुणा के प्रतीक/ धर्म के प्रतिपालक नहीं हो सकते।”

प्रतीक्षा करो पुनः मनुष्य होने की : नरेश मेहता

सामने वाला यदि आवेग में
पशु हो गया हो
तो विवेक के रहते
प्रतीक्षा करो
उसके पुनः मनुष्‍य होने की

यह विचार नरेश मेहता का है। वे पीड़ित और शोषित मानव के बारे में सोचते थे। महलों में रहने वालों से उनके कवि का नाता नहीं। वे अपनी अनुभूतियों और अनुभवों के विस्तृत फलक को अपनी कृतियों में अंकित करते हैं। उनकी रचनाओं में मानवता के प्रति प्रेम और जीवन की वास्तविकताओं को देखा जा सकता है। उनके अनुसार ‘विवेकहीनता मनुष्य को पशु बना देता है’। विवेकशून्यता व्‍यक्‍ति के भीतर विचारशून्‍यता का अंधा कारागार निर्मित कर देती है। विडंबना है कि ‘व्‍यवस्‍था का मुकुट धारण करते ही किसी भी व्‍यक्‍ति का मनुष्‍यत्‍व नष्‍ट हो जाता है’।

नरेश मेहता मानवीय गुणों को महत्व देने वाले रचनाकार थे। वे इस बात पर बल देते थे कि इतिहास मानवीय उदात्‍तता से लिखा जाना चाहिए, न कि खड़ग से। उन्होंने ‘प्रवाद पर्व’ में कहा है कि ‘मानवीय स्वातंत्र्य/ मानवीय भाषा और/ मानवीय अभिव्‍यक्‍ति के/ प्रतिइतिहास का सामना/ वैसे ही/ मानवीय प्रतिगरिमा के साथ/ करना होगा, लक्ष्‍मण!/ प्रतिइतिहास को इतिहास से नहीं/ विनय से स्‍वीकारना होगा।’ यदि कहें कि नरेश मेहता मानववादी रचनाकार हैं तो गलत नहीं होगा। वे ‘प्रतिबद्धता’ शब्द को महज एक नारेबाजी के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि प्रतिबद्धता एक राजनैतिक शब्द है। अतः वे इस शब्द से जुड़ने के लिए तैयार ही नहीं थे। डॉ. कमल किशोर गोयनका से बात करते समय उन्होंने इस बात की पुष्टि की कि “मनुष्य की नियति यही है कि वह मनुष्यता और मिट्टी के आकर्षण में बँधा रहे। पृथ्वी और उस पर रहने वाला हमारा मानवीय समाज हमारी नियति है, अतः उसके लिए ‘प्रतिबद्धता’ जैसी एकांगी नारेबाजी की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं किसी भी कीमत पर ‘प्रतिबद्धता’ शब्द से जुड़ने को तैयार नहीं हूँ।” (नरेश मेहता, मेरे साक्षात्कार, पृ. 173)।

हम नरेश मेहता के कवि रूप से भली भाँति परिचित हैं। उनके गद्यकार रूप के बारे में प्रायः बहुत कम चर्चा होती है। जिस प्रकार कवि के रूप में वे सफल हुए, उसी प्रकार गद्यकार के रूप में भी वे सफल थे। वे लेखन को अनभिव्यक्त आइसबर्ग की टिप मानते हैं जो हमें दिखाई देती है। उनकी मान्यता है कि “जीवन की अनुभूति या अनुभवों के अतल जल के अंधकार में गहरे पैठे आइसबर्ग का वह विशाल वास्तविक स्वत्व हम कभी नहीं देख पाते हैं जो उस टिप को निरभ्र व्यक्त किए होता है। निश्चित ही वह टिप नहीं बल्कि ठंडे, अगम जलों में डूबा पसरा हिमखंड ही आइसबर्ग का वास्तविक सृजनात्मक स्वत्व है।” (नरेश मेहता, हम अनिकेतन, पृ.9)। सृजनात्मक क्षमता मनुष्य के भीतर जल में डूबा हुआ वह हिमखंड है जो दिखाई नहीं देता। उसे व्यक्त होने के लिए सही वातावरण चाहिए। ‘जीवन से अनाविल रूप में निबद्ध यह सृजनात्मकता’ ही नरेश मेहता के लेखे जीवन है जिसे धारण करना मनुष्य की नियति है, और भोगना प्रकृति। लेकिन जीवन की सृजनात्मक सत्ता या स्वरूप को ‘पूर्ण रूप’ से अभिव्यक्त करना असंभव है। सृजन और लेखन के बीच निहित सूक्ष्म अंतर को स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं कि “जीवन की अनभिव्यक्त तथा अकथनीय सत्ता या स्वरूप, सृजन है। सृजन अनभिव्यक्त सत्ता है। लेखन, सृजन का संलाप रूप है। इसलिए सृजन को नहीं बल्कि लेखन को भाषा, अभिव्यक्ति, श्रोता, देश और काल सभी कुछ चाहिए होता है।” (वही, पृ.28)।

मनुष्य का जीवन अनुभव आधारित है। अनुभव देश-काल-वातावरण से परे होता है। वह तो बस घटित होता है। “वह तो एक निपात की भाँति केवल घटित होना जानता है। वह न तो सांसारिक है, न किसी प्रकार का निषेध।” (वही, पृ.25)। नरेश मेहता साहित्य को अपनी दृष्टि से समझना चाहते थे और अपना एक अलग पथ निर्मित करना चाहते थे। उनका जीवन संघर्षमय रहा। अतः वे जीवन के मूल्य को पहचानते थे। उनकी रचनाओं से गुजरते समय इस बात को महसूस किया जा सकता है।